Sunday, December 20, 2009

जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा…।

मेरा भी अजीब दिमाग है छोटी-छोटी बातों को पकाने के लिए बैठ जाती हूं। कई दिनों से इस उधेड़-बुन में लगी हूं कि क्या पति-पत्नी एक साथ रह कर स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को समाज में व्यक्त नही कर सकते? क्या उनके विचार अलग-अलग होने का मतलब उनके आपस में अच्छे सम्बन्ध का नही होना बताता है? जरूरत के हिसाब से किसको कहाँ होना चाहिए, किसे कौन सी जिम्मेदारी निभानी है, इसका निर्णय मिल बैठकर कर लिया जाता है और पति-पत्नी में कोई विवाद नहीं पैदा होता, तो क्या यह खराब बात मानी जाएगी? दूसरों को यह तय करने की जरूरत ही क्यों पड़ती है कि घर की महिला और पुरुष में कौन अधिक स्वतंत्र है। क्या नारी की स्वतंत्रता तभी मानी जायेगी जब वह बात-बात पर पति का विरोध करती रहे?

मै पूछती हूँ कि पूरी तरह स्वतंत्र रहने का इतना ही शौक है तो नर-नारी वैवाहिक सूत्र में बंधते ही क्यों हैं?

archives 094

शादी करना किसी की भी मजबूरी नही होती। न ही शादी कर लेने से किसी कि स्वतंत्रता में बाधा उत्पन्न होती है। शादी का मतलब ही यही होता है कि इस समाज को एक स्वस्थ माहौल देना। एक सामाजिक अनुशासन और सुव्यवस्था के लिए यह बहुत जरूरी है। मुझे तो लगता है कि शादी के बाद हमारी स्वतंत्रता बढ़ जाती है। व्यक्ति मानसिक रूप से और भी मजबूत हो जाता है। एक नारी को प्रकृति ने जो जिम्मेदारियाँ दी हैं उनका निर्वाह शादी के बगैर कैसे हो सकता है? शादी और परिवार के अनुभव से उसके निर्णय लेने की क्षमता और बढ़ जाती है। उसको गलत और सही का भान अच्छी तरह हो जाता है।

इलाहाबाद में हुए ब्लॉगर सम्मेल्लन में नामवर सिंह जी का यह वक्तव्य मुझे बहुत अच्छा लगा था कि ब्लॉगरी में  हम कुछ भी लिखने पढ़ने को स्वतंत्र है लेकिन इसके साथ एक जिम्मेद्दारी भी है कि हम क्या लिख रहे हैं। हमें स्वतंत्र होना चाहिए मगर स्वछन्द नही होना चाहिए कि जो मन में आया लिख दिया। ब्लॉगरी भी एक जिम्मेद्दारी है। इसी प्रकार हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से किसी भी क्षेत्र में भाग नहीं सकते।

क्या आप जानते है कि हर एक व्यक्ति को चाहे नर हो या नारी ईश्वर ने कितनी बड़ी जिम्मेद्दारी सौपी है? प्रत्येक नर-नारी का यह कर्तव्य बनता है कि वह इस देश और समाज को एक सच्चा इंसान दे। अगर हम यह प्रण कर ले कि हमें स्वयं के रूप में और अपने बच्चों के रूप में इस समाज को एक अच्छा और सच्चा नागरिक प्रदान करना है तो इससे बड़ी जिम्मेद्दारी और क्या होगी?

इसलिए मै कहूंगी कि एक स्त्री जो घर के अंदर रहती है जिसे हम गृहिणी कहते है वह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रही है। उसके जिम्मे समाज ही नही बल्कि पूरे देश की नींव ही टिकी है अगर वही मजबूत नही होगी तो देश का क्या होगा? घर के कुशल संचालन और बच्चों की उचित परवरिश का काम समाज और राष्ट्र के निर्माण की पहली शर्त है।

इसलिए आप सबसे मेरा  विनम्र निवेदन है कि आप एक स्त्री के कार्यों के महत्व को समझे और उसका सम्मान करें। जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा हमें लगता है कि उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा। 

(रचना त्रिपाठी)

Monday, November 2, 2009

संतोषी भला कि महत्वाकांक्षी...?

 

बचपन से यह सुनते आते हैं कि संतोष का फल मीठा होता है। अपने मन को हमेशा संतोष करने लिए तैयार करना चाहिए। बड़े-बुजुर्ग यही सिखाते रहे। लेकिन मुझे लगता है कि किसी के भीतर यदि इस आत्म संतोष की अधिकता है तो इसका अर्थ है अपने आप को एक बीमारी की दावत देना।

प्राय: लोग एक-दूसरे को समझाते रहते है कि आप जितने में हो संतुष्ट रहो। संतोष ही जीवन का सबसे बड़ा सुख है।

गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान।

जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान॥

भला आप ही बतायें जरा....। यदि यूँ संतोष करके हर आदमी बैठ जाय तब तो विकास करने की बात हो चुकी? मेरा तो मानना है कि हर इंसान के अंदर कुछ न कुछ पाने की चाहत होनी ही चाहिए। उसकी नयी सोच उसके जीवन की अभिलाषा को बढ़ाने और उसे पूरा करने वाली होनी चाहिए।

आज दुनिया कहां से कहां पहुँच गयी है? क्या यह उसके संतोष का फल है? नहीं, सब कुछ संतोष कर लेने से नहीं बल्कि कुछ नया पा लेने की अधीरता ने ही हमें वह सब कुछ दिया है जिसे देख हमारी पीढ़ी को पहली बार आश्चर्य होता है।

अब एक नवजात शिशु को ही ले लिजिए। ज्यों-ज्यों उसकी भूख बढ़ती है वह हाथ-पैर मारना, रोना-चिल्लाना शुरु कर देता है। इससे उसका शारीरिक और मानसिक दोनों ही विकास होता है। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि उस बच्चे के अंदर संतोष नही होता कि वह चुप-चाप बैठ जाये। अगर बच्चा पालने में संतोष कर के बैठ जाता कि - मुझे कुछ नहीं करना है, मेरी माँ मुझे दूध पिला ही देती है तो मुझे क्या जरुरत है रोने और चिल्लाने की- तो शायद वह अपाहिज हो जाता!

हर इंसान के अंदर असंतोष का भाव होना चाहिए, यही असंतोष उसे उसके लक्ष्य की ओर धकेलता है।

आप किसी भी संतोषी व्यक्ति को देख लिजिए, उसके चेहेरे की निराशा और कब्जियत भरी मुस्कान ही बता देती है कि वह कितना खुश है!

इस तरह की संतोषी मुस्कान से तो अच्छा है चिल्लाते और चिघ्घाड़ते रहना। मन में महत्वाकांक्षा न हो, अधिक से अधिक सफल होने की कामना न हो, अर्जित करने कि लालसा न हो तो व्यक्ति कोई उद्यम क्यों करेगा? यही तो वह शक्ति है जो हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करती है।

मानवता के विकास की कहानी में जो भी मील के पत्थर गाड़े गये वे किसी संतोषी ने नहीं बल्कि किसी महत्वाकांक्षी व्यक्ति की ही देन हैं| जय असंतोष।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, September 14, 2009

ब‍उका की तो बन आयी...!

मेरे गाँव में एक लड़का था- ब‍उका। ‘ब‍उका’ मतलब अक्ल से कमजोर, मन्द बुद्धि और किस्मत का मारा। यह नाम उसे गाँव वालों ने उसकी दशा देखकर दे रखा था।

उसके पैदा होने के कुछ दिनो बाद ही उसकी माँ भगवान को प्यारी हो गयी थी। बच्चे को किसी तरह उसकी चाची-काकी ने शहद-चीनी चटाकर  जिला तो दिया लेकिन कोई उसकी माँ नही बन सकी। वह बचपन में अनाथ ही बना रहा।

image

हम देखते थे- गांव के एक कोने में पड़ी उसकी झोपड़ी, जिसमें झांकने पर एक-दो टिन के बर्तन, कलछी-पलटा, चिलम और एक-दो बोतलें ही दिखतीं। नहीं दिखता तो सिर्फ उस घर का वारिस- ब‍उका। जाने कहाँ-कहाँ  दिन भर घूमता रहता... कभी किसी के चौखट पर बैठा रोटियां मांगता, तो कभी किसी मालिक का पैर दबाता या फिर किसी के घर के बर्तन साफ करते हुए दिखता, सिर्फ एक रोटी के लिए ताकि उसके पेट की आग बुझ सके। हमें हैरत होती कि अपने घर का इकलौता वारिस ऐसा क्यों करता है? ऐसा भी नही कि वह घर का दरिद्र था। कुल पांच-छ: बीघे का अकेला मालिक था।

कम उम्र में ही पत्नी के मर जाने के बावजूद उसके बाप दुक्खी ने दूसरी शादी नही की थी। पुत्रमोह में आकर, गरीबी में या यूँ ही... पता नहीं। उसकी नज़र में दूसरी माँ शायद उसके बेटे को वह प्यार नहीं देती, जो उसको अपनी माँ से मिलता। दुक्खी अपने कबाड़ के धंधे में गाँव-गाँव की फेरी लगाने सुबह सबेरे ही निकल जाता तो रात को नशे में गिरते-पड़ते दरवाजे पर आकर बच्चे को सौ-सौ गालियाँ देता। सुबह जब वो होश में आता तो अपने बच्चे का हाल-चाल दूसरे लोगों से जान लेता। धीरे-धीरे बेटा बड़ा होने लगा, और उसकी जरूरतें भी बढ़ती गयी। अच्छी परवरिश के अभाव में उसका व्यक्तित्व अविकसित सा रह गया।

वह जिसको देखता उसके सामने हाथ फैला देता। लोंगो से बात करने में अटकता था, डरने भी लगा, कुछ पूछने पर कम बोलता आवाज भी साफ नही निकलती। सब लोग उसे ‘ब‍उका’ कहने लगे।

ब‍उका को कभी याद भी नही होगा कि कब उसने नये कपड़े पहने होंगे। गांव के लोग ही उसे अधनंगा देखते तो फटा पुराना दे देते, उसी से उसका काम चल जाता। गाँव के बच्चे उसके साथ दुर्व्यवहार करते। झगड़े में जाने कितने कटने के निशान उसके हाथ-पैर और चेहरे पर पड़े रहते। जब कभी खून निकल जाता तो वह उसपर मिट्टी डालकर सुखा देता। उसको कभी किसी दवा की जरूरत नही पड़ी। जाने कितनी बार तो उसे कुत्ते ने काट लिया होगा लेकिन उसे कभी कोई इन्जेक्शन नही लगा।

मैंने अपनी आँखों से कभी दुक्खी को उसकी मलहम-पट्टी करते नही देखा। एक दिन तो वह बाप के डर से  अपने चाचा के छत पर सो गया, रात में न जाने कब नीचे गिर गया था और अन्धेरे में सुबकियां लेता रहा था। जब सुबह हो गयी तब लोंगो को यह बात पता चली।

जाको राखे साइयां मार सके न कोई...

दुक्खी तो गांजा और शराब पीकर अपनी जान का दुश्मन बन गया। आखिर में वही हुआ... दुक्खी मर गया। लेकिन मैने देखा बऊका की आँख में आंसू के नाम पर एक बूंद पानी तक नहीं था।

चूँकि उसके नाम कुछ बीघा जमीन थी इस नाते गांव वालो ने उसकी शादी एक गरीब लड़की से करा दी। इस लड़की के भी मां-बाप नही थे। घर में दुल्हन के आते ही बऊका ने रोज नहाना और टिप-टाप से रहना शुरू कर दिया। उसके घर में भी रोज चूल्हा जलना शुरू हो गया। उसने खुद भी कबाड़ का धंधा अपना लिया।

वह दिन पर दिन अपने घर को सवाँरने में लगा रहता... लेकिन उसकी बीबी को रोज-रोज एक बात सालती रहती थी कि आखिर उसके पति को लोग ‘ब‍उका’ कहकर क्यों बुलाते है? वह उसकी उधेड़-बुन में लग गयी और इस बात की जड़ तक जा पहुंची। उसे पता चल गया कि उसकी मां ने तो पैदा होते ही उसका नाम ओमप्रकाश रखा था लेकिन हालात के थपेड़ों ने उसे बऊका बना दिया। उसकी पत्नी ने इसका विरोध करना शूरू किया जब भी कोई उसे बऊका कह कर बुलाता तो वह उसे समझाती कि इनका नाम बऊका नही है, इनका नाम ओमप्रकाश है। आइंदा कोई इन्हें बऊका कह कर नही बुलाएगा।

image

जब गांव में लोगो को इस बात का पता चला तो लोग मौज लेने के लिए उसे जानबूझ कर बऊका कहते। उसकी पत्नी पहले समझाती, फिर चिल्लाती और उसपर भी लोग नही मानते तो गालियाँ देती। गाली खाने के डर से लोगो को यह सम्बोधन छोड़ना ही पड़ा।

आज जब भी कोई उसके दरवाजे पर जाता है तो उसे ओमप्रकाश कहकर ही बुलाता है। अब वह बऊका से ओमप्रकाश हो गया है। लोग बताते हैं कि महीने में दस से पंद्रह हजार तक कमा लेता है। जब भी बेटियों को कहीं जाना होता है तो अपने हाथों से उन्हें नये-नये कपड़े पहनाता है। खुद तो अनपढ़ रह गया लेकिन अपनो बच्चों को स्कूल जरूर भेजता है। बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता जरूर करता है बच्चे स्वस्थ रहे इसके लिए अपने दरवाजे पर दूध देने वाली गाय भी पाल रखा है। बच्चों से जो दूध बच जाता उसे बेच कर उसकी बीबी घरेलू खर्च के लिए कुछ पैसे बना लेती है।

उसे पाँच बेटियां हो चुकी हैं और एक बेटा भी है। गांव के जिस कोने में निकल जाइए वहाँ ओमप्रकाश की एक बेटी जरूर दिखायी देती है। हाल ही में मुलाकात होने पर मैने उसकी पत्नी को नसबंदी कराने की सलाह दी तो उसने कहा कि एक बेटा और हो जाये तब। मैने नाराजगी दिखाते हुए कहा कि अगर फिर बेटी हो गयी तो क्या करोगी ?

उसने बहुत हँस कर जवाब दिया, “दीदी, अभी मैं दो बेटियों की परवरिश और कर सकती हूँ।”

मुझे उसकी यह बात सुनकर थोड़ी देर के लिए बहुत बुरा लगा लेकिन जब मैं ओमप्रकाश को अपनी बेटियों को फ्रॉक पहनाते और तैयार करते देखती तो बहुत खुशी भी होती कि घर में एक स्त्री के होने से उसकी जिंदगी बदल गयी। ओमप्रकाश को देखकर मुझे यह कहावत याद आ जाती है-

बिन घरनी घरनी घर भूत का डेरा।

 (रचना त्रिपाठी)

Friday, August 28, 2009

कौन सा दिन सुहाना है...? रविवार...???

सप्ताह में रविवार सबसे सुहाना होता है यह मेरा नही गणितज्ञों का मानना है। क्या आपने कभी विचार किया है कि यह दिन इतना सुहाना क्यों होता  है?

सप्ताह में ६ दिन काम करने के बाद रविवार की छुट्टी का इंतजार पूरी दुनिया करती है।

जहाँ तक रही गणितज्ञों की बात उनके विचार से मै भी सहमत हूँ जिन्होंने २० लाख ४० हजार ब्लॉगों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला है  कि रविवार सप्ताह का सबसे खुशनुमा दिन होता है। एक समाचार एजेन्सी के अनुसार वेरमोन्ट विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में यह सामने आया है कि रविवार हर किसी का पसंदीदा दिन है जबकि बुधवार सबसे खराब।

गृहकार्य दक्ष लेकिन क्या आप ने उन कामकाजी महिलाओं के बारे में सोचा है जो सप्ताह के बाकी दिन दफ्तर में, और छुट्टी के दिन घर के बीच  अलग प्रकार का जीवन व्यतीत करती हैं। उनके लिए तो रविवार अतिरिक्त व्यस्तता का दिन होता है।

मैने किसी ब्लॉग पर शोध नही किया है, बल्कि अपने दायें-बायें, आस-पास,  बिल्कुल पड़ोस की बात कर रही हूँ। मेरे सामने वाले घर में एक महिला ऑफिसर रहती हैं। इन्हें एक साल का बेटा भी है। मेरे ठीक बगल वाले मकान में एक और महिला ऑफिसर रहती हैं जिनकी  करीब १० साल की एक बिटिया  है। जैसा कि मै रोज इनको आते-जाते देखती रहती हूँ इसलिए इनकी व्यस्तता का भी अंदाजा लगा सकती हूँ।

दोनों महिलाएं जिनमें एक आई.ए.एस. प्रोबेशनर और दूसरी एक पी.सी.एस. अधिकारी है उनकी दिनचर्या और कार्यशैली देखकर मेरे अंदर आश्चर्य का भाव पैदा हो जाता है। चूँकि एक अच्छी पड़ोसन का धर्म निभाते हुए मेरा इनके घर के भीतर आना जाना है इसलिए प्रायः इनकी सामान्य गतिविधियों की मुझे जानकारी रहती है।

आई.ए.एस. महिला प्रोबेशनर जो आंध्र प्रदेश की रहने वाली है और इनके पति स्वयं सीविल इन्जीनियर हैं एक अच्छी फेमिली से जुड़ी हुई है, मगर सर्विस में उत्तर प्रदेश कैडर मिलते ही वह अपनी बेटी को साथ-साथ लेकर ट्रेनिंग भी करती है। उनका यह कठिन परिश्रम देखकर मै तो दंग रह जाती हूँ। 

एक दिन मुझसे नही रहा गया। मै इनसे पूछ बैठी ...कैसे करती है आप यह सब अकेले? उन्होंने कहा, “...मत पूछो, ...मेरी ड्युटी तो सुबह के साढ़े चार बजे से लेकर रात को बारह बजे तक रहती है।” मैने उनको सलाह दिया जबतक आप ट्रेनिंग में हैं तबतक बेटी को उसके पापा के पास ही छोड़ देती। उन्होंने जवाब दिया, “नही... पुरूष यह काम अच्छे से नही कर सकता। रही बात महिलाओं की तो महिलाए हर तरह से सक्षम है। वह कुछ भी कर सकती है।” ...पुरूष के अंदर इतना धैर्य कहां?

मुझे भी यह बात सही लगी। अगर २४ घंटे के लिए बच्चों को उनके पापा के हवाले छोड़ दिया जाय तो इनकी हालत देखने लायक होती है। अगले दिन पता चलेगा ऑफिस से छुट्टी लेकर घर बैठ जाएंगे।

भारतीय गृहिणीजो महिला एस.डी.एम हैं उन्हें घर के काम का भी अच्छा अनुभव रहा है और इसमें रुचि भी लेती हैं। एक दिन मैं उनसे भी पूछ बैठी, “आप बतायें ...घर के काम और दफ्तर के काम में क्या अंतर है?”

उन्होंने जवाब दिया, “घर का काम बहुत कठिन है...।”

“मैं तो यही समझती थी कि घर का काम आसान होता है... आप लोग कितना मेहनत करते हैं, इतनी कड़ी धूप में बाहर का काम तो और भी कठिन हो जाता होगा।” मैने कहा था।

उन्होंने बड़ी तेजी से सिर हिलाते हुए कहा- “ना ना ना ना... घर का काम बहुत कठिन है। दिमाग भी लगाओ और मेहनत भी... तब भी घर का काम समाप्त नही होता।”

इसके पहले इसी कॉलोनी में बिल्कुल नयी उम्र की एक कुँआरी लड़की भी ट्रेनी ऑफिसर बनकर आयी थी। कितनी खुशमिजाज दिखती रही वह... उसके चेहरे पर किसी तरह की चिन्ता की लकीरे नही दिखाई देती। चेहरे से खुशी टपकी पड़ती थी। यह तेजतर्रार लड़की पहले उसी घर मे रहती थी जिसमें आजकल एक बेटी वाली आईएस महिला रहती है।

एक दिन वह अपने पुराने घर को देखने और उनसे मिलने चली आयी। संयोगवश मै भी पहुँच गयी थी। बहुत खुश लग रही थी। उसके चेहरे की मुस्कान साफ साफ बता रही थी कि उसको अब किसका इंतजार है? लेकिन बात-बात में विवाहिता अधिकारी ने उसे बताया कि अभी जितने मजे कर सकती हो कर लो... शादी के बाद तो यह मुस्कान गुम ही हो जाएगी। यह सुनकर मेरा माथा घूम गया।

किरन वेदी अपने पति के साथ आखिर ऐसा क्यों कहा उन्होंने? यह बात मेरे जैसी एक आम गृहिणी करती तो शायद मुझे भी यह वही घिसा-पिटा रिकार्ड लगता। लेकिन एक सक्षम, योग्य और सम्पन्न महिला अधिकारी के मुँह से ऐसा सुनकर मैं आज एक उधेड़बुन मे लगी हूँ।

स्त्री अपने कैरियर की सीढ़ी में चाहे जितनी ऊँचाइयाँ छू ले, लेकिन जब घर-परिवार को सजाने सँवारने और बच्चों के जन्म से लेकर उनकी  देखभाल करने का प्रश्न खड़ा होता है तो उसकी जिम्मेदारी बाँटने वाला कोई नहीं होता है। शायद इसीलिए वैवाहिक विज्ञापनों में लड़की के बायोडाटा में ‘गृहकार्य दक्ष’ लिखना अनिवार्य सा लगता है।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, August 20, 2009

चम्पा आई रे...!

maid-servant आज मैं बहुत खुश हूँ। मालूम है क्यों?

इसलिए नहीं कि किचेन में व्यस्त हूँ बल्कि इसलिए कि आज मेरी चम्पा आ रही है। अब आप पूछेंगे चम्पा कौन है?

अरे!.. वही जिसके रहने से मेरी आँखों में खुशियां हमेशा बरकरार रहती है। जिसके चले जाने से मुझे ब्लॉग देखे कई सप्ताह बीत गये हैं। आजकल मुझे अपने बीतते समय का पता ही नहीं चल रहा है। मेरे लिए दिन और रात दोनों एक ही समान हो गये है। कब आराम करना है और कब काम करना है, यह निश्चित ही नहीं हो पा रहा है। मुझे अब पता चला है कि मेरे घर में खुशियों के पीछे चम्पा की भूमिका कितनी है?

एक दिन भी अगर मुझे घर में अकेले रहना पड़ जाता है तो घर मुझे काटने को दौड़ता है। असल में मेरी ससुराल एक संयुक्त परिवार में है। अपने पति और बेटी-बेटे के अलावा घर में कुल तीन जोड़ी सास-ससुर, दो जोड़ी जेठ-जेठानी एक देवरानी, पाँच देवर (चार कुँआरे), व छ: भतीजे हैं। तीन ननदें भी हैं और इनसे छः भान्जे-भान्जियाँ। इन सबके बीच रह कर जो मजा मुझे आता है उसका वर्णन कठिन है। शायद आप आसानी से इसका अंदाजा भी नही लगा सकते। अब तो श्रीमानजी की सरकारी नौकरी के कारण मुझे अपने भरे पूरे घर को छोड़कर बाहर रहना पड़ता है। यह सारी चहल-पहल घर से दूर रह कर मैं बहुत मिस करती हूँ, लेकिन इस बात कि खुशी है कि मेरे पास घर के लोगों का बराबर आना-जाना लगा रहता है। घर से दूर होने के बावजूद उन लोगों का प्यार बना रहता है।

आजकल संगम नगरी में होने की वजह से सास-ससुर के अलावा गाँव में रहने वाले दूसरे लोगों की सेवा के अवसर भी मिलते रहते है। इलाहाबाद तीर्थ-स्थल तो है ही, साथ ही शिक्षा के लिए भी यह पूर्वी उत्तर प्रदेश का सर्वोत्तम शहर माना जाता है। इस शहर में कंपटीशन की तैयारी करने वाले हमारे अपने नाते-रिश्तेदार भी बहुत है इसलिए मुझे जब भी किसी चीज की जरूरत होती मै इन्हें बुला लिया करती हूँ। यह तो रही ससुराल वालों की उपस्थिति, लेकिन मायके का सुख भी यदा-कदा मिलता रहता है। पापा, मम्मी, छोटा भाई, भैया, दोनो भाभियाँ और भतीजे यहाँ-वहाँ मिलते ही रहते हैं। कुल मिलाकर अपनों के सानिध्य का सुख मिलता ही रहता है। लेकिन पिछले पन्द्रह दिनों से इस सुख में खलल पड़ गया है। इसकी वजह वही चम्पा है जो पहाड़ पर अपने गाँव चली गयी है। मैं इस समय सारा ध्यान किचेन की साफ-सफाई और पाक-कला में लगा रही हूँ।

जब मेरी चम्पा रहती है तो मुझे कुछ अलग तरह की खुशी होती है। तन को सुख और मन को शांति मिलती है, दिल को करार आता है। अपने बच्चे प्यारे लगने लगते है। पति महोदय पर भी कुछ ज्यादा प्यार आता है। घर की खुशियों में चार-चाँद लग जाता है। सब कुछ कूल-कूल लगता है। लेकिन जब वो नहीं है तो मेरी दुनिया ही सिमट गयी है...।

बहुत दिनों से ये कह रहे हैं चलो तुम्हें  पिक्चर दिखा लाऊँ। सिविल लाइन्स चलकर सॉफ़्टी कॉर्नर की आइसक्रीम खिला लाऊँ। अब तो ‘कमीने’ भी लग गयी है और ‘लव आजकल”  भी। बच्चों को कृष्ण जन्माष्टमी की झाँकी भी दिखानी थी, लेकिन यह सब कुछ नहीं हो सका, क्योंकि मैं किचेन में काफी व्यस्त हूँ।

आज मेरा भी मन हो रहा है बिग बाजार, मैक्डॉवेल्स और सिनेप्लेक्स जाने का, पिक्चर देखने और मौज-मस्ती से इश्क लड़ाने का...! मालूम है क्यों ? क्योंकि मेरी चम्पा आ रही है। अरे वही चम्पा जिसे हमने किचेन सम्हालने के लिए काम पर लगा रखा है। हमारी मेड-कम-कूक। बस इससे ज्यादा और कुछ नहीं। केवल सुबह-शाम एक-दो घण्टे के लिए आती है, लेकिन वो है बड़े काम की। जब तक उसने ‘ब्रेक’ नहीं लिया था तबतक मुझे इसका अन्दाजा भी नहीं था।

कोई भी व्यक्ति छोटा हो या बड़ा, सबका अपना एक अलग महत्व होता है। घर में बच्चा हो या बड़ा, सबका एक अपना व्यक्तित्व होता है। हर व्यक्ति के अंदर कुछ न कुछ खास बात जरूर होती है। कौन इंसान   किसके लिए कितना महत्वपूर्ण है, यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।

आज मुझे भी इस बात एहसास हुआ कि चम्पा जो चंद पैसों  के लिए हमारे घर में काम करती है उसका होना भी हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है।

(रचना त्रिपाठी)

Sunday, July 19, 2009

घरघुसना कहीं का, जब देखो तब अपनी बीबी का मुँह देखता रहता है...

परिवार को चलाने के लिए माँ-बाप घर के अंदर एक आचार संहिता और कुछ नियम-कानून बनाते हैं। वे यह उम्मीद भी करते हैं कि परिवार में रहने वाले सभी छोटे-बड़े इस नियम कानून के भीतर रहकर ही संबधों का निर्वाह करें।

सास-बहू लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि यही माता-पिता अपने बेटे से कुछ अलग और दामाद से कुछ अलग तरीके का व्यवहार पसंद करते हैं। माता-पिता जब अपनी बेटी के विवाह के लिये वर ढूँढते हैं तो वे अपने दामाद में कुछ खास गुणों की अपेक्षा जरूर करते हैं। लड़का नौकरी-शुदा हो ताकि मेरी बेटी को कभी किसी वस्तु के लिये किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। …लड़का ऐसा होना चाहिए जो मेरी बेटी की हर तकलीफ को अपनी तक़लीफ समझे। मेरी बेटी की खुशियों में ही उसे खुशी मिले। माता-पिता के लिए ऐसा दामाद आदर्श होता है। अगर उनको मनचाहा दामाद मिल जाता है तो वह उसकी प्रशंसा कुछ इस प्रकार करते है:-

मेरा दामाद कितना अच्छा है जो मेरी बेटी के हर काम में हाथ बँटाता है। जब वह खाना बनाती है तो किचेन में उसकी मदद करता है। …कपड़े धुलती है तो वह कपड़ों को बाहर फैला देता है। …मेरी बेटी से पूछे बिना कोई काम नही करता। जरूर मैने पिछले जनम में कोई पुण्य किए होंगे तभी मुझे इतना सुयोग्य दामाद मिला है। हम तो धन्य हो गये उसे पाकर।

लेकिन जब वही माँ-बाप अपने बेटे के लिए बहू ढूँढते हैं तो उससे उनकी उम्मीदें कुछ इस प्रकार होती है:

लड़की पढ़ी-लिखी, सुशील और गुणवन्ती होनी चाहिए जो घर को अच्छी तरह सम्हाल सके, सास-श्वसुर की सेवा करे, उनकी आज्ञा का पालन करे वगैरह-वगैरह…। लेकिन अगर इनका बेटा बिल्कुल इनके पसन्दीदा दामाद की तरह अपनी पत्नी पर कुछ अधिक ध्यान देने लगता है तो इनका नज़रिया अपने बेटे के लिए ही बदल जाता है। अगर वह अपनी पत्नी के साथ किचेन में हाथ बँटा रहा है तो ‘जोरू का गुलाम’ कहलाने लगता है। अगर उसे अपनी पत्नी की परेशानी से तकलीफ होने लगे और वह उसे दूर करने के लिए कुछ उपाय करे तो उसे कुछ इस तरह कहा जाता है- “घरघुसना कहीं का, जब देखो तब अपनी बीबी का मुँह देखता रहता है। ...इतनी तपस्या से पाल-पोस कर बड़ा किया लेकिन बहू के आते ही हाथ से निकल गया।” अपने आप को कोसते हैं- ‘न जाने पिछले जन्म में कौन सा कर्म किया था जो हमें यह दिन देखने को मिल रहा है।’

इसी प्रकार अधिकांशत: ऐसा देखा जाता है कि माँ-बाप का नजरिया बेटी के लिए कुछ और बहू के लिए कुछ और ही होता है। यह मेरे विचार से सरासर गलत है। आपका क्या ख़याल है?

(रचना त्रिपाठी)

Friday, July 10, 2009

चींटी की खटिया खड़ी, टिड्डा करता मौज... कहानी में ट्विस्ट है...!

हिन्दी भारत समूह से आने वाला एक सन्देश मिला। प्रेषक थे श्री भगवान दास त्यागी जी। इस अंग्रेजी सन्देश में The Ant and the Grasshopper नामक कहानी को आधार बनाकर भारतीय राजनैतिक समाज की एक विडम्बना को दर्शाया गया है। मुझे यह आख्यान अच्छा और सच्चा लगा। मैने यहाँ इसका भावानुवाद करने की कोशिश की है। आदरणीय त्यागी जी से क्षमा याचना के साथ मैने इसमें कुछ नयी बातें जोड़ भी दी हैं।

कथा – १

चींटी और टिड्डा एक थी चींटी और एक था टिड्डा। गर्मियों का मौसम था।  तेज गर्मी व कड़ी धूप में भी चींटी मेहनत करती, अपना घर बनाती और जाड़े के लिये भोजन जमा करती।

टिड्डा सोचता कि चींटी बेवकूफ है। वह हँसता, नाचता सारी गर्मी मजे से खेलकर-कूदकर बिता देता।

जाड़े का मौसम आया। कड़ी ठण्ड में चींटी अपने सुरक्षित घर की गर्माहट में रहकर पहले से जमा किया हुआ भोजन का आनन्द लेती हुई सुख चैन से रहती। टिड्डे के पास न भोजन था और न ही सिर छिपाने की जगह। वह खुले आकाश के नीचे ठ्ण्ड से ठिठुरता रहा और अन्ततः मर गया।

निष्कर्ष: परिश्रम का फल मीठा होता है

कथा – २

एक थी चींटी और एक था टिड्डा। गर्मियों का मौसम था।  तेज गर्मी व कड़ी धूप में भी चींटी मेहनत करती, अपना घर बनाती और जाड़े के लिये भोजन जमा करती।

टिड्डा सोचता कि चींटी बेवकूफ है। वह हँसता, नाचता सारी गर्मी मजे से खेलकर-कूदकर बिता देता। जाड़े का मौसम आया। कड़ी ठण्ड में चींटी अपने सुरक्षित घर की गर्माहट में रहते हुये पहले से जमा किया हुआ भोजन का आनन्द लेती हुई सुख चैन से रहती। टिड्डे के पास न भोजन था और न ही सिर छिपाने की जगह।

ठण्ड से काँपते टिड्डे ने एक प्रेस कान्फ़रेन्स बुलाई। मास मीडिया के समक्ष इस बात की जाँच कराने की माँग उठा दिया कि आखिर चींटी को क्यों गर्म घर में रहने और पर्याप्त भोजन की व्यवस्था उपलब्ध है जब कि उसके जैसे दूसरे जीव ठण्ड से ठिठुर रहे हैं और भूखों मर रहे हैं।

आपतक, ऐण्टीटीवी, एबीसी, सीएमएन, हण्डिया टीवी,  और दूसरे तमाम चैनल ठ्ण्ड से काँपते ठिठुरते टिड्डे की तस्वीरें दिखाने लगते हैं। वही बगल के फ्रेम में आरामदेह और प्रचुर भोजन से लदी मेज के साथ चींटी का वीडियो प्रसारित हो रहा है। दुनिया इस विरोधाभास को देखकर आहत है। बेचारा गरीब टिड्डा इतने कष्ट में जीने को मजबूर है? उफ़्फ़्‌ ये कैसी विडम्बना है? उसके प्रति संवेदना की लहर दौड़ जाती है।

चींटी और टिड्डा (२) चींटी के घर के सामने अन्धमति राय एक जोरदार प्रदर्शन आयोजित करती हैं।

बाधा डालेकर अन्य बहुत से टिड्डों को इकठ्ठा करके उनके साथ अनशन पर बैठ जाती हैं। उनकी माँग है कि जाड़े के मौसम में सभी टिड्डों का गर्म जलवायु के स्थान पर पुनर्वास करवाया जाय।

मायाजटी बयान देती हैं कि यह गरीब अल्पसंख्यकों व दलित टिड्डों के साथ घोर अन्याय है। मनुवादी चींटियों द्वारा किए गये अन्याय के विरुद्ध टिड्डासमाज को एकजुट रहने का नारा देती हैं।

एम-नास्टी(aim-nasty) इण्टरनेशनल, संयुक्तराष्ट्र संघ(UN- unnecessary nuiscence) , यूनीसेफ़, वर्डबैंक (bird bank) और दूसरी मानवाधिकारवादी संस्थाओं द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध बयान जारी किए जाते हैं। एक अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टमण्डल भारत की यात्रा पर आता है। विपक्षी सांसदों ने संसद की कार्यवाही से वाकआउट कर दिया है। वामपन्थी दलों ने मामले की न्यायिक जाँच की माँग करते हुये ‘बंगाल बन्द’ और ‘केरल बन्द’ का अह्वाहन किया। केरल में सीपीएम की सरकार ने कानून बनाकर चीटियों को गर्मी में कड़ी मेहनत करने पर पाबन्दी लगा दी जिससे चींटियों और टिड्डों में ‘गरीबी की समानता’ (equality of poverty)  लायी जा सके।

‘आलू पर स्वाद जादो’ सभी रेलगाडियों में टिड्डों के लिए निःशुल्क कोच जोड़े जाने की मांग करते है। ‘कम था एलर्जी’ दबाव के आगे झुकते हुए संसद में इस फैसले की घोषणा करती हैं कि सभी गाड़ियों में एक स्पेशल टिड्डा कोच जोड़ने के साथ ही विशेष गाड़ी भी चलायी जाएगी जिसका नाम “टिड्डा रथ”  होगा।

अन्ततः सरकार द्वारा एक न्यायिक जाँच समिति गठित की जाती है जो आनन-फानन में ‘टिड्डा विरोधी आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटागा)’ का एक प्रारूप तैयार करती है जो संसद द्वारा ध्वनिमत से पारित होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षरोपरान्त कानून बनकर जाड़ा प्रारम्भ होने से पूर्व ही लागू कर दिया जाता है।

राष्ट्र के शिक्षा मन्त्री ‘कपि से अव्वल’ ने शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में विशेष टिड्डा आरक्षण की घोषणा कर दी है।

पोटागा के प्राविधानों का उल्लंघन करने के आरोप में चींटी गिरफ़्तार कर ली गयी है। उसपर लगे आरोप सिद्ध हो जाने के फलस्वरुप अर्थदण्ड लगा दिया गया है। अपने अपकृत्य के लिए जुर्माना अदा न कर पाने पर चींटी का घर सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाता है तथा उसे गरीब बेसहारा टिड्डों को आबंटित कर दिया जाता है। इस गृह वितरण समारोह के सीधे प्रसारण के लिए देश और विदेश के न्यूज चैनल जमा होते हैं।

अन्धमति राय इसे न्याय की जीत बताती हैं। आलू पर स्वाद जादो इसे समाजवाद की जीत बताते हैं। सीपीएम सरकार इसे ‘गिरे हुओं के क्रान्तिकारी उदभव’ की संज्ञा देती है।

उस क्रान्तिकारी टिड्डे को संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया उसका सीधा प्रसारण करता है। नाटो देशों के राष्ट्राध्यक्ष धनदोहन सिंह की पीठ थपथपाते हैं:

बहुत वर्षों बाद-

चींटी ने अमेरिका प्रवास करके वहाँ सिलिकॉन घाटी में अरबों डालर की कम्पनी स्थापित कर ली है। दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल होने लगी है। जब कि भारत में सैकड़ों टिड्डे आरक्षण के बावजूद भूख से आज भी मर रहे हैं।

कड़ी मेहनत करने वाली असंख्य चींटियों के देश छोड़कर बाहर चले जाने तथा मूढ़, आलसी व अकर्मण्य  टिड्डों को सरकारी खर्च पर पालने-पोसने के परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था प्रतिगामी होती गयी है जिससे विकसित देशों का पिछलग्गू भारत आज भी एक विकासशील देश बना हुआ है।

निष्कर्ष: परिश्रम का फल अपने देश में नीचा देखना होता है।

(निवेदन: यदि यहाँ किसी कॉपी राइट का उल्लंघन निहित हो तो कृपया सूचित करें। इसे सहर्ष हटा लिया जाएगा।)

रचना त्रिपाठी

Monday, July 6, 2009

कानून की मदद करना मूर्खता है…।

चलती ट्रेन में सामान चोरी चले जाने की घटना सुनी तो बहुत थी। मेरे श्रीमान्‌ जी मुझे बार-बार सावधान रहने की हिदायत भी दिया करते थे। कभी जनरल या स्लीपर क्लास में यात्रा नहीं करने देते। हमेशा अपने साथ ही ले जाते और ले आते। लेकिन इस बार भाग्य का लिखा कुछ और ही था। image

सारी हिदायतों का अक्षरशः पालन करते हुए मैने यात्रा प्रारम्भ की थी। चेन स्नैचर्स से बचने के लिए गले में दुपट्टा लपेट कर रखा। हैण्डपर्स में सारा कीमती सामान नहीं रखा। स्टेशन पहुँचने से पहले ही टिकट ऊपर निकालकर पर्स को बड़े वाले एयरबैग के भीतर डाल दिया, नगदी और जेवर को अलग-अलग स्थान पर रख दिया और चेन बन्द करके छोटा ताला जड़ दिया। बोगी में पहुँचते ही अपनी बर्थ के नीचे लगे कड़ों से एयरबैग को बाँध दिया। इस प्रकार इलाहाबाद से पापा के घर तक की यात्रा पूरी तरह सुरक्षित रही। लेकिन वापसी यात्रा में गड़बड़ हो ही गयी।

जाते समय जो उपहार आदि मैं ले गयी थी वो तो वापसी में कम हो गये लेकिन मायके से भतीजे के मुण्डन में जो कुछ मिला वह कुछ ज्यादा ही था। कुछ कपड़ों के डिब्बे एयरबैग से बाहर ही रखने पड़े थे। एक झोले में तीन-चार गिफ़्ट पैक डालकर अलग से लटका लिया था। डिब्बे झोले से बाहर झाँक रहे थे। एयरबैग भी कुछ ज्यादा ही कस गया था। फिर भी मैने अपना हैण्डबैग यत्नपूर्वक उसी एयरबैग में डालकर चेन बन्द कर लिया था। बाकी सबकुछ वैसे ही किया था जैसे इधर से जाते हुए। लेकिन जब बनारस के आगे मोबाइल की रिंग सुनकर मेरी आँखें खुलीं और इनकी गुडमॉर्निंग का जवाब देने के बाद मैंने बेटे के बिस्कुट के लिए नीचे से एयरबैग खींचा तो आवाक्‌ रह गयी। किसी सिद्धहस्त चोर ने बड़ी सफाई से एयर बैग की चेन के बगल में बैग का कपड़ा काटकर भीतर रखा हैण्डबैग निकाल लिया था।

यह देखकर मेरे होश उड़ गये। अकेले यात्रा कर लेने का आत्मविश्वास मुझे ले डूबा। मैने कोच कंडक्टर को ढूँढा तो वह बगल के कोच में खर्राटे लेते पाया गया। कोच अटेण्डेण्ट भी कहीं सो रहा था। आरपीएफ और जीआरपी के जवानों का कोई पता नहीं था। मैने शोर मचाया तो एक-एक करके सब इकठ्ठा हो गये। सबने मुझे ढाढस बँधाया। अपनी-अपनी कहानी सुनाने लगे। लेकिन चोर तो अपना काम करके जा चुका था। सबने यही कहा कि अब उसे पकड़ पाना नामुमकिन है।

मुझे भी इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी। फिर भी मैने इलाहाबाद उतरकर जीआरपी थाने में एफ़आईआर कराया। थानेदार ने पहले ही रिजल्ट सुना दिया। कुछ उम्मीद नहीं है। इसे मैं भली भाँति जानती थी, क्योंकि इस विभाग ने रंगे हाथ पकड़े गये चोर के साथ भी जब कुछ नहीं किया तो आँख से ओझल चोर का क्या बिगाड़ लेंगे। जी हाँ, मेरे साथ यह दूसरी दुर्घटना है। पहली बार मैने उस चोरनी को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया था।

अबसे छः साल पहले इसी ट्रेन से मैं बनारस कैण्ट स्टेशन पर सुबह साढ़े चार बजे अपने पति और ढाई साल की पुत्री के साथ उतरी थी। श्रीमान जी बड़ा एयरबैग टाँगे आगे-आगे बढ़े जा रहे थे। मैं एक कन्धे पर सो रही बेटी को लादे और दूसरे कन्धें में अपना बैग लटकाए पीछे-पीछे चल रही थी। निकासद्वार के ठीक पहले मुझे कुछ खुरखुराहट की आवाज सुनायी दी जैसे कोई कागज फट रहा हो। मैने अपने बैग की ऊपरी जेब को टटोला तो चैन खुली हुई थी। अन्दर हाथ डाला तो सौ-सौ के नोट गायब थे। मैने एक झटके में पास से हल्का धक्का देकर गुजरी हुई महिला को धर दबोचा। उसकी कलाई मेरे हाथ में थी। मैने उसे जोर से दबाया। उस शातिर जेबकतरी ने अपने हाथ में रखे नोट जमीन पर गिरा दिए। मैने गेट पर खड़े टिकट कलेक्टर से सहायता मांगी लेकिन उसके कान पर जूँ नहीं रेंग रही थी। मैने जोर की आवाज लगाकर इन्हें बुलाया जो गेट पार करके ऑटो तलाश रहे थे। इनके वापस आने तक मैने उसका हाथ नहीं छोड़ा। उसके गिराये नोट मैने पैर से दबा लिए थे।

इन्होंने वापस आकर उसको पकड़ा, मैने बेटी को सम्हाला, बैग की ऊपरी जेब चेक किया। वहीं रखे नोट जमीन पर गिरे थे। करीब पचास की उम्र पार कर चुकी उस मोटी औरत के हाथ में एक प्लास्टिक का खाली झोला भर था। कोई अन्य सामान नहीं था। झोले में झाँक कर देखा गया तो पाँच-छः नोट और मिले। यानि वह पहले भी एक-दो शिकार निपटा चुकी थी।

हम लोगों ने टीटीआई और वहाँ तैनात सिपाही के हवाले करने की कोशिश की तो उन्होंने पल्ला झाड़ दिया। बोले- आप इसे जीआरपी थाने ले जाइए। हमने उसकी उम्र और मनोदशा देखकर उसपर हाथ उठाना उचित नहीं समझा। बेटी के साथ अपना सामान ढोते हुए हम इस महिला का हाथ पकड़कर थाने ले जाने लगे। उसने गिड़गिड़ाने का अभिनय किया। अपनी साड़ी उठाकर जाँघ पर हुए बड़े से घाव को दिखाने लगी। हम नहीं माने तो उसने चलते-चलते ही प्लेटफ़ॉर्म पर टट्टी कर दी। घिन्न और बदबू से हमारी हिम्मत जवाब दे गयी। लेकिन तबतक थाना आ गया था।

थाने पर उपस्थित इन्स्पेक्टर मुस्कराते रहे। वह घाघ चोरनी भी संयत भाव से बैठी रही। वहाँ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का बड़ा सा बोर्ड लगा था। जिसपर लिखी गयी हिदायतों का लब्बो-लुआब यह था कि किसी व्यक्ति को केवल कोर्ट ही दोषी पाये जाने पर दण्ड दे सकता है। अन्य कोई भी व्यक्ति किसी मुजरिम को कष्ट पहुँचाने वाला व्यवहार नहीं कर सकता है। यानि उस महिला के मानवाधिकारों की रक्षा का पूरा प्रबन्ध था वहाँ।

बस हमारे अधिकार के बारे में पूछने वाला कोई नहीं था

। जबकि जेब हमारी काटी गयी थी। हमारे लिए तो दरोगा जी ने बार-बार यही समझाने की कोशिश किया कि एफ़आईआर में बहुत लफ़ड़ा है। पूरी घटना की तहरीर दीजिए। गवाह लाइए। और सबूत के तौर पर इन चोरी गये रुपयों को सीलबन्द लिफ़ाफे में जमा कराइए। इन सबके बाद यदि दो सौ रुपये चुराने का दोष सिद्ध हो गया तो इसे कुछ दिनों की ही सजा हो पाएगी।

इतनी टेढ़ी खीर होने के बावजूद हमने निर्णय लिया कि इसके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराएंगे ही। इसके बाद की ना-नुकुर मिटाने के लिए इन्हें अपने सरकारी अधिकारी होने का परिचय भी देना पड़ा। आखिर रिपोर्ट लिख ली गयी। हम अपने कर्तव्य की पूर्ति का भाव लिए वापस आ गये।

लेकिन आज सोच रही हूँ कि इस बार की चोरी में यदि चोर पकड़ा गया होता तो मैं रिपोर्ट दर्ज कराने की मूर्खता करती क्या? क्या मैं अपना हैण्डबैग सारे सामान सहित सीलबन्द कराकर पुलिस के हवाले कर पाती? जिन दो सौ रुपयों को मैने कानून को अपना काम करने देने के लिए त्याग दिये थे वे मुझे तबसे अभी वापस नहीं मिले। अभी तक मुकदमें की सुनवायी होने की कोई नोटिस ही नहीं मिली। तो फिर मैं इस बार कानून की मदद कैसे करती?

इस अनुभव के कारण यही सोच रही हूँ कि चलो अच्छा हुआ, वह चोर पकड़ा नहीं गया। नहीं तो एक कर्तव्यपरायण नागरिक होने के नाते मुझे फिर चोरी गया सामान सबूत के तौर पर पुलिस के हवाले करना पड़ता। और तब भी शायद इतना ही कष्ट होता।

आज मेरा मन इस उधेड़ बुन में लगा हुआ है। आखिर वह कौन था जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर कर दिया। आज मुझे ठीक-ठीक पता चल गया । शायद यह भी एक मानसिक हलचल है जो रेलवे से शुरू होती है और ब्लॉगजगत पर छाना चाहती है।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, June 22, 2009

घर में लगा कम्प्यूटर... क्या नीचे क्या ऊपर?

टूटी-फूटी शुरू करने के बाद एक सज्जन ने मेरे मेल पर सन्देश भेंजा कि उनको कम्प्यूटर के बारे में सरल भाषा में जानकारियाँ चाहिए जो उनके स्कूल में बच्चों के काम आ सके। कम्प्यूटर का ज्ञान देने के लिए उनको मुझसे बेहतर शायद और कोई नही दिखा। ऐसा उनकी पारखी नज़र के धोखे के कारण ही हुआ हो तो भी मुझे बहुत खुशी हुई यह जानकर कि किसी ने तो मुझे पहचाना।

मैने चटसे जवाब भेंज दिया, “भाई साहब, सबसे पहले तो आपको बहुत-बहुत धन्यवाद, जो आपने मुझे इस लायक समझा।”

अपने वादे के मुताबिक मैं कम्प्यूटर के बारे में अपने महान ज्ञान को यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। जिस लायक समझा जाय उस रूप में प्रयोग की छूट है।एक ही रुटीन

कम्प्यूटर से हमें ढेर सारी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं, जो हमें देश-दुनिया के बारे में बताता है। इससे हमें अनेक प्रकार के रंग-बिरंगें ब्लॉग पढ़ने को मिलते है।

कम्प्यूटर से हमें भिन्न-भिन्न प्रकार के लाभ मिलते हैं :-

१. जब हमारे घर में कम्प्यूटर होता है तो हमें बाहर घूमने जाने का मन नही होता जिससे पतिदेव तो प्रसन्न रहते हैं मगर बच्चे नाखुश।

२. घर में कम्प्यूटर के आ जाने से पतिदेव हर वक्त प्रसन्न दिखते हैं। भले ही आफिस से आने के बाद उन्हें चाय नाश्ते के लिये ना पूछो उन्हें कोई गिला नही होता। हाँ, अगर उन्हें अचानक याद आ भी गया कि मुझे आज चाय नही मिली है, तो उन्हें समझाया जा सकता है- यह कहकर कि “अरे!..अभी-अभी तो चाय पिलाये थे, भूल गये क्या?” इसपर वे इस बात को सहर्ष स्वीकार लेते हैं।

३. घर में कम्प्यूटर की वजह से टीवी का एक भी सीरियल डिस्टर्ब नहीं होता है। पतिदेव कम्प्यूटर पर और बीबी टीवी के पास, बच्चे भी मौज कर रहे होते हैं।

४. पतिदेव को कभी अपनी पत्नी से यह शिकायत का मौका नही मिलता कि “तुम मुझे समय नही देती हो।”

५. अगर पड़ोसी से बात करते समय बच्चे डिस्टर्ब कर रहे हों, तो उ्न्हें भी कम्प्यूटर पर बिठा दो। फिर देखो, है ना सबकी मस्ती!

कम्प्यूटर से थोड़े नुकसान भी उठाने पड़ते हैं:

१.पतिदेव के कम्प्यूटर पर देर तक बैठने से पेट का आकार गणेश जी का अनुसरण करता हुआ अन्ततः शिवजी के नन्दी बैल की बराबरी पर जाकर रुकता है।

२.कंप्यूटर पर देर तक बैठने से और भी तरह-तरह की शारीरिक बिमारियाँ दावत देने लगती है जिससे कम्प्यूटर पर बैठना भी दूभर हो जाता है।

३.यदि यहाँ एक बार ब्लॉगरी का चस्का लग गया तो इतनी व्यस्तता हो जाती है कि पीछे से एक बार की कही बात सुनायी ही नहीं देती है।…हाँ, अगर सुनायी दे भी गयी तो अचानक इतना जोर से जवाब मिलता है कि अगर कोई कमजोर दिल की गृहणी हो तो सीधा राम-नाम सत्य…।

४.अब बच्चों का क्या कहें? जब हम लोग छोटे थे तो कोई मेहमान आने वाला होता था, सबसे पहले तैयार होकर उसके आने का बेसब्री से इंतजार करते और बड़े उत्साह से स्वागत करते थे। लेकिन आज कल के बच्चे, इस कंम्प्यूटर के चक्कर में मेहमान कब आये और कब गये इनको पता ही नही चलता। अगर कोई बच्चों से मिलने की इच्छा जताता है तो इन्हें बड़े आग्रह के साथ बुलाना पड़ता है। तब भी इनका चेहरा ऐसे लटक जाता है जैसे मेहमान ने इनका सबसे प्रिय खिलौना तोड़ दिया हो, और यह एक ‘नमस्ते’ का डंडा मारकर चले जाते हैं।

क्रमश:

रचना त्रिपाठी

Tuesday, June 16, 2009

एक भिखारन को सरकारी सम्मान...!?!

आपने श्रीमती रागिनी शुक्ला की लिखी दो कहानियाँ दुलारी और कर्ज शीर्षक से सत्यार्थमित्र पर पढ़ी और सराही हैं। रागिनी दीदी की लिखी एक और मार्मिक कहानी यहाँ प्रस्तुत है। यह कहानी भी एक वास्तविक पात्र के दुखड़े को सच-सच बयान करती है:

हत्‌भाग्य

दादी के यहाँ आज सुबह से ही चहल-पहल थी। मुहल्ले में सभी उन्हें दादी ही तो कहते थे। यूँ तो वे यहाँ अब अकेले ही रहती थीं, लेकिन आज घर में बहू-बेटे से लेकर नाती-पोते तक सभी आए हुए थे और दादी को सजा-सवाँर कर तैयार करने में जुटे थे। दादी परिवार के सदस्यों का नया रूप और व्यवहार देखकर चकित थीं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है?

बहूरानी दादी को नई, सफेद, स्वच्छ चाँदनी सी चमकती हुई साड़ी पहनाने लगी। महीनों से उलझे बालों को जल्दी-जल्दी सुलझाने का प्रयास करती। इतने में उसका बेटा दादी के पैरों में मोजे पहनाने लगा, बड़ी पोती ने अपनी नई चप्पल लाकर पहना दिया। उनके बेटे ने अपनी नई पैंट-शर्ट चढ़ा ली थी। किराये का टैंपो भी आकर दरवाजे पर खड़ा हो गया। दादी को खिला-पिला कर चलने को तैयार किया गया।

आखिरकार दादी ने पूछ ही लिया, “हमें जाना कहाँ है?”

बहू बड़े प्यार से बोल उठी, “अम्माजी आप जानती नहीं हैं, आज १५ अगस्त है। कलेक्टर साहब ने आपको सम्मानित करने के लिए बुलाया हैं। …इस गाँव-शहर में जितने भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं या उनके परिवार में कोई बुजुर्ग हैं, उन लोगो को बुलाया गया है। आज सबका सम्मान किया जाएगा।”

“सम्मान!” यह शब्द तो दादी का साथ कबका छोड़ चुका था।

टैम्पो में बैठते हुए दादी की आँखों में अपना अतीत नाच उठा। बर्षों पहले गुजर चुके दादाजी की याद ही बची है अब। देश में आजादी की लड़ाई अपने अन्तिम दौर में थी। देश को आजाद कराने के लिये वे महीनों घर नही आते थे। कभी अचानक रात के अंधेरे में आते और मुँह-अंधेरे ही निकल जाते। उनके पास ढेरों पैतृक सम्पत्ति व जगह-जमीन होने के बावजूद उन्होंने अपने घर को सुखी बनाने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।

दादी अकेले घर में बैठी उनकी राह देखती, लेकिन भारत माँ आजाद नहीं थी इसलिए दादा जी को घर की ओर देखने की फुरसत नहीं थी। देश आजाद होने से पहले ही वे भारत माता के चरणों में शहीद हो गये। उनके गुजरने के बाद विधवा का जीवन एकाकी हो गया। उस अकेलेपन को दूर करने के लिए दादी ने अपने भाई के बेटे को गोद लिया। उसकी बुआ से बुआ-माँ बन गयीं।

दादी ने बड़े ही प्यार से अपने भतीजे को दत्तक पुत्र बनाकर उसका पालन-पोषण किया। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पत्नी होने के नाते जो पेंशन मिलती थी उन पैसों से बेटे की हर फरमाइश पूरी करतीं। अपने सुखद भविष्य की आशा लिये उन्होंने उस बेटे को बड़ा किया। जिस तरह माली अपने पौधों को इस उम्मीद में सींचता है कि उनमें फूल आये तो उसे देखकर मन खुश हो जाये, घर-आँगन में रौनक आ जाए और चारों तरफ हरियाली और सुख का एहसास हो, दादी ने उसी उम्मीद में अपने बेटे को बड़ा किया।

लेकिन बेटे ने बड़ा होते ही अपने रंग दिखाने शुरू कर दिये। सबसे पहले महीने मे जो पेंशन मिलती थी उसकी पासबुक उसने अपने हाथ में ले ली और हर महीने माँ से अंगूठा लगवाकर पैसे उड़ा लेता। जमीन-जायदाद की देख-भाल करना तो दूर उसे बेचने के लिए उसने माँ को मारना पीटना भी शुरू कर दिया। माँ ने हमेशा उसे समझाने की कोशिश की लेकिन बेटे को मुफ़्त के पैसे उड़ाने की आदत पड़ गयी थी।

बूढ़ी माँ ने सोचा कि अगर बेटे की शादी हो जाए और कन्धे पर परिवार की जिम्मेदारी आ जाए तो यह शायद सुधर जाए। उन्होंने रिश्तेदारों से कह-सुनकर उसकी शादी तय कर दी। बड़े ही अरमान से अपने बेटे को सजाकर, दुल्हा बनाकर बारात भेंजा। नई बहू का उत्सुकता और उत्साह से इंतजार करने लगी। उन्होंने अपनी बहू के लिए दरवाजे से लेकर अंदर तक पियरी (पीले रंग में रंगी हुई धोती) बिछायी, ताकी बहू के पैर जमीन पर न पड़े। उन्हें लगा शायद बहू बेटे को सम्भाल ले जायेगी, लेकिन किसे पता था वह उससे भी चार कदम आगे निकल जाएगी। बूढ़ी माँ का सहारा बनना तो दूर, उसने माँ का घर मे रहना भी मुश्किल कर दिया।

जिस भारत माँ को आजाद कराने के लिए एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उसी की पत्नी आज अपने ही घर में आजाद नहीं थी। अब जमीन-जायदाद ज्यादा तेजी से बिकने शुरू हो गये और माँ ने जब-जब उसका विरोध किया, तब-तब उसे बेटे-बहू से मार खानी पड़ी। बूढ़ी दादी अब अपने ही घर में डरी-सहमी रहती। हार कर सब कुछ सहते रहना उन्होंने मन्जूर कर लिया था। जब-जब घर में बहू को बच्चे होते या दूसरा कोई कार्यक्रम होता दादी अपना सब दुख भूलकर ‘सोहर’ या ‘संझा-पराती’ गाना नहीं भूलती।

बेटे ने एक-एक करके जब यहाँ की सारी जमीनें बेच दी तो उसे अपने पैतृक गाँव की याद आने लगी और वह अपने भाई बंधुओं के साथ रहने का निर्णय लेकर चला गया। बेचारी बुढ़िया दर-दर भटकते हुए भिक्षा मांगकर अपना जीवन चलाने पर मजबूर हो गयी। बेटे-बहू ने जाते-जाते बूढ़ी माँ का घर तक बेच दिया। जब वह उनके साथ रहने के लिए मायके गयी तो उसे बार-बार एहसास दिलाया गया कि यहाँ तुम्हारा कुछ भी नहीं है। बेचारी वहाँ से लौट आयी थी। अपने पति के बिक चुके मकान के एक कोने में रहने लगी।

आज दादी जहाँ भी जाती उसके दुख से सब दुखी होते लेकिन उस बिगड़ैल बेटे से कोई नहीं पूछता कि उसकी बूढ़ी माँ दर-दर की ठोकर क्यों खा रही है? दिन भर तो वह घूम-घूम कर भिक्षा मांगती और शाम को यदि किसी के दरवाजे पर रूकती तो उसे वहाँ से जाने के लिए कह दिया जाता। सबको यह डर होता कि अगर वह मर गई तो कौन उसका क्रिया-कर्म करेगा?

लेकिन आज दादी को बेटे-बहू सुबह से ही बड़े प्यार से पुचकार रहे थे। बेटा तो महीने के अन्त में केवल एक बार उसकी पेंशन निकालने और उड़ाने के लिए आता था। आज महीने के बीच में ही सबको आया देखकर उसे हैरानी हो रही थी। आखिर ऐसा क्या होने वाला है आज? दादी इसी उधेड़-बुन में उलझी हुई थीं तभी टैपू की खड़खड़ बन्द हो गयी। बेटे ने बताया कि मन्जिल आ गयी है और उसने दादी की बाँह पकड़कर नीचे उतार लिया।

समारोह स्थल की भव्य सजावट देखकर दादी चकित रह गयीं। वहाँ कार्यक्रम की तैयारियाँ देख दादी फूली नही समा रहीं थीं। झक सफेद कपड़ों का बड़ा सा पाण्डाल लगा था। भारत माता के तिरंगे झण्डे चारो तरफ लहरा रहे थे। जिले के सभी बड़े अफसर और गणमान्य लोग जुटे हुए थे। जमीन पर लाल-हरी कालीन बिछी थी, लाल फोम की गद्दी लगे हुए सोफे पड़े थे, चारों तरफ खाकी वर्दी में पुलिस वाले खड़े थे। दादी को लगता सब उन्हें सलामी देने के लिए खड़े हैं। आज दादी बहुत प्रसन्न थीं।

कार्यक्रम पूरी भव्यता से प्रारम्भ हुआ। बुजुर्ग सेनानियों या उनकी विधवाओं में से एक-एक कर के सबको बुलाया गया। दादी की बारी भी आयी। कमर से झुक कर चलने वाली दादी कुछ सीधे चलने का प्रयास करती हुई मंच तक पहुँची। कलेक्टर साहब ने सम्मान स्वरूप पच्चीस सौ रूपये और एक शॉल भेंट करते हुए जब झुककर प्रणाम किया तो दादी के चेहरे पर गौरव का भाव चमक उठा। खुशी के आँसू छलक आए।

धीरे-धीरे समारोह समापन की ओर चल दिया। बेटे ने एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह माँ का हाथ पकड़कर टैम्पो में बिठा दिया और दादी वापस लौट पड़ीं। लेकिन यह क्या…? कुछ दूर चलने के बाद टैम्पो रोअक दिया गया। दादी को नीचे उतारा गया। टैम्पो का भाड़ा देने के लिए ‘सम्मान’ वाले पच्चीस सौ रूपये बेटे के हाथ में आ चुके थे। माँ को वहाँ से गाँव की ओर जा रहे एक ट्रैक्टर की ट्रॉली में बिठा दिया गया। बेटा उन रुपयों के साथ बाजार में गुम हो गया।

घर पहुँचने पर बहूरानी ने झटसे साड़ी उतरवा ली। व्यंग्य वाण चलाये जा रही थी- “क्यों माँ जी…! सम्हल कर नहीं बैठ पा रही थीं। …नई साड़ी में मिट्टी पोत आयीं।” पोती ने अपने चप्पल निकाल लिए और धोकर रखने लगी। पोते को अपने मोजे खराब लगने लगे। बेचारी बुढ़िया ने एक कोने में पड़ी कई जगह से फटी और गाँठ लगी धोती जमीन से उठकर पहना और घर के दूसरे कोने में जाकर टूटी चारपाई पर लेट गयी। अब उसकी ओर देखने वाला कोई नहीं था।

लेटे-लेटे उनकी आँखो में सम्मान समारोह का दृश्य नाच उठा। कितने बुजुर्ग सेनानी आए थे। काश वे भी उनमें एक होते। उनकी याद करते-करते आँख लग गयी…। किसी ने खाना खाने के लिए भी नहीं जगाया। सुबह होने पर घर वालों ने देखा कि दादी की चारपायी खाली है। उन्हें ढूँढने का प्रयास कम ही किया गया। उस दिन के बाद उन्हें किसी ने नहीं देखा…।

शायद सम्मान पाने के बाद वह ‘उनके’ पास चली गयी। उन्हें बताने…

-(श्रीमती) रागिनी शुक्ला

प्रस्तुति: रचना त्रिपाठी

Saturday, June 6, 2009

हरा ही हरा… पर गाय ने नहीं चरा !? :(

सत्यार्थ के मुण्डन के उद्देश्य से गाँव जाना हुआ। करीब दस दिनों के बाद घर वापस आकर देख रही हूँ कि आस-पास काफी कुछ बदल गया है।

मुण्डन नहीं कर्तन हुआ जी.. बेटे के सिर पर उग आयी फसल तो परम्परा के अनुसार कटवा- छँटवा कर ‘कोट माई’ के स्थान पर चढ़वा दिया। लेकिन इस अवधि में यहाँ घर के चारो तरफ खूब हरियाली उग आयी है- खर पतवार की। अवांछित घास-पात की बढ़वार से सब्जियाँ तो उसमें खो ही गयी हैं। घर के अंदर से लेकर बाहर तक और लॉन से लेकर किचेन गार्डेन तक हरा ही हरा दिख रहा है। जिस लॉन की हरियाली बनाये रखने के लिए मई के महीने में पानी दे-देकर मैं थक गयी थी, आज उसी लॉन में एक फिट लम्बी घास आ गयी है।

किचेन गार्डेन की हालत तो देखने लायक है। इसको गाय से बचाने के लिये महीनों पहले मेरे श्रीमान जी ने क्या-क्या जतन नहीं किए थे। गेट की सॉकल ठीक कराने के लिए लोक निर्माण विभाग को पत्र लिखा। नहीं बन सका तो उसे तार से बांधा, ईंट का ओट लगाया ताकि गेट को धकियाकर वह ‘शहरी बदमाश’ गाय अंदर न आ सके। लेकिन आज मन होता है कि गेट को खोलकर गाय-भैंसों को दावत दे दूँ। शायद मेरा काम थोड़ा हल्का ही कर जाँय। लेकिन अब तो गाय भी आने से रही। बाहर की सड़क पर ही अघा रही है।

फूलों में घास या घासों में फूल फूलों में घास या घासों में फूलमैं तुलसी तेरे आँगन की मैं तुलसी तेरे आँगन कीभिण्डी का सत्यानाशभिण्डी का सत्यानाश 

गाँव से लौटकर कितना काम बढ़ गया है मेरे जिम्में- घर की सफाई, खेती की निराई और इससे भी बड़ा मेरा ब्लॉग जो लम्बा अन्तराल ले चुका है। कैसे होगा ये सब? इसी में हफ़्तों से मेरे कई सीरियल भी छूट गये हैं। बेटी के ग्रीष्मावकाश का लम्बा होमवर्क भी पूरा कराना है। :(

ये कह रहे हैं, “बहुत कुछ गिना दिया जी… अब रहने भी दो…!”

“अच्छा रहने देती हूँ… ”

अरे वाह! बातों-बातों में मेरा एक काम तो पूरा ही हो गया। नहीं समझे…? अरे वही, ब्लॉग पोस्ट लिखने का…। ये दबाया मैने पब्लिश बटन…॥smile_regular

(रचना त्रिपाठी)

Sunday, May 24, 2009

मेरा नाम अन्हरी नही, रीता है...!

 

उस दिन मेरे गाँव में बड़ा अजीब वाकया हो गया था। एक गरीब के घर बारात आयी थी। अपनी क्षमता के अनुसार स्वागत सत्कार किया था उसने। दूल्हे को विवाह मण्डप में ले जाकर बिटिया का पाणिग्रहण करा दिया। दोनो कोहबर में गये। फिर एक विशेष रस्म करने के लिए दूल्हे को आंगन के मणवा में दुबारा बैठाया गया। दूल्हन घूँघट डालकर दुबारा आँगन में आयी, दुबारा सिन्दूरदान कराया गया। कम उम्र का दूल्हा सबकुछ करता गया। काम से निवृत्त होकर ‘जनवासे’ में गया। अपने अभिभावकों से दुबारा सिन्दूरदान का किस्सा बताया तो शक के बादल घिरने लगे। पूछताछ शुरू हुई।

मामला तूल पकड़ता देखकर गरीब पिता को रहस्य पर से पर्दा हटाना पड़ा। दरअसल रामवृक्ष की तीन बेटियाँ थीं। गीता, रीता और राधिका। उनमें सबसे बड़ी गीता का विवाह तय हुआ था। उसके पाणिग्रहण के बाद जब वह कोहबर में चली गयी तो परिवार वालों ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार दूसरी बेटी रीता जो बचपन में चेचक के प्रकोप से अन्धी हो गयी थी, उसे विवाह मण्डप में बैठाकर उसकी मांग में भी सिन्दूर डलवा दिया। यह सोचकर कि इस अन्धी से तो कोई शादी करने से रहा। बड़े दामाद के हाथों सिन्दूर का सौभाग्य पाकर शायद आजीवन अनब्याही कहलाने का कलंक मिट जाय।

गरीबी के भी खेल निराले हैं। लड़के वालों ने इस योजना को मानने से इन्कार कर दिया और गीता को विदा करा ले गये। रीता अपनी मांग के सिन्दूर के साथ मायके में ही रह गयी। तब उसकी उम्र कोई ग्यारह-बारह साल की ही रही होगी। बीड़ी बनाकर गुजारा करने वाले परिवार की रीता को सारा गाँव ‘अन्हरी’ (अन्धी) ही पुकारता था। उसे भी अपना यही नाम पता था।

मेरी और रीता की उम्र लगभग एक ही थी। मै जब भी गाँव में घूमने निकलती तो देखती कि वह अपने घर के चबूतरे पर बैठे या तो कुछ खाती रहती या आते-जाते लोगों की आहट सुनती रहती। उसके शरीर पर हजारों मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं मानो जैसे उसके आस-पास मिठाई का शीरा गिरा हो। मै घंटो उसके क्रिया-कलाप देखती रहती।

रीता धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके घर वाले दिन-प्रतिदिन उसकी चिन्ता में दुबले होते जा रहे थे। आये दिन उसकी माँ मेरे पापा के सामने आकर अपनी समस्या का समाधान पूछ्ती और घंटों रोती रहती। पापा उसको रोज एक ही बात समझाते कि उसे अंधों वाले स्कूल में डाल दो, पर उसकी माँ बार-बार पैसों का रोना रोती कि किसी तरह दो वक्त की रोटी मिल जाती है, यही बहुत है। …कहाँ से इतना पैसा लाउंगी।

पापा ने उसे समझाया कि उस स्कूल में सभी बच्चों के पढ़ाने का खर्च सरकार देती है। तुम्हें उसकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। बस तुम किराया जुटा लो। यह बात उसके भेजे में नही घुसती। इस सलाह पर उसके आँसू सूख जाते और वहाँ से बुदबुदाते हुए चली जाती……

“आन्हर बेटी कईसे पढ़ी?”।

उसकी माँ की रूढ़िवादी सोच उसके दिमाग पर ऐसी हावी हो गयी थी कि बड़ी बेटी के साथ ही इस अन्धी बेटी का हाथ पीला कर उससे निजात पाने की साजिश रचने में भी उसे संकोच नहीं हुआ। लेकिन होनी तो कुछ और लिखी थी।

बर्षों बीत गये,…ससुराल वालों ने रीता की कोई खबर नही ली। इधर रीता के घर वाले जब काम पर बाहर चले जाते तब गाँव के कुछ शरारती लड़के रीता के साथ छेड़खानी करते रहते। …कभी उसके सिर में ठोंकते तो कभी उसका दुपट्टा खींचते। …रीता एक साथ माँ बहन की सौ-सौ गालियाँ देती। ऐसी गालियाँ कि सुनने वालों के दाँत रंग जाते। रोज-रोज एक ही पंचायत “आज अन्हरी फिर गरियवलस…” (आज अन्धी ने फिर गाली दी)

अन्ततः रीता की माँ के पास मेरे पापा की सलाह मानने के अलावाँ कोई चारा नही बचा। एक दिन उसकी माँ रोती-बिलखती पापा के पास आयी और कहने लगी-

“बाबू! कुछ पैसों का प्रबन्ध करके अन्हरी को गाँव से हटा ही दीजिए तो अच्छा है, नहीं तो गाँव के लड़के उसको जीने नही देंगे।”

पापा को तो मानो उसकी माँ की इज़ाजत का बर्षों से इंतजार था। उन्हें देहरादून के एक ‘ब्लाइंड स्कूल’ के बारे में जानकारी थी। उन्होने थोड़ा प्रयास किया और वहाँ उसका दाखिला हो गया। तेरह-चौदह साल की उम्र में कक्षा-एक की छात्रा बनी।

दाखिले के छ: महीने बाद रीता जाड़े की छुट्टियाँ मनाने गाँव आयी। पूरे गाँव में शोर मचा…

“अन्हरी आ गइल…!”

यह आवाज रीता के कानों तक भी पहुँची। लेकिन इस बार कोई गाली नहीं दिया उसने। बड़ी ही सज्जनता से जबाब दिया-

“मेरा नाम अन्हरी नही, रीता है।”

गाँव वाले रीता के इस बदलाव को देखकर अचम्भित रह गये। पर कुत्ते की दुम कब सीधी होनी थी? ...दो-चार दिन बाद गाँव के वो शरारती बच्चे फिर रीता को रोज चिढ़ाने लगे। लेकिन रीता बदल चुकी थी। अब उसको गाँव के इस माहौल से ऊबन होने लगी थी। वह रोज सुबह उठती, अपना नित्यकर्म करने के बाद, अपनी माँ की उँगली पकड़े मेरे घर आ जाती। उसके पहनावे और रहन-सहन को देखकर, सबको हैरानी होती।

…क्या यह वही अन्हरी है…?

पापा को उसके बात करने का ढंग इतना अच्छा लगता कि वह मुझे बुलाते और कहते कि इसके पास बैठो और इससे बातें करो। रीता मेरे घर सुबह करीब आठ बजे आती और शाम को जब उसकी माँ अपने सारे काम निबटा लेती तब उसे ले जाती।

यह सिलसिला हर साल जाड़े की छुट्टियों में चलता रहा। बातों के सिलसिले में मैने पहली बार रीता के मुँह से ‘जीसस’ का नाम सुना।

मैने पूछा, “जीसस? …यह किस चिड़िया का नाम है?”

रीता ने बड़े प्यार से जबाब दिया, “मेरे भगवान। …वही तो हम सबके रखवाले हैं।”

वह मुझे घंटों प्रवचन सुनाती रहती। उसकी बातें खत्म होने का नाम नहीं लेती। मैं भी पापा के हटने का इंतजार करती। उनके हटते ही मै भी वहां से उड़न छू हो जाती।

रीता किसी के आने की आहट सुनती तो तुरंत पूछती ‘कौन’?...खाली समय में वह प्रायः स्वेटर बुनती रहती। कुछ भी खाने को दिया जाता तो पहले अपने हाथ अवश्य धोती।

रीता हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आती थी। उसकी लगन और प्रतिभा को देखकर उसकी उम्र के लिहाज से स्कूल में उसे एक साल में दो-दो कक्षाएं पास करायी गयीं। इस तरह उसने जल्द ही ग्रेजुएशन पूरा कर लिया।

उसके व्यक्तित्व के इस आकर्षण को देखकर, वह लड़का जो अनजाने ही ‘अन्हरी’ का दुल्हा बना दिया गया था, उसने रीता का पति होने का अधिकार जताते हुए उसे विदा कराने का दावा कर दिया। लेकिन गुणवन्ती रीता उस अन्हरी की तरह मजबूर और दया की पात्र नही रह गयी थी। उसने मना कर दिया। उसे तो अपनी नयी दुनिया में ही उसके मन का मीत मिलना था। संस्था ने उसके लिए नौकरी ढूँढ दी और नौकरी ने उसी के मेल का एक जीवनसाथी दिला दिया।image

दो साल पहले रीता ने अपने मिस्टर राइट के साथ घर बसा लिया। दोनों साथ ही नौकरी करते हैं। इधर गाँव में अन्हरी को छेड़ने वाले छिछोरे बेरोजगारी और लाचारी का अभिशप्त जीवन जी रहे हैं और अपनी दोनों आखों से रीता की ऋद्धि-सिद्धि देख रहे हैं।

शिक्षा का असर गाँव-गाँव, शहर-शहर में बड़ी ही तेजी से दिखाई दे रहा है। हम अंदाजा नही लगा सकते कि शिक्षा की वजह से हमारा समाज कितना तेजी से प्रगति कर रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण हमारे गाँव के इस किस्से में देखने को मिला।

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, May 19, 2009

घर में ब्लॉगेरिया का प्रकोप …भूल गये बालम!!!

मैने सुना था कि आइंस्टीन अपने घर का पता ही भूल जाया करते थे। आज मेरे घर भी कुछ ऐसा अजीबोगरीब हादसा हुआ। यहाँ कसूरवार भौतिकी की कोई उलझन नहीं थी। …शायद ब्लॉगरी रही हो इसके पीछे। पढ़कर आप भी पूछेंगे जैसे मैं पूछ रही हूँ-

“क्या ब्लॉगरी करते-करते ऐसा भी हो जाया करता है?”

भूल गये बालम आज श्रीमान जी सुबह अच्छे भले उठे। अपना दैनिक कार्य किया और स्टेडियम खेलने भी गये। अपने समय से ऑफिस को निकल पड़े। दोपहर में ऑफिस से फोन आया।

पूछने लगे, “वहाँ कम्प्यूटर टेबल पर मेरे चश्में का शीशा है क्या?”

मैं दोपहर की मीठी नींद से उठी, मेज पर टटोल कर देखा फिर जवाब दिया, “ यहाँ तो नहीं है? क्या हुआ?”

“देखो, शायद फ्रिज के ऊपर या उसके कवर वाली जेब में हो”

“अच्छा…!! …यहाँ भी नहीं है जी। …आखिर बात क्या है”

“ओफ़्फ़ो…! ठीक से ढूँढो न, ”

“कहाँ खोजूँ…? …एक ही शीशा है कि दोनो…?” “…और चश्मा कहाँ है?”

“वो तो मेरे पास है…” “ अच्छा देखो… बैडमिण्टन किट की ऊपरी जेब में तलाशो।”

अरे, वहाँ कहाँ पहुँच जाएगा…? ….लीजिए, यहीं है। लेकिन एक ही शीशा तो है?”

“चलो ठीक है…” उन्होंने फोन काट दिया। मैं बच्चों को लेकर फिरसे सुलाने चली गयी।

? ? ? ? ऐसा तो कभी नहीं हुआ था ? ? ? ?

शाम को जब ये ऑफिस से लौटे तो कुछ देर बाद मैंने चश्में के शीशे के बारे में जानना चाहा। जब पूरी कहानी मालूम हुई तो हम हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।

हुआ यूँ कि इन्होंने धूप की वजह से ऑफिस के लिए पैदल न निकल कर स्कूटर से जाने की सोची और हमेशा की तरह आँखों को गर्म हवा से बचाने के लिये फोटोक्रोमेटिक चश्मा भी चढ़ा लिया। वो चश्मा जिसका एक शीशा बेवफाई करके सुबह-सुबह मेयो हाल में ही फ्रेम से अलग हो बैडमिन्टन-किट की जेब में दुबक गया था। मेरे श्रीमान जी को स्टेडियम से शीशाविहीन चश्मा लगाकर घर आने और फिरसे तैयार होकर ऑफिस जाने के समय दुबारा लगाते वक्त भी इस बात का पता नहीं चल पाया था।

बता रहे थे कि इन्हें ऑफिस में जब एक दो घण्टे का शुरुआती काम पूरा करने के बाद फुरसत मिली तब अचानक मेज पर रखे चश्में पर निगाह डालने पर अपनी भूल का ज्ञान हुआ… लिखने पढ़ने का काम तो ये बिना चश्में के ही करते हैं। केवल स्कूटर पर धूल, हवा और धूप से बचने के लिए ही लगाते हैं।

उसके बाद चश्में का बाँया शीशा अपने कार्यालय कक्ष में कई राउण्ड खोजते रहे। सारी फाइलें उलट-पलट कर देख डालीं। मेज कुर्सी के नीचे भी झाड़ू लगवाया। बॉस के कमरे में भी गये। वहाँ सबने मिलकर ढूँढा। सभी दराजें और रैक भी चेक कर लिए गये। इसी बहाने कम्प्यू्टर टेबल के पिछवाड़े जमी धूल भी साफ हो गयी। तीन चार चपरासी लगाये गये। ...लेकिन सब बेकार। अन्ततः नया शीशा लगवाने का निर्णय हुआ।

अब एक के चक्कर में दोनो शीशे नये लेने पड़ेंगे...। अचानक इन्हें सूझा कि एक बार घर पर भी पता कर लेना चाहिए। फोन पर डायरेक्शन देकर मुझसे खोज करायी गयी तो शीशा ऐसी जगह मिला जहाँ सबसे कम सम्भावना थी।

“तो क्या दो-दो बार स्कूटर चलाने पर भी काना चश्मा आपका ध्यानाकर्षण नहीं कर सका?”

“वही तो..., मैं भी हैरत में हूँ। मुझे पता क्यों नहीं चल सका?”

हँसते-हँसते मेरी हालत खस्ती हुई जा रही थी। तभी इन्होंने आखिरी बात बतायी-

“जानती हो, इसी बात का पता लगाने के लिए मैं ऑफिस से वापस आते वक्त भी यही चश्मा लगा कर आया हूँ। …शहर में स्कूटर की स्पीड इतनी तेज होती ही नहीं कि आँख पर हवा का दबाव महसूस हो। बिना नम्बर का सादा चश्मा ऐसी बेवकूफ़ी भी करा गया…”

“तो क्या बिलकुल अन्तर नहीं था दोनो आँखों में…?”

मुझे सबसे ज्यादा मजा तब आया जब इन्होंने बताया कि ध्यान देने पर एक आँख मे हवा लगती महसूस हो रही थी।

क्या आप इसे ब्लॉगेरिया नहीं कहेंगे?

दरअसल गलती मेरी ही थी। आज ऑफिस निकलते समय मैनें इन्हें ‘सी-ऑफ़’ नहीं किया था। शायद ‘किचेन गार्डेन’ में पानी लगा रही थी।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, May 14, 2009

मुकदमेंबाज की दवा

हमारे गाँव के उत्तर-पश्चिम कोने पर एक ब्राह्मण परिवार रहता है। जो वर्षों पहले कहीं बाहर से आये थे और इन्हें गाँव के बड़कवा बाबा के परिवार ने थोड़ी जमीन दे दी थी तबसे वहीं ये लोग घर बनाकर रहने लगे थे। इस परिवार में माँ-बाप के अलावा, दो बेटे और एक बेटी थी। बेटे बड़े हुए तो बड़े बेटे की शादी हो गई। वह पढ़ाई पूरी करने के बाद घर की खेती-बाड़ी कराने लगा। दूसरा बेटा वकालत की पढ़ाई करके वकील बन गया। लोकल कचहरी में चौकी लगा कर बैठने लगा।

उमेस उपधिआ वकील क्या बन गये गाँव में ही बवाल काटने लगे। कोई ऐसा बचा नहीं जिसके ऊपर उन्होंने मुकदमें का दाँव लगाने का प्रयास न किया हो। अब गाँव में लोगो के चेहरे पर आए दिन उदासी छायी रहती। हर एक दिन हो-हो हल्ला मचता कि आज किसी की बकरी इनके दरवाजे पर बंधी है तो किसी की भैंस। लोग गुहार लगाने बाबा के घर आते और गिड़गिड़ाना शुरु करते-

“…बाबा हमार भँइसिया ढांठर लेके जात बाटें”

“…क्यों और कौन?”

...बाबा, मोहन उपधिया; …हमार भँइसिया उनके दुअरिया पर जवन बेलवा के पेड़वा बा, ओही में से पत्ता खात रहे त मोहन खिसिया गईलें। …अउरी रोज-रोज धमकी देत बाटें कि उमेसवा वकील बन गईल बा। अब तहनी के बतावऽता… आपन चउआ-चापर, आ आपन लइका-संभार के राखऽजा। ...मालिक, आफ़त बसा देहनीं गांव में …जीयल काल कऽ देले बाने सों।…”

अब भला बाबा क्या कर पाते, शिकायत एक वकील के खिलाफ़ जो की जा रही थी। बड़े-बड़े गँवई विवाद की पंचायत चुटकी मे निपटा देने वाले बाबा यहाँ बेबस हो जाते। बाबा को क्या पता कि ये गाज उनके घर भी गिरने वाली है।

गाँव के वकील साहब अब रोज सबेरे-सबेरे अपने दरवाजे पर खड़े होकर किसी न किसी को मुकदमे की धमकी देते रहते। धीरे-धीरे बच्चों के झगड़े भी सामने आने लगे। गाँव वालों ने अपने-अपने बच्चों को हिदायत दे रखी थी कि वकील साहब के घर के बच्चों के साथ नही खेलना है। उनके साथ खेलने का मतलब होता झगड़ा और फिर मुकदमें को दावत।

वकील साहब की शादी अभी नही हुई थी । वे अपने बड़े भाई के बच्चों के लिए तो ‘सुपरमैन’ बन गये थे। बच्चे भी उन्हें चाचा के बजाय ‘छोटका पापा’ कह कर बुलाते थे। जो काम बड़का-पापा नही कर पाते, वो सारे काम छोटका-पापा पूरा करते। इनके घर के बच्चे किसी से भी बेहिचक लड़ाई कर सकते थे। इनको तो कोर्ट ने जैसे इजाजत दे रखी थी। खेल-खेल मे खुद तो बच्चों के साथ मार-पीट करते ही, अगर भूल कर भी किसी बच्चे ने इनके ऊपर हाथ उठा दिया, तब तो उसकी शामत आ जाती।…

कुछ ही देर में सारा गाँव वकील साहब के दरवाजे पर तमाशा देखने के लिए मौजूद रहता। उन बच्चों की माता जी और बड़का-पापा जोर-जोर से दहाड़ते,

“…तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे बच्चों को छूने की, …आने दो वकील साहब को, तुम लोगो का दिमाग ठिकाने आ जायेगा।”

जो-जो बच्चे उस खेल मे शामिल होते उनके घर वाले बड़का-पापा की घंटो मनौनी करते। …शाम होते ही बच्चे छोटका-पापा का बेसब्री से इंतजार करते। आज के नये शिकार की सूचना देने के लिए बेचैन रहते। …स्कूटर की आवाज सुनते ही घर वालों के चेहरे पर ऐसी खुशी झलकती, जैसे मानों वकील साहब के बरदेखउवा आये हों, और उन्हें कोई उपहार देकर गये हों। उनमें छोटका-पापा को झगड़े की बात सबसे पहले बताने की होड़ होती।

वकील साहब की मुकदमेबाजी की चपेट मे धीरे-धीरे ‘बाबा का घर भी आने लगा। छोटी-छोटी बात पर उनके घर के बच्चों को भी हाथ पकड़ कर उनके घर ले जाकर शिकायत करते। ये बच्चे भी कभी-कभार अपने ही घर वालों से मार खा जाते। …यह कार्यक्रम लम्बे समय तक चलता रहा। वकील साहब का आतंक दिन पर दिन बढ़ता रहा। धीरे-धीरे बाबा के नाती-पोते भी सयाने हो गये।

एक दिन बाबा के घर कुछ मेहमान आये थे। वकील साहब की भतीजियों का बाबा के घर आना-जाना लगा रहता था, बाबा के घर आयी हुई कुछ लड़कियों और वकील साहब की भतीजियों में कहा-सुनी हो गई, यह बात वकील साहब को रास नही आयी। सबेरे-सबेरे चले आये शिकायत लेकर। यह सारी बातें, बाबा का छोटा वाला नाती जो बचपन से यह सब देखते हुए बड़ा हुआ था उसको यह बात नागवार लगी। वह अचानक उठा और सांड़ की तरह वकील साहब की ओर झपट पड़ा। उसने वकील साहब का एक हाथ पकड़कर पीछे की ओर ऐंठ दिया और दहाड़ उठा,

“ …मुकदमा करना है तुम्हें, …चल, …मेरे उपर मुकदमा कर, …वर्षों से देख रहा हूँ तुझे,” वकील साहब अचानक हुए इस हमले के लिए तैयार न थे। सिट्टी-पिट्टी गुम थी। रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा था।

बाबा के घर के बड़े लोगों ने किसी तरह वकील साहब को छुड़ाकर वहां से भगाया। तबसे कोई नया मुकदमा नहीं हुआ। गाँव वाले अब राहत में हैं, …और बाबा के नाती को लाख-लाख दुआएं देते हैं। अब वकील साहब का गाँव में आना और जाना पता ही नही चलता। …लगता है उन्होंने स्कूटर बेच दिया।

१.बड़कवा- गाँव का सर्वाधिक प्रतिष्ठित और प्रभावशाली परिवार

२.उमेस उपधिआ- उमेश उपाध्याय

३. चउआ-चापर- पालतू जानवर, गाय-भैंस-बैल आदि चौपाये

४.बरदेखउआ- लड़के से शादी के रिश्ते के लिए उसे (वर को) देखने आने वाले

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, May 9, 2009

कानून के रक्षक या भक्षक... मानव या दानव?

पिछले दिनों शहर में डॉक्टर्स और वकीलों के बीच भिड़न्त हो गई। कारण ये कि दो महीने से एक वकील साहब अस्पताल में भर्ती थे, दुर्भाग्यवश ना जाने किस कारण से ये भगवान को प्यारे हो गये। वकीलों में डॉक्टरों के खिलाफ़ रोष पैदा हो गया और ये उस डॉक्टर के विरुद्ध धारा ३०२ में एफ़.आई.आर. कर डाले। यानि हत्या का मुकदमा।

दंगाई वकील

जगह- जगह नारेबाजी शुरू हो गई। …डॉक्टर भी भड़क गये। वकीलों के खिलाफ़ शहर के सारे डॉक्टर इकठ्ठे हो गये और धरना प्रदर्शन शुरु कर दिया। करीब तीन-चार सौ चिकित्सा कर्मी जिसमें कुछ पैरा-मेडिकल स्टॉफ़ भी मौजूद थे, सड़क पर निकल आए। डॉक्टर साहब लोग अपने तो पीछे खड़े रहे और सामने अपने स्टॉफ़ को लगाये रहे। दोनों पक्षों की तरफ़ से धुँआधार नारेबाजी के पटाखे छूटने लगे। धीरे धीरे इन पटाखों से आग लगनी शुरु हो गई। नतीजा ये हुआ दोनों पार्टियों के बीच हाथा-पाई और जूता-चप्पल का लेन-देन शुरु हो गया।

कुछ बौराए वकीलों के हत्थे चढ़ी एक नर्स। उनका झुंड उस महिला के उपर ऐसे टूट पड़ा मानों किसी मरी हुई बिल्ली पर चील-कौए झपट रहे हों। मानवता तार-तार हो गई। उस गरीब की कमजोर काया पर लात-घूसों की झड़ी लग गयी। शुक्र है कि उसकी प्राणरक्षा की गुहार कुछ सरकारी कर्मचारियों के कान तक पहुंच गयी और उसे बचा लिया गया।

ये इंसान थे या जानवर? ये भूल चुके थे कि इनका जीवन एक माँ का कर्ज है। मै पूछती हूँ, जिस वकील ने इस नर्स के पेट में लात मारी क्या उस समय उसे, उसकी माँ याद नही आयी? जिस वकील ने उसके सीने पर लात मारी क्या उसे अपनी बहन याद नही आयी? जिसने उसके बाल पकड़ कर घसीटा उसे अपनी बेटी याद नही आयी? ये वही कानून के पेशेवर है जो खुद कानून की इज्जत नही करते, जिनके आँख का पानी मर चुका है।

ऐसे दरिन्दों से कानून की रक्षा की उम्मीद क्या की जाय?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, May 5, 2009

सब कुछ उल्टा-पुल्टा… पर अच्छा ही रहा।

आज रात की भयंकर आँधी ने मेरे घर की चार दिवारी को ढहा दिया। तूफ़ान ने किचेन गार्डेन को क्षत-विक्षत कर दिया। आधी रात को सोते वक्त दिवाल गिरने की आवाज सुनकर ही मन चिन्ताग्रस्त हो गया। मेरी सब्जी कैसे बचेगी..? …सवेरा होने का इन्तजार करते रात गुजरी।

….श्रीमानजी हमसे पहले ही बिस्तर से उठ गये थे। ….मैं भी उठने के बाद तुरन्त किचेन गार्डेन में पहुँची। देखा तो ये लगातार फ़ोन पर फ़ोन किये जा रहे हैं। ….इनके चेहरे से दीवार गिरने का दु:ख और मेरे श्रम से उगायी गयी साग-सब्जी के नुकसान होने की चिन्ता साफ़-साफ़ जाहिर हो रही थी।

लेकिन मुझे देखते ही वहाँ से मुस्कराते हुए अन्दर चले आये…। रोज की तरह चेहरे पर वेपरवाही का स्वांग रचते हुए मिठाई का डब्बा खोलकर टपा-टप एक वर्फ़ी और एक-दो बेसन के लड्डू मुँह में भर लिए।

मैंने पूछा, “चार दिवारी गिर जाने की इतनी खुशी हुई कि आज मंगलवार व्रत भी तोड़ दिया?

गलती की याद आयी तो मुंह बाये खड़े हो गये। …चलो कोई बात नही इतना तो चलता रहता है। बड़े हनुमान जी के मन्दिर का प्रसाद ही तो था।

…लेकिन मुझे देर हो रही है मैं खेलने जा रहा हूँ।

….अरे चाय तो पीते जाईए

…नही जी आज बहुत मिठाई खा लिया हूँ। चलता हूँ।

….डाक्टर ने कहा था क्या, सुबह-सुबह मिठाई खाने को…?

शायद इन्हें इस बात की चिन्ता सताये जा रही थी कि कहीं मैं इन्हें आज खेत में डन्डा लेकर खड़ा न कर दूं। पिछले तीन दिन से एक गाय हमारा गेट खोलकर भीतर आ जा रही थी और बैगन, नेनुआ और भिण्डी का काफी नुकसान कर चुकी थी। कुछ चरकर तो कुछ रौंदकर। गेट की सॉकल खराब हो गयी थी। इसे ठीक कराने की योजना बनायी जा रही थी तभी रात की आँधी ने और चिन्तित कर दिया।

 

उल्टा-पुल्टा
ढह गयी दीवार
उल्टा-पुल्टा (2) चर गयी गाय
उल्टा-पुल्टा (3)
बच गयी भिण्डी
उल्टा-पुल्टा (4)
दब गये पौधे

इनके मन की चिंता साफ़- साफ़ नजर आ रही थी। शायद इससे पीछा छुड़ाने के लिए इन्होनें जल्दी-जल्दी शॉर्ट्स-टीशर्ट चढ़ाया, कन्धे पर बैडमिन्टन किट लटकाया और स्कूटर की चाभी लेकर बाहर निकल गये। ….चाय बन गयी थी ….दौड़ कर देखा तो श्रीमानजी स्कूटर पर जमी धूल पोंछकर जाने की तैयारी में थे। बिना कंघी किये और बिना जूता पहने देखकर मैं समझ गयी कि मन ठिकाने पर नहीं है।

मैने कहा, “कम से कम जूता तो पहन ही लीजिए।”

महाशय मान गये स्कूटर बंद किए और मुस्कुराते हुए अन्दर आ गये। बचे हुए काम को पूरा करते हुए चाय भी पी लिए। पी.डब्ल्यू.डी. के जे.ई. साहब का फोन नहीं उठ रहा था। एक्सियन का उठ गया उन्हें दीवार की मरम्मत कराने का अनुरोध करते हुए ये बताना नहीं भूले कि काम तत्काल जरूरी है क्योंकि देर हुई तो श्रीमती जी की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। अब बात हो जाने के बाद इन्हें थोड़ी राहत मिल गयी।

मुझे भी अच्छा लगा और मन मे बेहद खुशी भी हुई… और क्यों ना हो? मेरे श्रीमान जी मेरे बारे में इतना सोचते जो हैं…।

(रचना)

Friday, May 1, 2009

क्या हम सभ्य समाज में जी रहे हैं…?

डार्विन के अनुसार जैविक विकास के विभिन्न चरणों में जीवन संघर्ष के फलस्वरुप सर्वाधिक सफ़ल जीवन व्यतीत करने वाले सदस्य योग्यतम होते हैं। इनकी सन्तान भी स्वस्थ होती हैं जिनसे इनका वंश चलता रहता है।संघर्ष में जो अधिक सक्षम होते हैं वही विजयी होकर योग्यतम सिद्ध होते हैं। इसे हम ‘जंगल का कानून’ या ‘मत्स्य न्याय’ के नाम से जानते हैं। यहाँ विवेक के बजाय पाशविक शक्ति का महत्व अधिक होता है।

जंगल से बाहर निकल कर हम एक कथित ‘सभ्य समाज’ का निर्माण कर चुके हैं और वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर चुके हैं। हमें ईश्वर ने दो हाथ-दो पैर और भला बुरा सोचने के लिये एक स्वस्थ मस्तिष्क दे रखा है। मैं समझती थी कि डार्विन का सिद्धान्त तो सिर्फ़ जानवरों पर लागू होता है। लेकिन देख रही हूँ कि इन्सान रुपी जानवर की बात भी अलग नहीं है जो चन्द पैसों की लालच में या अपने किसी स्वार्थ में या कभी-कभी केवल खेल-मनोरंजन में अपनों का ही कत्ल कर बैठता है।

मन सोचता है कि क्या हम एक सभ्य समाज में जी रहे हैं?

मैं कभी कभी यह सोचने पर मजबूर हो जाती हूँ कि क्या सचमुच हमारे देश में भाईचारा है?...आखिर कौन सा उदाहरण हम अपने आने वाली पीढ़ी के सामने पेश करेंगे? आये दिन समाचार पत्रों, पत्र- पत्रिकाओं में पढ़ने और टीवी पर देखने को मिलता है कि आज एक भाई ने अपने भाई को गोली मारी।….कारण क्या है, कभी एक बीघा जमीन तो कभी रोटी।….अभी तक यह सारी बातें हम निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग में देखा-सुना करते थे। लेकिन अब तो यह सारी बाते उच्च वर्ग में भी देखने को मिलती हैं।

निम्न वर्गों में अभी भी शिक्षा की कमी, संस्कारहीनता और गरीबी-भुखमरी इसके कारण है। लेकिन… आखिर उन्हें क्या कमीं है जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति है। मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी हमारी पीढ़ी को क्या सन्देश देते हैं। प्रवीण महाजन ने प्रमोद महाजन को गोली मारी… आखिर क्यों? इनके पास क्या कमी थी? क्या ये उच्च वर्गीय लोग हमारे आदर्श बन सकते हैं? संजय गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी भी अपने अनुज की पत्नी और बेटे को अपने साथ नही रख सके। क्या यह हमें भाईचारा सिखाता है…?

जो इन्सान एक परिवार नही चला सकता वह एक देश चलाने का ठेका कैसे ले सकता है?

(रचना)

Thursday, April 30, 2009

अब मैं भी हाजिर हूँ ... अपनी टूटी-फूटी के साथ

मेरे अज़ीज हिन्दी चिठ्ठाकार सज्जनों,

एक जद्दोजहद मेरे मन में बहुत दिनों से थी। ...आज उसे परे धकेलकर मैने फ़ैसला कर ही लिया। जी हाँ, मैने अपना एक अलग ब्लॉग बना लिया है। मैं हिन्दी भाषा और टाइपिंग की बहुत अच्छी जानकार नहीं हूँ। बस मुझे टूटी-फूटी ही आती है। लेकिन बातें मन में बहुत सी हैं जो आप से बाँटने का मन करता है। हिम्मत कर रही हूँ तो इसलिए कि यहाँ तक की यात्रा मैने सत्यार्थमित्र के माध्यम से की है, थोड़ा बहुत जान गयी हूँ। आप सबका लिखा पढ़ती रही हूँ और इस सब में पतिदेव का साथ भी मिलता रहा है।

अलग इसलिए होना पड़ा कि कई बार इनके मानक में मेरी टूटी-फूटी फिट नहीं बैठ पाती है। मेरे लिखे को ये ‘और सुधार के लायक’ बताकर किनारे कर देते हैं। मन मसोस कर रह जाता है।

इसे एक विद्रोह न समझा जाय बल्कि मुक्त आकाश में स्वतंत्र होकर उड़ने की व्यग्रता मान कर उत्साहबर्द्धन किया जाय। पतिदेव तो धकिया ही रहे हैं, आगे बढ़ने के लिए।

आज तीस अप्रैल को इसे प्रारम्भ करने की एक खास वजह भी है। हमारी शादी को आज दस साल पूरे हुए हैं। आज मैं कुछ नया करना चाहती थी। सोचा, क्यों न आज से एक सिलसिला शुरू हो जिसमें एक आम गृहिणी की आवाज आप लोगों तक पहुँचायी जाय..!

मैं कोई प्रोफ़ेशनल लेखिका, कवयित्री या विचारक नहीं हूँ। लेकिन अखबारों की खबरें पढ़कर, टीवी देखकर या ब्लॉग्स में इस विचित्र दुनिया की तस्वीरें देखकर मेरा मन भी परेशान होता है। कुछ बातें अनगढ़ ही सही लेकिन एक भँवर सी भीतर से उठती तो हैं।

पुछल्ला:

डॉ. अरविन्द मिश्रा ने आज हमारी जोड़ी की तस्वीर तलाश किया जो थी ही नहीं। नहीं मिली तो किसी जोड़ा-जामा टाइप फोटू की फरमाइश भी कर दिए। हम ठहरे तकनीक से पैदल, सो शादी वाली फोटू यहाँ चेंप न सके। लेकिन एकदम ताजी फोटू भतीजे से खिंचवा ली है। आप भी देखिए :)

 परिणय दशाब्दि  (2) (रचना)