उस दिन मेरे गाँव में बड़ा अजीब वाकया हो गया था। एक गरीब के घर बारात आयी थी। अपनी क्षमता के अनुसार स्वागत सत्कार किया था उसने। दूल्हे को विवाह मण्डप में ले जाकर बिटिया का पाणिग्रहण करा दिया। दोनो कोहबर में गये। फिर एक विशेष रस्म करने के लिए दूल्हे को आंगन के मणवा में दुबारा बैठाया गया। दूल्हन घूँघट डालकर दुबारा आँगन में आयी, दुबारा सिन्दूरदान कराया गया। कम उम्र का दूल्हा सबकुछ करता गया। काम से निवृत्त होकर ‘जनवासे’ में गया। अपने अभिभावकों से दुबारा सिन्दूरदान का किस्सा बताया तो शक के बादल घिरने लगे। पूछताछ शुरू हुई।
मामला तूल पकड़ता देखकर गरीब पिता को रहस्य पर से पर्दा हटाना पड़ा। दरअसल रामवृक्ष की तीन बेटियाँ थीं। गीता, रीता और राधिका। उनमें सबसे बड़ी गीता का विवाह तय हुआ था। उसके पाणिग्रहण के बाद जब वह कोहबर में चली गयी तो परिवार वालों ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार दूसरी बेटी रीता जो बचपन में चेचक के प्रकोप से अन्धी हो गयी थी, उसे विवाह मण्डप में बैठाकर उसकी मांग में भी सिन्दूर डलवा दिया। यह सोचकर कि इस अन्धी से तो कोई शादी करने से रहा। बड़े दामाद के हाथों सिन्दूर का सौभाग्य पाकर शायद आजीवन अनब्याही कहलाने का कलंक मिट जाय।
गरीबी के भी खेल निराले हैं। लड़के वालों ने इस योजना को मानने से इन्कार कर दिया और गीता को विदा करा ले गये। रीता अपनी मांग के सिन्दूर के साथ मायके में ही रह गयी। तब उसकी उम्र कोई ग्यारह-बारह साल की ही रही होगी। बीड़ी बनाकर गुजारा करने वाले परिवार की रीता को सारा गाँव ‘अन्हरी’ (अन्धी) ही पुकारता था। उसे भी अपना यही नाम पता था।
मेरी और रीता की उम्र लगभग एक ही थी। मै जब भी गाँव में घूमने निकलती तो देखती कि वह अपने घर के चबूतरे पर बैठे या तो कुछ खाती रहती या आते-जाते लोगों की आहट सुनती रहती। उसके शरीर पर हजारों मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं मानो जैसे उसके आस-पास मिठाई का शीरा गिरा हो। मै घंटो उसके क्रिया-कलाप देखती रहती।
रीता धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके घर वाले दिन-प्रतिदिन उसकी चिन्ता में दुबले होते जा रहे थे। आये दिन उसकी माँ मेरे पापा के सामने आकर अपनी समस्या का समाधान पूछ्ती और घंटों रोती रहती। पापा उसको रोज एक ही बात समझाते कि उसे अंधों वाले स्कूल में डाल दो, पर उसकी माँ बार-बार पैसों का रोना रोती कि किसी तरह दो वक्त की रोटी मिल जाती है, यही बहुत है। …कहाँ से इतना पैसा लाउंगी।
पापा ने उसे समझाया कि उस स्कूल में सभी बच्चों के पढ़ाने का खर्च सरकार देती है। तुम्हें उसकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। बस तुम किराया जुटा लो। यह बात उसके भेजे में नही घुसती। इस सलाह पर उसके आँसू सूख जाते और वहाँ से बुदबुदाते हुए चली जाती……
“आन्हर बेटी कईसे पढ़ी?”।
उसकी माँ की रूढ़िवादी सोच उसके दिमाग पर ऐसी हावी हो गयी थी कि बड़ी बेटी के साथ ही इस अन्धी बेटी का हाथ पीला कर उससे निजात पाने की साजिश रचने में भी उसे संकोच नहीं हुआ। लेकिन होनी तो कुछ और लिखी थी।
बर्षों बीत गये,…ससुराल वालों ने रीता की कोई खबर नही ली। इधर रीता के घर वाले जब काम पर बाहर चले जाते तब गाँव के कुछ शरारती लड़के रीता के साथ छेड़खानी करते रहते। …कभी उसके सिर में ठोंकते तो कभी उसका दुपट्टा खींचते। …रीता एक साथ माँ बहन की सौ-सौ गालियाँ देती। ऐसी गालियाँ कि सुनने वालों के दाँत रंग जाते। रोज-रोज एक ही पंचायत “आज अन्हरी फिर गरियवलस…” (आज अन्धी ने फिर गाली दी)
अन्ततः रीता की माँ के पास मेरे पापा की सलाह मानने के अलावाँ कोई चारा नही बचा। एक दिन उसकी माँ रोती-बिलखती पापा के पास आयी और कहने लगी-
“बाबू! कुछ पैसों का प्रबन्ध करके अन्हरी को गाँव से हटा ही दीजिए तो अच्छा है, नहीं तो गाँव के लड़के उसको जीने नही देंगे।”
पापा को तो मानो उसकी माँ की इज़ाजत का बर्षों से इंतजार था। उन्हें देहरादून के एक ‘ब्लाइंड स्कूल’ के बारे में जानकारी थी। उन्होने थोड़ा प्रयास किया और वहाँ उसका दाखिला हो गया। तेरह-चौदह साल की उम्र में कक्षा-एक की छात्रा बनी।
दाखिले के छ: महीने बाद रीता जाड़े की छुट्टियाँ मनाने गाँव आयी। पूरे गाँव में शोर मचा…
“अन्हरी आ गइल…!”
यह आवाज रीता के कानों तक भी पहुँची। लेकिन इस बार कोई गाली नहीं दिया उसने। बड़ी ही सज्जनता से जबाब दिया-
“मेरा नाम अन्हरी नही, रीता है।”
गाँव वाले रीता के इस बदलाव को देखकर अचम्भित रह गये। पर कुत्ते की दुम कब सीधी होनी थी? ...दो-चार दिन बाद गाँव के वो शरारती बच्चे फिर रीता को रोज चिढ़ाने लगे। लेकिन रीता बदल चुकी थी। अब उसको गाँव के इस माहौल से ऊबन होने लगी थी। वह रोज सुबह उठती, अपना नित्यकर्म करने के बाद, अपनी माँ की उँगली पकड़े मेरे घर आ जाती। उसके पहनावे और रहन-सहन को देखकर, सबको हैरानी होती।
…क्या यह वही अन्हरी है…?
पापा को उसके बात करने का ढंग इतना अच्छा लगता कि वह मुझे बुलाते और कहते कि इसके पास बैठो और इससे बातें करो। रीता मेरे घर सुबह करीब आठ बजे आती और शाम को जब उसकी माँ अपने सारे काम निबटा लेती तब उसे ले जाती।
यह सिलसिला हर साल जाड़े की छुट्टियों में चलता रहा। बातों के सिलसिले में मैने पहली बार रीता के मुँह से ‘जीसस’ का नाम सुना।
मैने पूछा, “जीसस? …यह किस चिड़िया का नाम है?”
रीता ने बड़े प्यार से जबाब दिया, “मेरे भगवान। …वही तो हम सबके रखवाले हैं।”
वह मुझे घंटों प्रवचन सुनाती रहती। उसकी बातें खत्म होने का नाम नहीं लेती। मैं भी पापा के हटने का इंतजार करती। उनके हटते ही मै भी वहां से उड़न छू हो जाती।
रीता किसी के आने की आहट सुनती तो तुरंत पूछती ‘कौन’?...खाली समय में वह प्रायः स्वेटर बुनती रहती। कुछ भी खाने को दिया जाता तो पहले अपने हाथ अवश्य धोती।
रीता हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आती थी। उसकी लगन और प्रतिभा को देखकर उसकी उम्र के लिहाज से स्कूल में उसे एक साल में दो-दो कक्षाएं पास करायी गयीं। इस तरह उसने जल्द ही ग्रेजुएशन पूरा कर लिया।
उसके व्यक्तित्व के इस आकर्षण को देखकर, वह लड़का जो अनजाने ही ‘अन्हरी’ का दुल्हा बना दिया गया था, उसने रीता का पति होने का अधिकार जताते हुए उसे विदा कराने का दावा कर दिया। लेकिन गुणवन्ती रीता उस अन्हरी की तरह मजबूर और दया की पात्र नही रह गयी थी। उसने मना कर दिया। उसे तो अपनी नयी दुनिया में ही उसके मन का मीत मिलना था। संस्था ने उसके लिए नौकरी ढूँढ दी और नौकरी ने उसी के मेल का एक जीवनसाथी दिला दिया।
दो साल पहले रीता ने अपने मिस्टर राइट के साथ घर बसा लिया। दोनों साथ ही नौकरी करते हैं। इधर गाँव में अन्हरी को छेड़ने वाले छिछोरे बेरोजगारी और लाचारी का अभिशप्त जीवन जी रहे हैं और अपनी दोनों आखों से रीता की ऋद्धि-सिद्धि देख रहे हैं।
शिक्षा का असर गाँव-गाँव, शहर-शहर में बड़ी ही तेजी से दिखाई दे रहा है। हम अंदाजा नही लगा सकते कि शिक्षा की वजह से हमारा समाज कितना तेजी से प्रगति कर रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण हमारे गाँव के इस किस्से में देखने को मिला।
(रचना त्रिपाठी)