आज मैं लड़कियों को विश्व स्तर पर क्रिकेट खेलते हुए देखकर अभिभूत हूँ। ऐसा लग रहा है मानो मेरा बचपन का सपना पूरा हो गया है। इन्हें देखकर स्कूल का अपना दिन याद आ गया जब लड़कियों के लिए खेलकूद प्रायः वर्जित क्षेत्र हुआ करता था।
अस्सी के दशक की बात है। बचपन से ही मुझे भाइयों के साथ क्रिकेट खेलने की छूट मिली हुई थी। बल्कि भाग-दौड़ वाले सभी खेल खेलने की आदत सी पड़ गई थी। जब मैं स्कूल में जाती थी तो वहाँ हम लड़कियों को गेम के नाम पर उछलने वाली रस्सी और रिंग-बॉल खेलने को मिलती थी। यह मुझे शारीरिक व्यायाम से ज्यादा कुछ नहीं लगता था। स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर से मैं अक्सर क्रिकेट अथवा बैडमिंटन की डिमांड किया करती थी। इसके लिए कई बार अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों को लेकर अक्सर स्पोर्ट्स ऑफिस के सामने धरने पर बैठ जाया करती थी। कुछ देर तक स्पोर्ट्स टीचर जो वहाँ पी टी मास्टर कहलाते थे, उनसे मेरी क्रिकेट पर बहस हो जाया करती थी। उनका कहना था - ''लड़कियां क्रिकेट नहीं खेलती है, आजतक कभी किसी लड़की को क्रिकेट खेलते देखा है?'' मुझे उनका यह वक्तव्य और भी उद्वेलित कर देता था। चूंकि मैंने भी अपने अलावा वहाँ किसी और लड़की को क्रिकेट खेलते नहीं देखा था इसलिए मुझे उनके इस सवाल का सही जवाब नहीं सूझता। फिर मन में पीटी मास्टर साहब को कोसते और बुदबुदाते हुए झक मार कर अपने क्लास की ओर चल पड़ती थी।
हमारे मन को चुभने वाली बात यही तक नहीं थी। उसी वक्त वे डांटते हुए यह कहकर हमें भगा दिया करते थे कि ''तुम सब जाओ, गृहविज्ञान पढ़ो।'' जिस पीरियड में लड़के फुटबॉल और क्रिकेट खेला करते थे वही हम लड़कियों के लिए गृहविज्ञान पढ़ने का पीरियड हुआ करता था। उस वक्त हम सबका ध्यान अपने विषय पर कम और स्कूल प्रांगण में ज्यादा रहा करता था।
काश मेरी मुलाकात उस पी टी मास्टर साहब से होती, तो मैं उनको साक्ष्य के साथ बताती कि लड़कियां भी कितना उम्दा क्रिकेट खेलती हैं।
(रचना त्रिपाठी)