Wednesday, January 29, 2014

कमाऊ बीबी - बवाले जान

लखनऊ से दिल्ली की यात्रा के दौरान स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस में मेरे ठीक पीछे वाली सीट पर बैठा युवक अपनी मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था। ए.सी. चेयरकार  में अपेक्षाकृत शांति थी और उसकी आवाज थोड़ी ऊँची जो बरबस ध्यान खींच लेने भर को काफी थी। उसकी बात से यह अनुमान लगा कि दूसरी ओर भी कोई पुरुष ही था । बात-चीत के दौरान उसने एक ऐसा वाक्य प्रयोग किया कि मेरी सोच वहीं जाकर अटक गयी। एक अपरिचित द्वारा मोबाइल पर किसी और से की जा रही बात पर कोई हस्तक्षेप तो किया नहीं जा सकता था; लेकिन मेरे मन में बार-बार यह वाक्य कौंधता रहा। उसने कहा था- “मेहरारुन के कमाइल बड़ा घातक बा।” इस वाक्य को सुनकर मेरे कान खड़े हो गये और दिमाग ने अपना काम करना शुरु कर दिया।

इस बात का अर्थ मुझे खूब अच्छी तरह से पता था। इसका मतलब होता है कि स्त्रियों का नौकरी करना बहुत नुकसानदेह है। मै लगातार इस बात पर मंथन करने लगी कि स्त्रियों का नौकरी करना आखिर घातक कैसे हुआ? पुरुष जब नौकरी करता है, कमाकर घर में पैसे लाता है तो कोई बात नहीं; लेकिन यदि औरत ने कमाना शुरू कर दिया तो कुछ गड़बड़ हो गयी। उस युवक की इस सोचपर मुझे तरस आती है और खींझ भी। आखिर इस बात की व्याख्या कैसे की जाय?

मुझे लगता है कि यह बात उस सोच का परिणाम हो सकती है जिसके अनुसार घर का कमाऊ व्यक्ति ही असली शक्ति का केन्द्र होता है। परिवार के लगभग सारे निर्णय या तो उसके द्वारा लिये जाते हैं या उसकी सहमति के बाद ही लागू हो पाते हैं। सामान्यतः घर का मुखिया भी वही होता है जिसके हाथ में अर्थोपार्जन का श्रोत है। एक पुरुष-प्रधान समाज में इस आर्थिक शक्ति पर पहला हक पुरुष का होता है, इसीलिए घर से बाहर निकलकर नौकरी या व्यापार करने का अवसर पहले लड़के को मिलता रहा है। घर की स्त्री बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने, रसोई संभालने और साफ-सफाई के काम में लगती रही है और घर के मालिक की इच्छाओं की पूर्ति कर लेने में ही अपने जीवन का श्रेय-प्रेय मान लेती रही है। उसकी तो जैसे कोई इच्छा ही न हो।

आजादी के साठ से अधिक साल बीत जाने के बाद अब इस स्थिति में परिवर्तन आ गया है। स्त्री ने समाज में अपनी भूमिका लगभग सभी क्षेत्रों में बढ़ायी है। अब वह नौकरी करके अर्थोपार्जन भी करने लगी है। जाहिर है कि नारी सशक्तिकरण के इस दौर की आँच ऐसे कूढ़मगज पुरुषों को लगने लगी है जो पुरानी सामन्ती व्यवस्था से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। उन्हें स्त्री का नौकरी करना इसलिए घातक लगता है कि अब उन्हें उसके ऊपर रौब गाँठने और चेरी बनाकर रखने का अख्तियार नहीं रहा।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, January 16, 2014

हाउसवाइफ मतलब हरफ़नमौला

आज सबेरे –सबेरे फोन पर पति को न्यूज सुनाने लगी, “अब देवयानी के पिताजी भी लोक सभा चुनाव लड़ेंगे।” इन्होंने झट से जवाब दिया, “बिल्कुल लड़ना चाहिए।”  हमने पूछा- क्यों? देवयानी प्रकरण के बाद उनका चुनाव लड़ना जरूरी हो गया क्या? बोले, “अरे! क्या बात करती हो; रिटायर्ड आइ.ए.एस. हैं, पढ़े लिखे आदमी हैं, योग्यता रखते हैं; तो क्यों नहीं चुनाव लड़े?”
इसपर हमने भी हाउसवाइफ होने के अधार पर अपनी तरफ से चुनाव लड़ने की दावेदारी ठोंक दी, “तब तो मुझे भी चुनाव लड़ना चाहिए, आखिर मै हाउस वाइफ हूँ।” इन्होंने जवाब दिया, “हाउस वाइफ होना कौन सा क्वालिफिकेशन है? घूरा- गन्ह‍उरा टाइप महिलाएं भी हाउसवाइफ हो जाती हैं। यह ऑक्युपेशन तो बाई डिफाल्ट मिल जाता है।
बताइए भला! एक घर चलाने में जाने कितनी कलाओं का प्रयोग करना पड़ता है। इसके लिए गणित-विज्ञान की जरूरत तो पड़ती ही है, माहौल अच्छा रखने के लिए जितनी जरूरत संगीत- नृत्य और साहित्य की पड़ती है उतनी ही स्वास्थ्य और सफाई के लिए केमेस्ट्री-बॉयलोजी की भी पड़ती है। घर का बजट बनाने और लागू करने में हम गृहिणियां जितनी चतुराई, दूरदर्शिता और अनुशासन का परिचय देती हैं उतना तो कोई सरकार भी नहीं करती। अचानक कहाँ कब किस ज्ञान का प्रयोग करना पड़े यह एक हाउसवाइफ ही बता सकती है। रही बात पॉलिटिक्स की, तो पहले एक संयुक्त परिवार में सास-ननद, देवरानी-जेठानी, चाची-बुआ, देवर-भसुर-ससुर और न जाने कितने चचेरे-ममेरे-फुफेरे रिश्तों के साथ निबाह कर और अब अपार्टमेंट की सोसायटी में रहकर थोड़ी-बहुत पॉलिटिक्स का अनुभव और ज्ञान भी रखने लगी हूँ। अपने परिवार में ही एक बार मुझे पॉलीटिशियन होने की उपाधि भी मिल चुकी है। (हालांकि उस समय मुझे यह उपाधि बहुत अच्छी नहीं लगी थी।) मैंने यह सीखा कि एक संयुक्त परिवार रहते हुए यदि आपका बटुआ भारी है तो परिवार के जितने सदस्य बेरोजगार रहते हैं वे हर समय आपकी दरियादिली और अपनी वफादारी की दुहाई दे-देकर तब-तक सटे रहते हैं जब-तक की उनकी अपनी जड़ मजबूत न हो जाय। यही हाल तो बाहरी समाज और पॉलिटिक्स का भी है। इतने सारे अनुभव के बाद हमें लगता है कि एक संयुक्त परिवार में प्रभावशाली बने रहना किसी राजनीतिक सत्ता में बने रहने से कम नहीं होता है।
तो अब बताइए कौन सा क्षेत्र छूट रहा है जिसमें एक हाउसवाइफ अच्छा नहीं कर सकती। क्या चुनाव लड़ने के लिए किसी असली पॉलिटिकल बैकग्राउन्ड का होना जरूरी है? अथवा आइ.ए.एस. - आइ.पी.एस. या किसी दूसरी सेवा में होना?
(रचना त्रिपाठी)

Saturday, January 11, 2014

झाड़ू के बाद चाहिए पोंछा

जबसे दिल्ली में एंटीकरप्शन दवा का छिड़काव हुआ है तबसे करप्शन वाली बैक्टिरिया ने अपनी सेफ्टी के लिए एंटीकरप्शनब्यूरों के अफसरों और पॉलिटिशियन्स के साथ सांठ-गांठ कर छिड़काव करने वाले डॉक्टर पर अपना दबाव बनाना शुरू कर दिया है। पैरामेडिकल स्टाफ को पटाने की कोशिश में शुरुआती सफलता मिलती दिख रही है। डॉक्टर साहब यह भूल गये हैं कि हास्पिटल में पैरामेडिकल स्टाफ भी ट्रैंड होना चाहिए। इनकी हाइजीन गड़बड़ हुई तो सारा प्रयास बेकार हो जाएगा।

बीमारी कैंसर की हो या करप्शन की डॉक्टर को आधे-अधूरे उपचार से परहेज करना चाहिए। एंटीबायोटिक का पूरा कोर्स न दिया जाय तो बीमारी का संक्रमण खत्म होने के बजाय और तेजी से फैलता है। ऐसे में बीमारी का किटाणु उस दवा के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेता है।

कैंसर के उपचार में सर्जरी से लेकर कीमोथिरैपी तक की विधि में अलग-अलग प्रकार के स्पेशलिस्ट की जरूरत पड़ती है। अगर ऐसा होता कि सर्जन ही रेडियोलोजिस्ट और कीमोथिरैपिस्ट का कार्य भी कर लेता, तो क्या जरूरत थी सरकार को इतने बड़े-बड़े खर्चे करके अलग-अलग विशेषज्ञ तैयार करने की। जनरल फिजीशियन से साधारण बीमारियों का इलाज तो करा सकते हैं लेकिन जब कोई गम्भीर बीमारी हो जाय तो कई विशेषज्ञों को लगाना पड़ता है।

करप्शन का रोग तो कैंसर से भी ज्यादा विकराल रूप ले चुका है। मिस्टर केजरीवाल के इरादे देश से करप्शन मिटाने के तो नेक है लेकिन इनके आधे-अधूरे उपचार से बात नहीं बनने वाली। मि. केजरीवाल इस देश से जिस बीमारी को साफ करने की बात कर रहे हैं उस बीमारी के वायरस और बैक्टिरिया अब उनकी आम आदमी पार्टी से ही चिपकने की कोशिश करने लगे हैं। ये लोग भी जब उसी भ्रष्ट राजनीति के तेल-मसाले में सने पकौड़े खा रहे हैं, उसी अनहाइजेनिक नौकरशाही की धूल-मिट्टी में लोट-पोट हो रहे हैं और सबकी रातोरात धनवान और शक्तिशाली बनने की लालसा से भरी हुई प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं तो इस बीमारी से खुद को भला वे कैसे उबार पाएंगे? रोग से पूरी तरह छुटकारा पाने के लिए सिर्फ झाडू- खरहरा से काम नहीं चलने वाला; जबतक कि उस पर भरपूर मात्रा में फिनायल डालकर पोंछा न मारा जाय।

इस आम आदमी पार्टी के वश में करप्शन जैसी बीमारी से अकेले अपने दम पर पार पाना मुश्किल लग रहा है। मुझे लगता है कि इस बीमारी को जड़ से साफ करने के लिए एक और पार्टी का गठन करना पड़ेगा। ऐसी पार्टी जो झाड़ू की सफाई के बाद उड़ने वाली धूल को मिटाने के लिए धुलाई और पोंछा लगाने का काम भी पूरा कर सके। इस कार्य को आम औरतें ही पूरा कर सकती हैं, क्योंकि इसकी विशेषज्ञता उनके पास है और इसके लिए कमरतोड़ मेहनत करने में उन्हें महारथ हासिल है। आम औरत में एक प्रबल गुण यह भी होता है कि वह आम और खास के बीच कोई भेद नहीं करती। सबके प्रति एक सामान्य दृष्टि रखती है और अच्छे बुरे का भेद खूब पहचानती है।

मैं आज इस पार्टी के नाम की घोषणा करती हूँ- “आम औरत पार्टी” जिसका चुनाव चिन्ह होगा “पोछा”। इस पार्टी की सदस्यता नि:शुल्क दी जाएगी। जहाँ की सफाई झाड़ू से नहीं पूरी हो सकेगी वहाँ पहुँचकर यह पार्टी पोंछा लगाएगी। हमें विश्वास है कि इस पार्टी की मदद से करप्शन जैसी बीमारी को धो-पोंछ कर इस देश के बाहर फेंक दिया जाएगा।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, January 8, 2014

औरत हो औरत की तरह रहो...!

औरत हो औरत की तरह रहो”, यह जुमला प्राय: सभी औरतों को कभी न कभी सुनने को जरूर मिला होगा। इसी वाक्य से खासकर मध्यमवर्गीय स्त्रियों को नवाजा जाता है। एक मध्यमवर्गीय परिवार में महिलाओं की स्थिति बहुत ही कठिन और बेबस होती है। क्या मतलब है ‘औरत की तरह’ होने का? मुझे लगता है इसका आशय है कि औरत की पहचान मूक-बधिर बने रहना है जो बिना किसी विरोध के अच्छे-बुरे हर तरह के कार्यों को मौन स्वीकृति प्रदान करती रहे। बस तभी उसके अंदर एक स्त्री होने के गुण परिलक्षित होते हैं वरना उसके स्त्रीत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है।

ऐसी महिलाओं को किसी भी परिस्थिति में मुंह बंद करके रहने की सीख दी जाती है। औरत हो औरत की तरह रहो - यह इस समाज द्वारा बनाए गए मध्यमवर्गीय स्त्रियों के लिए सिद्धान्त का एक पाठ है। ऐसे परिवार की स्त्रियों को उसके पति, पुत्र, भाई और यहाँ तक कि परिवार की दूसरी स्त्रियाँ- माँ, बहन, बुआ, मौसी; और कभी-कभी उसके पड़ोसी और वहां के नजदीकी समाज द्वारा भी छोटी-छोटी बातों पर उसे अल्पज्ञ समझ कर बिना किसी सुनवाई के यह पाठ पढ़ाया जाता है। अपने परिवार में ही उसके विचारों की कोई मान्यता नहीं दी जाती।

इस बेबसी को कैसे व्यक्त किया जाय यह मै स्वयं बताते हुए असहज महसूस करती हूँ। क्योंकि मुझे भी एक बार मेरे पड़ोसी द्वारा इस सूक्ति से नवाजा जा चुका है। जिस सोसाइटी में अभी मै रह रही हूं, एक मीटिंग के दौरान मेरे द्वारा कुछ प्रश्न कर देने पर इस सोसाइटी के मुखिया ने मुझे भी यही नसीहत दी थी। जिस पल को मै आज-तक नही भुला पायी हूँ।

यह भी झुठलाया नहीं जा सकता कि कुछ महिलाएं इसे उपहार स्वरूप स्वीकार भी कर लेती है। मुझे उनकी इस स्वीकृति में बहुत बेबसी नजर आती है, क्योंकि वह अपने दिल और दिमाग से तो कुछ और सोचती हैं, लेकिन उनकी जुबान कुछ और बोलती है। शायद उन्हें बार-बार इस बात का डर सताता है कि कहीं उसे स्त्री से परे कुछ और न समझ लिया जाय। वह अपने ऊपर हुए अत्याचारों को भी इसलिए सहती रहती हैं कि कहीं यह समाज उन्हें स्त्री न होने का प्रमाणपत्र ना पकड़ा दे।

मैंने देखा है कि इस तरह की बेबसी गाँव की मजदूर औरत में या समाज के निचले तबके से संबंधित किसी परिवार की स्त्रियों में नहीं मिलती। वहाँ की औरतें मर्दों के कन्धे से कन्धा मिलाकर सारे काम भी करती हैं अपनी बातों को बड़ी ही निडरता से कहीं भी बिना झिझक रख भी देती हैं। अगर उनकी सुनवाई नहीं की जाती तो इसी समाज द्वारा बनाए गए सभी फार्मूले (साम, दाम, दंड, भेद) भी आजमा डालती हैं। समाज के उच्च वर्ग की स्त्रियों को भी अपनी बात रखने और कदाचित्‌ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करने का अवसर है। लेकिन ‘औरत की तरह’ रहने की बेचारगी सिर्फ मध्यमवर्गीय महिलाओं में ही पायी जाती है; ऐसा क्यो?

(रचना त्रिपाठी)