Wednesday, May 27, 2015

मैगी-कांड के साइड-इफ़ेक्ट्स

खाने के लिए मैगी हो या निभाने के लिए कोई रिश्ता, उसका आनंद सिर्फ "दो मिनट" में मिलता नहीं है। यदि सच्चा आनंद चाहिए तो सभी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे और जवानों को इस पर भरोसा करने से पहले अपने आप को थोड़ा वक्त देना चाहिए। जिस तरह रातो-रात बड़ा आदमी बनने की जल्दबाजी ने कई तरह के अपराधों को जन्म दिया है ठीक उसी तरह चट-पट खा लेने की जल्दबाजी ने "मैगी" को जन्म दे दिया है। मैगी ही क्यों ऐसे और भी बहुत से रेडीमेड उत्पाद हैं जिसे निपटाने में दो मिनट भी नहीं लगते। कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती; बस पैकेट फाड़ा और सीधे मुंह में ही उड़ेल लिया। कुरकुरे, अंकल-चिप्स, टकाटक, नाच्चोज, आदि तमाम ऐसे और नाम हैं जिन्हें याद रखना मुश्किल है।
ये माना कि जीवन में अनेक संघर्ष हैं, व्यस्तताएँ हैं और काम बहुत ज्यादा है; जिसमें खाने-पीने के लिए समय कम मिल पाता है; लेकिन इस बहाने से स्वास्थ्य की समस्या को दावत देना ठीक नहीं। जीने की राह बहुत कठिन है पर इसे सरल बनाने के तरीके भी बहुत से हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में इंसान खुद को स्वस्थ रखने के लिए भी समय नहीं देना चाहता। यह सही है कि फास्ट-फूड आपका पेट भरने में ज्यादा समय नहीं लेता। पर यह कैसे संभव है कि आप समय भी न दें और स्वाद के साथ सेहत भी बनी रहे।
यह धारणा गलत है कि खुद को सुखी बनाने के लिये सिर्फ एक ही उपाय है- "रुपैया"। सारी भाग-दौड़ रुपया कमाने के लिए ही तो हो रही है। लेकिन क्या इससे सारा सुख खरीदा जा सकता है?
मेरी मानो तो सुख का मतलब रुपैया ही सब कुछ नहीं है। इस रुपैया के पीछे अपने  शरीर को दांव पर लगाना ठीक न होगा; क्योंकि जब यह "देह" ही सही-सलामत नहीं रहेगी तो हमारी ख़ोपड़िया ठीक-ठाक कैसे काम करेगी...? बस खाली नवरत्न तेल लगाने से ख़ोपड़िया अगर कूल-कूल रहती और टेंशन चला जाता पेंशन लेने तो यह रामबाण इलाज सभी कर लेते, लेकिन इलाज तो कहीं और है...।
हमारे यहाँ जीवन की तीन मूल भूत आवश्यकताओं-रोटी कपड़ा और मकान में से सबसे महत्वपूर्ण है रोटी अर्थात् भोजन। अच्छे उदर-सुख की तीन अनिवार्य शर्तें इस भोजपुरी कहावत में समाहित है-"जूरे, रुचे, पचे"। आइए इसका अर्थ जानते है- सर्वप्रथम शर्त है अच्छे भोजन की उपलब्धता अर्थात् क्रयशक्ति का होना, दूसरी शर्त है भोजन का रूचिकर होना अर्थात् भोजन हमारी स्वाद इन्द्रियों के अनुकूल हो और हमें पसन्द आये। लेकिन अगर हमने भोजन अर्जित भी कर लिया और उसका स्वाद भी पसन्द आ गया तो भी जरुरी नहीं है कि वह भोजन डाइजेस्ट/ हजम भी हो जाएगा। इसलिए तीसरी महत्वपूर्ण शर्त है कि भोजन सुपाच्य भी हो अर्थात् जिसे हमारा पेट पचा सके। आज के फ़ास्ट फ़ूड कल्चर में यह शर्त सबसे महत्वपूर्ण है। आजकल स्वाद के चक्कर में बहुत हानिकारक तत्व हमारे शरीर में समाते जा रहे हैं। मैगी-कांड इसका ताजा उदाहरण है।
आपके शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन का सुख चाहिए और इस सुख के लिए इन तीन शर्तों में संतुलन चाहिए। तीनों में से किसी भी एक चीज की कमी हुई तो बात बिगड़ जाएगी। गरीबी है तो संतुलित भोजन नहीं मिलेगा। खूब पैसा कमाते हैं तो खाने के लिए होटल और रेस्तराँ जाना पसन्द करते हैं, जहाँ आपको तेल-मसाला और रासायनिक पदार्थों को पेट में भरना होता है। कुछ दिन बाद यह पचना बन्द हो जाएगा। तो भाइयों और बहनों, अगर आप आजीवन स्वस्थ और सुखी रहने की तमन्ना रखते हैं तो अपने और अपने परिवार के लिए थोड़ा वक्त निकालिये।
यह वक्त घूमने-फिरने में नहीं बल्कि अपने घर में, अपने किचेन में बिताइए। मिलजुलकर अपने हाथों से साफ-सुथरा और ताजा कुछ बना लीजिए। अपने घर का बना भोजन अवश्य ही आप और आपके परिवार के लिए हितकारी होगा। यह ऊपर बताई गयी तीनो शर्तों को एक साथ पूरा करेगा। पूरा संतुलन साध लेंगे आप। आपसी रिश्ते भी मजबूत होंगे । घर की रसोई में बना भोजन अच्छे स्वास्थ्य के साथ-साथ स्वस्थ रिश्तों को भी जन्म देता है। मेरी माने, तो इस नुस्खे को एक बार जरूर आजमाएं। आप पर भी किरपा अवश्य बरेसगी।
(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, May 13, 2015

आस्तीन में मुंहनोचवा

सन् 2002-03 की बात है, जब हम लोग नेपाल से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक जिला मुख्यालय की सरकारी कालोनी में रहते थे। उस समय पूरा शहर 'मुंहनोचवा' की मार से आजिज था।

आये-दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता था, आज यहाँ देखा गया तो कल वहाँ। कोई कहता कि पंजो वाला बड़ा जंतु है, नाखूनों से वार करता है। तो कोई उसे बड़ी टांगों और लंबी पूछ वाला कीड़ा बताता था। अखबार का एक पूरा पेज मुंहनोचवा से प्रताड़ित लोगों की तस्वीरों से भरा रहता था। इस विचित्र हमलावर का प्रहार अक्सर शरीर के खुले हिस्से में होता था। जैसे- हाथ, पैर और गर्दन का ऊपरी हिस्सा... घाव देखकर ऐसा लगता था मानों कोई  किसी साजिश के तहत रात में लोगों के ऊपर तेज़ाब फ़ेंक कर भाग जाता हो। ऐसा अखबारों में पढ़ा था। मुंहनोचवा की खोज का सिलसिला भी महीनों अख़बारों में जारी रहा। पर ठीक से किसी को मालूम नहीं चला कि वह देखने में कैसा था...?

उस दिन सुबह से शाम हो गई थी पर हमारी पड़ोसन मिसेज शर्मा नीचे नहीं उतरीं। दिन में करीब एक से दो बार बड़े करीने से पतली प्लेट्स में साड़ी पहने... कभी अपने दाहिने हाथ की तर्जनी में घर के दरवाजे की चाभी की रिंग डाले, उसे गोल गोल घुमाते हुए तो कभी ऊन-सलाई के साथ अपनी बुनाई का काम लिए वे नीचे सड़क पर निकल पड़ती थी। अक्सर सिर ऊपर उठाकर मेरी बालकनी की तरफ देखतीं और मुझे भी आवाज लगातीं- " जुनजुन की मम्मी नीचे आइये, चौकड़ी जमाते हैं।"

मेरी भी आदत सी बन गई थी - साहब लोगों के ऑफिस या कहीं बाहर जाने के बाद मुहल्ले की सभी गृहिणियों के साथ बैठकर गप्पे लड़ाते हुये ठहाके मारने की। मिसेज शर्मा के हाथों स्वेटर की बुनाई की चर्चा तो पूरी कालोनी में थी। अक्सर कोई न कोई स्वेटर की डिजाइन सीखने के बहाने हमारी चौकड़ी में साथ देने पहुंच ही आता था। फिर तो दो-तीन घण्टे कैसे बीत जाते थे, पता ही नहीं चलता।

उस दिन उनके घर का दरवाजा खुला हुआ था, लेकिन वे दिख नहीं रहीँ थीं। मुझसे भी रहा नहीं गया। मैं जायजा लेने अंदर चल पड़ी। भाभीजी...! आवाज लगाते उनके ड्राइंग रूम से होकर भीतर वाले कमरे  की तरफ बढ़ी।

"आप भी यहीं आ जाइये" किचेन की तरफ से आवाज आई। देखा तो पकौड़ियाँ बनाने के लिए प्याज काट रही थीं। मैंने पूछा- "कोई आने वाला है?"
"नहीं तो!"
"फिर इतनी सारी तैयारी किसके लिए?"
"आज चुन्नी के पापा ऑफिस से घर जल्दी आ गये थे। चाय के साथ पकौड़ियाँ भी बनाने को बोले हैं।"
"ओय-होय... तो ये बात है... तभी मैं कहूँ आज आप इतनी व्यस्त क्यूँ है जो नीचे नहीं उतरीं?"
" ऐसी कोई बात नहीं... सुबह से मेरी तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी"
"ओहो, इसीलिए भाई साहब घर जल्दी आ गये होंगे...? पर यह भी क्या खूब रही! जब तबियत ठीक नहीं थी तो आपको आराम करना चाहिए था और आप हैं की पकौड़ियों में लगीं हैं...? इससे तो अच्छा था कि वो ऑफिस में ही रहते"

मेरे मुंह से इतना सुनते ही वह भावुक होकर अप्रत्याशित आवेश में आ गई। मेरी तरफ पलटकर बड़ी तेजी से बोली- " उन्हें इससे क्या फर्क पड़ता है...?" बुदबुदाते हुये... उनकी आवाज फिर कुछ ऐसी आई- "मरती रहो पर करती रहो"

मेरी नजर  उनके चेहरे पर टिक गयी थी। जो गोरा-चिट्टा, चमकदार और गुलाबी नाजुक चेहरा देखकर बहुतों को रश्क हो जाता था उसकी हालत देखकर  मैं चौक पड़ी।
"अरे, ये क्या! आज फिर वही काला धब्बा...हो न हो भाभी जी, आपके घर में भी मुंहनोचवा है!"
अब मुंहनोचवा को लेकर मेरी उत्सुकता और चिंता बढ़ गई थी। मैं पूरी तरह विश्वास कर चुकी थी कि यह प्राणी काल्पनिक नहीं है। उनका बिगड़ा चेहरा देखकर मैंने मन में सोचा शायद इसीलिए लोगों ने उसका नाम मुंहनोचवा रख दिया हो।

मैं उनसे ठिठोली करने पर उतर आई- "अब पता चला इस मुएं मुंहनोचवा का राज... इसका टारगेट भी ख़ूबसूरत चेहरे ही हैं।" लेकिन उनकी प्रतिक्रिया अनमनी सी थी। सच में दुःखी लग रही थीं।

तत्काल हमने भाव बदला और उन्हें अलर्ट किया- "देखिये, आप सावधान हो जाइए! रोज रात में मच्छरदानी लगाकर सोया करिये। मैं कुछ दिनों से देख रही हूँ कि आपके चेहरे का एक दाग अभी ठीक नहीं होता तबतक दूसरा धब्बा फिर उग आता है। हो न हो यह मुंहनोचवा का ही प्रकोप है! और सुनिये, अगर आपको कहीं दिख जाय तो मुझे भी बताइयेगा। मैं भी उसे देखना चाहती हूँ। फिर हम दोनों अखबार वालों को जीते-जागते सबूत के साथ उस मुंहनोचवा के बारे में बताएँगे। सच में भाभी, फिर बड़ा मजा आएगा!"

हमेशा की तरह उनके चेहरे की चमक और बिंदास ठहाके वाली हंसी आज गायब थी। अचानक मेरे सामने एक अदद मुस्कान बनाये रखने की उनकी कोशिश भी नाकामयाब हो रही थी।
मेरे प्रश्नवाचक चेहरे की ओर आँख उठाकर उन्होंने देखा तो भीतर दबाया हुआ दर्द जुबान पर आ ही गया।
पीड़ा से भरी मुस्कान को सहेजकर धीरे से बोली-  "...और मुंहनोचवा जब मच्छरदानी के भीतर ही मौजूद हो तब क्या करेंगे...?"
इतना सुनकर कुछ देर तक मैं सन्न रह गई...! सोच नहीं पा रही थी की क्या बोलूँ। उनकी पीड़ा पर मुझे अबतक मजाक सूझ रहा था। अब ग्लानि ने घेर लिया।
मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा-
"यह तो बलात्कार है...?"
"नहीं-नहीं, यही उनका प्यार है...!" उनके चेहरे की वितृष्णा साफ़ झलक रही थी।

(रचना त्रिपाठी)