Friday, February 11, 2022

नन्हकी

दो दिन हो चुके थे उस बियाबान में रेल की पटरी पर बैठकर इंतजार करते। घुटनों में सिर डाले बैठी वह इस आस में थी कि घण्टे भर में कोई न कोई गाड़ी आएगी और उसे इस बेरहम दुनिया से बहुत दूर लेकर चली जाएगी। लेकिन बिधना ने उसके लिलार पर मांगी हुई मौत भी नहीं लिखी थी। घर पर न जाने क्या हाल होगा? विजेंदर भी न जाने कहाँ गया। उसकी भी क्या गलती। वह तो पंजाब से चला आया था उसे ले जाने। उसकी नरक समान जिंदगी से छुटकारा दिलाने। उस रात की याद आते ही एक टीस ने उसे बेध दिया।...


कुछ भी तो नहीं मिला उसे। होश सम्हालने से पहले बाप का साया उठ गया। दो-दो बड़े भाइयों के बाद जब बेमन उसका जन्म हुआ तो किसी ने थाली नहीं बजायी। उसके बाद ही नौकी बीमारी फैली और अचानक घर के मुखिया चल बसे थे। गरीब विधवा माँ ने बेमन से पाला। थोड़ी बड़ी हुई तो दोनो भाई बाहर कमाने चले गए। गाँव में घर के भीतर-बाहर का काम करते-करते वह कब सयानी हो गयी पता ही नहीं चला। एक विजेंदर ही था जो उसके मन को थोड़ा खुश कर देता। लेकिन यह छोटी सी खुशी भी घर में माँ से लेकर गाँव भरके लड़कों, मर्दों और औरतों को अखरती रहती। उसपर सब के सब पहरा करते। एक झलक देखभर लेने के लिए उसे कितना जतन करना पड़ता। लेकिन विज्जू ने उसके ऊपर जाने क्या मंतर फेर दिया था कि वह सारी लाग-डांट के बाद भी उसके पास खिंची चली जाती थी।


जाने कैसे अम्मा ने उसे विजेंदर के साथ तब देख लिया जब गाँव के मर्द रात में फगुआ गाने के लिए जुटे थे और वह चाय देने के बहाने वहाँ जाकर उसे मिली थी। ढोलक और झाल के कानफोड़ू संगीत पर झूमते फगुहारों के बीच से अंधेरे में सरककर विजेंदर ने उसे बाहों में भर लिया था। वह दुर्लभ सुख उसकी नसों में झुरझुरी बनकर दौड़ने लगा था तभी अम्मा जैसे आसमान से प्रकट हो गयी। उसका झोंटा पकड़कर खींचते हुए घर के भीतर ले आयी। फिर रात भर मार खाती रही नन्हकी। बेंत का झाड़ू शायद उतना चोट नहीं दे पाया जितना अम्मा की जहर उगलती जबान ने बेध दिया था।


सबेरे ही अम्मा ने अपने बेटों को मोबाइल मिलाकर घंटे भर बात की और विस्तार से बताया कि कैसे नन्हकी को पाँख जम गया है जो कतरना जरूरी हैं। जल्द से जल्द बियाह करके बिदा नहीं किया गया तो कुल-खानदान को डुबा देगी। 


बिरजू और नगीना ने अगली गाड़ी पकड़ी और गाँव आ गए। फिर एक रात नन्हकी के लिए बज्जर (बज्र) बन कर आयी। भाइयों ने प्रताड़ना की हदें पार कर दीं। बिरजू ने तो गुस्से में उसका गला ही दबा दिया होता लेकिन माँ दीवार बनकर खड़ी हो गयी। लोक-लाज और खानदान की इज्जत का हवाला दिया और समझा दिया कि जल्दी से विवाह कर देना ही इस समस्या का उचित समाधान है।


बिरजू और नगीना ने भाग-दौड़कर एक लड़का पसंद कर लिया और आनन-फानन में बरच्छा (रोका) चढ़ा आए। पंडीजी ने होली के बाद की साइत देखकर विवाह की तिथि बता दी। तैयारियां होने लगीं।


यहसब सुनकर विजेंदर बेचैन हो उठा और नन्हकी के घर के आसपास मंडराने लगा। एक दिन नगीना ने उसे ताड़ लिया और पकड़ कर घर में बैठा लिया। विजेंदर ने भाग जाने की कोई राह न देखकर नन्हकी से अपने प्यार की बात कबूल कर ली और फिर दोनो भाइयों ने उसका मुँह दबाकर बुरी तरह धुन दिया। पोर-पोर में दर्द की टीस और दोनों भाइयों से अपमान का घूँट पीकर वह आँसू दबाते हुए बाहर निकला और अगले ही दिन गाँव से लापता हो गया। 


होली बीतने के बाद विवाह की तैयारियां जोर पकड़ने लगीं। पहुनी-पसारी जुटने लगे। भाइयों ने विजेंदर की पिटाई के बाद गाँव छोड़ देने से यह मान लिया कि अब बहन की विदाई में कोई अड़चन नहीं आएगी। वे शहर से विवाह और गवना (विदाई) का सामान लेने और रिश्तेदारों को बुलाने के लिए अक्सर बाहर आ-जा रहे थे। लेकिन नन्हकी तो अपने विज्जू का सनेसा अगोर रही थी। 


एक दिन विज्जू का संघतिया (जिगरी) मोहना मौका देखकर घर के पिछवाड़े नन्हकी से मिला और मोबाइल थमाकर चला गया। फोन पर विजेंदर की हेल्लो सुनते ही नन्हकी डहक उठी। कलेजे से उठती हूक दबा नहीं पायी। हिचकियों के बीच बस इतना सुन पायी कि वह अमृतसर से बहुत जल्दी आएगा और उसे ले जाएगा। तभी घर के भीतर से उसे किसी ने पुकारा तो झट उसने मोबाइल छिपा लिया और भागकर भीतर आ गयी। इसके बाद नन्हकी ने तैयारियां शुरू कर दीं- एक सुंदर सपना सच करने की जो उसे इस नरक से निकालने वाली थी।


बारात आने में कुछ ही दिन बचे थे तभी विजेंदर गाँव में अचानक प्रकट हुआ और पहले से तय प्रोग्राम से नन्हकी को बुला ले गया। साँझ के धुँधलके में जब घर की औरतें दीया-बाती करके संझा-पराती गाने बैठी थी तभी नन्हकी ने अपनी गठरी उठायी और घर के पिछवाड़े से निकल गयी। मोहन ने अपने टेम्पू से इसे रेलवे स्टेशन के बाहर छोड़ दिया और बताया कि विजेंदर वेटिंग हाल में ही मिल जाएगा। वह दौड़कर भीतर गयी तो विजेंदर लोहे की बेंच पर सिर थामे बैठा मिला। 


एकबारगी इसका दिल जोर से धड़क उठा जब अपने विज्जू की आंखों में वैसा उत्साह नहीं दिखा जिसकी उम्मीद इसने की थी। इसने उसे झिंझोड़कर उठाया और लिपट गयी। थोड़ी देर बाद विजेंदर ने उसे देह से अलग किया और हाल में लगे टीवी की ओर इशारा किया। स्क्रीन पर कोरोना के प्रकोप से देशव्यापी लॉक-डाउन लागू हो जाने की खबर चल रही थी। 


पूरी खबर देखकर नन्हकी धम्म से जमीन पर बैठ गयी। उसका सुंदर सपना भी इस लॉकडाउन की चपेट में आ गया। उसे जैसे काठ मार गया। विजेंदर ने भी नीचे बैठकर उसका हाथ थाम लिया। उसकी आँखों से लोर बहती रही। अंततः आंसुओं ने भी साथ छोड़ दिया और चेहरे को सूखा छोड़कर रात के सन्नाटे में चुक गए। स्टेशन बन्द कर रहे कर्मचारियों ने उन दोनो को बाहर कर दिया। विजेंदर ने समझ लिया कि अब दोनो का साथ रहना मुश्किल होगा। उसने कहा कि दिल कड़ा करके अपने-अपने घर लौट जाना पड़ेगा। हालत सुधरने पर फिर कोशिश करने का वादा करते हुए वह तेज कदमों से निकल गया। 


नन्हकी फिर क्या करती? ये रेल की पटरियां ही उसे इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकती थीं। लेकिन हाय रे किस्मत!


इधर बिरजू और नगीना जब लॉकडाउन के कारण विवाह में संभावित बाधा से चिंतित हुए घर आए तो नन्हकी की माँ बेसुध पड़ी थी। उसे काटो तो खून नहीं। नन्हकी के गायब होने की बात उनकी फूआ ने बताई जो विवाह की रस्में सम्हालने के लिए  पहले से आ चुकी थीं। कलेजे पर पत्थर रखकर दोनो भाइयों ने पैदल ही पूरा जवार छान मारा। कुआँ, ताल, पोखरा कुछ भी नहीं छोड़ा। विजेंदर के टोले में खुद तो नहीं गए लेकिन गोपनीय तरीके से पता लगवाया कि कलमुँही उधर ही तो नहीं छिपी है।


एक-एक पल पहाड़ सा बीत रहा था। शादी के घर में मरघट की शांति छा गयी थी। तीन-चार दिन बीत गए और घर वाले पागल की तरह नन्हकी को खोज रहे थे। पुलिस को खबर नहीं की। लॉक डाउन में उधर जाने की हिम्मत भी नहीं हुई। 


आज मटकोड़ की रात थी। लेकिन घर में मातम पसरा था। सभी अस्त-व्यस्त पड़े हुए रतजगा कर रहे थे। तभी रात के अंधेरे में दबे पाँव लस्त-पस्त नन्हकी ने घर के पिछवाड़े से प्रवेश किया। उसपर सबसे पहली नजर फूआ की ही पड़ी। उन्होंने दौड़कर उसे अँकवार में भर लिया। दोनो पुक्का फाड़कर रोने लगीं। आवाज सुनकर सबलोग आंगन में जुट गए। नगीना ने दौड़कर बाहर का दरवाजा बंद कर दिया। फूआ की गोद में दुबकी नन्हकी को जब सुरक्षा घेरा का भरोसा हुआ तो फफक पड़ी। तभी उसकी माँ का एक झन्नाटेदार चाटा उसकी गाल पर पड़ा। उसकी घिघ्घी बँध गयी। माँ गुस्से से तमतमाई गरज उठी- "रे मुँहझौसी, ते ओहरे मरि-खप काहें न गइले... सबके मुँहें में करिखा पोति के लौटि काहें अइले?"


नन्हकी के चेहरे पर एक भयानक खौफ दिख रहा था। वो अपनी अम्मा को ये समझाने की कोशिश करने लगी कि वह लौटकर कतई नहीं आना चाहती थी। रो-रोकर कह रही थी, "हमार करम फूटल रहे अम्मा कि टरेनवो नाहीं आइल... ये जियले से निम्मन कि हम ओहरे कट-मर गइल होइती... लौट के इहाँ कब्बो नाहीं अइती।" 


इतनी रात को नन्हकी के रोने-कलपने की आवाज घर के बाहर न जाए इसलिए उसकी फुआ बियाह के सगुन का गीत कढ़ा के ख़ूब जोर-जोर से टेर के गाने लगीं। 


नन्हकी के घर से सगुन का गीत और बीच-बीच में रोने की सुबकियां सुनकर उसके दरवाजे पर एक-एक करके गाँव की औरतें इकट्ठी हो गईं। इस बात की भनक लगते ही नन्हकी की अम्मा उसको चुप कराने लगी। बाहर खड़े लोगों को सुनाते हुए जान-बूझकर ऊंची-ऊंची आवाज में बोलने लगी- "जब से एकर बिआह तैं भईल बा रो-रो के बेहाल भइल बा... देहि सूखि के लकड़ी हो गइल, बाकिर ढंग से कुछू खात-पियत नइखे... देखत तनी तs बिदाई से पहिले आपन तबियत बिगाड़ ली।" 


यह सुनाते हुए नन्हकी की अम्मा घर से बाहर निकली। अपने आँसूं पोछते हुए वहाँ खड़ी औरतों को यह बताने की कोशिश करने लगी कि नन्हकी ससुरा जाने के नाम से घबड़ा रही है। बहुत दिनों से खाना-पीना तज दी है। एक्के ठो बहिन है। बिरजू और नगीना बहुते मानते हैं उसे। दोनों कबसे उसे समझा रहे हैं कि जब हमको भेंट करने के लिए  बुलाएगी तो हम उहाँ आ जाएंगे। एतना लामे भी तो नहीं है इसका ससुरा कि आने-जाने में समय लगे। लेकिन वो कुच्छहु  सुनने को तइयार नहीं है।


वहाँ जमा हुई अधिकांश औरतों ने सब जानते हुए भी अपना मुंह दबा लिया। गाँव की इज्जत इसी में है कि किसी तरह से वो जल्दी अपने ससुराल जाय और ई बला टले! तभी उनके बीच से भन्न से एक आवाज आयी "जबरा मारे रोवहूँ न दे"। फिर उनमें से एक ने गाभी मारते हुए कहा कि "नन्हकी के अम्मा, उसको बता दो कि लॉकडाउन में पूरा देश बंद हो गवा है... अभी एतना रोने की कवनो जरूरत नहीं है... इसके बियाह का दिन भी अऊर आगे टर जाएगा... अइसन सरकार का आदेश है। कह दो तबतक इहवाँ रह के कुछ दिन और खेले-खाए।"


(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, February 9, 2022

ये चुनाव और वह दर्द

जब-जब चुनाव आता है बड़की दीदिया बिफर पड़ती है। उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर होता है। जाने वो कौन सी टीस थी जो उसके भीतर से उमड़ पड़ती है! जब-जब पार्टी वाले गाँव में अपने प्रचार के लिए आते हैं लगता है जैसे उसे किसी बिच्छी ने डंक मार दिया हो। वो भुनभुनाना शुरू कर देती हैं- वे दोगले हमें कहीं मिल जाए तो मैं भी उनका वैसे ही कान उमेठ दूँ जैसे उस दिन मेरे चाचा-ताऊ ने घर के दरवाज़े पर मेरा उमेठा था। बहुत पूछने पर बताने लगी- मेरे लड़कपन के वो चंद खूबसूरत पल कुछ ही मिनटों बाद किस प्रकार कभी न भूल सकने वाले दर्द में तब्दील हो गये जिसे मैं अपने जीवन में आजतक ढो रही हूँ। और वे हैं कि हर पाँच साल बाद एक नए चुनाव चिन्ह के साथ खड़े हो जाते हैं।

 

आज की तारीख़ में माइक देखते ही मुझे उनकी मोटी-मोटी घूरती आँखेकड़कती आवाजें याद आने लगती हैं। मेरे कान वैसे ही गरम होने लगते हैं जैसे उस दिन मेरे हाथों में इन्हीं नेताओं ने अपनी माइक पकड़ा दी थी और कहा था कि- बिटियातुम इस माइक में अपने गाँव वालों से मेरे लिए वोट माँगकर भारी मतों से विजयी बनाने की अपील करो। 

 

मैं ठहरी नादानमुझे नहीं मालूम था कि वे लोग हमारे विरोधी पार्टी के हैं। पहली बार मेरे हाथ माइक लगा था। उत्साह वश मैंने गाँव के बीच खड़े होकरगला फाड़-फाड़ के अपने गाँव के लोगों से विरोधी पार्टी को वोट देने की अपील कर दिया। फिर क्या था! मेरी आवाज़ मेरे घर के आँगन तक पहुँच गई। उस भरी सभा से बड़े प्यार से मुझे घर बुलवाया गया। इतने प्यार से बुलावा आया था कि डर तो मैं तभी गई थी कि हो न होआज घर में मुझे विशेष पूजा मिलनी है। लेकिन अपनी ग़लतियों का एहसास इस बार भी नहीं हो रहा था। क्योंकि बचपन में गाँव में घूमते-खेलते वक्त जब भी इतने प्यार से मेरी माता का बुलावा आता थामन एक अनहोनी से भर उठता था क्योंकि, ऐसा तभी होता था जब मैं अनजाने में कोई भूल कर बैठती थी। उस वक्त हमारे लिए यही बहुत बड़ी बात थी कि अनजान लोगों के सामने हम कूटे नहीं जाते थे । 

 

हिसाब अभी बाक़ी था। घर पर पहुँचते ही दरवाज़े पर चाचा खड़े मिले। अपना हाथ मेरे गाल के सामने ऐसे बढ़ाए कि मानो अब बहुत जल्द मुझे दिन में तारे नज़र आने वाले हैं। लेकिन एक चपेट लगाने की धमकी देते हुए उन्होंने दूसरे हाथ से मेरा कान पकड़कर उमेठ दिया। और भविष्य में कभी भी उनका प्रचार न करने की हिदायत देते हुए मुझे घर के बाक़ी बड़ों के सामने सौंप दिया।

 

तब क्या था! जिसने भी सुनाबारी-बारी से लगभग सबने मेरा कान उमेठा और आगे ऐसी गलती न करूँइसकी क़सम खिलाई। दुःख तब और बढ़ गया जब मैंने देखा कि मुझसे छोटे मेरे भाई-बहन मेरी इस दशा पर कनखियों से ताक-ताक कर अपना मुँह दबाकर मुझ पर हँस रहे थे।

 

अब फिर वही चुनाव आ गया। प्रत्येक पार्टी का चुनाव प्रचार चरम पर है। माइक भी वही है और नेताजी भी वही दिख रहे हैंपर उनका चुनाव चिन्ह बदल गया है। अब वो हमारे ख़ेमे में आ चुके हैं। जी तो करता है कि मैं नेताजी का और इनके आकाओं का वैसे ही कान उमेठ दूँ जैसे बचपन में घरवालों ने मेरा उमेठा था।

 

ऐसे कैसे भुला दूँ कि किस प्रकार इन लोगों ने मेरे भोले से मन को कितना आघात पहुँचाया था। कैसे भूल जाऊं कि मुझे इसलिए सजा दी गयी थी कि इन्होनें मेरे भोलेपन और विश्वास का लाभ उठाया था और अब हमारे साथ आ जुड़े हैं, हमारी पार्टी के हो गये हैं। हमें तो उस दर्द से अपनी पार्टी के प्रति कर्तव्य-निष्ठ होने का पाठ सिखा दिया गया था। पर पार्टी है कि हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। शायद ये पार्टियाँ भावनाओं से बहुत ऊपर होती हैं , और किसी के दर्द से भी।”


(रचना त्रिपाठी)

 

Saturday, October 23, 2021

खौरा-खापट हम

पीछे पलट कर देखिए तो तीन से चार दशक बाद कितना कुछ बदल गया है। मुझे याद आती है घर की ऊँची ‘देहरी’ और नल के पास पानी के छींटे से बचाव के लिए बनी सीमेंट की ठिगनी दीवाल जिसे ‘दासा’ कहा जाता था। वे अब अतीत में गुम हो गए लगते हैं। उस ऊँची देहली की वजह से छुटपन में कितनी बार आवेग में दौड़ते भागते ठोकर लगा के मुँह के बल गिरना हो जाता था। अमूमन एक बार घायल होने के बाद आदमी संभल जाता है। लेकिन वो आदमी हो तब न! जब कोई बार-बार एक ही जगह एक ही गलती को दुहराती जाए तो ऐसे में घर के बड़ों को झुँझलाहट तो होगी ही। इसी झुँझलाहट में उनके मुँह से अपने लिए कितनी बार ‘ऊपरतक्का’ शब्द सुनने को मिला है। इस शब्द का अर्थ किसी ने बताया नहीं लेकिन हमने अपनी हरकतों से समझ लिया था। आप डिक्शनरी में ढूँढने की कोशिश न करें। वहाँ से कुछ हासिल नहीं होगा। इसी प्रकार ‘खौरा-खापट’ होने की विशेषता ऐसी थी जो हममें जन्मजात थी।


जब दौड़ते-भागते खुद को गिराना और संभालना सीखा उस दौर में रोकते-रोकाते भी मेरी ठोकरों से कितने काँच के बर्तन चकनाचूर हो गए। इसीलिए मैं पूरी तरह ‘ऊपरतक्का’ सिद्ध हो गई। इसी तरह जब कभी घी का जार, चीनी का डब्बा आदि हाथ से छूट कर काँच सहित फ़र्श पर बिखर जाए तब ‘खौरा-खापट’ बन जाती थी। 


इन सब हरकतों से उस वक्त प्रायः काँच के कप-ग्लास तो किक लगने से चकनाचूर हो जाया करते थे जिसे बिना वक्त गँवाए घर के लोग तत्काल झाड़ूँ के बहारन में उठा कर उसका अंतिम संस्कार कर के किसी भी खतरे की संभावना से निवृत्त हो लेते थे। कुछ और सोचने की गुंजाइश नहीं होती थी। क्योंकि पहले की रसोई के भीतर बासन का काम नहीं होता था। इसके लिए रसोई से अलग जगह बनी होती थी। अब न तो वैसा घर है, न घर के बीच में आँगन। ‘दासा’ व ‘ताखा’ का तो जैसे नाम ही मिट गया। अब इन बर्तनों को टूटने के लिए वैसा खुला मैदान मिलता ही नहीं है।


लेकिन इन विशेषणों (ऊपर-तक्का और खौरा-खापट) की वजह से उन दिनों की स्मृतियों में वापस खो जाना बड़ा सुखद लगता है। 


‘खौराखापट’ का ठीक-ठीक अर्थ क्या है? मुझे भी नहीं मालूम। बहुत जोड़ा घटाया, सन्धि विच्छेद भी करके देखा : खौरा + खापट =?


अब इस उम्र में इन शब्दों से जब भी मेरा सामना होता है तो अपने कारनामे पर मैं खुद को समय के आइने में देखती हूँ। फिर एक लम्बी साँस के साथ बड़ा संतोष महसूस होता है कि कुछ तो तूफ़ानी हमने भी अपने जीवन में किया है। वरना आज के समय के सीमित दायरे का पूरी तरह से व्यवस्थित घर होता तो शायद ‘ऊपरतक्का’ और ‘खौरा-खापट’ शब्द का ईजाद नहीं हो पाया होता ।


इन दोनों शब्दों से मेरा नाता इतना गहरा हो गया था कि इन्हें मैं अपने साथ ससुराल भी लेकर आयी। यदा-कदा अपने बच्चों पर इस्तेमाल भी करती हूँ। हालाँकि इन बच्चों ने कभी कप-ग्लास को फ़ुटबाल की तरह अपने पैरों से नहीं उड़ाया। कभी-कभार इनके हाथों से कप के कोरों में खनक भर लग गयी होगी। कप की हेंडिल टूट गयी होगी। जिससे उसको फेंकने के लिए भी बहुत सोचना पड़ता है। कप की धारी पर खनकने से चाय तो नहीं टपकती लेकिन उसकी सुंदरता बिगड़ जाती है। इस कारण उसे बड़ा मन मसोस के फेंकना पड़ता है। तब याद आता है उस दासे का जहाँ से हम जब कप को किक लगाते थे तो उसको बाहर फेकनें में ज़रा भी मोह-माया नहीं घेरती थी। बस एक झन्नाटेदार आवाज़ “खौरा-खापट कहीं की” सुनने के साथ लगे हाथों उसका क्रिया-करम करके छुट्टी पा लेते थे। ऐसे में जब हमारे बच्चे कप-ग्लास को विकलांग करके छोड़ देते हैं तब उनपर बहुत ग़ुस्सा आता है और तब खुद पर नाज़ होता है कि हम इनकी उम्र में कितने खौरा-खापट थे। इसी बहाने उन बीते दिनों को याद कर के बड़ा सुकून भी मिलता है। अब बच्चे पूछते हैं कि खौरा-खापट क्या होता है तो मन में हल्की मुस्कान के साथ बुदबुदा-कर रह जाती हूँ - जैसी तुम्हारी अल्हड़ मम्मी।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, October 4, 2021

गीत (बलम बन बदरा)

भरी-भरी नैना क़जरा बही जाए

बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए

मोरे पिया की बाँकी उमरिया

भई री सौतन बैरन नोकरिया

दूर विदेसवा जबरन ले जाए


बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए…


उड़ती जहज़िया सुनले अरज़िया

बिरह की मारी अपनी गरजिया

कासे कहूँ मैं तू ही समझाएँ 


बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए…

फोनवो  लागे दुस्मन तोरी देसवा

छः मास बीती  कोई संदेसवा 

अबकी जो आए संग मोहे ले जाए


बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए…


(रचना)

Friday, October 1, 2021

दहिजरा कोरोना भाग-3 (कथा में क्षेपक)






कई सालों से जयनरायन बाबा की साध थी, भागवत कथा सुनने की। लेकिन पहले बेटियों की शादी, और फिर अपने टूटे कुल्हे के लम्बे इलाज में इतना टूट गए थे कि इसका बेवँत ही नहीं जुटा पा रहे थे। वैसे भी इनके पास पुरखों की थोड़ी सी जमीन के अलावा कोई दूसरा आर्थिक स्रोत नहीं था। ऐसे में जब उनके घरवालों ने उन्हें भागवत सुनवाने के लिए साइत दिखाकर दीन-बार तय कर दिया तो बाबा की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने इस धार्मिक अनुष्ठान में किस-किस को नहीं बुलाया। जो भाई-भतीजेनाती-पोते गाँव छोड़कर दूर-दूर शहरों में जा बसे थे उन्हें भी मोबाइल से नेवत डाले। पूरी पटिदारी तो बाबा के घर आयोजित इस बहुप्रतीक्षित भागवत से वैसे ही उत्साहित थी। लेकिन तभी कोरोना का क्षेपक कूद पड़ा।

 

इस क्षेपक को पुरोहित जी ने पट्टीदारों और परिवार वालों के साथ सिर जोड़कर परे धकेल दिया। यह मान लिया गया कि इस धर्म के कार्य से इस कोरोना का आतप भी मिट जाएगासभी स्वस्थनिरोग और दीर्घायु हो जाएंगे। इस कथा का इतना बड़ा महात्म्य है कि इससे पूरे जग का कल्याण होगा। इसी मनोकामना से बाबा के घर भागवत ठन गई। पूरा गांव श्रद्धा से भर उठा। गाँव के छोटे-बड़े से ले के जवान-बूढ़सब मरद-मेहरारू बाबा के घर हो रही भागवत और भजन-कीर्तन में डटे रहे। प्रत्येक दिन के कथा विश्राम के बाद वहाँ भक्तिरस में डूबे लोग जब अपने-अपने घर के लिए प्रस्थान करते तो उनकी छाती तन के इस कदर चौड़ी हो जाती मानो कोरोना को गाँव के सिवान से बाहर लखेद आये हों। उनकी बातों में कुछ उसी प्रकार का गर्व छलकता जैसे हमारे सैनिक चीनियों को सीमा-पार खदेड़ कर महसूस करते है। धर्म की जय होअधर्म का नाश होप्राणियों में सद्भावना होविश्व का कल्याण होहर हर महादेव- नित्य-प्रति इस जयकारे के साथ पूरा गांव अहो-भाग्य कह के धन्य-धन्य हो जाता। बाबा के घर यह अद्भुत आनंद दुर्लभ था। न भूतो न भविष्यति! 

 

जैसा कि होता हैहर जगह एकाध विघ्नसंतोषी होते ही हैं। यहाँ भी कुछ 'विधर्मीकुछ न कुछ उल्टा-पुल्टा बोल के सबके मुंह में जाबी (फेस-मास्क) लगाने का ज्ञान बांट रहे थे। वे जैसे ही किसी बूढ़-ठेल मनई को देखते तो कोरोना का राग छेड़कर उनकी आस्था डगमगाने की जुगत भिड़ाते। बोलते - "सरकार ने कोरोना के खतरे से लॉकडाउन कर दिया था। थोड़ी छूट भले ही मिल गई है लेकिन ई कातिल कोरोना जस का तस फैल रहा है। तो बताइएबाबा को यह भागवत नेवधने की क्या पड़ी थी?" लेकिन किसी ने कान नहीं धरा। वे अपनी 'कुचालमें नाकाम ही रहे। 

 

पूरे नौ दिन चली भागवत कथा में गाँव वालों ने दिखा दिया कि पूजा-पाठ और भगवत-भजन में कितनी शक्ति होती है। सब कुछ बड़े ढंग से निपट गया। समापन के दिन बड़े प्रेम से हवन-आरती और प्रसाद-वितरण हुआ। बाबा ने सभी रिश्तेदारों से लेकर पटिदारों और गाँव के दूसरे लोगों को भोजन की दावत भी दी थी। उस रात वहाँ खूब अहमक-दहमक भोज-भात हुआ। पूरा गाँव भगवान के साथ जयनरायन बाबा का नाम भी लेता रहा। इससे उन्हें परम सुख की प्राप्ति हुई।

 

लेकिन दहिजरा कोरोना का खेल तो अभी बाकी ही था!

 

होत बिहाने गाँव में हल्ला मचा कि भिक्खन के लइका डबलुआ का रिपोर्ट पॉजिटिव आया है। जिसने सुना वही सन्न रह गया। भगवत कथा में अनुष्ठान के संकल्प से लेकर समापन तक उसने अहम भूमिका निभाई थी। उसने पटिदारों की पंगत में बैठकर भोजन भी किया था और बड़े प्रेम से सबको प्रसाद का दोना भी थमाया था। 

 

पूरा गाँव सनपात गया था। सब लोग नौ दिन की चर्या का मानसिक वीडियो उल्टा घुमाकर यह देखने लगे कि डबलुआ कब-कब और कितना उनसे सटा था। उसके नाक सुड़कनेखंखारने और खांसने का वर्णन सबकी जुबान पर आ गया। "मैंने तो उसे टोका था लेकिन दुष्ट ने एक न सुनी।" ऐसा दावा प्रायः सभी करने लगे। जो लोग दूर शहर से नहीं आ सके थे उन्हें भी इस खबर ने दहला दिया। उनके भीतर अपने लिए तो जान बची लाखों पाए का भाव था लेकिन गाँव में फोन मिलाकर अपने परिजनों की कुशलता जाँचने लगे। 

 

गाँव की बुढ़िया काकी जिनके मुंह से नौ दिन भगवान के नाम के अलावा कुछ नहीं निकला था वो आज दुआर पर बैठकर डबलुआ की सात पुस्तों को तार रही थीं। "मुँहझंउसाअभगवालवणा के पूतकुलबोरनासबके नासि दिहलस।"

 

भिक्खन बाबा को भी गरियाने और सरापने वालों ने इतना सुनाया कि उनके कान का कीरा झर गया। पता चला कि उन्होंने खुद ही जब डबलुआ को लाठी लेकर खोजना शुरू किया तो सारे गाँव ने उनके साथ उसे खरहा की तरह उंखियाड़ी से लेकर झंखियाड़ी तक झार डाला। अच्छा हुआ वह किसी के हाथ नहीं आया।  

 

धीरे-धीरे गाँव के लोग भिक्खन के दुवार पर इकठ्ठा होने लगे। बारी-बारी से आने वाले सभी लोग उनसे सफाई माँगते। कब टेस्ट हुआक्यों टेस्ट हुआजब बीमारी थी तो कुरंटीन क्यों नहीं रक्खेकिस जनम का बदला लिए होगाँव भर से क्या दुसमनी थीलवंडे को कहाँ गाड़ दिए होअब गांव भर को कौन बचाएगाजयनरायन बाबा को जो पाप लगेगा इसका जिम्मेवार कौन होगाआदि-आदि। भिक्खन को तो काठ मार गया था।

 

तभी किसी ने चिल्लाकर बताया - डबलुआ कोठा पर लुकाइल बा। चुप्पे से झाँकत रहल हs। पता चला कि वह चुपके से घर की छत पर जाकर छिप गया था और उसने सीढ़ी का दरवाजा बाहर से बंद कर लिया था। सभी लोग उसे ललकारने लगे। वह दुबका रहा। तब कुछ बड़े-बुजुर्ग मनुहार करने लगे। अब डबलू ने डरते-डरते रेलिंग से ऊपर सिर निकाला और चिल्लाकर बोला - हमरा कोरोना नइखे। हम त पासपोर्ट बनवावे खातिर जाँच करौले रहनी। इयार लोग से मजाक में निगेटिव के पॉज़िटिव बता देहनी। उहे लोग उड़ा देहल हs

 

                                               (रचना त्रिपाठी)

 

Saturday, January 2, 2021

आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना बचपन का—

नए साल का पहला दिन। शीत लहर की वजह से पड़ती कड़ाके की ठंड। घर के पीछे वाले अहाते (खिरकी) में सुबह से एक बड़े से हंडे में खौलता पानी जो कई खेप में चूल्हे पर चढ़ता और उतरता रहता था। और मम्मी का वो होम-मेड, विटामिन डी व सी से भरपूर कई तरह के मिनरल्स युक्त लूफ़ा!

आप इसे एक हर्बल बाथ स्क्रब के रूप में समझ सकते हैं- जिसका निर्माण ककुम्बर प्रजाति की एक हरी सब्ज़ी से होता था। जिसको आप तिरोई के नाम से जानते हैं। हमारे यहाँ इसे घेवड़ा और नेनुआ भी कहा जाता है। सुनते थे कि यदि इसका हरीसब्ज़ी के रूप में सेवन करें तो बड़ा ही फ़ायदेमंद होता है। वह बाथ स्क्रब इसी नेनुआ को जेठ-बैसाख की गर्मी में सुखा-तपाकर तैयार किया जाता था। जब वह पूरी तरह से सूख कर कड़ा जालीदार खुज्जा बन जाता तो उसमें से बीज निकालकर पुनः अगले मौसम के लिए सँभाल कर रख लिया जाता था। बचपन में हमें तो कभी नेनुआ की सब्ज़ी पसंद आयी और ही इससे बना मम्मी का वो होम-मेड हर्बल बाथ स्क्रब।

मम्मी पता नहीं कैसे यह भाँप लेती थी कि जाड़े में उनके छोटे-छोटे स्मार्ट बच्चे बंद बाथरूम में अपने हाथों से अक्सर फ़्रेंच स्नान कर के भाग लिया करते हैं। इसलिए नये वर्ष के पहले दिन और खिंचड़ी (मकर-संक्रांति) के दिन उनके बच्चे इस तरह का कोई अंग्रेज़ी स्नान करें यह उन्हें बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं था। इसलिए उस दिन वह इसका पहले से सारा प्रबंध करके रखती थीं। बारी-बारी से हम सबको उस हर्बल बाथ-स्क्रब में साबुन का घोल मिलाकर गर्म पानी से ऐसे रगड़ के नहलाती थीं जैसे लकड़ी के चूल्हे पर जली हुई कड़ाही की पेंदी से चिपका हुआ लेवा किसी मज़बूत ऊबसन से रगड़ कर छुड़ाया जाता है। इससे भी उन्हें संतोष नहीं होता तो बची-खुची जगह अपनी हथेलियों से वह तबतक रगड़ती थीं जबतक कि हमारी चमड़ी उनकी दोनों हथेलियों से चटचटा के चिंगारी निकाल दें।

इस तरह हम बाथरूम में घुसते तो थे ठंड से दांत किटकिटाते हुए लेकिन जब मम्मीके हाथों स्नान के बाद पूरे शरीर में नारियल के तेल का लेप लगवाकर बाहरनिकलते थे तो हमारे चेहरे से वैसी ही दीप्ति प्रज्ज्वलित होती थी जैसे उस चूल्हे चढ़े लेवा लगे हंडे के नीचे लपलपाती लपटें।

(रचना त्रिपाठी)