Thursday, September 14, 2023

सबदिन की हिंदी या एक दिन की?

एक वह भी जमाना था जब हम बच्चे न तो ‘क्यूट’ हुआ करते थे और न ही ‘स्मार्ट’। मम्मियों को यह सब मालूम ही नहीं था। वे तो अपनी भाषा में ही बच्चों को नवाजती थीं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनकी हिंदी का कोई एक 'दिवस' होता है और यह दिवस बड़े प्रचार-प्रसार से मनाया जाना होता है। 


उन्हें अपने बच्चे या तो बकलोल लगते थे या बहुत बदमाश। चंचल होते थे या गबद्दू। बुड़बक होते थे या चलबिद्धर। चुप्पा होते थे या बकबकहा। दब्बू होते थे या झगरहा। चतुर होते थे या भोंदू। सोझबक होते थे या लंठ। सालों साल ऐसे ही परिचय कराया जाता था। लेकिन जबसे बच्चे क्यूट, स्मार्ट, लवी-डवी, शार्प, मैनर्ड और एटिकेट्स वाले हो गये हैं शायद तभी से यह हिंदी-दिवस सिकुड़कर एक दिन का हो गया। 


हम तो क्यूट-स्वीट की गिटपिट से बेखबर रहते हुए ही बड़े हो गए। आजकल का चलन ऐसा हो गया है कि हम लगभग भूल ही गये हैं अपनी उस दुलारी हिंदी को जिसके साथ रगड़े जाने का हमारा दिन-रात का नाता था।


बच्चे अपनी माताओं को जब आजिज़ कर देते थे तो वे अपनी अनोखी हिंदी के अद्भुत भावप्रवण शब्दों का तबतक बौछार करती थीं जबतक बच्चे को पूरी प्रतीति न हो जाय। यह उत्सव प्रायः रोज ही होता था। माताएं तबतक चैन नहीं पाती थीं जबतक भाषा संपदा का पूरा उत्सव मनाकर  समाप्त न कर लें। उनके कुछ शब्द तो आज भी हमारे कानों में एक मधुर संगीत की तरह बजते रहते हैं। उनमें से एक था- लतखोरवा। जब चाहें तब ऐसे मनाये जाते थे हिंदी के दिवस।


आज जब एक दिन का उत्सव होता है तो हमें बड़ा अटपटा सा लगता है। ऐसा लगता है कि काल-कवलित होने से बाल-बाल बचायी जा रही हो हिंदी।


(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, September 5, 2023

ढक्कन-ए-सिन्होरा

विवाह के समय में बहुत कुछ नया-नया मिलता है। इसमें सिन्होरा का बड़ा महत्व है। इसकी ख़रीदारी करते हैं दुल्हन के भावी जेठ जी। लेकिन खरीदते समय उसके ढक्कन को चेक करना वर्जित होता है। एक बार जो हाथ लगा उसी को मोल करना होता है। अब यह ढक्कन सिन्होरा पर कैसे फिट बैठता है यह किस्मत का खेल है। किस्मत दूल्हा-दुल्हन की, उनके बीच प्रेम-संबंध की। 


लकड़ी से बने गोल-मटोल सिन्होरे के दो पार्ट होते हैं। पहला मुख्य पार्ट जिसमें पीला सिंदूर रखा जाता है, और दूसरा उसका ढक्कन, जो उसके ऊपर ठीक से बंद होता ही हो यह जरूरी नहीं। 


हमारी तरफ़ सिन्होरे के ढक्कन का फिट होना या ना होना, या कम फिट होना पति-पत्नी के बीच प्रेम का पैरामीटर है। यदि सिन्होरे का ढक्कन ख़ूब टाइट बंद होता है और बहुत ज़बरदस्ती करने पर खुलता है, तो माना जाता है कि उस दंपति में बहुत गहरा प्रेम है। जिसका ढक्कन ढीला होता है और इधर-उधर छिटक जाने की संभावना के कारण बहुत सँभाल कर रखना पड़ता है तो ऐसा कहा जाता है कि ऐसे दंपति में प्रेम के साथ आपसी सद्भाव भी बना रहे इसके लिए बड़ा सँभाल के चलना पड़ता है। जिस स्त्री के सिन्होरे का ढक्कन बंद ही न होता हो तो उसका भगवान ही मालिक है।  


अब ऐसे में यदि किसी के सिन्होरे का ढक्कन विवाह के पश्चात ऐसा बंद हुआ कि अब खुलता ही नहीं है तो ऐसे प्रेम को क्या कहिएगा?

इस अद्भुत रहस्य की खोज में नासा या इसरो के वैज्ञानिकों का कोई हाथ नहीं है। यह हमारे पुरखे-पुरनियों का अलौकिक विज्ञान है। जिन्होंने हमें पति को कैसे हैंडल करना है ये नहीं बताया लेकिन अपने सिन्होरे को कैसे सँभालकर रखना है यह जरूर बताया। पति तो ख़ुद-ब-ख़ुद सही हो जाएगा।


मुझे अपने सिन्होरे को हर बार ठोक-पीट कर बंद करना पड़ता है। लेकिन थोड़े प्रयास से यह भली-भाँति बंद जरूर हो जाता है। इसके बावजूद इसे एक मज़बूत कपड़े में बांधकर मुनिया में बंद कर के रखती हूँ। (अब 'मुनिया' क्या होती है यह मत पूछिएगा नहीं तो एक नई पोस्ट लिखनी होगी।)


फिलहाल आज हल-छठ है तो मैंने अपने सिन्होरे की फिर से ओवरहालिंग कर लिया है। अब बताइए आपने कैसे रखा है अपना ढक्कन-ए-सिन्होरा?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, August 29, 2023

दिल चाँद सा है मेरा

दिल चाँद सा है मेरा, सनम 

उतरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


रखो ना हकतलफ़ी इतनी 

अभी ठहरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


छप जाएँगे वे इश्किया 

अभी लिखो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


दिल चाँद सा है मेरा…

(रचना त्रिपाठी)


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Thursday, June 15, 2023

आपके पास कथरी बची है क्या?

ऐसा कहा जाता है कि इंसान जबतक अभाव में रहता है तबतक किसी के प्रभाव में रहता है। मतलब मजबूरी में ही अधीनता सही जाती है। समझौता किया जाता है। जो पसंद न हो उसे भी निभाया जाता है। लेकिन सब चीजों के साथ ऐसा नहीं है। कुछ चीजों का प्रभाव ऐसा होता है कि ज़िंदगी भर ख़त्म नहीं होता। भले ही कोई मजबूरी न रह गयी हो। ऐसी ही एक अमूल्य चीज है हमारी ये 'कथरी'। 


यह पुराने पड़ चुके कपड़ों को मोटी सुई व धागे से गूलकर बनाया हुआ सिर्फ़ एक कामचलाऊ बिछावन भर नहीं है। यह एक लंबे समय, बड़े कालखंड व पीढ़ी-अंतराल बीत जाने के बावजूद न जाने कितने रिश्तों की मुलायमियत को ख़ुद में समेटे हुए बहुत सी सुनहरी यादों का समुच्चय है। कितनी ही बतकही, हँसी-ठिठोली, बच्चों की मालिश की रगड़ से लेकर उनकी चें-पें तक, अकेलेपन की गुनगुनाहट और नींद के खर्राटों तक कितनी ही ध्वनियों की तरंगे इसमें समायी हुई हैं। तभी तो शांत पड़ी हुई भी यह बोलती सी लगती है।



नियमित तबादलों के चक्कर में हम कहीं भी रहे, यह हर मौसम में अपनी मौजूदगी और महत्व को महसूस कराती रहती है। दूर रहकर भी सबके क़रीब रहने का एक सुखद एहसास है ये कथरी। यह पुरानी धोतियों, सूती साड़ियों और कुछ दूसरे रिटायर हो चुके कपड़ों के मेल से बनी हुई 'बेस्ट ऑफ द वेस्ट' घरेलू उत्पाद है। इसमें एक धागे को छोड़कर कुछ भी नया नहीं लगा है। लेकिन जब-जब मैं इसके साथ होती हूँ तब-तब सब कुछ नया-नया सा लगता है। जैसे यह कल की ही बात हो। 


नयी नवेली दुल्हन थी जब रात के अंधेरे में घूँघट काढ़े एक हाथ में टॉर्च और दूसरे हाथ में कथरी दबाए, छुम-छुम पायल की आवाज़ करते घर की सीढ़ियों से चढ़ती और छत पर जाकर एक कोने में अपनी कथरी बिछाकर लेट ज़ाया करती थी। गाँव में बिजली बाद में आयी। नियमित आपूर्ति तो और बाद में आयी। लेकिन यह कथरी पहले भी थी और बाद में भी बदस्तूर सेवारत है।


उन दिनों छत पर चारपाई चढ़ाने की जरूरत तो नहीं ही थी, मच्छरदानी की ज़रूरत भी नहीं थी। अभी नयी-नयी दुल्हन बनकर आयी थी तो सिर से पाँव तक साड़ी में लिपटी रहती थी। जब छत पर सोना होता था तो और विशेष सावधानी बरतनी होती थी कि कहीं सोते वक्त मुँह खुल गया तो ससुराल में अगले दिन बात फैल बनती कि दुलहिन तो मुँह-बा के सोती हैं। इसलिए सोते वक्त भी चेहरे को ख़ूब अच्छे से ढँक लेती थी कि कोई देखने न पाए। उस हालात में मच्छर क्या, मच्छर के दादाजी भी मेरा मुँह नहीं देख पाते।


मेरा एक बड़ा परिवार था ससुराल का। जहाँ एक जोड़ी जेठ और ननदों व देवरों का एक जत्था था। उसमें भी एक जोड़ा ससुर का और एक जोड़ी सास का तो किसी भी वक्त ऊपर नीचे आना-जाना लगे रहता था। ग्रामीण परिवेश के घर में कर्ता-धर्ता वही लोग थे। भोर में तीन बजे से ही उठकर नल पर खटर-पटर और झाड़ू-बहारू शुरू हो जाता था। ऐसे में यह कथरी ही एकांत में आश्रय देती थी।


जून 1999 की गर्मी में जब मैं पहली बार ससुराल के गाँव में गयी तो वहाँ बिजली पहुँची ही नहीं थी। हाथ का पंखा और फर्श पर बिछी कथरी का साथ स्थायी हो गया। मेरी सासू-माँ ने अपने हाथ से बनाई हुई नयी कथरी मुझे थमाते हुए समझाया था कि यहाँ जबतक बिजली पंखा नहीं आ जाता तबतक सबसे अच्छी नींद इसी कथरी पर आएगी। हल्की, मुलायम, आरामदेह और पोर्टेबल। जहाँ चाहो बिछा लो और जैसे चाहो इस्तेमाल करो। तबसे अबतक बहुत कुछ बदल गया है। बिजली, पंखा, कूलर और एसी भी आया लेकिन यह कथरी आज भी मेरे साथ है। 


सरकारी नौकरी में तबादलों की श्रृंखला शुरू हुई तो चूल्हा-चौका एवं अन्य सामानों के साथ गाँव से अलग गृहस्थी सम्हालने के लिए जब हम विदा हुए तो इस कथरी से मेरा मोह नहीं छूटा। सासू-माँ ने अपने बेटे के साथ-साथ मुझे यह जो दूसरा अमूल्य उपहार दिया था वह बदस्तूर मेरा साथ लगातार देता आ रहा है। बहुत कम देखभाल की जरूरत के बावजूद समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी मैंने खूब किया है।


मैं आज इसके पुनरूद्धार में लगी हूँ। जमाने की रफ़्तार के हिसाब से सबने अपना हुलिया बदल लिया है तो हमारी कथरी क्यों न बदले! सोच रही हूँ इसे एक नया कलेवर दे ही दूँ। वैसे उम्र का असर तो प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु पर होता ही है। इसपर भी हुआ है। इसकी हालत ऐसी नहीं होती है कि इसको सार्वजनिक स्थल पर मतलब दर्जी के यहाँ ले ज़ाया जाए। 


कथरी की महत्ता और इसका सम्मान भी इसी में है कि इसे ज़मीन पर फैलाकर अपने हाथों से सिला जाय। इसके ऊपर एक साफ़-सुथरी पुरानी सूती धोती चढ़ाई जाए तो बात बने। इसको चाहे जितना नया खोल पहना दूँ, रंग बिरंगा रूप दे दूँ लेकिन मुझे लग रहा है कि इससे वह एहसास, वैसी मुलायमियत की फीलिंग दुबारा नहीं आ सकती जो पुरानी बनावट में आती थी।


(रचना त्रिपाठी)

Friday, June 9, 2023

बच्चों की बड़ाई

आज के अभिभावकों में बच्चों की कोमल भावनाओं की सुरक्षा को लेकर विशेष सजगता देखने को मिलती है। उन्हें स्पेशल फील कराने के लिए बेचारों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। कितनी बार उन्हें स्कूल में जाकर टीचर से बहस करते देखा है कि ऐसे कैसे उनके बच्चे को डाँट लगा दी गयी। 


बाल मनोविज्ञान कदाचित् यही कहता है कि बच्चे में आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच विकसित करने के लिए उनकी प्रशंसा का कोई मौका गँवाना नहीं चाहिए। अभिभावक ये समझते हैं कि रात-दिन क़सीदे पढ़ते रहने से ही उनके बच्चे का व्यक्तित्व महान बनेगा। शायद इसलिए वे उनके मनोबल का ख़्याल ऐसे रखते हैं, जैसे घर की बड़ी-बूढ़ियां अचार की घइली का ख़्याल करती हैं। परन्तु उसे समय समय पर उलट-पलट कर धूप दिखाना जरूरी होता है नहीं तो कभी भी फफूंद लग सकती है।


अनुशासन में लाने के लिए जहाँ सख़्ती बरतने से ही काम बनता हो वहाँ भी आजकल के माता-पिता अपने बच्चों से बेहद नरमी से बर्ताव करते हैं। नतीजा चाहे जो हो, बस बच्चे के मन को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। कठोर व्यवहार से आजकल के बच्चों का सामना न के बराबर होता है। पश्चिमी देशों में तो इसके विरुद्ध कठोर कानून तक बन चुके हैं। शायद इसी लिए उनको धीरे का झटका भी ज़ोर से महसूस होता है। यानि छोटी-छोटी बात भी उनके लिए बहुत बड़ी बन जाती है।

 

एक हमारा बचपन था- आज के दौर से बिल्कुल अलग। इतना अलग था कि आज के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।  हमने अपने माता-पिता को कभी किसी के सामने अपनी प्रशंसा करते नहीं सुना। शायद तब इसकी जरूरत नहीं समझी जाती थी। फिर भी हमारा बचपन बड़ा सलोना था। आज याद करने के लिए बहुत सी ऐसी घटनाएँ हैं जो आजकल के बच्चे सोच भी नहीं सकते। हम कब गिरे, किससे लड़े, क्यों रोये, कहाँ जीते, कहाँ हारे, स्कूल में गुरुजी ने मारा तो क्यों मारा, घर के बड़ों के सामने यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता था। शायद हमारी परवरिश ही ऐसी रही कि हम ऐसी छोटी-मोटी समस्याओं को खेल-खेल में ही सुलटा लेते थे और उन्हें कानों-कान ख़बर ही नहीं होती थी। यह सब हमारा निजी मामला होता था और इसे माता-पिता तक ले जाने से हम बचना चाहते थे। कई बार उनके प्रशंसात्मक लहजे में भी एक तरह की डांट का पुट ऐसा मिला होता था कि उससे हम ज़रूर बचना चाहते थे- वही प्रशंसा के बोल जिसकी चाहत में आज के बच्चे क्या-क्या नहीं कर जाते! बच्चों को एप्रिशिएट करना आज के अभिभावक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी हो गयी है। चूक गए तो उल्टे शिकायत सुननी पड़ सकती है।


हमारी नींव इनसे बहुत अलग पड़ी थी। हमारे अभिभावकों का प्रशंसा करने का अन्दाज़ बेहद अजीब था। वे हमारे अनाड़ीपन और अन्य कमियों को ही प्रशंसात्मक लहजे में कोसते थे। इसके विपरीत हमारी  प्रवीणता और उपलब्धियों को बहुत साधारण तरीके से लिया जाता था। आज की तरह बढ़ा-चढ़ाकर कहने की बात कल्पना से परे थी। 


हमारे चंचल बालमन को कैसे दुरुस्त रखना है इसके लिए उनका अन्दाज़ भी बहुत निराला था। जब-जब उनके मुँह से हमारे लिए प्रशंसा के बोल फूटे तब-तब हमारी इंद्रियाँ सचेत हुईं कि खुद को और बेहतर बनाने का प्रयास करना होगा। प्रशंसा की कौन पूछे, उनकी सीधी नज़र ही हमारी क़ाबिलियत का एहसास करा देती थी। बस उनकी नज़र हम पर टेढ़ी न होने पाए इसी में हम ख़ुद को प्रशंसनीय समझ लेते थे। 


उनकी निगाहें बिना किसी टोकाटाकी के हम पर कब सीधी पड़ी थीं,  इसे किसी अद्भुत घटना की तरह हम ज़रूर याद रखते थे। यही हमें अपने रहन-सहन में सुधार करने की प्रेरणा देता था, न कि कोई लेमनचूस या लॉलीपॉप।


सामान्य तौर पर तो वे हमारे दिलो-दिमाग़ को अपने कठोर और व्यंग भरे प्रशंसात्मक औज़ारों से ऐसा बींधते रहते थे कि हम आज भी किसी से अपनी मधुर प्रशंसा की अपेक्षा नहीं रखते हैं। बल्कि प्रशंसा के लिए प्रशंसनीय कार्य करते-रहने का हमारे ऊपर कोई नैतिक दबाव नहीं था। बल्कि हम जब चाहें तब कुछ भी उल्टा-सीधा, गड़बड़-सड़बड़ करके उनके मुख से वही बोल सुन सकते थे जिसके लिए आज के बच्चे हर समय कुछ भी साधारण या अच्छा करने के बाद साधिकार उनकी ओर देखते रहते हैं— “वाह बेटा… !! बहुत बढ़िया…!!  शानदार… !! ग़ज़ब कर दिखाया… !! कमाल कर दिया…!! हमें तुमसे यही उम्मीद थी… !! तुमको तो इनाम देना चाहिए….!! हमें नाज है तुमपर...” बस इन जुमलों से तब कुछ और ही अर्थ ध्वनित होता था।


यदि खेल-खेल में खुद को चोट-चपेट लगा बैठे, हाथ-पैर या मुँह फुड़वाकर घर लौटे तो देखते ही मलहम-पट्टी कौन पूछता, पहले भर पेट अपाच्य प्रशंसा की खुराक ही मिलती थी- “शाबाश बेटा…!! शकल कितनी सुंदर बना रखी है, मुँह थोड़ा और सुजा आते तो और बढ़िया लगता…!!” कभी सुबह जगने में देर हुई तो- “आज बड़ा जल्दी जग गए बेटा!” इतना सुनने के बाद अगले दिन सही में जल्दी जागने का संकल्प लिए पूरा दिन उनसे मुँह चुराए फिरते थे।


बचपन से अपनी बड़ाई में इन शब्दों को सुनकर हम इतना अघा चुके हैं कि आज हमारी प्रशंसा में कोई सच्चे क़सीदे भी पढ़े तो व्यंग्य लगता है। 

कहा जाता है कि किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती। तब हम खुद के प्रति अविश्वास में जीते थे और आज की पीढ़ी अतिविश्वास में जी रही है। दोनों ही बातें कोमल मन के बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिए ठीक नहीं है। आज के अभिभावकों को एक मध्यम-मार्ग चुनना चाहिए।

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, May 31, 2022

बच्चों के खेल - तब और अब

पिछले एक दशक से बच्चों के खिलौनों का आधुनिक बाज़ार देखकर लगता है कि हमारा बचपन कितना सरल और सस्ता था।फिर भी उम्दा था। उस वक्त भी कहीं कुछ मिसिंग नहीं था। हम भी खेलते थे। इतना खेलते थे कि खेलते-खेलते थक कर चूर हो जाया करते थे।फिर भी मन नहीं भरता था। बोर होने का तो मतलब ही नहीं जानते थे।

हमारे समय में भी बहुत सारे 'गेम्स' हुआ करते थे। उनमें से कुछ तो ऐसे थे जिसमें हर्रे लगे न फिटकरी, लेकिन रंग हर दम चोखा ही रहा।आस-पास के सभी बच्चे इसी ताक में रहते थे कि किसी तरह बस दो चार बच्चों की टोली बना ली जाए। फिर क्या, देख मज़ा खेल  का! आनंद ही आनंद। रुपैया के आनंद में अपनी तो चवन्नी भी नहीं लगती थी। कबड्डी, खो-खो, आई-स्पाई, गेना भड़-भड़, सत-गोटिया, घो-घो रानी-केतना पानी आदि ये सभी ऐसे खेल थे जिसमें किसी की टेंट से कुछ नहीं लगता था और बचपन का आनंद भी ख़ूब मिलता था। 

जैसे, बात स्लाइडर गेम की करते हैं। बड़े-बड़े पार्कों में ऊँचे-ऊँचे और महंगे स्लाइडर लगे होते हैं। आजकल ऑनलाइन रंग-विरंगे स्लाइडर गेम्स भी आ रहे हैं। लोहे, प्लास्टिक या फाइबर के बने इन स्लाइडर्स में बच्चों की सुविधा व सुरक्षा के लिए खास इंतजाम होते हैं। ऊपर से सरक कर नीचे आते बच्चे को थामने के लिए मम्मियां या भैया लोग भी तैयार रहते हैं। अब बच्चों के लिए घर के अंदर ही प्लेरूम बनाए जा रहे हैं। उनका कमरा खिलौनों से भरा रहता है। एक से एक महंगे और मन मोहक खिलौने बाज़ार में उपलब्ध हैं। आजकल के माता-पिता अपने जीवन की गाढ़ी कमाई अपने बच्चों का बचपन सँभालने में इस बाज़ार के हवाले कर देते हैं। बच्चे फिर भी बोर हो रहे हैं। एक हम थे-  स्लाइडर जैसे किसी गेम का लुत्फ़ लेना होता था तो खलिहान में लगे पुआल की पुजवट पर चढ़कर सर्र से नीचे आ जाया करते थे। बार-बार पुजवट पर बिना सीढ़ियों के चढ़ना और तीखी ढलान पर सरकना तब बाएं हाथ का खेल हुआ करता था। 

तबके माता-पिता को इसकी बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं थी कि उनके बच्चे कहीं किसी खेल से बोर तो नहीं हो रहे। जो बोर भी हुए तो उनके मान-मनुहार जैसा कोई प्रयास नहीं होता था। अलबत्ता तंग आने पर माता-पिता हमारे 'रिफ़्रेशमेंट' के लिए हमें दो-चार घंटे किसी कमरे में बंद कर दिया करते थे। तब हमारी सारी बोरियत सूख के हवा हो जाती थी। 

कंचे खेलने का तो आनंद ही अलग था। इसके साथ हम गुच्ची-गुइया भी ख़ूब खेला करते थे। लेकिन यह खेल घर वालों से छुप-छुपाकर होता था। इसमें जीत और हार कंचों या सिक्कों की होती थी। पकड़े जाने पर मार भी पड़ सकती थी। मुफ़्त और सस्ते खेलों में भी हमें घर वालों के सामने काफ़ी सावधानी बरतनी पड़ती थी।

घर के कूड़े में से अलग-अलग रंग और डिज़ाइन वाली टूटी चूड़ियों को इकठ्ठा कर इनकी मैचिंग लगाने वाले खेल में कब हमारे घंटो बीत जाते थे, पता ही नहीं लगता था। इसको खेलने के लिए सिर्फ़ एक पार्टनर की ज़रूरत पड़ती थी। एक खिलाड़ी अपनी बंद मुट्ठी में एक चूड़ी के टुकड़े को रख लेता था और दूसरे खिलाड़ी को उस बंद मुट्ठी के ऊपर वैसी ही रंग और डिज़ाइन वाली चूड़ी का टुकड़ा रखकर उसकी मैचिंग मिलानी रहती थी। घर हो या स्कूल यह खेल हम कहीं भी खेल लेते थे। स्कूल बैग की सफ़ाई के दौरान टूटी हुई रंग-विरंगी चूड़ियाँ ख़ूब मिलती थी। 

हमारी बचपन की ज़िंदगी जैसे-तैसे नहीं कटी, बल्कि बड़े मज़े में रही। अपने खेलने के लिए कभी खुद से कमरा अंधेरा नहीं करना पड़ा। उस वक्त बिजली अक्सर गुल रहती थी। जबतक उजाला रहता था तबतक बाक़ी सभी खेलों में जो उस वक्त के खाके में फ़िट बैठ जाए, खेल लेते थे और धीरे-धीरे शाम के बाद जब दिन अंधेरे में ढलने लगता था उस वक्त लुका-छुपी खेल लेते थे। यह खेल तबतक चलता रहता जबतक कि घर का कोई बड़ा हमारा कान उमेठ कर बुला न ले जाए।

जो खेल आजकल डार्क-रूम के नाम से बच्चे खेलते हैं हम उसे अन्हरिया-अन्हरिया के नाम से खेलते थे। शहरों में रात के वक्त भी इतनी रोशनी रहती है कि कमरे को अंधेरा करने के लिए भी बड़ा जतन करना पड़ता है। किस खिड़की और रौशनदान में कैसे पर्दे लगाएं कि कमरे में अंधेरा हो सके या मनचाही रौशनी मिल सके। क्योंकि रात में स्ट्रीट लाइट्स कहीं न कहीं से कमरें में घुसने के लिए कोई न कोई दरारें ढूँढ ही लेती हैं। इसके लिए भी बाजार में सेवा उपलब्ध है। 

अब बाज़ार ने सब खेलों का आधुनिक विकल्प ढूँढ निकाला है; लेकिन एक 'कीमत' के साथ। बड़े-बड़े ब्रांड्स के नामों के साथ हर उम्र के बच्चों के लिए महंगे से महंगे गेम्स बाज़ार में उपलब्ध हैं। जहाँ हम तालाब की गीली मिट्टी से चूल्हा-चौका, बर्तन आदि बनाकर 'घर-घर' खेल लेते थे वहीं अब बच्चों के लिए दुकानों में रंग-बिरंगी मिट्टी जो ‘क्ले’ के नाम से बिकती है। इसकी क़ीमत उनका ब्रांड तय करता है।

हम दो हमारे दो के चक्कर में बच्चों की संख्या एकाकी बंद दरवाजे वाले घरों में कम होती चली गई है। इसकी वजह से अधिकतर बच्चे अकेलेपन के शिकार होने लगे हैं। इस स्थिति का बाज़ारवाद ने ख़ूब फ़ायदा उठाया है। क़िस्म-क़िस्म के ऐसे गेम बना डाले हैं कि ऐसे बच्चों को घर में अकेले रहने का कभी मलाल न हो। और ऐसा ही हो रहा है। आजकल के बच्चे अकेले रहने में ज़्यादा कम्फ़र्टेबल महसूस करने लगे हैं। ऐसे में शादी समारोह आदि जैसे सामाजिक सहजीवन का अवसर आने पर अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।

बताना ये है कि बाज़ार ने हमारे सभी पुराने सरल और सस्ते खेलों को नए रंग-रूप में गढ़ कर महंगा तो बना ही दिया है, इनसे बच्चे बहुत जल्दी बोर भी हो जाते हैं। हर दूसरे दिन एक नए खेल की तलाश रहने लगी है। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों की कहानी अलग ही है।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, February 11, 2022

नन्हकी

दो दिन हो चुके थे उस बियाबान में रेल की पटरी पर बैठकर इंतजार करते। घुटनों में सिर डाले बैठी वह इस आस में थी कि घण्टे भर में कोई न कोई गाड़ी आएगी और उसे इस बेरहम दुनिया से बहुत दूर लेकर चली जाएगी। लेकिन बिधना ने उसके लिलार पर मांगी हुई मौत भी नहीं लिखी थी। घर पर न जाने क्या हाल होगा? विजेंदर भी न जाने कहाँ गया। उसकी भी क्या गलती। वह तो पंजाब से चला आया था उसे ले जाने। उसकी नरक समान जिंदगी से छुटकारा दिलाने। उस रात की याद आते ही एक टीस ने उसे बेध दिया।...


कुछ भी तो नहीं मिला उसे। होश सम्हालने से पहले बाप का साया उठ गया। दो-दो बड़े भाइयों के बाद जब बेमन उसका जन्म हुआ तो किसी ने थाली नहीं बजायी। उसके बाद ही नौकी बीमारी फैली और अचानक घर के मुखिया चल बसे थे। गरीब विधवा माँ ने बेमन से पाला। थोड़ी बड़ी हुई तो दोनो भाई बाहर कमाने चले गए। गाँव में घर के भीतर-बाहर का काम करते-करते वह कब सयानी हो गयी पता ही नहीं चला। एक विजेंदर ही था जो उसके मन को थोड़ा खुश कर देता। लेकिन यह छोटी सी खुशी भी घर में माँ से लेकर गाँव भरके लड़कों, मर्दों और औरतों को अखरती रहती। उसपर सब के सब पहरा करते। एक झलक देखभर लेने के लिए उसे कितना जतन करना पड़ता। लेकिन विज्जू ने उसके ऊपर जाने क्या मंतर फेर दिया था कि वह सारी लाग-डांट के बाद भी उसके पास खिंची चली जाती थी।


जाने कैसे अम्मा ने उसे विजेंदर के साथ तब देख लिया जब गाँव के मर्द रात में फगुआ गाने के लिए जुटे थे और वह चाय देने के बहाने वहाँ जाकर उसे मिली थी। ढोलक और झाल के कानफोड़ू संगीत पर झूमते फगुहारों के बीच से अंधेरे में सरककर विजेंदर ने उसे बाहों में भर लिया था। वह दुर्लभ सुख उसकी नसों में झुरझुरी बनकर दौड़ने लगा था तभी अम्मा जैसे आसमान से प्रकट हो गयी। उसका झोंटा पकड़कर खींचते हुए घर के भीतर ले आयी। फिर रात भर मार खाती रही नन्हकी। बेंत का झाड़ू शायद उतना चोट नहीं दे पाया जितना अम्मा की जहर उगलती जबान ने बेध दिया था।


सबेरे ही अम्मा ने अपने बेटों को मोबाइल मिलाकर घंटे भर बात की और विस्तार से बताया कि कैसे नन्हकी को पाँख जम गया है जो कतरना जरूरी हैं। जल्द से जल्द बियाह करके बिदा नहीं किया गया तो कुल-खानदान को डुबा देगी। 


बिरजू और नगीना ने अगली गाड़ी पकड़ी और गाँव आ गए। फिर एक रात नन्हकी के लिए बज्जर (बज्र) बन कर आयी। भाइयों ने प्रताड़ना की हदें पार कर दीं। बिरजू ने तो गुस्से में उसका गला ही दबा दिया होता लेकिन माँ दीवार बनकर खड़ी हो गयी। लोक-लाज और खानदान की इज्जत का हवाला दिया और समझा दिया कि जल्दी से विवाह कर देना ही इस समस्या का उचित समाधान है।


बिरजू और नगीना ने भाग-दौड़कर एक लड़का पसंद कर लिया और आनन-फानन में बरच्छा (रोका) चढ़ा आए। पंडीजी ने होली के बाद की साइत देखकर विवाह की तिथि बता दी। तैयारियां होने लगीं।


यहसब सुनकर विजेंदर बेचैन हो उठा और नन्हकी के घर के आसपास मंडराने लगा। एक दिन नगीना ने उसे ताड़ लिया और पकड़ कर घर में बैठा लिया। विजेंदर ने भाग जाने की कोई राह न देखकर नन्हकी से अपने प्यार की बात कबूल कर ली और फिर दोनो भाइयों ने उसका मुँह दबाकर बुरी तरह धुन दिया। पोर-पोर में दर्द की टीस और दोनों भाइयों से अपमान का घूँट पीकर वह आँसू दबाते हुए बाहर निकला और अगले ही दिन गाँव से लापता हो गया। 


होली बीतने के बाद विवाह की तैयारियां जोर पकड़ने लगीं। पहुनी-पसारी जुटने लगे। भाइयों ने विजेंदर की पिटाई के बाद गाँव छोड़ देने से यह मान लिया कि अब बहन की विदाई में कोई अड़चन नहीं आएगी। वे शहर से विवाह और गवना (विदाई) का सामान लेने और रिश्तेदारों को बुलाने के लिए अक्सर बाहर आ-जा रहे थे। लेकिन नन्हकी तो अपने विज्जू का सनेसा अगोर रही थी। 


एक दिन विज्जू का संघतिया (जिगरी) मोहना मौका देखकर घर के पिछवाड़े नन्हकी से मिला और मोबाइल थमाकर चला गया। फोन पर विजेंदर की हेल्लो सुनते ही नन्हकी डहक उठी। कलेजे से उठती हूक दबा नहीं पायी। हिचकियों के बीच बस इतना सुन पायी कि वह अमृतसर से बहुत जल्दी आएगा और उसे ले जाएगा। तभी घर के भीतर से उसे किसी ने पुकारा तो झट उसने मोबाइल छिपा लिया और भागकर भीतर आ गयी। इसके बाद नन्हकी ने तैयारियां शुरू कर दीं- एक सुंदर सपना सच करने की जो उसे इस नरक से निकालने वाली थी।


बारात आने में कुछ ही दिन बचे थे तभी विजेंदर गाँव में अचानक प्रकट हुआ और पहले से तय प्रोग्राम से नन्हकी को बुला ले गया। साँझ के धुँधलके में जब घर की औरतें दीया-बाती करके संझा-पराती गाने बैठी थी तभी नन्हकी ने अपनी गठरी उठायी और घर के पिछवाड़े से निकल गयी। मोहन ने अपने टेम्पू से इसे रेलवे स्टेशन के बाहर छोड़ दिया और बताया कि विजेंदर वेटिंग हाल में ही मिल जाएगा। वह दौड़कर भीतर गयी तो विजेंदर लोहे की बेंच पर सिर थामे बैठा मिला। 


एकबारगी इसका दिल जोर से धड़क उठा जब अपने विज्जू की आंखों में वैसा उत्साह नहीं दिखा जिसकी उम्मीद इसने की थी। इसने उसे झिंझोड़कर उठाया और लिपट गयी। थोड़ी देर बाद विजेंदर ने उसे देह से अलग किया और हाल में लगे टीवी की ओर इशारा किया। स्क्रीन पर कोरोना के प्रकोप से देशव्यापी लॉक-डाउन लागू हो जाने की खबर चल रही थी। 


पूरी खबर देखकर नन्हकी धम्म से जमीन पर बैठ गयी। उसका सुंदर सपना भी इस लॉकडाउन की चपेट में आ गया। उसे जैसे काठ मार गया। विजेंदर ने भी नीचे बैठकर उसका हाथ थाम लिया। उसकी आँखों से लोर बहती रही। अंततः आंसुओं ने भी साथ छोड़ दिया और चेहरे को सूखा छोड़कर रात के सन्नाटे में चुक गए। स्टेशन बन्द कर रहे कर्मचारियों ने उन दोनो को बाहर कर दिया। विजेंदर ने समझ लिया कि अब दोनो का साथ रहना मुश्किल होगा। उसने कहा कि दिल कड़ा करके अपने-अपने घर लौट जाना पड़ेगा। हालत सुधरने पर फिर कोशिश करने का वादा करते हुए वह तेज कदमों से निकल गया। 


नन्हकी फिर क्या करती? ये रेल की पटरियां ही उसे इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकती थीं। लेकिन हाय रे किस्मत!


इधर बिरजू और नगीना जब लॉकडाउन के कारण विवाह में संभावित बाधा से चिंतित हुए घर आए तो नन्हकी की माँ बेसुध पड़ी थी। उसे काटो तो खून नहीं। नन्हकी के गायब होने की बात उनकी फूआ ने बताई जो विवाह की रस्में सम्हालने के लिए  पहले से आ चुकी थीं। कलेजे पर पत्थर रखकर दोनो भाइयों ने पैदल ही पूरा जवार छान मारा। कुआँ, ताल, पोखरा कुछ भी नहीं छोड़ा। विजेंदर के टोले में खुद तो नहीं गए लेकिन गोपनीय तरीके से पता लगवाया कि कलमुँही उधर ही तो नहीं छिपी है।


एक-एक पल पहाड़ सा बीत रहा था। शादी के घर में मरघट की शांति छा गयी थी। तीन-चार दिन बीत गए और घर वाले पागल की तरह नन्हकी को खोज रहे थे। पुलिस को खबर नहीं की। लॉक डाउन में उधर जाने की हिम्मत भी नहीं हुई। 


आज मटकोड़ की रात थी। लेकिन घर में मातम पसरा था। सभी अस्त-व्यस्त पड़े हुए रतजगा कर रहे थे। तभी रात के अंधेरे में दबे पाँव लस्त-पस्त नन्हकी ने घर के पिछवाड़े से प्रवेश किया। उसपर सबसे पहली नजर फूआ की ही पड़ी। उन्होंने दौड़कर उसे अँकवार में भर लिया। दोनो पुक्का फाड़कर रोने लगीं। आवाज सुनकर सबलोग आंगन में जुट गए। नगीना ने दौड़कर बाहर का दरवाजा बंद कर दिया। फूआ की गोद में दुबकी नन्हकी को जब सुरक्षा घेरा का भरोसा हुआ तो फफक पड़ी। तभी उसकी माँ का एक झन्नाटेदार चाटा उसकी गाल पर पड़ा। उसकी घिघ्घी बँध गयी। माँ गुस्से से तमतमाई गरज उठी- "रे मुँहझौसी, ते ओहरे मरि-खप काहें न गइले... सबके मुँहें में करिखा पोति के लौटि काहें अइले?"


नन्हकी के चेहरे पर एक भयानक खौफ दिख रहा था। वो अपनी अम्मा को ये समझाने की कोशिश करने लगी कि वह लौटकर कतई नहीं आना चाहती थी। रो-रोकर कह रही थी, "हमार करम फूटल रहे अम्मा कि टरेनवो नाहीं आइल... ये जियले से निम्मन कि हम ओहरे कट-मर गइल होइती... लौट के इहाँ कब्बो नाहीं अइती।" 


इतनी रात को नन्हकी के रोने-कलपने की आवाज घर के बाहर न जाए इसलिए उसकी फुआ बियाह के सगुन का गीत कढ़ा के ख़ूब जोर-जोर से टेर के गाने लगीं। 


नन्हकी के घर से सगुन का गीत और बीच-बीच में रोने की सुबकियां सुनकर उसके दरवाजे पर एक-एक करके गाँव की औरतें इकट्ठी हो गईं। इस बात की भनक लगते ही नन्हकी की अम्मा उसको चुप कराने लगी। बाहर खड़े लोगों को सुनाते हुए जान-बूझकर ऊंची-ऊंची आवाज में बोलने लगी- "जब से एकर बिआह तैं भईल बा रो-रो के बेहाल भइल बा... देहि सूखि के लकड़ी हो गइल, बाकिर ढंग से कुछू खात-पियत नइखे... देखत तनी तs बिदाई से पहिले आपन तबियत बिगाड़ ली।" 


यह सुनाते हुए नन्हकी की अम्मा घर से बाहर निकली। अपने आँसूं पोछते हुए वहाँ खड़ी औरतों को यह बताने की कोशिश करने लगी कि नन्हकी ससुरा जाने के नाम से घबड़ा रही है। बहुत दिनों से खाना-पीना तज दी है। एक्के ठो बहिन है। बिरजू और नगीना बहुते मानते हैं उसे। दोनों कबसे उसे समझा रहे हैं कि जब हमको भेंट करने के लिए  बुलाएगी तो हम उहाँ आ जाएंगे। एतना लामे भी तो नहीं है इसका ससुरा कि आने-जाने में समय लगे। लेकिन वो कुच्छहु  सुनने को तइयार नहीं है।


वहाँ जमा हुई अधिकांश औरतों ने सब जानते हुए भी अपना मुंह दबा लिया। गाँव की इज्जत इसी में है कि किसी तरह से वो जल्दी अपने ससुराल जाय और ई बला टले! तभी उनके बीच से भन्न से एक आवाज आयी "जबरा मारे रोवहूँ न दे"। फिर उनमें से एक ने गाभी मारते हुए कहा कि "नन्हकी के अम्मा, उसको बता दो कि लॉकडाउन में पूरा देश बंद हो गवा है... अभी एतना रोने की कवनो जरूरत नहीं है... इसके बियाह का दिन भी अऊर आगे टर जाएगा... अइसन सरकार का आदेश है। कह दो तबतक इहवाँ रह के कुछ दिन और खेले-खाए।"


(रचना त्रिपाठी)