आज सुबह बच्चों को स्कूल-बस तक छोड़ने के लिए बिल्डिंग के नीचे आकर बाहर सड़क पर निकली तो देखा एक भाईसाहब सामने की दुकान से आँख मलते हुए बाहर निकले और सड़क पार करके मेरी बिल्डिंग की चारदीवारी की ओर बढ़े। उन्होंने आव देखा न ताव, मेरे सामने ही दीवार पर मूत्र विसर्जन की तैयारी करने लगे। पहले तो मैं थोड़े असमंजस में पड़ गयी, फिर मैंने सोचा कि इन्हें एक बार आवाज देकर जगा ही दूँ। शायद इनकी तमीज की नींद खुल जाय। हमने टोका - भाई साहब क्या कर रहे हैं आप..? वे अपना एक हाथ उठाकर अफसोस नुमा चेहरा बनाकर मेरी बात मान गये और उल्टे पांव वापस चले गये। तब तक उसी दुकान से दूसरे महाशय जो बहुत दबाव में दिखे उसी मुद्रा में कूदते हुए चले आ रहे थे। मुझे वहाँ खड़ा देखकर अचानक उनके कदम रुक गये और वे अपने एक हाथ से सिर का बाल सहलाते हुए वहीं खड़े हो गये।
दोनों शरीफ़ प्राणी करीब दस मिनट तक मेरे वहाँ से चले जाने का इंतजार करते रहे। मैं भी उनकी इस परेशानी को समझ रही थी मगर क्या करती; स्कूल-बस आज देर कर रही थी। सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी का तकाजा था कि जबतक बच्चे बस के भीतर न चले जाँय तबतक वहीं प्रतीक्षा करती रहूँ। इस प्रतीक्षा अवधि में मेरा मन सामने प्रकट हुए इस मुद्दे पर सोचता रहा। यह प्राकृतिक कार्य तो वे वहीं रोज करते हैं। उनके इस कृत्य से हम बिल्डिंग वाले परेशान भी रहते हैं। इनकी लघुशंका का समाधान करते-करते प्रायः बन्द रहने वाला हमारी बिल्डिंग का पिछला गेट तो खराब हो ही चुका है अब चार दीवारी की बारी है। हमने मजबूर होकर उस गेट को भी खोलने बन्द करने का सिलसिला शुरू कराया, दो-तीन बार तो वहां चूना भी डलवाया ताकि गंदगी कट जाय और कहीं इनके आँख में थोड़ा सा भी पानी बचा हो तो स्वच्छता पर घिरे इनकी फूहड़ता के बादल छँट जाय।
खैर जो भी हो, उनकी आँखों में अपने लिये इतना लिहाज़ देखकर मैं खुश थी। तब मैने उन्हें वहां कभी भी पेशाब करने से मना किया। उन्हें ये बात रास नहीं आयी और बड़ी ही बेशर्मी से हमसे ही पूछ बैठे- तो आपही बता दें कि हम इसके लिये कहाँ जाएँ? मैं इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी। हक्का- बक्का खड़ी थोड़ी देर तक अपने दायें-बायें झांककर मानो उनके लिए विकल्प तलाशती रही; लेकिन कुछ नजर नहीं आया। अब उस आदमी की बड़ी-बड़ी लाल आँखें और काला-कलूटा चेहरा देखकर मुझे थोड़ा डर भी लगने लगा। मगर इस डर को मैंने दूर झटक दिया और उन्हें अपनी दुकान वाली बिल्डिंग में ट्वाएलेट बनवाने की सलाह दे डाली।
उन्होंने यह कहते हुये साफ मना कर दिया कि हमारी बिल्डिंग में शौचालय के लिये जगह नहीं है। हम नहीं बनवा सकते। मतलब उनके पास बस यही एक विकल्प था। साफ था कि इनके अंदर सामाजिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। फिर मै अधिकारों की बात पर उतर आयी और उनसे साफ-साफ कह दिया कि आपको हमारी बिल्डिंग की दीवार और गेट को गंदा करने का कोई अधिकार नहीं है। क्या आप अपने दरवाजे पर; दुकान के सामने या दुकान के अंदर पेशाब कर सकते हैं..? यदि ऐसा कर सकते हैं तो बिल्कुल करें मैं मना नहीं करुंगी। यह आपकी समस्या है; पर सड़क पार करके मेरी बिल्डिंग पर मत करें। इस बात पर उनकी बोलती बंद हो गई। शायद सोच रहें होंगे कि शराफत का जमाना नहीं है थोड़ी सी तबज्जो दी तो सिर पर चढ़ गयी।
बिल्डिंग के अंदर कुछ शुभचिंतक टाइप महिलाएं मुझे इस तरह से मर्दों के साथ टोका-टाकी करने से मना करती हैं। उनका कहना भी सही है कि कौन जाने ये मर्द किस बात पर इगो पाल लें, घात लगाये बैठे रहें और कहीं मौका मिलने पर मेरे साथ कुछ उँच-नीच कर बैठें। फिर तो समाज में मेरी क्या ‘इज्जत’ रह जायेगी? लेकिन ये बात मेरी समझ में नहीं आती है कि कितनी नाजुक और भंगुर होती है स्त्रियों की इज्जत जो एक बार चली गई तो फिर लौट कर नहीं आती; यह भी कि कैसे-कैसे जघन्य अपराध सह लेने के बाद भी बनी रहती है और जरा सी बात हवा में फैल जाय तो चकनाचूर हो जाती है।
इज्जत के नाम पर एक अवांछित प्रेम-संबंध के लिए एक लड़की की हत्या करने में जब एक स्त्री भी शामिल हो जाती है तो उसकी इज्जत नहीं जाती, घर के भीतर तमाम तरह के शोषण और बलात्कार का शिकार होते हुए भी उफ़्फ़ तक न करने पर इज्जत बनी रहती है लेकिन अगर शिकायत की आवाज बाहर निकल गयी तो इज्जत मटियामेट हो जाती है। किसी धोखेबाज भेंड़िए की वासना का शिकार हुई मासूम बेटी का गर्भपात किसी महिला डॉक्टर को मोटी रकम देकर चुपके से करा देने पर इज्जत बची रह जाती है लेकिन उस अपराधी के खिलाफ आवाज उठाते ही इज्जत तार-तार हो जाती है। राह चलते हुए आगे-पीछे से सीटी मारते लफंगो और उनकी अश्लील टिप्पणियों के बीच सिर झुँकाए अपमान का घूँट पीते हुए घर लौट आने पर इज्जत बची रहती है लेकिन पलट कर मुँहतोड़ जवाब देते ही इज्जत में बट्टा लग जाता है।
उफ्फ..इन महिलाओं को कैसे उबारा जाय इस इज्जत जाने की ‘फोबिया’ से जो उन्हें अपने लिए ही कुछ अच्छा करने से रोकता है और चैन से सोने भी नहीं देता।
(रचना त्रिपाठी)