आपको नहीं लगता कि एक स्त्री को पूर्ण बनाने में जितना जरूरी उन प्राकृतिक गुणों जैसे- ममता; प्यार; धैर्य, सहनशीलता, त्याग और साहस का होना है, उतना ही जरुरी उन्हें खुद को सुरक्षित रखने के लिये अपने अंदर कुछ सांसारिक गुणों का भी समावेश करना है...? थोड़ी नफरत, थोड़ा क्रोध, थोड़ी लालच, थोड़ी चालाकी, कुछ क्रूरता और ढेर सारी ताकत! यह सब उन्हें इसी जमाने से सीखना होगा !!!
याद करिये, जब प्यार करने और अपनी मर्जी से अंतर्जातीय विवाह करने के जुर्म में पंचायत के ग्यारह सदस्यों ने बारी-बारी से उसकी आबरू लूटी थी तो कहाँ थी उसकी ये अनमोल निधियां जो कथित रूप से एक बेहतर संसार की रचना करती हैं। ये जो सद्गुण एक अच्छी स्त्री में रचे-बसे हैं... इनमें से कोई भी तो उसका साथ देकर उसकी रक्षा के लिये सामने नहीं आये। उसका धैर्य; उसकी लज्जा; उसकी शाहनशक्ति; उसका प्रेम; उसकी ममता और वह करुणा भी; जो इस समाज के ढांचे को मजबूत बनाये रखने के लिये कथित तौर पर बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्या प्रकृति प्रदत्त जन्मजात उसके ये सभी गुण इस समाजिक बर्बरता के आगे निरुत्तर नहीं हैं…?
जब यहाँ स्त्रियों को उनके पति की मृत्यु के पश्चात् उनकी चिता के साथ ही सती बनाने के लिए जबरदस्ती जलाया गया तब क्या वहां उसका यह ईश्वरीय गुण "साहस" उसकी सुरक्षा में ढाल बनकर खड़ा हुआ... काश उस समय उनके अंदर हिम्मत के अलावा हथियार उठाने की शक्ति भी होती तो उस समय यह प्रथा जन्म ही न लेने पायी होती।
16 दिसंबर की रात जब निर्भया उन दरिंदो द्वारा नोची जा रही तो क्या कर रही थी उसकी 'सहनशक्ति'... जो उसे टूटकर बिखर जाने से रोक न सकी? अगर इस सहनशक्ति के साथ उसके पास आर्थिक क्षमता भी होती तो उतनी रात में उसके पास खुद की गाड़ी; अपना ड्राइवर और अपनी सुरक्षा के लिये बॉडीगार्ड भी होता तब क्या उसके सामने यह नौबत आती...अगर आई भी होती तो क्या वे दरिंदे वहीं के वहीं ढेर न हो गये होते...?
जब कानपुर की ज्योति अपने पति की साजिश के तहत चाकुओं से गोद-गोद कर छलनी की जा रही थी उस समय भी तो उसका "धैर्य" जवाब दे गया... आपको नहीं लगता कि उसने भी समय रहते पहले ही थोड़ा अधीर होना सीखा होता तो उस दिन अपने पति के छलावे में नहीं आयी होती... और उसके जीवन की रौशनी भी आज हमारे बीच ही कहीं दीप्तिमान होती...!
और तो और, हमारी न जाने कितनी बहू-बेटियां माँ बनने के बाद भी जब दहेज के लोभ में जलायी जा रही थीं उस समय यह "ममता" और "त्याग" की निधियाँ किस कोने में दुबकी पड़ी हुईं थीं… जो उनको जलता देख थोड़ी भी पिघल न सकीं... अपनी सुरक्षा के लिये अगर इन्हें थोड़ी नफरत; थोड़ा क्रोध और थोड़ी लालच भी सीखनी पड़े तो क्या बुरा है...?
लखनऊ के निकट मोहनलाल गंज में जब एक महिला के साथ दुष्कर्म कर हत्या के बाद उसका लहू-लुहान नंगा बदन पूरी मीडिया में घण्टों तमाशा बनाया गया तब क्या इस प्रकृति की "लज्जा" भी तार-तार न हुई...? ऐसे में अगर स्त्री थोड़ी बेहयाई ही सीख ले तो कम से कम इस "लज्जा" के लुटने के भय से कुछ पल मुक्त होकर जी तो सकेंगी...!
जहां कई दशकों से एक माँ की कोंख में इस दुनियां से बेखबर एक लड़की को ख़त्म करने की साजिश रची जाती रही हो और न जाने कितने तरह के औंजारों से उसके मोम से नाजुक बदन पर लगातार प्रहार किये गए हों उस समय क्या उसे "करुणा" की भीख भी मिलती है...? ऐसे में हम स्त्रियों को क्या सिर्फ भगवान् के भरोसे ही बैठे रहना काफी है...? उन्हें थोड़ा सा ज्ञान और गुण इस दुनिया और समाज से सीखकर अपनी सुरक्षा खुद से कर सकने के लिये अपना हथियार भी पहले से तैयार नहीं रखना चाहिये...?
(रचना त्रिपाठी)