आज मैंने अपनी आँखों से एक ऐसे अतिक्रमण का वाकया देखा जो किसी फुटपाथ पर जीविका कमाने वाले ठेले-खोमचे अथवा टाइपराइटर वाले ने नहीं किया। बल्कि उसी वर्दी वाले एक 'लोकसेवक' ने किया जिस वर्दी को पहनकर अभी हाल ही में एक दरोगा जी अतिक्रमण हटाने के अति उत्साह में टाइपिस्ट के साथ दुर्व्यवहार करने के जुर्म में निलंबित हुए हैं।
यह लोमहर्षक घटना मेरी आँखों के सामने हुई। बल्कि मैं खुद ही इस पुलिस वाले की ज्यादती का शिकार होने से बाल-बाल ही बची। मैं अपनी सहेली से मिलने स्कूटी से जा रही थी तभी 100 न. हेल्पलाइन की पीसीआर गाड़ी बगल से गुजरी। इसमें ड्राइविंग सीट पर एक खाकी वर्दी वाला सवार था जो घोषित रूप से जनता का मददगार था। उसने भरी ट्रैफिक में अपनी गाड़ी को पूरी स्पीड में मेरी गतिशील स्कूटी के ठीक सामने लाकर अचानक घुमाने की कोशिश की। मैंने झट से ब्रेक लगाकर अपनी स्कूटी को जैसे-तैसे बचा लिया। लेकिन अगले ही क्षण उसने बिना हार्न बजाये भीड़ को चीरते हुये यू-टर्न लेने की कोशिश की और अपने सामने से गुजर रहे एक बाइक सवार को ठोक दिया। बाइक सवार गिर पड़े।
पीछे से आ रही एक दूसरी बाइक भी गिरते-गिरते चिचिया कर संभल गई। चूँकि बाइक वाले नयी उम्र के लड़के थे इसलिये मुझे लगा कि कुछ नोंक-झोंक होगी और मामला गंभीर हो जाएगा। बाइक वाले युवक ने अपनी बाइक को तेजी से उठाते हुये बहुत गुस्से में पीछे पलट कर देखा भी। लेकिन पुलिस की गाड़ी पाकर उसके चेहरे का पारा जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा था उससे दोगुनी रफ़्तार से नीचे गिर गया। पुलिसवाले को मैंने एक बार ऊँची आवाज में बताने की कोशिश भी की- ''आप सड़क और नियम के साथ जबरदस्ती कर रहे हो।" लेकिन वहाँ मेरी बात वह बन गयी जिसे नक्कारखाने में तूती की आवाज कहते हैं।
मुझे ऐसा लगा वो महाशय अपनी गाड़ी का हूटर बजाते और बाइक वालों को घूरते अपनी सीट पर बैठे ट्रैफिक नियम के साथ छेड़छाड़ का आनन्द उठा रहे थे। सड़क और उसके नियमों के साथ पुलिस द्वारा किया गया ऐसा बर्ताव क्या किसी अतिक्रमण से कम है? यह देखकर मैं तो सन्न रह गई कि इतना खतरनाक स्टंट करने और बाइक गिरा देने के बाद भी उस पुलिस वाले के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी और सहम कर अपराध बोध से ग्रस्त होना उन लड़कों के हिस्से में आया।
मुझे लगा था कि लड़को में अभी नया खून हैं; जरूर अपना हिसाब वर्दी वाले रंगबाज से चुकता कर ही लेंगे पर मैं गलत थी। मैंने देखा बाइक पर सवार नौजवान लोगों का गरम खून ऐसा ठंडा हुआ कि मानो उसे नार्मल करने के लिए सिंकाई करनी पड़ेगी। वे अपनी बाइक जल्दी से साइड में लगाकर काठ बन गये नजर आ रहे थे।
ऐसी दुर्घटना अगर किसी आम नागरिक की गाड़ी से हुई होती तो मामला इतना आसान न होता और यही पुलिस उसे अपने कायदे से निपटा भी रही होती। अतिक्रमण का मैंने कभी समर्थन नहीं किया। पर ऐसे अतिक्रमण का क्या किया जाना चाहिये जिसका संबंध दूसरों के जान-माल की हानि से हो, और नुकसान पहुँचाने वाले स्वयं कानून के रखवाले हो।
अभी बीते दो दिन पहले की बात है एक दरोगा साहब को अखिलेश सरकार ने इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि उन्होंने फुटपाथ पर बैठे किसी गरीब की टाइपराइटर अपने पैरों से मार-मार कर तोड़ दिया। अतिक्रमण के जुर्म में अगर दरोगा जी ने उसे वहाँ से हटाने के लिए साम-दाम दण्ड-भेद का फार्मूला अपनाया तो उन्हें कौन रोक सकता था? उन्हें तो ऐसे ही बहुत से अधिकार मिले हैं जो वे बिना किसी के इजाजत के खुद प्रयोग कर सकते हैं। यह तो भला हो खबरिया चैनेलों और सोशल मीडिया का जो सरकार के ऊपरी माले तक खबर पहुँच गयी और मुख्यमंत्री जी ने संवेदनशीलता का परिचय देकर उस आदमी की मज़बूरी, गरीबी और लाचारी पर तरस खाते हुये आनन-फानन में उसका टाइपराइटर नया कर दिया।
सुना है उसके उत्पीड़न की क्षतिपूर्ति के लिए एक लाख की आर्थिक सहायता भी दी गयी है। यह कदम आम जनमानस के लिये जरूर राहत भरा होगा। पर मेरे लिये यह टोकेनबाजी के अलावा कुछ भी नहीं है। फुटपाथ छेंककर बैठे दूसरे लोग सोच रहे होंगे की काश दरोगा की लात उनके ऊपर भी पड़ गयी होती तो मुख्यमंत्री की राहत आ जाती। सीएम साहब ने दरोगा जी को निलंबित कर उस गरीब को नये टाइपराइटर से उपकृत कर जनता के दिलों में अपनी जगह तो बना ली! पर बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि अतिक्रमण और विशेष तौर पर पुलिसिया अतिक्रमण से निजात पाने के लिये क्या यह सरकार कोई पुख्ता प्रबन्ध कर पाने में सक्षम भी है? क्या इसकी इच्छाशक्ति भी दिखायी देती है?
(रचना त्रिपाठी)