कुछ लोग अपने काम और नाम की बातों को प्रस्तुत करने में इतने माहिर होते हैं कि उन्हें कभी भरोसा ही नहीं होता कि उनसे बेहतर कोई दूसरा भी यह काम कर सकता है। इस मामले में कुछ महान आत्माएं इतनी स्वावलंबी होती हैं कि दूसरों को करने के लिए कुछ भी नहीं छोड़ना चाहतीं। अपनी प्रशंसा के लिए दूसरों का मुँह ताकना उन्हें नहीं भाता। अपने काम को ठीक से करने का शऊर हो न हो, आत्मविश्वास भले ही डगमगाता रहे लेकिन सबके सामने अपने करतब का बखान करने के लिए उनमें आत्मनिर्भरता कूट-कूट कर भरी रहती है। सामने वाले का क्या भरोसा? क्या पता कोई चूक कर दे, कुछ गुणों पर जोर देने में कंजूसी कर दे। जब उन महान गुणों के प्रथम पारखी वे स्वयं हैं तो उनसे बेहतर उनका गुणगान कोई और कैसे कर सकता है? इसे आप स्वावलम्बन अथवा आत्मनिर्भरता की आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं। अब किसी भी आदर्श को हासिल करना कोई मजाक नहीं है। इसके लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। अपने लिए चुन-चुनकर नायाब शब्दों को संजोए रखना और मौके बे मौके झोंकते रहना पड़ता है। यह सबके वश की बात थोड़ी न है।
आत्ममुग्धता की इस पराकाष्ठा को हासिल करने में सफल होने वाले कुछ ही काबिल लोग हैं। जी तो करता है इनके बीच एक प्रतियोगिता करा दी जाय और इसके विजेता को राष्ट्रीय पुरस्कार भेंट किया जाय। अलबत्ता इस प्रतियोगिता से देश के कुछ सर्वोच्च नेताओं को दूर रखना पड़ेगा नहीं तो रिजल्ट पहले ही आउट हो जाएगा। अपने आपको तालियों की गड़गड़ाहट और विक्ट्री साइन का सबसे बड़ा हकदार बताने की कला में कम लोग ही निष्णात होते हैं। कहीं ये कलाकार विलुप्त न हो जाय इसलिए इनके संरक्षण और संवर्द्धन की कोशिश की जानी चाहिए। हम जैसे साधारण लोग जो इनके आगे मूक बने रहते हैं, इनके बिना क्या कर पायेंगे? कहीं इनके बिना हमारा जीवन सूनेपन का शिकार न हो जाय। इसलिए ऐसी दक्ष प्रजाति को बढ़ावा देते रहने की बड़ी जरूरत है।
(रचना त्रिपाठी)