Thursday, December 23, 2010

दुनियादारी के दबाव में डगमगाता आत्मविश्वास

मेरी बचपन की सहेली ने, अपनी एक विचित्र समस्या से निज़ात पाने के लिए मुझे फोन किया और कहा,“ रचना! मेरे घर के सामने एक औरत आकर बस गयी है जो बहुत फूहड़ और बदतमीज है। अवैध रुप से कुछ जानवरों को सड़क पर ही पाल रखी है जिससे यहाँ गंदगी तो फैली ही रहती है साथ ही घर से निकलना भी मुश्किल हो गया है। गाय-भैंसों के चक्कर में यहाँ साँड़ भी आते हैं जिससे अक्सर अश्लील दृश्य उत्पन्न हो जाता है, बच्चों के घायल होने का खतरा तो बना ही रहता है। इससे मैं बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने देती। मुहल्ले के लोग भी उसे कुछ कहने से डरते हैं। झगड़ा करने पर उतारू रहती है। वह एक दलित जाति की है और बात-बात में ‘बहन जी’ का रौब दिखाती रहती है। एक दिन मैंने तय किया कि मै इसे सुधार दूंगी, इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करुँगी। मैने अपने पति महोदय से कहा कि… आप मेरी कुछ मदद करिये तो इन्होंने कहा कि बाकी मुहल्ले के लोग तुम्हे बेवकूफ लगते हैं क्या। इसके आगे पीछे का परिणाम सोच लो फिर आगे कदम बढ़ाना”। tabella-on-roads

उसके मन की बेचैनी को मै समझ सकती थी लेकिन मैं भी क्या कहती… उसके पति की तरफ़दारी करते हुए ही मैने कहा, “क्या गलत कह रहे हैं…ठीक ही तो कहा है। तुम तो शिकायत दर्ज कर के निकल लोगी लेकिन भुगतेगा कौन? यह सोचा है।”

उसने पूछा, “कौन भुगतेगा?”

उसकी नादानी पर मैं हँसते हुए बोली, “अरे मूर्ख तुम्हारे पति… और कौन?”

वह झुँझलाते हुए बोली, क्यों इसमें उनका क्या काम कि वह भुगतेंगे? ये पुरुष होने के नाते डर रहे हैं कि कहीं मेरे खिलाफ कोई गलत आरोप न लगा दे। लेकिन मैं तो एक महिला हूँ। सारे मुहल्ले के लोग पीठ पीछे इसका विरोध करते है लेकिन सामने कोई नही कहता। इस मुहल्ले में औरतें सकपकायी रहती हैं। पति जो बोलेगा वही करेंगी अपनी समस्याओं को बरदाश्त करती रहती हैं… पुरुष वर्ग तो अपने-अपने काम पर चला जाता है लेकिन हम महिलाएं और बच्चे कहाँ जाँय। मै तुमसे पूछती हूँ  कि इसके खिलाफ मुझे शिकायत दर्ज करवानी है कैसे करूँ? देखती हूँ कि मेरा कोई क्या बिगाड़ लेता है?

मैने उसे समझाया, “जोश में कोई ऐसी-वैसी हरकत मत कर बैठना। दलित उत्पीड़न में फँस जाओगी।  अगर तुम्हारे पति को सस्पेंड कर दिया जायेगा तो क्या करोगी?” उसने जोश में जवाब दिया, “शिकायत मैं करूँगी तो सरकार को या ‘बहिन जी’ को अगर बुरा लगता है तो मेरा नुकसान करे इसमें मेरे पति का क्या कुसूर?

मुझे भी मजाक सूझा तो मैने झट से बोला, पिक्चर नही देखती क्या? अगर हीरो से दुश्मनी निकालनी होती है तो गुन्डे उसकी माँ-बहन को परेशान करते हैं यही फ़ॉर्मूला है और क्या?

वह मेरे ऊपर भी नाराज होने लगी और बोली- तो क्या हम इस डर से बैठे रहें और चुपचाप यह सब अपनी आँखों से देखते रहें। मुझे तुमसे यह उम्मीद नही थी रचना… तुम मुझे समझा रही हो कि अन्याय को अपनी आँखों के सामने होते हुए देखते रहें और चुप बैंठे रहें। क्या तुम वही रचना हो जो कॉलेज लाइफ में बिना अंजाम की परवाह किए जो बुरा लगता था उसपर फ़ौरन आवाज़ उठाती थी। मैने कहा, “तबकी बात कुछ और थी तब अपने पापा के घर में थी और मेरे पापा सरकार के नौकर नही थे… लेकिन  अब बात कुछ और है।”cattle-menace

मैंने उसे दुनियादारी की बात समझा तो दी लेकिन यह बात मै खुद ही नही समझ पाती कि अब बात कुछ और क्यों है? मैं तो यह भी बताने में डरती हूँ कि वह महिला दलित है और  प्रदेश सरकार भी दलित आधार की है। आये दिन दलित महिलाओं को थाने जाते देखती और सुनती रही हूँ। कितने लोग  उनसे आरोपित होने के बाद अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने में हलकान हो जाते हैं।

काश मेरे अंदर पहले जैसा आत्म-विश्वास होता। पहले जैसा यानी जैसा बचपन में था। किसी से बगैर पूछे दिल की आवाज़ पर कोई काम कर लेना- नतीजा चाहे जो निकले। इसकी किसको फिक्र थी!  साँच को आँच कहाँ?  लेकिन अब क्या है… ?

देखती हूँ कि सच्चाई का मोल घटता जा रहा है। ‘पोलिटिकली करेक्टनेस’ के चक्कर में नारों और जुमलों का हमारे व्यवहार पर बड़ा असर पड़ रहा है। बात-बात पर अपनी परवाह कम घर-परिवार, बच्चे और पति की चिंता ज्यादा रहती है। कभी-कभी अपने विचार खुद को ही सही नहीं लगते हैं, अपना ही व्यवहार टीसने लगता है। ऐसा क्यों हो जाता है?

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, December 11, 2010

राम दुहाई राम दुहाई राम दुहाई भाई जी

आज अचानक कैलाश गौतमजी की एक कविता हाथ लग गयी। इसे पढ़कर मैं हैरत में पड़ गयी। मुझे नहीं मालूम कि इसे किस संदर्भ में उन्होंने लिखा था लेकिन मुझे विश्वास है कि आज भी आपको अपने आस-पास ऐसे चरित्र मिल सकते हैं। लीजिए आप लोगों के लिए प्रस्तुत है ये मंचीय कविता :


राम दुहाई राम दुहाई राम दुहाई भाई जी
आपके मुँह पर आपकी कितनी करूँ बड़ाई भाई जी।

गिरगिट को भी आपने पीछे छोड़ा रंग बदलने में
कोई सानी नहीं है मुँह पर कालिख लेकर चलने में
ठाकुर के घर में न रही ऐसी ठकुराई भाई जी।

गुड़िया बनकर बुढ़िया निकली खैर नहीं है बप्पारे
सोने की पायल के लायक पैर नही है बप्पारे
घर में केवल आग लगाने दुलहिन आई भाई जी।

नाक कटाकर बड़ी बहू अब नथ गढ़वाने बैठी हैं
कितने भर सोने का होगा वजन बताने बैठी हैं
रह-रहकर झनकातीं चूड़ी भरी कलाई भाई जी।

क्या कोई सुख-दुख बाँटेगा जैसा आपने बाँटा है  
सबके मन में चोर बसा है सबके मन में काँटा है
आपसे बढ़कर कौन दूसरा हातिमताई भाई जी।

कितना बड़ा पेड़ था कल तक अब है बेट कुल्हाड़ी का
बिका कसाई बाड़े जाकर फाटक ठाकुरवाड़ी का
हम सब भेंड़ बकरियों में हैं आप कसाई भाई जी।

 

Tuesday, June 8, 2010

क्या उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है…?

हाल ही में गिरिजेश जी ने यह कविता पोस्ट की थी। पढ़ने के बाद से तमाम बातें मन के भीतर गड्डमड्ड होती जा रही हैं-

न रो बेटी
माँ की डाँट पर न रो ।
वह चाहती है कि
वयस्क हो कर तुम
उस जैसी नारी नहीं
अपने पापा जैसी 'मनुष्य' बनो
(उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है) ।

बचपन में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी की  यह मशहूर कविता पढ़ी थी तब मुझे मालूम भी न था इस कविता की गहराई में कितने रहस्य छुपे हैं, आज आये दिन मेरे मन में यही कविता डोलती रहती है।  

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

‘थ्री इडियट्स’ देखने के बाद मेरी नौ साल बेटी ने मुझसे कहा, “मम्मी मै हाउस-वाइफ बनना चाहती हूँ । तुम मुझे इसके लिए मना नही करना।”

उस समय मै उसकी बात को हँस कर टाल गयी…। लेकिन उसको क्या पता कि उसकी इस चाहत ने मुझे कितना दुख पहुँचाया। मन में ही फुसफुसा कर रह गयी कि वह तो ‘पढ़ो ना पढ़ो बन ही जाओगी’। हाउस-वाइफ़ भी कोई कैरियर ऑप्शन है? लेकिन उसे एक गृहिणी की छवि ही क्यों आकर्षक लगती है?

इस स्रुष्टि को जन्म देने वाली माँ क्या सचमुच उसका कार्य छोटा है? कितना आसान है अपने मन को समझाना, लेकिन उतना ही कठिन है बेटियों को समझाना। 

दिन में जाने कितनी बार मेरी बेटी बोलती है मम्मी, मै तुम्हारे जैसा बनना चाहती हूँ… लेकिन मै इस बात को सुनकर खुश नही होती। जाने क्यों उसका यह वाक्य मुझे दुख पहुँचाता है। मै उसको समझाने की कोशिश करती हूँ कि बेटा, मेरी तरह नही डैडी की तरह बनो। पढ़ लिखकर अच्छा कॅरियर बनाओ। स्वावलम्बी बनो।

लाख कोशिशो के बावजूद मै उसे बेटी कहकर नही पुकारती, मेरे मुँह से हमेशा उसके लिये बेटे का ही संबोधन निकलता है। जाने क्यों…?

इसमें उसका सम्मान है या अपमान?

मेरे अंदर कहीं न कहीं अपनी बेटी के लिए एक डर का भाव बना रहता है। पता नहीं क्या होगा इसका? एक माँ पुत्र का जन्म होने पर अपने आपको बेहतर महसूस करती है, पुत्री के जन्म की अपेक्षा। जैसा भी होगा अपने सामने तो रहेगा। उसका सुख और दुख अपनी आँखों के सामने तो घटित होगा। हम उसमें शरीक तो रहेंगे। उसके लिए जो बन पड़ेगा कर तो सकेंगे। उसपर हमारा अधिकार तो होगा। वह ‘पराया धन’ तो न होगा? लेकिन बेटी…?

सोचती हूँ कि क्या सचमुच उसकी सोच गलत है या मेरे मन का डर? आखिर मन डरता है तो किससे? उसके सामने एक ऐसी गृहिणी है जो सुखी है और सन्तुष्ट है। रोज ऑफ़िस जाने की भागमभाग नहीं है, कोई तनाव नहीं है। शायद इस आराम की जिन्दगी ने उसे आकर्षित किया हो…। लेकिन क्या सभी गृहिणियाँ सुखी और सन्तुष्ट हैं अपने जीवन से…? उसे क्या पता? उसने अभी दुनिया कहाँ देखी है?

कैसे समझाऊ उसे कि तुम्हें लेकर मैं कितना परेशान रहती हूँ। वह तो शायद उसी स्वाती कि बूँद की तरह है जिसको अपने बारे में पता नही कि उसका क्या हश्र होने वाला है। कितना कुछ अनदेखे भाग्य की मुठ्ठी में बन्द है…?

बेटी के जन्म के समय माँ का मन खुश कम चिंतित ज्यादा होता है,  इस समाज के दोहरे मापदंड देखते हुए…। माँ का मन कैसे चिंतित न हो अपनी बेटी के भविष्य की सुरक्षा को लेकर…?

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, February 13, 2010

न नारी स्वातंत्र्यमर्हति (नारी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है… )!!!

इस सूक्तिवाक्य को पढ़ने के बाद मैं सन्न रह गयी। मनुस्मृति में एक ओर कहा गया कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ तो दूसरी ओर नारी को स्वतंत्रता के अयोग्य ही ठहरा दिया गया। आखिर ऐसा क्यों कहा गया ?

बर्षों पहले दूरदर्शन पर एक विज्ञापन आता था जिसे मै  बहुत गौर से देखती  थी। उस विज्ञापन में एक गीत कुछ इस प्रकार था:-

हम और विरना खेले एक साथ,

खेले एक साथ अम्मा खायें एक साथ ।

विरना कलेवा अम्मा हँसी-हँसी देबो,

हमरा कलेवा तुम दीजो रिसियायी।

एक ही पेट से जन्में हुए भाई-बहन दोनों एक साथ खेलते-कूदते बड़े होते है लेकिन जब खाने का वक्त आता है तो माँ बेटे को बड़े प्यार से खाना खिलाती है और बेटी कि तरफ घूरते हुए खाने की थाली परोस देती है। इस गीत का भाव उसकी बेटी के चेहरे पर दिखायी तो पड़ता था, लेकिन वह खुल कर अपनी माँ से सवाल भी नही कर पाती। इसका असर मेरे उपर भी पड़ा। मैने बात-बात पर मम्मी के व्यवहार पर नज़र रखना शुरू कर दिया जिसका मुझे जगह-जगह पर लाभ भी मिला। भाइयों की तुलना में अपने साथ कोई पक्षपात होता देख मैं तत्काल पापा से शिकायत कर देती।

मैं देखती हूँ कि अशिक्षित महिलाओं के साथ साथ कुछ पढ़ी-लिखी महिलाओं को भी जहाँ पूर्ण स्वतंत्रता मिली उनमें उसका दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति उजागर हो गयी। शायद स्त्री अभी भी बहुत कमजोर है। आत्मनियन्त्रण की शक्ति का अभाव दिखता है मुझे। उसे अपने आप को मजबूत बनाने में कोई कसर नही छोड़नी चाहिये। यह मजबूती उचित शिक्षा ही दिला सकती है, नारी को शिक्षा के प्रति जागरुक होना बहुत जरूरी है। मेरा मतलब यह है कि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ निरर्थक स्वतंत्रता प्राप्त करना या नौकरी करने से नही है। यह जरूरी नही है कि जिस घर की स्त्रियाँ नौकरी करती हों या मंच  पर खड़े होकर कुछ भी कहने को  स्वतंत्र है उनके घर की बहू-बेटियों पर अत्याचार नहीं होता हो… यह जरूरी नहीं है कि पढ़ी-लिखी महिलाएं  कन्या भ्रूण हत्या का अपराध नहीं करती हो…

औरत ही औरत की दुश्मन होती है। जरा एक बार गहराई से सोचिये कि स्त्रियों के लिए ऐसा क्यों कहा गया ? समाज में इसके असंख्य उदाहरण क्यों देखने को मिलते हैं? सास-बहू या ननद- भाभी का रिश्ता दोनो पक्षों के स्त्री होते हुए भी क्यों एक दूसरे के प्रति बहुत अच्छा नहीं रह पाता? एक दूसरे में खोट निकालने को उद्यत क्यों रहती हैं ये नारियाँ? एक परिवार मे औसतन पुरुष और स्त्रियों की संख्या बराबर होती है; अपवाद स्वरूप कम या अधिक भी होती है, लेकिन वहाँ अगर जली तो स्त्री ही क्यों …?  पुरुष क्यों नही….. ? क्योंकि स्त्री या तो बहुत कमजोर है या अवसर पाकर स्वछंद हो गयी है। उस परिवार में कन्या भ्रूण हत्या क्यों? ससुर को या उस परिवार के मालिक को पोता ही चाहिये पोती क्यों नही? उस घर की मालकिन या सास यह प्रश्न क्यों नही उठाती? इस जघन्य कृत्य में घर की सभी नारियाँ शामिल कैसे हो जाती हैं? कबतक इसे पुरुष वर्ग की साजिश करार देकर अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ती रहेंगी ये नारियाँ?

इस हत्या की अपराधी एक महिला प्रसूति रोग विशेषज्ञ या फिर मिड्वाइफ भी होती है। इसे नारी शिक्षा और उससे मिली स्वतंत्रता का उत्थान कहें या पतन…. ?

नारी का स्वतंत्र होना बहुत जरूरी है!  इसलिये नही कि वह स्वछन्द होकर कुछ भी कर जाये बल्कि इसलिये कि वह एक स्वस्थ समाज का निर्माण करे। नारी तो ब्रह्मा का रूप होती है जो इस सृष्टि के रचयिता हैं। नारी ही नारी को मजबूत बना सकती है । अगर एक माँ ही अपनी बेटी को तबज्जो नही देगी तो पिता या समाज क्यों देगा? अगर एक बहू को उसकी सास ही सुरक्षा की दीवार नही बनेगी तो ससुर से उम्मीद क्यों करें?

(रचना त्रिपाठी)