Monday, July 21, 2014

लखनऊ की मुलायम जनता

राजधानी लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके में गुरुवार को एक महिला के साथ दुस्साहसिक कांड ने रोंगटे खड़े दिए। जिस समय अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के आगमन को लेकर सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद थी उसी समय  उसी थानाक्षेत्र के बलसिंह खेड़ा गांव के बाहर स्थित प्राथमिक बिद्यालय के परिसर में एक महिला के साथ दरिंदगी की हर हद पार कर इस प्रदेश के साथ देश की इज्जत भी तार-तार हो रही थी।

एक साल पहले की बात है दिल्ली में “निर्भया काण्ड” के दामिनी को इसी तरह से दरिंदगी का शिकार बनाया गया; जिसकी पीड़ा को पूरे देश ने महसूस किया। इस घटना से उद्वेलित दिल्ली के लोगों की संवेदनाएं ज्वालामुखी बन कर सड़क पर उतर आयीं; जिसकी लपटों ने सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के कोनें-कोनें को प्रभावित किया। उसका परिणाम यह हुआ कि उस घटना को अंजाम देने वाले सभी अपराधी पकड़े गये, और सबको “फास्ट ट्रैक कोर्ट” द्वारा त्वरित कार्यवाही कर सजा भी सुना दी गयी।

एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मानवता की सारी हदें पार कर उसी तरह की घटना दुहराई गई है। उस निर्वस्त्र महिला की लाश के साथ जिस तरीके से पुलिस पेश आयी है वह और भी शर्मसार कर देने वाली हरकत है। घंटो उस लाश को पुलिस और मीडिया उलट–पलट कर अपनी आंखे सेकती रहीं; फोटो खींचती रही लेकिन उस लहूलुहान पड़ी लाश पर दो गज कपड़ा नहीं डाल सकी।

यह वही प्रदेश है जहाँ के युवा मुख्यमंत्री के सहयोगी एक नौजवान मंत्री ने बयान दिया था कि- “हर एक लड़की के पीछे पुलिस नहीं लगायी जा सकती।” राजनीति के शीर्ष पर बैठे प्रभु-वर्ग के लोग लड़कियों के चाल-चलन, पहनावे-ओढ़ावे को लेकर अजीब तरीके की बयानबाजी करते- फिरते हैं। मै पूछती हूँ कि हर एक लड़की के पीछे अगर पुलिस नहीं लगायी जा सकती, तो क्या एक लड़की के पीछे दस गुंडों को खुलेआम दुष्कर्म करने से रोका भी नहीं जा सकता है क्या…? उस समय पुलिस कहाँ रहती है जिस समय किसी के घर की बेटी, बहन, बहू लूटी जाती है…? हैरत है कि इस जघन्य घटना के बाद यहाँ के लोगों को साँप सूंघ गया या उनके दिल भी “मुलायम” हो गये हैं…?

जिस तरह से आये दिन यहाँ छेड़खानी, ब्लात्कार ,एसिड अटैक और हत्या जैसे जघन्य अपराध हो रहे हैं, उससे यहाँ पर रहने वाले लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि सभी कमजोर, स्वार्थी, बुजदिल, कायर व डरपोक हैं; या इनकी संवेदनाएं कहीं किसी कोने में पड़े दम तोड़ रही हैं। इन्हें इन सभी न्यूनताओं से नवाजा जाय तो भी कम है।

यह सरकार लोकशाही के नाम पर मिले जनमत के उन्माद में रात–दिन अपनी काली करतूतों को अपने कुर्ते की तरह सफेद बताने में लगी रहती है। इसके अंदर संवेदनहीनता और निरंकुशता कूट-कूट कर भरी हुई है। यहाँ के लोगों पर इसके निक्कम्मेपन और गुंडई का प्रभाव इस कदर पड़ा है कि सबने मानो चूड़ियाँ पहन रखी हैं। जिसमें पुलिस भी जनता के प्रति अपनी कर्तब्य को ताख पर रख कर इनके हर गलत कार्यों पर पर्दा डालने का काम कर रही है। इस दुधमुँही सरकार को और क्या कहा जा सकता है…? जिसकी न तो अपने राज्य के लिए कोई प्रगतिशील सोच है और ना ही इस तरह के अपराध को रोकने के लिए कोई इच्छाशक्ति ही है।

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, July 15, 2014

उत्पीड़न का विरोध जरूरी है

एक साधारण परिवार में पैदा हुई, पली-बढ़ी, मात्र स्नातक की डिग्री प्राप्त तारा के अंदर अपने परिवार के विरुद्ध इतना बड़ा फैसला लेने की हिम्मत कहां से आयी...? पूरे गांव में चर्चा का विषय ही यही था–“तारा आज कितने बजे सो कर उठी; कहां गई; क्या खाया, क्या किया? ” उसकी माँ के ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। शादी को एक साल हो गए है। वह ससुराल में कुल आठ-दस दिन रहने के बाद अपने भाई को बुलाकर उसके साथ मायके वापस लौट आयी थी। उसके घरवालों से लेकर सगे संबंधियों को भी उसका इस तरह बिना शुभ मुहूर्त के ससुराल से लौट आना बहुत ही बेतुका और चिंताजनक लगने लगा था। गाँव वाले तरह-तरह की बाते करने लगे थे।

उसकी माँ तो उस दिन से लेकर आजतक उसे बिना नागा, कोसा करती - “चोटही! जाने कौन-कौन से दिन दिखाएगी मुझे! किस राजवाड़े के घर जाती, जहां तुझे सात बजे तक सोने को मिलता, ससुराल और नईहर में यही तो अंतर है !”

वह अपनी माँ को टन्न से जवाब देती- “तो तू ही चली जा मेरी जगह, लगी रहना नौकरानी की तरह सुबह चार बजे से लेकर रात को बारह बजे तक।

“जीवन भर यहीं पड़ेगी रहेगी, हमारी छाती पर मूंग दलने के लिए हरामजादी !!! जो जानती कि मुझे यह दिन दिखाएगी, तो पैदा होते ही गला घोंट देती।”

“तो अब से घोंट दे…! नहीं जाउँगी.. नहीं जाउँगी.. नहीं जाउँगी! और कान खोलकर सुन लें जबतक “छोटकी” रहेगी तबतक तो किसी कीमत पर नहीं जाउँगी!”

छोटकी - उसके पति की छोटी बहन जो उसे सुबह जगाने से लेकर उठना, बैठना, चलना, घूंघट करना आदि तमाम बातों के लिए पल-पल टोकती और सिखाती रहती थी।

तारा को अपनी छोटी ननद के द्वारा अपने ऊपर किये जा रहे अनुशासन बिल्कुल पसंद नहीं थे। उसकी ननद सुबह चार बजे ही दरवाजा खटखटाकर उसे जगा देती और खुद तनकर सो जाती। तारा का कहना था कि-“ मेरी आदत नहीं है कि देर रात तक जगूं भी और सुबह जल्दी उठ जाऊँ। ...मुझपर इस तरह की हु्कूमत नहीं चलेगी उसकी। छोटी है छोटी की तरह रहे।”

उसके श्वसुर इस बीच कई बार आए और उसे बहुत समझाने की कोशिश की- “लौट चलो!” यहां तक कि उसे तलाक की धमकी भी मिली । लेकिन उसने किसी की एक न सुनी और अपनी जिद्द पर अड़ी रही। आज अपनी शर्तों पर ससुराल जाने के लिए तैयार हो गई। उसने अपने श्वसुर से कह दिया- “आप अपनी छोटी बेटी को यह समझाएं कि वह हमें सुबह जगने का आदेश न दिया करें..या पहले उनकी शादी करके उन्हें ससुराल भेज दें, उसके बाद मुझे बुलाए।” अंततः उन्होंने उसकी शर्त मंजूर कर ली और बोले- “ बेटी की शादी इतनी जल्दी तो नहीं कर पाउँगा; लेकिन तुम्हें जैसे अच्छा लगे वैसे रहना। मै छुटकी को समझाउँगा कि वह तुमपर शासन न चलाया करे।”

उस लड़की का आत्मविश्वास देखकर मै बहुत खुश हूं और आश्चर्यचकित भी। परिवर्तन के इस दौर को देखकर गाँव वालों को भी खुश होना चाहिए; लेकिन वे तो उल्टा उसे ‘कोसे’ जा रहे हैं- “बड़ी नकचढ़ी है ! आखिर अपनी वाली ही करके मानी।”

(रचना त्रिपाठी)                             

Saturday, July 12, 2014

गरीबों के अच्छे दिन

इस बार के बजट में सरकार द्वारा गरीबों की स्वास्थ्य सेवाओं पर दिखाये गये रहमों-करम को देखकर यह कहा जा सकता है कि गरीब मजदूर, ठेले-खोमचे वाले, रिक्शा चालक, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के भी अच्छे दिन आ गए हैं। इन्हें टैक्स-वैक्स से तो कोई वास्ता है नहीं। वरना यह बीमारी इन गरीबों के लिए लाइलाज ही साबित होती। इसके बावजूद कुछ लोगों का कहना है- ‘बेचारे इनके तो अच्छे दिन अभी गच्चे में हैं !’ ये क्या जाने अर्थ व्यवस्था का विकास…? इन्हें तो पता है बस वही ‘माटी –कानों और रोटी-पानी !’

गरीबी तो खुद ही एक बीमारी है लेकिन सरकार ने सोचा कि इस बीमारी का एक बड़ा कारण है नशा ! जैसा कि कई बार सर्वेक्षणों में भी देखा गया है- गुटका, खैनी, तंबाकू इत्यादि का सेवन गरीब तबके के लोग ज्यादा करते हैं। कारण जो भी हो, मुझे तो लगता है ये वर्ग अपने परिवार का पालन-पोषण अच्छी तरह से न कर पाने की वजह से इन नशीले पदार्थों का सेवन मजबूरी में करते हैं। अज्ञानता वश कहें या अपना ग़म गलत करने के लिए। यह भी सुना है कि इन पदार्थों का सेवन करने के बाद भूख कम हो जाती है। लेकिन इससे ये भयंकर बीमारी की चपेट में भी आ जाते हैं। अच्छा हुआ जो ये नशीले पदार्थ महंगे हो गए। पेट के वास्ते कुछ तो संयम इन्हें भी बरतना ही पड़ेगा। भले ही नशे की महंगाई की वजह से मजबूरी वश ही सही!

इन सभी समस्याओं को देखते हुए सरकार ने जो कदम उठाएं हैं उसे अच्छा ही कहेंगे। ऐसे लोग जूते-चप्पल पहने ना पहने क्या फर्क पड़ता है इन पर। मगर अपने ‘पेट’ को कहां रखे बेचारे! जहां जाते है वहीं गले पड़ा रहता है। अगर पेट में कुछ नहीं गया तो इनका और इनके बच्चों का क्या होगा…? फिर तो ये कुपोषण के शिकार हो जाएंगे, ऐसे में इस सरकार का इनकी स्वास्थ्य की ‘चिंता’ करना बहुत बड़ी बात है। इस पर भी अगर लोग कहें कि इन बेचारों के अच्छे दिन तो अभी पिच्छे ही हैं तो यह सरकार के साथ नाइंसाफी ही कही जाएगी…

गरीब वर्ग जो दो वक्त की रोटी-प्याज का जुगाड़ न कर पाए तो उसे सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में मिलने वाली ‘मल्टी-विटामिन्स’ की गोलियाँ किस दिन काम आएंगी? आखिर इसी दिन के लिए तो ये सुविधाएं उपलब्ध करायी गई हैं। जितना दिन मेहनत-मजदूरी करके मिले, रोटी-प्याज खाएं… न मिले तो सरकार द्वारा उपलब्ध मल्टी-विटामिन्स का सेवन करें…भूख से पेट में मरोड़ होने लगे, सिर चकराने लगे या गला सूखने जैसा कुछ लक्षण दिखने लगे तो सरकारी अस्पताल में उपलब्ध मुफ्त के बिस्तर पर लेट जाएँ और “बोतल” चढ़वाएं। बोतल यानि  “ग्लूकोज़ ड्रिप”। इससे भी बात न बने तो तेल और माचिस भी तो सस्ते हो गये…! “ना रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी”

(रचना त्रिपाठी)