ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों के बारे में उनके अभिभावकों से लेकर अध्यापकों तक की यह सोच कि ज्यादा पढ़ा-लिखा कर इनसे भला कौन सी नौकरी करानी है, इनको और बेचारगी की तरफ ढकेलती है। ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी और पढ़ने वाली बच्चियों के प्रति उनके घर, गाँव, समाज ही नहीं बल्कि स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर्स का भी यही नजरिया देखकर निराशा होती है। उनकी नजर में पढ़ाई का उद्देश्य कमाई करना और कमाई के मायने सिर्फ 'अर्थ' यानी रूपया-पैसा कमाने से ही है जो सिर्फ लड़के ही कर सकते हैं। लड़कियों के हिस्से में तो सिर्फ घर में रहकर चूल्हा-चौका सम्हालना और बच्चे पैदा करके उन्हें पालना ही होता है।
यही वजह है कि परीक्षा के दौरान गुरुजनों की दृष्टि उन बच्चियों के ऊपर और उदार हो जाती है। आज-कल बिहार और यूपी में बोर्ड परीक्षाओं में नक़ल महायज्ञ जोरों पर है। वैसे तो इस बार फ्री फॉर आल का नज़ारा है लेकिन लड़कियों को विशेष सुविधा एक परम्परा बन चुकी है। परीक्षा-केंद्र पर गुरुजन उन्हें नकल करने-कराने की सामग्री सहित हर तरह की सुविधाओं की पूरी छूट मुहैया करा डालते हैं। इस नकल से प्राप्त डिग्री और उससे प्राप्त कन्या विद्याधन का लाभ उनके आगे की पढ़ाई में मिले या न मिले, इससे न तो उन बच्चियों के अभिभावक का कोई सरोकार होता और न ही उस स्कूल के टीचर्स का। वहाँ से उनको शिक्षा-दीक्षा में अपने अधिकारों और हितों के प्रति जाहिली और अनभिज्ञता के सिवा कुछ भी नहीं मिला होता।
ऐसे में उन बच्चियों को अगर नक़ल न कराया जाय तो बोर्ड परीक्षा में सफल बिद्यार्थियों का प्रतिशत बिगड़ने से 'स्कूल की इज्जत' मटिया-मेट होने का भय रहता है। बिरादरी में नाक ऊँची रखने के लिए उसके प्रबंधकों को नक़ल की सुविधा उपलब्ध कराने के सभी उपाय कराने पड़ते हैं। वहाँ स्कूल की इज्जत का विकट सवाल खड़ा हो जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ ऐसी भी बच्चियां हैं जिनको अपने स्कूल का मुँह भी परीक्षा के दौरान पहली बार दिखाया जाता है। स्कूल की चारदीवारी का कोना-कोना उनसे इस कदर अपरिचित होता है कि वे अकेले अपने क्लास-रूम तक जाने में असमर्थ रहती हैं। उनकी शकल-सूरत भी दया की पात्र दिखाई देती है। पर दस-पन्द्रह दिन की जद्दोजहद से मिली मार्कशीट के आधार पर सरकारी कृपा वाली कन्या विद्याधन योजना उनके जीवन में थोड़ा सा 'अर्थ' तो जरूर प्रदान करती है। ऐसा तात्कालिक लाभ उनके परिवार वालों को उनकी वैवाहिक योजनाओं को सफल बनाने में जरूर मदद करता है। परन्तु इस तरह की शिक्षा-दीक्षा से यह जरुरी नहीं है कि वैवाहिक योजानाओं की सफलता की तरह उनकी भावी जिंदगी को भी कोई सम्मानजनक अर्थ मिल सके।
(रचना त्रिपाठी)