दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में छपी मेरी कहानी 'नई फ्रॉक'
ओसारे में बाँस की खाट पर पड़े-पड़े उसका पूरा शरीर अकड़ गया था। दो महीने हो गये थे घर में बचिया के ऊपर ‘महरानी जी’ का आसन आये। उसके बालों में महीने भर से कंघी नहीं पड़ी थी। चट-चट करते बालों ने आपस में लट्ट बाँध लिये थे। खाट पर सिर्फ़ दरी बिछी थी और उसके सिरहाने नींम के पत्ते वाली छोटी-छोटी कुछ टहनियां रखी गयी थीं। वहीं बगल में गोंइठा की आग लगातार सुलगती रहती थी। उसका पूरा शरीर लाल पड़ गया था। ऐसे में उसके ऊपर चन्दन और पियरी माटी का लेप लगाने के अलावा और कोई दवा भी नहीं दी जा रही थी। ऐसी मान्यता थी कि दवा देने पर देवी माँ और कुपित हो जायेंगी और बचिया जल्दी ठीक नहीं होगी। उसके शरीर पर पड़े फफोले सूखते, फिर हरे हो जाते। चेचक के साथ उसे बुखार भी रहने लगा था। उसके होठ सूखे सन्तरे की फांक की तरह मुरझा गये थे। कई दिन हो गये थे। वह न कुछ खाती, न पीती। बस टुकुर-टुकुर आने जाने-वालों को बेबस निहारती रहती।
घर में महरानी जी के आसन को अब काफ़ी लम्बा समय हो गया था। ऐसे में ‘बाबू’ की अम्मा की चिंता और बढ़ती जा रही थी। घर में दवा-दारु, लहसुन-प्याज और दाल में तड़का लगाना सब वर्जित था। भुनी हुई कलेजी और बाजार का समोसा-जलेबी बन्द हो जाने से बाबू की जीभ सुन्न होने लगी थी। फीका और उबला खाना बिल्कुल नहीं सुहा रहा था। बाऊजी को भी महीनों से घर का बना भोजन बेस्वाद लगने लगा था। वे अक्सर भोजन का एक निवाला मुंह में डालते ही बेटी सोनल पर चिल्ला पड़ते थे- " एक़रे लगे कवनो ढंग-सहूर नइखे, भोजन बनवले बाड़े कि आपन कपार... ले तेही खो "। कभी-कभी नाराज़ होकर भोजन की थाली उसके आगे ही पटक दिया करते।
अम्मा को महरानी जी की शक्ति में जो अदम्य आस्था थी उसमें भयतत्व की प्रधानता थी। उन्हें घर के नेम-धरम और पूजा-पाठ में जो विश्वास था वह अशिक्षा और कर्मकांडी परंपराओं का पोसा-पाला हुआ था। लेकिन यह आस्था न हिलने वाली थी और विश्वास न डिगने वाला था। इसके अलावा उनके अंदर एक ग़ज़ब की अभिनय कला भी विद्यमान थी। अपनी अदाकारी से वो गुस्से में लाल-पीले हुए अपने ‘हुकुम’ को चुटकियों में मना लिया करतीं। बड़ी सफाई से वे पानी-पीढ़ा लगाती; बेना डुलाने बैठ जाती और ‘बड़ी माता’ के समय की आचार संहिता समझाते हुए सोनल का बनाया वही खाना उन्हें जिमा देती जो उन्हें थोड़ी देर पहले बेस्वाद लग रहा था।
लेकिन आज तो घर में खाने -पीने का बिल्कुल ही महौल नहीं था। बचिया की हालत देखकर सबको उबकाई आ रही थी। नाक दबाकर ही आना-जाना हो रहा था। बाबू तो घर छोड़कर बाजार का ही चक्कर लगा रहे थे। अलबत्ता महरानी जी के डर से बाहर का कुछ खाने की हिम्मत उन्हें भी नहीं थी। अभी बाबू और उसके पापा के खाने की चिंता गृहस्वामिनी को सता ही रही थी कि ऐन वक्त पर बचिया ने फिर उल्टी कर दी! उफ्फ...
इस बार उसके मुंह से लंबे-लंबे लच्छेदार जाला बाँधे हुए पीले रंग का मैगीनूडल्स जैसा कुछ बाहर निकला। पर बचिया ने तो ऐसा कुछ खाया ही नहीं था। बल्कि खाया तो उसने कुछ भी नहीं था। फिर यह लच्छे कैसे?
दरअसल वे केंचुए थे जो उसकी आंत में न जाने कितने वर्षों से पल रहे थे। बढ़ते-बढ़ते उनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गई थी कि अब उन्हें आँत में रहने लिए जगह नहीं बची थी। शायद इसीलिए उनमें से कुछ अपने लिए किसी और ठिकाने का रास्ता तलाशते उसके मुँह और गले के बीच में ही फँस गये थे। वह अपने एक हाथ से केंचुओं को खींच-खींच कर बाहर की तरफ़ झटक रही थी। वह इतनी कमजोर हो गयी थी खुद से उठकर उल्टी करने के लिये अपना मुंह खाट से बाहर नहीं लटका सकती थी। उसने उठने की कई कोशिशें की थी पर शरीर उसका साथ नहीं दे रहा था। उल्टी सूखी हुई थी। उसमें कोई तरल पदार्थ नहीं थे, बल्कि सिर्फ केंचुए थे। उन लच्छों का कुछ हिस्सा दरी पर भी गिर गया था। हरदम साथ ही रहने वाली उसकी बहन ‘छोटिया’ ने उसे खाट से उठाने की बहुत कोशिश की, पर वह अकेले उसके मान में नहीं आयी।
बचिया की उल्टी देखकर कहीं बाऊजी को भी खाते समय उबकाई न आ जाय इसलिये अम्मा ने पीढ़ा और पानी का लोटा उठाया और सोनल से 'बाऊजी का भोजन कोठरी में ही ले आ' कहकर भीतर चली गईं। हुकुम के लिए कमरे में पानी-पीढ़ा लगाकर हाथ में बेना लिये वे उनके सामने बैठ गयीं। सोनल ने हाँफ़ती-काँपती बचिया को इशारे से बताया कि अभी जल्दी ही आयेगी और भोजन की थाली हाथ में उठाये झट से ओसारे से कोठरी की तरफ चल पड़ी। जबतक बाऊजी खाना खाते रहे तबतक वह भी वहीँ दोहरावन पूछने के लिये खड़ी रही।
बचिया अपनी कातर नजरों से निरीह अपराध भाव से चारों तरफ निहार रही थी – इस आस में कि शायद कोई उसकी पीठ पर थोड़ी थपकी दे दे और उसकी सांस स्थिर हो जाय। पर अफसोस! सभी व्यस्त थे।
कुछ देर बाद सोनल जूठी थाली के साथ बाहर निकली। थरिया नल की तरफ टरका कर बचिया के बिछावन की तरफ बढ़ी। एक हाथ से उसे सहारा देकर उठाते हुये छोटिया से दरी खींच लेने को कहा। दोनों ने मिलकर बचिया को पानी से धो-पोछकर साफ किया। उल्टी से खराब हो गयी दरी को धुल कर धूप में सूखने के लिये डाल दिया। बचिया दरी के सूखने तक निखहरे खाट पर लेटी रही। उल्टी हो जाने के बाद उसकी बेचैनी थोड़ी कम हो गई थी। लेकिन मूज की रस्सी से बुनी खाट के ताने-बाने उसके फफोलों को चुभने लगे। फिर भी वह असक्त लेटी रही। आँगन में तार पर टंगी दरी की तरफ टकटकी लगाकर देखती रही। कुछ ही देर में कमजोरी और थकान ने तकलीफ़ पर बढ़त बना ली और वह बेदम होकर ऊँघने लगी।
अगले दिन महरानी जी का आसन उठ गया। उनकी बिदाई की तैयारी हो रही थी। बड़े सबेरे ही बाऊजी स्नान के बाद सफेद मर्दानी लपेटे, काँधे पर जनेऊ पहने छोटिया-छोटिया हाँक लगाये जा रहे थे। उन्हें अपने बालों में कंघी करनी थी और कंघी थी कि मिल ही नहीं रही थी।
अम्मा तो बिल्कुल भी खाली न थी। उन्होंने बचिया की पसन्द के बहुत से सामान मंगा रखे थे। शीशा-कंघी, तेल-साबुन, नहाने के वास्ते नया बाल्टी-मग्गा, तौलिया, चप्पल, लाल रिबन, मोतियों की माला, काजल, इस्नो-पाउडर, खाने के लिये उसकी पसन्द के फल, मेवे और मिठाइयां, चावल-दाल-आटे का इन्तजाम तो था ही। इतना ही नहीं, उसकी पसन्द के कपड़े भी मंगा रखी थीं। खासतौर पर नीले रंग की एक फ्रॉक जो बचिया को बहुत दिनों से पहनने का मन था। अम्मा का मन बचिया के लिए आज बड़ा भावुक हो रहा था। उसकी ज़रूरत और पसंद का कहीं कोई सामान छूट न जाय इसके लिए वह याद कर-करके एक-एक चीज मँगवा रही थी। अब वह सयानी जो हो गई थी।
दूर खड़ी ‘छोटिया’ सारा तमाशा आँखे फैलाये देख रही थी। बचिया के लिए इतना सारा सामान देखकर वह उलझन में पड़ गयी थी। सोच रही थी- अम्मा आज बउरा गइलि बा का!
छोटिया का मन आज घर के किसी भी काम में नहीं लग रहा था। वह आज अपनी अम्मा की कही कोई बात भी नहीं सुन रही थी। आज पहली बार उसके मन में बचिया के प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हआ था जो उसके चेहरे पर भी साफ-साफ झलक रहा था। भला क्यों न होती डाह? उसे भी अपने लिये नयी फ्रॉक और चप्पल चाहिये थी। वह अम्मा से कई बार बोल चुकी थी- "एक ठो फराक हमहूँ के मँगवा देतू त घटि जइतू! हमरा के त हरदम दीदी लोग के छोड़ने-छाड़न पहिरे के मीलेला।" इतनी मिन्नतों के बाद भी अम्मा ने उसके लिये कुछ नहीं मँगवाया था। उधर जिस कंचे को खेलने के लिये बचिया अक्सर पिट जाया करती थी आज वही कंचे भी उसके लिए अम्मा ने ख़ुद ही मँगवा लिए थे!
अपने साथ अम्मा का सौतेला व्यवहार देखकर छोटिया आख़िर कबतक चुप रहती! उसका मन आज पक चुका था। उसने ठान लिया कि अब वह किसी की कोई बात नहीं सुनने वाली और ना ही किसी का कहा कुछ करने वाली है। अपनी बात मनवाने के लिये घर का सारा काम छोड़कर वह ठनगन करने लगी। अम्मा को उसकी इतनी बेरुख़ी बिल्क़ुल भी नहीं भा रही थी। वो भी इस मौक़े पर जब महरानी जी की पूजा पर घर में आस-पड़ोस की ढेरो महिलाएँ भी मौजूद थीं। वह उसके ऊपर दाँत पीसतीं, आँखें दिखातीं और उन महिलाओं से छुप-छुपाकर किसी बात पर उसकी पीठ पर एकाध चटाका भी लगा देतीं।
आज ओसारा और आँगन से लेकर घर का कोना-कोना गोबर से लीपा गया था। मानों घर की पूरी गंदगी आज साफ हो गई हो। सारी अल्लाय मिट गयी हो। बाँस की पुरानी खाट एक कोने में खड़ी कर दी गयी थी। चिलचिलाती धूप में आँगन के बीचो-बीच एक नई चारपाई बिछी हुई थी जिसपर नया गद्दा और चमचमाती चादर भी डाली गयी थी। अम्मा एक-एक कर सारा सामान उसके आस-पास सजा रही थीं।
मौक़ा पाकर छोटिया ने उन सामानों में से वो नीला फ़्रॉक निकाल कर कहीं और छुपा दिया था। जब घर के सभी लोग आँगन में हो रही पूजा-पाठ में व्यस्त हो गये थे तो छोटिया ने उस फ़्रॉक को पहन लिया और ओसारे में पड़ोस की आयी महिलाओं के बीच दुबक कर बैठ गई। सहसा अम्मा की नज़र छोटिया पर पड़ गयी। उसके शरीर पर नया वाला फ्रॉक देखकर वो तमतमा उठीं। बाघिन की तरह उस पर झपट पड़ी- "रे अभागिन...जल्दी निकालु इ फराक... नाहीं त ओकर आतमा एहरे भटकी आ तोके चैन से ज़ीये नाइ दी"। यह कहते हुए उसके गाल पर तड़ातड़ तमाचा जड़ने लगीं।
छोटिया भी चोट खाकर चीत्कार कर उठी - अब हमहूँ नाइ जीअब... मुआ दे हमहूँ के... ए जियले से निम्मन बा अम्मा कि हमहूँ मरि जइतीं... तब तऽ ते हमरो ख़ातिर नाया फराक मंगवते न...?
(रचना त्रिपाठी)