दैनिक भास्कर के 'मधुरिमा' में छपी मेरी कहानी 'नजरबट्टू'
पिछले कितने ही वर्षों की घटनाएं, किसी फिल्म के फ्रेम्स सी, मानस पर तेजी से प्रक्षेपित हो रही थीं - जैसे किसी ने फ़ास्ट फॉरवर्ड की बटन दबा दिया हो। यदि ट्रेन की गति उन बदलते मनोभावों की गति से साम्य रख रही थी, तो उसकी धड़-धड़ाहट उनके आपस में टकराहट की ।
कितनी ही बार तो उसने सुना था कि लक्ष्मी समान बेटी को जन्म देने के बाद परिवार में उसकी माँ शोभा का मान और बढ़ गया था। फूल सी कोमल और चाँद सी सुन्दर बिटिया के क़दम पड़ते ही परिवार की खुशियों में पंख लग गये। पिता जगदीश का व्यापार दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से आगे बढ़ने लगा। उसके चाचा विजय की वर्षों की तपस्या का फल मिल गया। उसे बहुप्रतीक्षित प्रतिष्ठित नौकरी मिल गई। भाइयों की पढ़ाई भी अब कस्बे से दूर शहर के एक अच्छे पब्लिक स्कूल में होने लगी। अपने दोनों भाइयों के लिये वह ईश्वर की अनमोल भेंट थी। सालों बाद उन्हें अपनी कलाइयों पर राखी बाँधने वाली सलोनी सी बहन जो मिली थी! इसके पहले तो उन दोनों को अपनी बुआ की राखियों का ही इंतजार रहता था। कभी-कभी तो राखी वाली डाक भी उन्हें समय से नहीं मिल पाती थी तो पुरोहित जी आकर उन्हें रक्षासूत्र बाँध जाते थे।
जगदीश जी ने अपने पुराने घर की जगह एक नया घर बनवाया। गुलाबी रंग की दीवारों के बॉर्डर और छत के किनारों की रेलिंग को जब चटक पर्पल रंग की पट्टियों में रंग दिया गया तो घर की सुंदरता गजब खिल उठी। गाँव में दूर से ही यह घर लोगों को आकर्षित करता। जो देखता वह प्रशंसा किये बिना नहीं रहता। शोभा ने एक मिट्टी का गोल बर्तन मंगाया, उसके पेंदे को कालिख से रंगकर, उसके ऊपर सफ़ेद चूने से आँख, नाक, मुँह और मूछ उकेरकर उसे घर के कंगूरे पर टंगवा दिया। इस प्रकार घर को बुरी नजर से बचाने के लिए तैनात कर दिया गया यह 'नजरबट्टू'।
उसके पैदा होने के बाद के दिनों में उसके घर में अद्भुत खुशहाली छा गयी थी। सबका उत्साह अपने चरम पर था। घर का कोई भी नया कार्य अब बिना उससे 'शगुन' कराये आरम्भ नहीं होता। घर में शगुन की ऐसी गूँज उठी कि उसका नाम ही शगुन पड़ गया। चयनित होते ही चाचा विजय की शादी के लिये दरवाजे पर गाड़ियों की लाइन लगने लगी। एक से बढ़कर एक रिश्ते आने लगे। तस्वीरों का ढेर लगने लगा। सब बड़ी दुविधा में थे कि शादी की बात कहाँ पक्की की जाय! दो-चार तस्वीरें ऐसी थीं जिसको विजय ने छाँट कर अलग कर ली थी। एक दिन विजय ने शगुन को अपनी गोद में उठाया। दुलारते हुए उससे हाथ में पकड़ी उन चार तस्वीरों में से किसी एक पर उंगली रखने को कहा। चार वर्ष की शगुन की एक उँगली के इशारे ने एक लड़की से उसके चाचा की शादी पक्की कर डाली।
विजय के तिलक की तैयारी हो रही थी। घर की साज-सज्जा की जा रही थी। इलेक्ट्रिशियन छत से नीचे बिजली की रोशनी फेंकते लट्टुओं की लड़ी लटका रहे थे। तभी अचानक धक्का खाकर वो नजरबट्टू नीचे गिरा और टूट गया। शोभा को यह बहुत बुरा लगा। उसने वहां काम करने वालों को खूब फटकार लगाई और फौरन दूसरी हाँड़ी मंगाकर उसे कालिख से टीक-फानकर छत की मुंडेर पर टांग दिया। शगुन उसका आँचल पकड़े सबकुछ कौतूहल से देख रही थी। उसने पूछा - माँ यह क्या होता है? शोभा ने उसे पूरी आस्था से समझाया - इसको लगाने से घर में सबकुछ अच्छा होता है और किसी की बुरी नजर नहीं लगती।
शगुन ज्यों-ज्यों बड़ी हो रही थी उसका सौंदर्य और निखरता जा रहा था। माँ का पूरा ध्यान यौवन की दहलीज पर खड़ी बेटी के इर्द-गिर्द ही रहता था। गाँव में घर से रहकर मात्र इंटरमीडिएट तक पढ़ सकी थी वह। ईश्वर ने उसे अच्छे रूप के साथ अच्छा मस्तिष्क भी दिया था। अपने क्लास में ही नहीं, पूरे स्कूल के मेधावी बच्चों में उसकी गिनती होती थी।
शगुन ने पिताजी से आगे की पढ़ाई शहर के हॉस्टल में रहकर जारी रखने की बात कही तो वे असमंजस में पड़ गये। उन्होंने इस बारे में विजय से राय ली तो उसने कहा- ''उसे हॉस्टल ना ही भेजिये तो अच्छा है। हॉस्टल का माहौल बहुत खराब होता है, और उसपर अपनी शगुन तो कभी घर से दूर रही नहीं।" जगदीश सोचने लगे कि विजय की बेटी तो हॉस्टल में ही रहती है फिर भी यह शगुन के लिए मना क्यों कर रहा है। लेकिन वे यह प्रश्न पूछ नही सके। फोन पर बड़े भाई की चुप्पी से विजय ने उनके मन के भाव पढ़ लिए तो सफाई देते हुए बोले- "इस नौकरी में मेरी भी मजबूरी है भइया, वरना मैं भी प्राची को कभी बोर्डिंग नहीं भेजता।" जगदीश अपने उच्चपदस्थ भाई की हाँ में हाँ मिलाते रहे। विजय ने शगुन को प्राइवेट ग्रेजुएशन कराने की सलाह दी - ''मैं उसकी किताबें वहीं भेजवा देता हूँ... उससे कहिये कि वह घर में रहकर आराम से पढ़ाई करे, सिर्फ इम्तिहान के समय ही कॉलेज जाना पड़ेगा... और कौन सी हमें अपनी शगुन से नौकरी करानी है।'' विजय की बात उन्हें बहुत आसानी से समझ में आ गयी। उन्होंने बिल्कुल वैसा ही किया जैसा छोटे भाई ने समझाया था।
पहले गर्मी की छुट्टियों में प्रायः उसके दोनों भाई और चाचा-चाची भी गाँव आ जाया करते थे, पर इस बार कोई नहीं आया। शगुन ने उदास होकर माँ से कहा- ''पहले तो चाची प्राची को लेकर छुट्टियों में यहीं आ जाती थीं। जबसे वो बोर्डिंग गई है तबसे तो वे लोग भी यहाँ आना कम कर दिए हैं। मेरा तो कॉलेज भी आना-जाना नहीं है माँ... इसलिए मेरी कोई सहेली भी नहीं है जिसके साथ कुछ समय बिताती। माँ, क्यों न हम लोग ही इस बार छुट्टियों में चाची के पास
चले?''
सुबह-सुबह द्वार की घण्टी बजी। प्राची ने दरवाजा खोला। सामने अपनी दीदी शगुन को पाकर उससे लिपट गई। उसके चंचल अंदाज घर की भीतरी दीवारों को अपनी अठखेलियों से गुंजित कर रहे थे। शगुन ने अंदर घुसते ही अपनी चाची के साथ घर के सब कामकाज में अपना दखल जमा लिया। गुणवंती माँ ने बेटी को पाक-कला और सिलाई-बुनाई-कढ़ाई में आखिर निपुण जो कर दिया था। पर हाँ, उसने अपनी बेटी को अरमानों के पर लगाकर उड़ने से जरूर रोक रखा था।
विजय के पड़ोस वाले बंगले में शर्मा जी रहते थे और दोनों घरों में खूब आना-जाना था। शर्मा दंपत्ति ने शगुन की गृहकार्य-दक्षता और सुन्दरता की चर्चा सुन रखी थी। जब सामने पाकर उसकी शालीनता के दर्शन हुए तो मन ही मन अपने बेटे से उसकी जोड़ी मिलाने लगे और शादी के लड्डू फोड़ने लगे। उनका इकलौता बेटा विनीत सैनिक स्कूल से निकलकर ग्रेजुएशन करने के बाद सीडीएस की तैयारी में लगा था। अनेक बार एसएसबी का इंटरव्यू दे चुका था लेकिन अंतिम सफलता हाथ से फिसल जाती थी। शर्मा जी अब और इंतजार करने के बजाय सेवानिवृत्त होने से पहले उसकी शादी निपटा देना चाहते थे।
शगुन के हाथो के बने नाना प्रकार के सुस्वादु व्यंजन शर्मा जी को भी चखने के लिए मिलते रहे। और भला चाहिये भी क्या था उन्हें अपनी होने वाली बहू में! घर-खानदान अच्छा था और जाति भी मेल खा ही रही थी। मौका देखकर शर्मा जी ने शादी की बात छेड़ डाली। देखने में सुन्दर और सुशील शगुन विनीत को भी सुघड़ लगी थी। नौकरी के बगैर इससे अच्छे रिश्ते की उम्मीद करना भी फ़िजूल था। तिसपर लड़की के चाचा और भाइयों के ऊँचे ओहदों का भी आकर्षण था ही। शादी की बात पक्की होते देर न लगी। आनन-फानन में सगाई की रस्म पूरी कर दी गयी। शगुन से किसी ने पूछा भी नहीं। वैसे उसके पास हाँ करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था।
इधर सगाई हुई और उधर विनीत के लिए अगला एसएसबी सफलता का परिणाम लेकर आया। अब तो सारा श्रेय शगुन के भाग्य को दिया जाने लगा। सास के लिए भी घर में शगुन का पैर बड़ा शुभ रहा। गुणवंती बहु के आते ही घर की रौनक बदल गयी थी। प्रायः बीमार रहने वाली सासू माँ उसकी सेवा पाकर बिस्तर से उठ खड़ी हुईं। शर्मा जी भी रिटायर होने से पहले पदोन्नति पाकर विभाग के निदेशक बन गये।
ट्रेनिंग पूरी करने के बाद विनीत लौटा तो शगुन को अपने साथ लेकर पोस्टिंग पर चला गया। शगुन के लिए वहाँ का माहौल एकदम अपरिचित था। डांस-पार्टी और क्लब संस्कृति से लेकर खान-पान तक, और सामाजिक संबंधों से लेकर उठने-बैठने के तौर-तरीकों तक, उसके लिए कुछ भी सहज नहीं था। विनीत मन ही मन अपने दोस्तों की पत्नियों से उसकी तुलना करता और उसे ले कर उनके सामने झेंपने सा लगा था। पाश्चात्य लिबास में चमकती-दमकती उन आधुनिकाओं के आगे शगुन आखिर फीकी जो पड़ जाती थी।
और फिर अकस्मात उसने सुन लिया उस रात एक्सटेंशन फोन पर वह वार्तालाप।
- मम्मी, शगुन मेरे लायक नहीं है।
- अरे, क्या हुआ बेटा। शगुन तो साक्षात् लक्ष्मी है हमारे घर की।
- तुम नहीं समझोगी मम्मी । मुझे अपने दोस्तों के सामने बहुत शर्म आती है।
- कैसी शर्म बेटा, इतनी सुन्दर और गुणवंती दुल्हन मिली है तुम्हें।
- तुम क्या जानो, मेरे ब्रदर ऑफिसर्स की पत्नियां बहुत पढ़ी-लिखी हैं। उनके सामने यह मोम की गुड़िया गूंगी बनी खड़ी रहती है।
- लेकिन उसकी अच्छाई भी तो देखो...
- नहीं माँ, मुझसे नहीं होगा। ... मैं उसे साथ नहीं रख सकता हूँ।
- नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं करते। इतनी संस्कारी बहू है हमारी, कितनी शुभ। जब से घर में उसके कदम पड़े है सबकुछ कितना अच्छा होता गया। तुम्हे मनचाही नौकरी मिली, पापा को प्रोमोशन मिला, उनकी आमदनी कितनी बढ़ गयी, अपना घर बन गया,... और तो और मैं तो अब तक मर ही गयी होती। कोई दवा काम नहीं कर रही थी लेकिन इसका हाथ लगते ही वही दवा फायदा करने लगी।
- मम्मी, ये सब फालतू की बातें हैं। मैं यह सब नहीं मानता। मुझे उसके साथ नहीं रहना है अब, बस!
- अच्छा रुक । अपने पिताजी से तो बात कर ले।
श्रीमती शर्मा अपने बेटे की बात अपने पति को बतायी तो वे कुर्सी पर धड़ाम से बैठ गये।
फिर उनकी धीमी आवाज़ फोन पर सुनायी दी -‘तुम्हीं बात करो उस से । बोल दो कि कि चाहे जैसे रहना चाहे रहे लेकिन शगुन से तलाक की बात जबान पर मत लाये। उसे यहाँ छोड़ जाय... हमारे पास। उसके बाद वहाँ किसी को रख ले हम कुछ नही बोलेंगे। ...यहाँ हमारे साथ रहेगी हमारी शगुन। हमारी शुभंकर।’
फोन पर 'माँ की तबियत खराब होने का' सन्देश पाकर विनीत उसे अगली सुबह ही ट्रेन से ‘माँ की देखभाल के लिए' घर लेकर आ रहा था। ट्रेन कि गति कम होने लगी थी। गंतव्य शायद आ रहा था। वह समझ चुकी थी कि अब वह उसके घर की देहरी पर बैठायी गयी नजरबट्टू बन चुकी है।
( रचना त्रिपाठी)