Tuesday, May 12, 2020

वार्डरोब

लॉकडाउन में विधाता ऐसे पशोपेश में डाल देंगे यह कभी सोचा न था। बहुत दिनों से अपार्टमेंट के बाहर निकलना नहीं हुआ था। होम डिलीवरी की सुविधा ने सबकुछ फोन से ही संभव करा दिया है। बहुत दिनों से बाहर निकलने की तमन्ना कुलाँचे मार रही थी कि पड़ोस के बुजुर्ग दम्पति ने यह मौका दे दिया।

दरअसल आज आंटी को एक मेडिकल जांच के लिए हॉस्पिटल ले जाने की जरूरत पड़ी। संयोग से उनके साथ में मुझे भी जाने का ऑफर मिला। खुशी-खुशी वहाँ जाने के वास्ते तैयार होने के लिए जब मैं अपने कमरे में घुसी तो मेरे सामने बड़ी असमंजस की स्थिति खड़ी हो गई। 

बाहर निकलना तो ठीक था लेकिन कोरोना की खबरों से घबराया मन हास्पिटल जाने से पहले अपने सुरक्षा कवच को कैसे मजबूत करे कि वहाँ से सुरक्षित घर वापसी हो सके, इस उधेड़-बुन में भी लगा था। कपड़ों की आलमारी के पास जाकर देखा तो वो भी मानो कराह रही थी। मेरे रंग-बिरंगे कपड़े बाहर के सैर-सपाटे के लिए छटपटा रहे थे और आलमारी को भीतर से लात मार रहे थे। 

मेरा दिल ये गीत गाने लगा-  'क्या करूँ क्या ना करूँ ये कैसी मुश्किल हाय, कोई तो बता दे इसका हल ओ मेरे भाई।' उधर हास्पिटल जाने की जल्दी थी और इधर मैंने ज्यों ही आलमारी खोला कि वे सभी 'मैं भी... मैं भी...' करते छोटे बच्चों की तरह मेरे ऊपर टूट पड़े। इतने दिनों बाद किसी तरह से ये मौका हाथ लगा था। एक अकेला शरीर और इतने सारे कपड़ो की डिमांड भला कैसे पूरी करता! 

इनको समझाने लगी कि बाहर अभी खतरा है। बाहर यमराज घूम रहे हैं। लेकिन वे तो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे। कह रहे थे - अपने तो जा रही हैं हमें भी घुमा लाइए। मैंने झिड़का - ऐसे कैसे सबको अपने ऊपर चढ़ा लूं। इस मान-मनौव्वल में काफी वक्त लगने लगा। उनमें से कई तो ऐसे थे जो तत्काल के नहाए-धोए, बिना कंघी-पाउडर के तैयार हुए बिना बच्चों की भांति बेतरतीब आलमारी से उछलकर नीचे मेरी ओर हड़बड़-तड़बड़ में गिरे जा रहे थे। मुश्किल से उनको समेटते-समझाते दूसरी ओर ठेलना पड़ा। 

तभी उनमें से कुछ पूरे कॉन्फिडेंस से मुझे देखने लगे जो बाकायदा इश्तरी किये हुए थे और इस बात से आश्वस्त थे कि वे पहले से एकदम 'रेडी' हैं। इनको मना करने का मेरे पास कोई बहाना नहीं है। मुझे तो इन्हें अपने कंधे पर चढ़ाना ही पड़ेगा! वे एक गुरुर में एकटक मेरी ओर ताक रहे थे। 

उनको देखकर मैं समझाने लगी कि ऐसे खतरनाक माहौल में क्योंकर अपने साथ तुम्हे लाद लूँ। इतने अच्छे से चमचमाते हुए आराम से आलमारी में पड़े हो, पड़े रहो। बेवजह जाओगे तो घर लौट के आते ही पहले तुम डिटर्जेंट में डुबोए जाओगे, कचारे जाओगे फिर कड़ी धूप में टांग दिए जाओगे। सूखने के बाद गर्म लोहे से दबाए जाओगे। कितनी साँसत होगी तुम्हारी। …मेरा क्या! मैं तो खुद को सेनिटाइज करने के बाद घर में पुनः अपने रूटीन में आ जाऊंगी - वही बच्चों की फरमाइश, झाड़ू, पोंछा, बर्तन, कपड़ा, किचेन, टीवी और मोबाइल। लेकिन बेटा, तुम तो कुछ दिनों के लिए आइसोलेशन में चले जाओगे। इस एक दिन का सुख तुम्हे बड़ा भारी पड़ने वाला है। इसलिए मेरी मानो तो घर में रहो, सुरक्षित रहो। 

मैं तो उसे बाहर ले जाऊंगी जो ऐसे समय में मेरे लिए कोई परेशानी न खड़ी करे। इधर-उधर न मचले न लहराए। चुपचाप जाए और मन मारकर लौट आए।

(रचना त्रिपाठी) 🙏

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