Sunday, August 25, 2013

लैंगिक समानता के सिद्धान्त को व्यवहार में उतारो…

ज्ञानी लोग कहते हैं कि लड़का और लड़की दोनों एक बराबर है। कैसे भई? जरा हमें भी समझाइए! मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि इसे बराबरी का दर्जा कैसे दिया जाए?

घर में लड़का पैदा होते ही माँ-बाप का सीना इतना चौड़ा हो जाता है जैसे उन्होंने सारा जग जीत लिया हो। आगे चलकर भले ही वह लड़का किसी लायक न हो। ऐसे माँ-बाप को भी देखा है जो अपने लड़के की जवानी पर इतराते हैं। पड़ोसी के घर में अगर लड़की पैदा हो गयी तो परसाई जी के शब्दों में “१२-१३ साल की हुई नही कि घूर- घूर कर जवान कर देते हैं”।

लड़को कि परवरिश लड़कियों की तरह क्यों नहीं की जाती..? लड़को को क्यों नहीं सिखाया जाता कि वह खुले स्थान पर टॉयलट न करें..? पूरे वस्त्र में सबके सामने जाया करे। बॉडी में सिक्स पैक बनाने का प्रचलन क्यों चला..? सलमान खान की तरह बॉडी दिखाने का क्या मतलब होता है..? पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया कि वह अपने अंगों का प्रदर्शन करता फिरे..? इनको कही भी कपड़े बदलने की इजाजत क्यों दे दी जाती है..?घर में कार्य क्षेत्र का बँटवारा क्यों किया जाता है..? किसने यह फार्मूले बनाया कि घर का कार्य लड़कियों को और बाहर का कार्य लड़कों को करना चाहिये..? घर में मेहमान के आने पर चाय बनाने के लिए लड़के क्यों नहीं उठते..? और लड़कियां उन्हें स्टेशन छोड़ने क्यों नहीं जाती..? बिजली का बिल जमा करने, गैस सिलिन्डर लाने का काम, या बाहर जाकर आँटा पिसाने का कार्य आदि-आदि यह लड़कियों को क्यों नही सौंपा जाता..?

हर माता-पिता को चाहिए कि वह लड़के को भी वही पाठ पढ़ाए जो लड़की को पढ़ाता है। लड़के जवान होते ही अपनी पसंद के कपड़े पहनना शुरू कर देते हैं और प्राय: देखा गया है कि शर्ट की आगे की दो-तीन बटन खोल देते हैं। ऐसे में उनके माता-पिता को बताना चाहिए कि तुम्हारा सीना दिख रहा है इसे ढक कर चलो, सीना दिखना बहुत शर्म की बात होती है। उन्हें अपने पुरुषत्व का दिखावा करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा नही देना चाहिए।

कब-तक हम लड़कियों को सिखाते या डराते रहेंगे कि शाम होने के बाद घर से मत निकलो। कुछ लोग बलात्कार केस में लड़कियों को ही दोषी मानते हैं। इसमें बहुत सी महिलाएं भी बराबर की बयानबाजी करती हैं, उनका यह तर्क है कि अगर देर रात तक लड़कियाँ घर से बाहर रहेंगी या किसी पुरुष मित्र के साथ दिखती है तो लड़को के अंदर उत्तेजना पैदा होती है तो यह उन्हें भुगतना ही पड़ेगा।

प्रकृति ने सभी पशुओं के भीतर विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण और उत्तेजना की प्रवृत्ति स्थापित कर रखी है। लेकिन मनुष्य योनि में पैदा होने के बाद बुद्धि और विवेक की जो अतिरिक्त थाती प्रकृति ने हमें सौंपी है उसके कारण ही हम सभ्य कहलाते हैं और दूसरे पशुओं से अलग एक अनुशासित और सामाजिक मूल्यों से आबद्ध जीवन जीते हैं। यही मूल्य हमें पशुओं से अलग करते हैं और मानव बनाते हैं। जिनके भीतर पशुता की मात्रा अधिक है वे यौन अपराध करने  और समाज में दुर्व्यवस्था फैलाने को अग्रसर होते हैं। ऐसे पशुओं का समय से बंध्याकरण कर देने का कर्तव्य इस सभ्य समाज के प्रत्येक सदस्य का है।

मै पूछती हूँ - जिस दम्पति ने सिर्फ लड़कियाँ ही जनी हो तो क्या उनके घर के जरूरी कार्य हमेशा बाधित ही रहेंगे? अगर उनके घर अचानक रात मे कोई बीमार हो जाता है तो क्या उन्हें सुबह होने का इंतजार करना पड़ेगा ताकि वे इस जंगली समाज में सुरक्षित बचते हुए बाहर निकल सकें?

जो आचार्य यह उपदेश दे रहे हैं कि लड़कियों को उत्तेजक कपड़े नहीं पहनने चाहिए वे कृपया यह बतायें कि छ: महीने की लड़की के साथ जब बलात्कार होता है, तो वहाँ पर बलात्कारी को कौन सा उत्तेजक सीन नजर आता है? तेरह साल की विक्षिप्त लड़की के साथ जब बलात्कार होता है तो उसमें कैसा सेक्स का आमंत्रण दिखता है? इन नामर्दों की यौन कुंठा ऐसी बेबस लड़कियों पर उतरती है तो इसके लिए हमारे समाज का वह ढाँचा जिम्मेदार है जो ऐसे कुकर्मियों को साफ बच निकल जाने का मौका दे देता है। हम इसकी मरम्मत के लिए क्यों नहीं आगे आते?

Monday, August 19, 2013

ए जी, अब तुम बदल गये…!

याद है वो दिन जब  शादी तय हो जाने के बाद मंदिर ले जाने के बहाने तुम मुझे पहली बार मेरे घर मिलने आये थे। तुम्हें अपनी बिल्कुल सुध नही थी कि तुम कैसे चले आये थे। कोई मेक-अप नहीं। तुम्हें देखकर मुझे लग रहा था कि  काश थोड़ी कंघी तो बाल में घुमा लिए होते। लेकिन कैसे कहती? मुझे तो ऐसे भी तुम बहुत अच्छे लग रहे थे। तुम्हारी सादगी और तुम्हारे मुस्कान की चर्चा तो हमने पहले भी सुनी थी जिसे देखने के लिए मेरा मन महीनों से बेचैन हो रहा था। कितना आत्मविश्वास था तुम्हारे चेहरे पर! जिसको जैसी वेश-भूषा में देखते वैसे ही बात करना शुरु कर देते। तुम्हारी सादगी मुझे इतनी भा गई थी कि मुझे खुद दुनिया की बनावटी वस्तुएं बेकार लगने लगी।

जब तुम बारात लेकर मेरे दरवाजे पर आये तब  तुम्हारी सूरत देखने लायक थी। पता चला था कि सारे बाराती तो दरवाजे पर आ गये थे लेकिन तुम्हारी गाड़ी कहीं रास्ते में ही खराब हो गयी थी। रास्ते में किसी से लिफ़्ट लेकर मेरे गाँव तक पहुँचे थे। फिर दूसरी गाड़ी बिना किसी सजावट के तुम्हें लेकर मेरे दरवाजे पर आयी थी। तुम भी बिना किसी सजावट के हकासे-पियासे पहुँचे थे और पता नहीं क्यों दूल्हा-टोपी उतार कर तुमने अपनी गोद में रख लिया था। मैने एक बार सोचा कि काश मै तुम्हें बता दी होती कि बाल में मेंहदी लगवा लेना.. लेकिन क्या करती इतनी झिझक जो थी तुमसे..। खैर! अब तो जनम-जनम का साथ है तुम्हें मुझसे बाल मे मेंहदी तो लगवानी ही पड़ेगी। आखिर अब कहाँ जाओगे मुझसे भागकर...।

जबतक मै नहीं कहती तुम बाल में मेंहंदी तक नही लगवाते थे। कैसे मुझे प्यार से समझा दिया करते थे कि छोड़ो ये सारे श्रृंगार करना, हम पुरुष के लिए श्रृंगार नही बना। ये तो औरतों को शोभा देता है। अब तो मेरी उम्र की महिलाएं इन्हें अंकल जी भी कहना शुरु कर दी है। हर जगह हमें इन्हें समझाना पड़ता था कि देखो यह तुम्हारे पके बाल का नतीजा है कि दो बच्चों की माँ भी तुम्हें अंकलजी कहना शुरु कर दी है।

इस सप्ताहान्त जब तुम घर लौटे तो हमने सोच रखा था कि इस बार फिर तुम्हारे बाल में मेंहदी लगानी है। मै दुकान पर जाकर तुम्हारे लिए मेंहंदी भी लेकर आयी थी। लेकिन हमने देखा कि तुम तो बाहर से ही बाल कलर कराके आ गये हो।  तुम्हें क्या हो गया?  तुम्हारा जवाब सुनकर मुझे हँसी आ गयी- ‘‘यार सोच रहा था कि चालीस पार का हो गया। अब मुझे भी सुंदर दिखने के लिए कुछ करना चहिए..।”

हो न हो, अब तुम बदल गये हो।

(रचना)

Saturday, August 10, 2013

काश स्त्री रोबोट होती...!

मुझे ईश्वर से शिकायत है कि उसने स्त्री में संवेदना क्यों दी? अगर उसे
इस समाज की जरूरत के लिए स्त्री बनाना ही था तो उसके पास मजबूत देह,
निष्ठुर दिल और कुन्द दिमाग क्यों नही दिया; जिसे न तो तेजाब से जलने का

भय सताता और न ही बलात्कार जैसी घिनौनी हरकत से पीड़ा होती।

क्या आपने किसी न्यूज चैनल पर कभी सुना है कि अमुक पुरुष के ऊपर किसी ने
तेजाब डाल दिया; क्या किसी अखबार में ऐसी खबर पढ़ी है? नहीं ना? सोचिए
जरा! ऐसा सिर्फ महिलाओं के साथ ही क्यों होता है?

कल न्यूज चैनल पर एक पुरुष के द्वारा ऐसा ही कुकृत्य किये जाने का समाचार
दिखाया गया जिसमें उसकी पत्नी ने पाँच बेटियों को जन्म देने के बाद छठवीं
बार गर्भधारण करने पर भ्रूण का लिंग परीक्षण करवाने जैसा पतित कार्य करने
से मना करने पर उसके नाजुक अंगों पर उसके अपने पति के द्वारा तेजाब डाल
कर जला दिया गया। 

कल्पना कीजिए कि उसकी पाँच बेटियाँ क्या सोच रही होंगी
अपने भविष्य के बारे में? क्या ये बेटियाँ ऐसे पुरूष से लड़ने की ताकत
जुटा पायेंगी..? क्या उनके अंदर एसिड से जलने का भय ताउम्र नही
सतायेगा..? काश उस स्त्री का शरीर लोहे का बना होता जिससे उसे तेजाब की
जलन महसूस न होती।

अब तो बस मन में यही आता है कि स्त्रियों को रोबोट कि तरह होना चाहिए।
जिसके अंदर कोई संवेदना ही न हो। स्त्रियों के साथ जानवर जैसा व्यवहार
करने वाले पुरूष जब जो चाहे रोबोट जैसी महिला से बटन दबाकर कोई भी कार्य
करवा डालें। चाहे वह गर्भ में पल रहे भ्रूण का लिंग परीक्षण ही क्यों न
हो।
(रचना)

Thursday, August 8, 2013

जनता के मुँह पर ढक्कन

भोजपूरी में एक कहावत है “जबरा मारे रोवहूँ न दे”। राज्य सरकार की नीयत कुछ ऐसी ही लगती है। जनता के मुँह में जानवरों की तरह जबरदस्ती जाबी (muzzle) लगाने के फिराक में जुटी है। अभिव्यक्ति की आजादी की तो बात ही छोड़ दीजिये यह तो अब लोकजनों का दाना-पानी भी बंद कर सकती है। आखिरकार कबतक लोकतंत्र के नाम पर जनहित की ठेकेदार होने का स्वांग करती रहेगी? कँवल भारती जी ने ऐसा क्या गलत कह दिया जो उनके खिलाफ़ मुकदमा कायम हो गया...?

(रचना)

Sunday, August 4, 2013

घुमरी पर‍इया…?

आज याद आया बचपन का एक खेल जिसमें दो दोस्त एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर गोल-गोल खूब तेजी से चक्कर लगाते, जिसे हम लोग “घुमरी-परइया” कहते थे। गलती से भी किसी एक का हाथ छूट जाता तो बस दोनों की धड़ाम हो जाती। कितना आनन्दित करता था यह खेल!

ghumri-paraiyaलेकिन जरा सोचिये अगर जान-बूझ कर अपने मित्र के साथ कोई ऐसा मजाक करता है, यानी खेल-खेल में अगर एक खिलाड़ी द्वारा दूसरे का हाथ जान-बूझ कर छोड़ दिया जाय तो गिरने वाले का क्या हश्र होगा।

मैंने बचपन में यह खेल खूब खेला था। जब भी किसी को मजा चखाना होता या किसी से मौज लेनी होती तो बस यही तरीका अपनाया जाता था। कभी खुद भी इसका शिकार हुए तो अगले को दौड़ा लेते। बात मार-पीट तक भी पहुँच जाती।

आज बालकनी से खड़े-खड़े कुछ ऐसा ही नजारा मुझे नीचे सड़क पर दिखा। करीब सात-आठ साल की लड़की और ग्यारह-बारह साल का एक लड़का आपस में घुमरी-परइया खेल रहे थे। दोनों की आपसी सूझ-बूझ बहुत अच्छी लग रही थी। यह खेल खेलकर दोनों ही बहुत आह्लादित हो रहे थे, लेकिन उस लड़की को क्या पता कि आगे क्या होने वाला है। लड़के ने दो-चार बार बहुत सावधानी से उसे गोल-गोल घुमाया, जब वह लड़की पूरी तरह से आश्वस्त हो गयी कि इस खेल में कोई जोखिम नहीं है तो वह इसका पूरी  तरह आनन्द लेने लगी। तभी उस लड़के ने लड़की का हाथ अचानक छोड़ दिया। वह बुरी तरह से जमीन पर गिर पड़ी। लड़का हँसने लगा। उस लड़्की का चेहरा देखने लायक था। ना तो वह उठ पा रही थी और ना ही उस लड़के पर कोई नाराजगी व्यक्त कर पा रही थी। मैं लड़के की हँसी सुनकर खीझ गयी। लड़की की आँखें डबडबा आयी थीं। मैं अपने को बेबस महसूस कर रही थी।

इस खेल में धोखे का परिणाम देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। आज सोच रही हूँ कि इस तरह का निष्ठुर मजाक अपने साथी या किसी अन्य से भी नही करना चाहिये। लेकिन तब ऐसी बात मन में क्यों नहीं आती थी? बचपन की अल्हड़ता शायद यही है।

(रचना)