Sunday, July 19, 2009

घरघुसना कहीं का, जब देखो तब अपनी बीबी का मुँह देखता रहता है...

परिवार को चलाने के लिए माँ-बाप घर के अंदर एक आचार संहिता और कुछ नियम-कानून बनाते हैं। वे यह उम्मीद भी करते हैं कि परिवार में रहने वाले सभी छोटे-बड़े इस नियम कानून के भीतर रहकर ही संबधों का निर्वाह करें।

सास-बहू लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि यही माता-पिता अपने बेटे से कुछ अलग और दामाद से कुछ अलग तरीके का व्यवहार पसंद करते हैं। माता-पिता जब अपनी बेटी के विवाह के लिये वर ढूँढते हैं तो वे अपने दामाद में कुछ खास गुणों की अपेक्षा जरूर करते हैं। लड़का नौकरी-शुदा हो ताकि मेरी बेटी को कभी किसी वस्तु के लिये किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। …लड़का ऐसा होना चाहिए जो मेरी बेटी की हर तकलीफ को अपनी तक़लीफ समझे। मेरी बेटी की खुशियों में ही उसे खुशी मिले। माता-पिता के लिए ऐसा दामाद आदर्श होता है। अगर उनको मनचाहा दामाद मिल जाता है तो वह उसकी प्रशंसा कुछ इस प्रकार करते है:-

मेरा दामाद कितना अच्छा है जो मेरी बेटी के हर काम में हाथ बँटाता है। जब वह खाना बनाती है तो किचेन में उसकी मदद करता है। …कपड़े धुलती है तो वह कपड़ों को बाहर फैला देता है। …मेरी बेटी से पूछे बिना कोई काम नही करता। जरूर मैने पिछले जनम में कोई पुण्य किए होंगे तभी मुझे इतना सुयोग्य दामाद मिला है। हम तो धन्य हो गये उसे पाकर।

लेकिन जब वही माँ-बाप अपने बेटे के लिए बहू ढूँढते हैं तो उससे उनकी उम्मीदें कुछ इस प्रकार होती है:

लड़की पढ़ी-लिखी, सुशील और गुणवन्ती होनी चाहिए जो घर को अच्छी तरह सम्हाल सके, सास-श्वसुर की सेवा करे, उनकी आज्ञा का पालन करे वगैरह-वगैरह…। लेकिन अगर इनका बेटा बिल्कुल इनके पसन्दीदा दामाद की तरह अपनी पत्नी पर कुछ अधिक ध्यान देने लगता है तो इनका नज़रिया अपने बेटे के लिए ही बदल जाता है। अगर वह अपनी पत्नी के साथ किचेन में हाथ बँटा रहा है तो ‘जोरू का गुलाम’ कहलाने लगता है। अगर उसे अपनी पत्नी की परेशानी से तकलीफ होने लगे और वह उसे दूर करने के लिए कुछ उपाय करे तो उसे कुछ इस तरह कहा जाता है- “घरघुसना कहीं का, जब देखो तब अपनी बीबी का मुँह देखता रहता है। ...इतनी तपस्या से पाल-पोस कर बड़ा किया लेकिन बहू के आते ही हाथ से निकल गया।” अपने आप को कोसते हैं- ‘न जाने पिछले जन्म में कौन सा कर्म किया था जो हमें यह दिन देखने को मिल रहा है।’

इसी प्रकार अधिकांशत: ऐसा देखा जाता है कि माँ-बाप का नजरिया बेटी के लिए कुछ और बहू के लिए कुछ और ही होता है। यह मेरे विचार से सरासर गलत है। आपका क्या ख़याल है?

(रचना त्रिपाठी)

Friday, July 10, 2009

चींटी की खटिया खड़ी, टिड्डा करता मौज... कहानी में ट्विस्ट है...!

हिन्दी भारत समूह से आने वाला एक सन्देश मिला। प्रेषक थे श्री भगवान दास त्यागी जी। इस अंग्रेजी सन्देश में The Ant and the Grasshopper नामक कहानी को आधार बनाकर भारतीय राजनैतिक समाज की एक विडम्बना को दर्शाया गया है। मुझे यह आख्यान अच्छा और सच्चा लगा। मैने यहाँ इसका भावानुवाद करने की कोशिश की है। आदरणीय त्यागी जी से क्षमा याचना के साथ मैने इसमें कुछ नयी बातें जोड़ भी दी हैं।

कथा – १

चींटी और टिड्डा एक थी चींटी और एक था टिड्डा। गर्मियों का मौसम था।  तेज गर्मी व कड़ी धूप में भी चींटी मेहनत करती, अपना घर बनाती और जाड़े के लिये भोजन जमा करती।

टिड्डा सोचता कि चींटी बेवकूफ है। वह हँसता, नाचता सारी गर्मी मजे से खेलकर-कूदकर बिता देता।

जाड़े का मौसम आया। कड़ी ठण्ड में चींटी अपने सुरक्षित घर की गर्माहट में रहकर पहले से जमा किया हुआ भोजन का आनन्द लेती हुई सुख चैन से रहती। टिड्डे के पास न भोजन था और न ही सिर छिपाने की जगह। वह खुले आकाश के नीचे ठ्ण्ड से ठिठुरता रहा और अन्ततः मर गया।

निष्कर्ष: परिश्रम का फल मीठा होता है

कथा – २

एक थी चींटी और एक था टिड्डा। गर्मियों का मौसम था।  तेज गर्मी व कड़ी धूप में भी चींटी मेहनत करती, अपना घर बनाती और जाड़े के लिये भोजन जमा करती।

टिड्डा सोचता कि चींटी बेवकूफ है। वह हँसता, नाचता सारी गर्मी मजे से खेलकर-कूदकर बिता देता। जाड़े का मौसम आया। कड़ी ठण्ड में चींटी अपने सुरक्षित घर की गर्माहट में रहते हुये पहले से जमा किया हुआ भोजन का आनन्द लेती हुई सुख चैन से रहती। टिड्डे के पास न भोजन था और न ही सिर छिपाने की जगह।

ठण्ड से काँपते टिड्डे ने एक प्रेस कान्फ़रेन्स बुलाई। मास मीडिया के समक्ष इस बात की जाँच कराने की माँग उठा दिया कि आखिर चींटी को क्यों गर्म घर में रहने और पर्याप्त भोजन की व्यवस्था उपलब्ध है जब कि उसके जैसे दूसरे जीव ठण्ड से ठिठुर रहे हैं और भूखों मर रहे हैं।

आपतक, ऐण्टीटीवी, एबीसी, सीएमएन, हण्डिया टीवी,  और दूसरे तमाम चैनल ठ्ण्ड से काँपते ठिठुरते टिड्डे की तस्वीरें दिखाने लगते हैं। वही बगल के फ्रेम में आरामदेह और प्रचुर भोजन से लदी मेज के साथ चींटी का वीडियो प्रसारित हो रहा है। दुनिया इस विरोधाभास को देखकर आहत है। बेचारा गरीब टिड्डा इतने कष्ट में जीने को मजबूर है? उफ़्फ़्‌ ये कैसी विडम्बना है? उसके प्रति संवेदना की लहर दौड़ जाती है।

चींटी और टिड्डा (२) चींटी के घर के सामने अन्धमति राय एक जोरदार प्रदर्शन आयोजित करती हैं।

बाधा डालेकर अन्य बहुत से टिड्डों को इकठ्ठा करके उनके साथ अनशन पर बैठ जाती हैं। उनकी माँग है कि जाड़े के मौसम में सभी टिड्डों का गर्म जलवायु के स्थान पर पुनर्वास करवाया जाय।

मायाजटी बयान देती हैं कि यह गरीब अल्पसंख्यकों व दलित टिड्डों के साथ घोर अन्याय है। मनुवादी चींटियों द्वारा किए गये अन्याय के विरुद्ध टिड्डासमाज को एकजुट रहने का नारा देती हैं।

एम-नास्टी(aim-nasty) इण्टरनेशनल, संयुक्तराष्ट्र संघ(UN- unnecessary nuiscence) , यूनीसेफ़, वर्डबैंक (bird bank) और दूसरी मानवाधिकारवादी संस्थाओं द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध बयान जारी किए जाते हैं। एक अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टमण्डल भारत की यात्रा पर आता है। विपक्षी सांसदों ने संसद की कार्यवाही से वाकआउट कर दिया है। वामपन्थी दलों ने मामले की न्यायिक जाँच की माँग करते हुये ‘बंगाल बन्द’ और ‘केरल बन्द’ का अह्वाहन किया। केरल में सीपीएम की सरकार ने कानून बनाकर चीटियों को गर्मी में कड़ी मेहनत करने पर पाबन्दी लगा दी जिससे चींटियों और टिड्डों में ‘गरीबी की समानता’ (equality of poverty)  लायी जा सके।

‘आलू पर स्वाद जादो’ सभी रेलगाडियों में टिड्डों के लिए निःशुल्क कोच जोड़े जाने की मांग करते है। ‘कम था एलर्जी’ दबाव के आगे झुकते हुए संसद में इस फैसले की घोषणा करती हैं कि सभी गाड़ियों में एक स्पेशल टिड्डा कोच जोड़ने के साथ ही विशेष गाड़ी भी चलायी जाएगी जिसका नाम “टिड्डा रथ”  होगा।

अन्ततः सरकार द्वारा एक न्यायिक जाँच समिति गठित की जाती है जो आनन-फानन में ‘टिड्डा विरोधी आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटागा)’ का एक प्रारूप तैयार करती है जो संसद द्वारा ध्वनिमत से पारित होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षरोपरान्त कानून बनकर जाड़ा प्रारम्भ होने से पूर्व ही लागू कर दिया जाता है।

राष्ट्र के शिक्षा मन्त्री ‘कपि से अव्वल’ ने शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में विशेष टिड्डा आरक्षण की घोषणा कर दी है।

पोटागा के प्राविधानों का उल्लंघन करने के आरोप में चींटी गिरफ़्तार कर ली गयी है। उसपर लगे आरोप सिद्ध हो जाने के फलस्वरुप अर्थदण्ड लगा दिया गया है। अपने अपकृत्य के लिए जुर्माना अदा न कर पाने पर चींटी का घर सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाता है तथा उसे गरीब बेसहारा टिड्डों को आबंटित कर दिया जाता है। इस गृह वितरण समारोह के सीधे प्रसारण के लिए देश और विदेश के न्यूज चैनल जमा होते हैं।

अन्धमति राय इसे न्याय की जीत बताती हैं। आलू पर स्वाद जादो इसे समाजवाद की जीत बताते हैं। सीपीएम सरकार इसे ‘गिरे हुओं के क्रान्तिकारी उदभव’ की संज्ञा देती है।

उस क्रान्तिकारी टिड्डे को संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया उसका सीधा प्रसारण करता है। नाटो देशों के राष्ट्राध्यक्ष धनदोहन सिंह की पीठ थपथपाते हैं:

बहुत वर्षों बाद-

चींटी ने अमेरिका प्रवास करके वहाँ सिलिकॉन घाटी में अरबों डालर की कम्पनी स्थापित कर ली है। दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल होने लगी है। जब कि भारत में सैकड़ों टिड्डे आरक्षण के बावजूद भूख से आज भी मर रहे हैं।

कड़ी मेहनत करने वाली असंख्य चींटियों के देश छोड़कर बाहर चले जाने तथा मूढ़, आलसी व अकर्मण्य  टिड्डों को सरकारी खर्च पर पालने-पोसने के परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था प्रतिगामी होती गयी है जिससे विकसित देशों का पिछलग्गू भारत आज भी एक विकासशील देश बना हुआ है।

निष्कर्ष: परिश्रम का फल अपने देश में नीचा देखना होता है।

(निवेदन: यदि यहाँ किसी कॉपी राइट का उल्लंघन निहित हो तो कृपया सूचित करें। इसे सहर्ष हटा लिया जाएगा।)

रचना त्रिपाठी

Monday, July 6, 2009

कानून की मदद करना मूर्खता है…।

चलती ट्रेन में सामान चोरी चले जाने की घटना सुनी तो बहुत थी। मेरे श्रीमान्‌ जी मुझे बार-बार सावधान रहने की हिदायत भी दिया करते थे। कभी जनरल या स्लीपर क्लास में यात्रा नहीं करने देते। हमेशा अपने साथ ही ले जाते और ले आते। लेकिन इस बार भाग्य का लिखा कुछ और ही था। image

सारी हिदायतों का अक्षरशः पालन करते हुए मैने यात्रा प्रारम्भ की थी। चेन स्नैचर्स से बचने के लिए गले में दुपट्टा लपेट कर रखा। हैण्डपर्स में सारा कीमती सामान नहीं रखा। स्टेशन पहुँचने से पहले ही टिकट ऊपर निकालकर पर्स को बड़े वाले एयरबैग के भीतर डाल दिया, नगदी और जेवर को अलग-अलग स्थान पर रख दिया और चेन बन्द करके छोटा ताला जड़ दिया। बोगी में पहुँचते ही अपनी बर्थ के नीचे लगे कड़ों से एयरबैग को बाँध दिया। इस प्रकार इलाहाबाद से पापा के घर तक की यात्रा पूरी तरह सुरक्षित रही। लेकिन वापसी यात्रा में गड़बड़ हो ही गयी।

जाते समय जो उपहार आदि मैं ले गयी थी वो तो वापसी में कम हो गये लेकिन मायके से भतीजे के मुण्डन में जो कुछ मिला वह कुछ ज्यादा ही था। कुछ कपड़ों के डिब्बे एयरबैग से बाहर ही रखने पड़े थे। एक झोले में तीन-चार गिफ़्ट पैक डालकर अलग से लटका लिया था। डिब्बे झोले से बाहर झाँक रहे थे। एयरबैग भी कुछ ज्यादा ही कस गया था। फिर भी मैने अपना हैण्डबैग यत्नपूर्वक उसी एयरबैग में डालकर चेन बन्द कर लिया था। बाकी सबकुछ वैसे ही किया था जैसे इधर से जाते हुए। लेकिन जब बनारस के आगे मोबाइल की रिंग सुनकर मेरी आँखें खुलीं और इनकी गुडमॉर्निंग का जवाब देने के बाद मैंने बेटे के बिस्कुट के लिए नीचे से एयरबैग खींचा तो आवाक्‌ रह गयी। किसी सिद्धहस्त चोर ने बड़ी सफाई से एयर बैग की चेन के बगल में बैग का कपड़ा काटकर भीतर रखा हैण्डबैग निकाल लिया था।

यह देखकर मेरे होश उड़ गये। अकेले यात्रा कर लेने का आत्मविश्वास मुझे ले डूबा। मैने कोच कंडक्टर को ढूँढा तो वह बगल के कोच में खर्राटे लेते पाया गया। कोच अटेण्डेण्ट भी कहीं सो रहा था। आरपीएफ और जीआरपी के जवानों का कोई पता नहीं था। मैने शोर मचाया तो एक-एक करके सब इकठ्ठा हो गये। सबने मुझे ढाढस बँधाया। अपनी-अपनी कहानी सुनाने लगे। लेकिन चोर तो अपना काम करके जा चुका था। सबने यही कहा कि अब उसे पकड़ पाना नामुमकिन है।

मुझे भी इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी। फिर भी मैने इलाहाबाद उतरकर जीआरपी थाने में एफ़आईआर कराया। थानेदार ने पहले ही रिजल्ट सुना दिया। कुछ उम्मीद नहीं है। इसे मैं भली भाँति जानती थी, क्योंकि इस विभाग ने रंगे हाथ पकड़े गये चोर के साथ भी जब कुछ नहीं किया तो आँख से ओझल चोर का क्या बिगाड़ लेंगे। जी हाँ, मेरे साथ यह दूसरी दुर्घटना है। पहली बार मैने उस चोरनी को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया था।

अबसे छः साल पहले इसी ट्रेन से मैं बनारस कैण्ट स्टेशन पर सुबह साढ़े चार बजे अपने पति और ढाई साल की पुत्री के साथ उतरी थी। श्रीमान जी बड़ा एयरबैग टाँगे आगे-आगे बढ़े जा रहे थे। मैं एक कन्धे पर सो रही बेटी को लादे और दूसरे कन्धें में अपना बैग लटकाए पीछे-पीछे चल रही थी। निकासद्वार के ठीक पहले मुझे कुछ खुरखुराहट की आवाज सुनायी दी जैसे कोई कागज फट रहा हो। मैने अपने बैग की ऊपरी जेब को टटोला तो चैन खुली हुई थी। अन्दर हाथ डाला तो सौ-सौ के नोट गायब थे। मैने एक झटके में पास से हल्का धक्का देकर गुजरी हुई महिला को धर दबोचा। उसकी कलाई मेरे हाथ में थी। मैने उसे जोर से दबाया। उस शातिर जेबकतरी ने अपने हाथ में रखे नोट जमीन पर गिरा दिए। मैने गेट पर खड़े टिकट कलेक्टर से सहायता मांगी लेकिन उसके कान पर जूँ नहीं रेंग रही थी। मैने जोर की आवाज लगाकर इन्हें बुलाया जो गेट पार करके ऑटो तलाश रहे थे। इनके वापस आने तक मैने उसका हाथ नहीं छोड़ा। उसके गिराये नोट मैने पैर से दबा लिए थे।

इन्होंने वापस आकर उसको पकड़ा, मैने बेटी को सम्हाला, बैग की ऊपरी जेब चेक किया। वहीं रखे नोट जमीन पर गिरे थे। करीब पचास की उम्र पार कर चुकी उस मोटी औरत के हाथ में एक प्लास्टिक का खाली झोला भर था। कोई अन्य सामान नहीं था। झोले में झाँक कर देखा गया तो पाँच-छः नोट और मिले। यानि वह पहले भी एक-दो शिकार निपटा चुकी थी।

हम लोगों ने टीटीआई और वहाँ तैनात सिपाही के हवाले करने की कोशिश की तो उन्होंने पल्ला झाड़ दिया। बोले- आप इसे जीआरपी थाने ले जाइए। हमने उसकी उम्र और मनोदशा देखकर उसपर हाथ उठाना उचित नहीं समझा। बेटी के साथ अपना सामान ढोते हुए हम इस महिला का हाथ पकड़कर थाने ले जाने लगे। उसने गिड़गिड़ाने का अभिनय किया। अपनी साड़ी उठाकर जाँघ पर हुए बड़े से घाव को दिखाने लगी। हम नहीं माने तो उसने चलते-चलते ही प्लेटफ़ॉर्म पर टट्टी कर दी। घिन्न और बदबू से हमारी हिम्मत जवाब दे गयी। लेकिन तबतक थाना आ गया था।

थाने पर उपस्थित इन्स्पेक्टर मुस्कराते रहे। वह घाघ चोरनी भी संयत भाव से बैठी रही। वहाँ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का बड़ा सा बोर्ड लगा था। जिसपर लिखी गयी हिदायतों का लब्बो-लुआब यह था कि किसी व्यक्ति को केवल कोर्ट ही दोषी पाये जाने पर दण्ड दे सकता है। अन्य कोई भी व्यक्ति किसी मुजरिम को कष्ट पहुँचाने वाला व्यवहार नहीं कर सकता है। यानि उस महिला के मानवाधिकारों की रक्षा का पूरा प्रबन्ध था वहाँ।

बस हमारे अधिकार के बारे में पूछने वाला कोई नहीं था

। जबकि जेब हमारी काटी गयी थी। हमारे लिए तो दरोगा जी ने बार-बार यही समझाने की कोशिश किया कि एफ़आईआर में बहुत लफ़ड़ा है। पूरी घटना की तहरीर दीजिए। गवाह लाइए। और सबूत के तौर पर इन चोरी गये रुपयों को सीलबन्द लिफ़ाफे में जमा कराइए। इन सबके बाद यदि दो सौ रुपये चुराने का दोष सिद्ध हो गया तो इसे कुछ दिनों की ही सजा हो पाएगी।

इतनी टेढ़ी खीर होने के बावजूद हमने निर्णय लिया कि इसके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराएंगे ही। इसके बाद की ना-नुकुर मिटाने के लिए इन्हें अपने सरकारी अधिकारी होने का परिचय भी देना पड़ा। आखिर रिपोर्ट लिख ली गयी। हम अपने कर्तव्य की पूर्ति का भाव लिए वापस आ गये।

लेकिन आज सोच रही हूँ कि इस बार की चोरी में यदि चोर पकड़ा गया होता तो मैं रिपोर्ट दर्ज कराने की मूर्खता करती क्या? क्या मैं अपना हैण्डबैग सारे सामान सहित सीलबन्द कराकर पुलिस के हवाले कर पाती? जिन दो सौ रुपयों को मैने कानून को अपना काम करने देने के लिए त्याग दिये थे वे मुझे तबसे अभी वापस नहीं मिले। अभी तक मुकदमें की सुनवायी होने की कोई नोटिस ही नहीं मिली। तो फिर मैं इस बार कानून की मदद कैसे करती?

इस अनुभव के कारण यही सोच रही हूँ कि चलो अच्छा हुआ, वह चोर पकड़ा नहीं गया। नहीं तो एक कर्तव्यपरायण नागरिक होने के नाते मुझे फिर चोरी गया सामान सबूत के तौर पर पुलिस के हवाले करना पड़ता। और तब भी शायद इतना ही कष्ट होता।

आज मेरा मन इस उधेड़ बुन में लगा हुआ है। आखिर वह कौन था जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर कर दिया। आज मुझे ठीक-ठीक पता चल गया । शायद यह भी एक मानसिक हलचल है जो रेलवे से शुरू होती है और ब्लॉगजगत पर छाना चाहती है।

(रचना त्रिपाठी)