Wednesday, February 21, 2018

जादुई मसाला

मां का दिया हुआ यह कजरौटा हर साल दीपावली में सेंके गये काजल से लोड होता है। अपना काम तो सालों-साल इससे ही चल जाता है। लेकिन बगल में खड़ी इस ढाई इंच की काले-जादू की डिबिया को देखिए। इसने अपनी काली लकीर से सजी कनखियों की लहर से जो कमाल दिखाया है उससे सारा देश ही ऊपर-नीचे हो गया है। कजरारे नैनों के तीर से सारा देश घायल है। दिल फेंक नौजवानों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक और संस्कारी लड़कों से लेकर मुल्ला-पंडित तक सभी अपनी-अपनी चोट सहला रहे हैं।

यह जादुई मसाला इस पात्र के जिस हिस्से में रखा है वह तो सिर्फ अंगुल भर का है, बाकी लंबा हिस्सा तो इस नटखट के लटके-झटके जैसा है। वह कल्लू इस पात्र की तलहटी में बैठा पड़ा है जिसको आकर्षक आवरण से छिपाकर बाजार में इसकी ऊंची कीमत लगा दी गयी है। ऊंची कीमत पर बिकने या दूसरों के आगे चमकने के लिए श्रृंगार तो कोई भी करता है। फिर काजल की डिबिया भी क्यों नहीं? उसपर यह किसी फेमस ब्रांड का दुशाला ओढ़ ले तो क्या पूछना– चार-चाँद ही लग जाते हैं। लेकिन इस बेचारी के करम फूटे कि मेरे हाथ लग गयी। मैं इसका समय रहते वैसा इस्तेमाल नहीं कर पायी, न ही किसी और को टिका पायी। अब यह प्रयोग के अभाव में या यूँ कहूँ कि बिना किसी की आँखों के साथ नैन-मटक्का किये ही, वैनिटी बॉक्स में पड़े-पड़े काल-कवलित हो गयी है। मतलब एक्सपायर डेट को प्राप्त हो गयी है।

एक गृहिणी-सुलभ जतन करने की आदत जो न करा दे। सोचा अब कूड़े में फेंके जाने से पहले सोशल-मीडिया पर इसे भी थोड़ा सम्मान मिल जाये तो क्या बुरा है? आखिर जिसने किसी की आँखों में बस कर  रातों-रात लाखों लोगों को उसका दीवाना बना दिया हो, बिना किसी औषधि के जाने कितनों के मोतियाबिंद छू-मंतर कर दिये हों और कितनों के सामने दिन में ही रात का मंजर खड़ा कर दिया हो उसे ऐसे कैसे फेंक दिया जाय। इसपर लाइक्स तो बनती हैं।

ऐसे में उस पुरानी कहावत को तोड़-मरोड़कर कहूँ तो _"काजल की डिबिया को ऐसे क्यूँ छोड़ा जाय, एक 'लाइक' काजल पर लागिहै ही लागिहै।"_

Tuesday, February 13, 2018

अवबोधन

बसन्त ऋतु में प्रीति को अपना नया-नवेला साजन मिला था। उसके चारों ओर एक खुशबू की बयार सी बह रही थी। लेकिन जल्दी ही उसको अपने छोटे भाई की शादी के लिए अपने प्रीतम का घर छोड़ मायके आना पड़ा था। उधर उसके प्रीतम को भी अपनी बाकी कि ट्रेनिंग पूरी करने अकादमी जाना पड़ा। अब कोई छुट्टी नहीं मिलने वाली थी।

प्रथम मिलन के बाद इतनी जल्दी अलग हो जाने पर वे पति-पत्नी से अधिक प्रेमी-युगल की तरह एक दूसरे को मिस कर रहे थे। एक के बाद एक 'हग-डे' और 'रोज़ डे' जैसे सुनहरे दिन हाथ मलते निकल गये। उनकी प्यास व्हाट्सएप और फेसबुक से मिटने वाली नहीं थी। प्रीति के गाँव से मोबाइल का टॉवर भी दूर था। प्रीतम का मन अपनी हिरोइन के बिना बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। उसकी बेचैनी तब और बढ़ गयी जब ट्रेनिंग के आखिरी दिन उसके सामने 'वेलेंटाइन डे' आकर खड़ा हो गया। दिन तो जैसे-तैसे बीता लेकिन शाम... ये तो जैसे मारे ही डाल रही थी। प्रीतम ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और सुर्ख लाल गुलाबों का बड़ा सा बुके लेकर पचास मील दूर ससुराल की ओर चल पड़ा। 

शादी में आये सभी मेहमान अभी वापस गये नहीं थे। मायके की इस चहल-पहल में भी प्रीति गुमसुम सी ही थी। घर के बच्चे दिनभर चहकने के बाद अब सोने की तैयारी कर रहे थे। घर की औरतें सबसे अंत में खाना खाने के बाद अब सोने से पहले की हँसी-ठिठोली में लग गयी थीं। प्रीति अपनी बुआ, मौसी, दीदी, भाभी, दादी, आदि कई पीढ़ियों की औरतों और चचेरे-फुफेरे-मौसेरे भाइयों व बहनों के बीच बैठकर भी वहाँ नहीं थी। वह अपने हाथों की मेंहदी निहारे जा रही थी। तभी घर के बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा। उसकी कर्कश ध्वनि से बच्चे कुनमुना कर उठे और करवट बदलकर सो गये। औरतों की सभा विसर्जित हो गयी, लेकिन इतनी रात को दरवाजा खोलने के लिए किसी पुरुष को आगे जाना था जो सभी प्रायः सो चुके थे। 

प्रीति के पापा बिस्तर से उठ बैठे। सोचने लगे - अब इतनी रात को कौन धमक पड़ा? मम्मी को चिंता हुई कि बेचारी बड़ी बहू तो अभी-अभी किचेन के काम से फुरसत पाकर सोने चली है। उसे फिर परेशान होना पड़ेगा। बड़े भाई की गहरी नींद में खलल पड़ा। लेकिन उठना तो उसे ही था। उसने आँखे मली, दूसरी ओर निढाल पड़ी पत्नी की ओर देखा और बिस्तर के नीचे फर्श पर पड़ी चप्पल को टटोलकर पैर में डालने लगा। उसकी उनींदी आँखों में न कोई कौतूहल था और न ही मन में कोई विचार। लेकिन प्रीति के नथुने फड़क उठे। असली गुलाब की महक उसे दरवाजे की ओर झाँकने को प्रेरित करने लगी। लेकिन वह आश्वस्त हो लेना चाहती थी। भैया इतनी देर क्यों कर रहे हैं...! वह उद्विग्न हो उठी। उससे रहा नहीं गया। वह बाहर जाने वाले गलियारे की ओर बढ़ी तबतक उसके भाई ने दरवाजा खोल दिया था। सामने उसका प्रीतम हाथों में गुलाबों से सजी डलिया लेकर खड़ा था। वह मुग्ध होकर उससे लिपट पड़ी। 

प्रीति का बड़ा भाई कुछ दूर अवाक् खड़ा अपनी बहन की ख़ुशी पर खुश हो रहा था। पापा भी तबतक अपना चश्मा पोंछकर आँखों पर लगाते हुए ड्योढ़ी पर आकर खड़े हो चुके थे। बेटी और जमाई के बीच फूलों की खुशबू बिखरने का यह मंजर देखकर यकबयक उनकी आँखों में चमक आ गयी। उनके लॉन में भी खूब रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे जिसे इस दिन भी किसी ने हाथ नहीं लगाया था। उन्हें सहसा किसी का ध्यान आया। उन्होंने लॉन में लगी गुलाब की झाड़ियों में से एक सुर्ख लाल गुलाब तोड़ा और अपने बड़े बेटे के हाथ में पकड़ाते हुए बोले- 'आज वेलेंटाइन डे है... इसे बहू को दे आओ, उसे भी अच्छा लगेगा... घर के कामों के आगे उसे अपनी सुध ही नहीं रहती।' 

(रचना त्रिपाठी)