एक वह भी जमाना था जब हम बच्चे न तो ‘क्यूट’ हुआ करते थे और न ही ‘स्मार्ट’। मम्मियों को यह सब मालूम ही नहीं था। वे तो अपनी भाषा में ही बच्चों को नवाजती थीं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनकी हिंदी का कोई एक 'दिवस' होता है और यह दिवस बड़े प्रचार-प्रसार से मनाया जाना होता है।
उन्हें अपने बच्चे या तो बकलोल लगते थे या बहुत बदमाश। चंचल होते थे या गबद्दू। बुड़बक होते थे या चलबिद्धर। चुप्पा होते थे या बकबकहा। दब्बू होते थे या झगरहा। चतुर होते थे या भोंदू। सोझबक होते थे या लंठ। सालों साल ऐसे ही परिचय कराया जाता था। लेकिन जबसे बच्चे क्यूट, स्मार्ट, लवी-डवी, शार्प, मैनर्ड और एटिकेट्स वाले हो गये हैं शायद तभी से यह हिंदी-दिवस सिकुड़कर एक दिन का हो गया।
हम तो क्यूट-स्वीट की गिटपिट से बेखबर रहते हुए ही बड़े हो गए। आजकल का चलन ऐसा हो गया है कि हम लगभग भूल ही गये हैं अपनी उस दुलारी हिंदी को जिसके साथ रगड़े जाने का हमारा दिन-रात का नाता था।
बच्चे अपनी माताओं को जब आजिज़ कर देते थे तो वे अपनी अनोखी हिंदी के अद्भुत भावप्रवण शब्दों का तबतक बौछार करती थीं जबतक बच्चे को पूरी प्रतीति न हो जाय। यह उत्सव प्रायः रोज ही होता था। माताएं तबतक चैन नहीं पाती थीं जबतक भाषा संपदा का पूरा उत्सव मनाकर समाप्त न कर लें। उनके कुछ शब्द तो आज भी हमारे कानों में एक मधुर संगीत की तरह बजते रहते हैं। उनमें से एक था- लतखोरवा। जब चाहें तब ऐसे मनाये जाते थे हिंदी के दिवस।
आज जब एक दिन का उत्सव होता है तो हमें बड़ा अटपटा सा लगता है। ऐसा लगता है कि काल-कवलित होने से बाल-बाल बचायी जा रही हो हिंदी।
(रचना त्रिपाठी)