Friday, February 23, 2024

परीक्षा-काल

एक जमाना बीत गया स्कूल कॉलेज छूटे हुए परन्तु जब भी यह मौसम आता है,  अचानक अपने इम्तिहान के दिनों की याद आने लगती है। मानों अब भी किसी परीक्षा की आधी-अधूरी तैयारी में मन भटक रहा हो। 


परीक्षा की घड़ी होती ही कठिन है। चाहे तब या अब। कितनी तमन्नाएँ मन में उमड़-घुमड़ करती रहती थी पर इस चुनौती के सामने हम 'बेचारे' बने रहने के सिवा कुछ नहीं कर पाते थे। बस एक ही ख़्याल आता था किसी तरह वह वक्त टले और ज़िंदगी में थोड़ा सुकून मिले, कहीं से थोड़ी बहार आए।


रात-दिन इसकी तैयारी में कैसे एक-एक पल बीतता था। किताब-कॉपी को निहारते, उलटते-पलटते। पेन, स्केल, पेंसिल ,रबर, लंगड़ा-प्रकार, चांदा, हाइलाइटर आदि रखने वाला औजार-बक्सा और तख्ती सँभालते रह जाते थे। 


समय से खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। उन दिनों देवता-पित्तर से भी सिर्फ़ यही मनाते थे कि किसी तरह इस परीक्षा के झंझट से हमें छुटकारा मिले और हम उन्हें कपूर जलाएँ। मम्मी-पापा भी उस वक्त हमारा कितना ख़्याल रखते थे। पूरे साल में इतना दुलार कभी नहीं मिलता था जितना इस परीक्षा के दिनों में हमें मिलता था- ठंडा पीलो, गरम पकौड़ी खा लो। मम्मी का बिना माँगे समय-समय  पर चाय की प्याली टेबल पर रख देना, संतरे छीलकर खाने का मनुहार करना। वे लोग उस वक्त हमारे लिए कितना कुछ तो करते थे! उन दिनों हमें सिर्फ़ पढ़ना होता था। इसके अलावा घर की और कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहती थी। कोई कुछ भी नहीं अढ़ाता था। इसके बावजूद जिस दिन इम्तिहान का आख़िरी पेपर रहता था उस दिन लगता था कि किसी तरह आज यह झंझट मिटे, कल से तो जीवन में बहार ही बहार होगी। 


परीक्षा तो ख़त्म हो जाती थी लेकिन बहार कहाँ छुपी है उसकी तलाश कभी पूरी नहीं हो पाती। सुबह से शाम तक हमें डाँट खाते बीतता था। पुराना बकाया जोड़कर- एरियर सहित। वही मम्मी जो उस समय कहती थीं कि अब किताब-कॉपी रख के सो जाओ वरना तबियत बिगड़ जाएगी, वही बाद में सोने पर पहरा करने लगती थीं। सुबह जल्दी जगाने के लिए परेशान रहती थीं। कई बार कमरे में आकर हाँक लगा जाती थी— उठो, पापा चाय माँग रहे हैं, बना कर दे दो… कमरा कितना फैलाकर रखा है, उसे ठीक करो… आज रोटी तुम बनाओगी… ब्ला… ब्ला… ब्ला। 


जाने वो बहार कहाँ चली गई जिसकी उम्मीद में हम पूरे इम्तिहान भर दुलारे जाते थे, और इम्तहान ख़त्म होने के बाद सूद सहित फटकारे जाते थे। एक वो अनदेखी, अनजानी बहार है कि उसको हमारी रत्तीभर परवाह नहीं। आज तक उसकी बाट जोह रहे हैं। ये मुई जाने कब आएगी?

(रचना)

Tuesday, February 20, 2024

लौटा दो मेरी चिट्ठियाँ

दो दिन बाद पच्चीसवीं सालगिरह है। पता नहीं सुबह से बक्से में क्या टटोल रही है? न जाने कौन सा खजाना उसके हाथ लग गया है। उसी में उड़ी-बुड़ी जा रही है। कभी मुस्कुराती है तो कभी सिसकियों की आवाजें आने लगती हैं। कितना काम पड़ा है? ये औरत भी न, हद करती है! 


— “अरी भई, जल्दी करो। कहाँ खोयी हो? बहुत काम है मेरे ज़िम्मे। चलो पहले तुम्हारा गिफ्ट दिला दूँ उसके बाद बाक़ी के काम होंगे। ऐसा कौन सा ख़जाना मिल गया जो वहाँ से हिलती नहीं तुम?”


शायद कुछ चिट्ठियाँ थी। जो राघव ने उसके नाम अपनी नौकरी से पहले पढ़ाई के वक्त लिखी थी। 


— “खजाना ही समझो, सनम। वो मोतियों सी अक्षर में गुथी लटपटी बातें, मीठे-मीठे गानों की रोमांटिक पक्तियाँ… छोटे-छोटे प्यार से रखे हुए वे नाम जो तुमने मेरे लिए इन चिट्ठियों में लिखे हैं। मेरे लिए किसी भी ख़ज़ाने से बढ़ कर है। उन दिनों इन्हें पढ़कर मैंने ख़ुद को वहीदा रहमान तो कभी वैजयन्ती माला से कम नहीं समझा। सच कहूँ, तो नई-नवेली दुलहिन के सारे नख़रे तो इन चिट्ठियों ने ही ढोये हैं।


इनको पढ़कर इतने वर्षों के बाद मन में वहीं पुराने बसन्ती उमंग भरे एहसास उमड़ पड़े हैं। जो अबतक न जाने कहाँ गुम से पड़े थे?  आज जाके हाथ लगे हैं। सब पढ़ लूँगी तभी हिलूँगी यहाँ से। कितनी मीठी यादें हैं। सबको अपनी स्मृतियों में समेटना है अभी। वक्त तो लगेगा ही। 


वही चिट्ठियाँ हैं जो तुमने मेरे लिए लिखी थीं। आज बहुत सही समय पर मिली हैं। देखो न, उन लम्हों को कैसे इन चिट्ठियों ने अपने अंदर क़ैद कर लिया है। आज सब तरो-ताज़ा हो गये। वो लम्हें वो बातें … ऐसा लगता है जैसे आज भी मैं वहीं खड़ी हूँ। और तुम हमसे कोसों दूर अपने रोज़गार की तैयारी में लगे हो। इन चिट्ठियों ने उस दूरी को कितना कम कर दिया था ! इससे हरदम तुम्हारे आलिंगन का एहसास होता था।


जब डाकिया पिताजी के हाथों में लिफ़ाफ़ों का संकलन देकर साइकिल की सीट पर फ़लांग कर बैठता और तेज गति से पैडल मारते हुए दरवाज़े से दूर मेरी आँखो से ओझल हो जाया करता था, तबसे मैं खिड़की पर खड़ी दिल की धड़कनों को थामें घर के भीतर पिताजी की कदमों की आहट सुनते ही कितना बेचैन हो उठती थी! उन लिफ़ाफ़ों में अपने नाम की चिट्ठी न पाकर कष्ट होता था। अगली चिट्ठी में यह पढ़कर तब और बुरा लगता था कि तुमने इसके पहले भी कई चिट्ठियाँ मेरे नाम से भेजी है जो मुझे नहीं मिली।


कुछ मेरी चिट्ठियाँ भी जो मैंने तुम्हें लिखी थी, इसी बेठन के नीचे मिली हैं। इन्हें कितना सहेजकर रखा था तुमने। अब यही सब सोचकर रोना आ रहा है। हम दोनों अपनी गृहस्थी में इतने मशगूल हो गए कि अपना वो सलोना दौर हमें याद ही नहीं रहा। जैसे हमने उनको किसी तहख़ाने में धकेल दिया हो।


अच्छा हुआ जो उस वक्त मोबाइल नहीं था। नहीं तो आयी-गई बात कब की ख़त्म हो गई होती। याद भी नहीं आता कि एक समय हमारा भी हुआ करता था, जिसमें सिर्फ़ मैं थी और तुम थे और वो एकाद विलेन, जो हमारी चिट्ठियों को चुपके से शरारत वश खोलकर पढ़ लिया करते थे। जिसका ख़ाली लिफ़ाफ़ा भी कभी मुझे सुपुर्द नहीं किए। उसमें लिखी बातों को लेकर घरवालों के सामने हमारी कितनी किरकिरी करते थे। तुम क्या जानों वो बेचैनी… मुझे तो आजतक उन चिट्ठियों को न पढ़ पाने का मलाल है। काश अबसे वो सारी चिट्ठियाँ मुझे मिल जाती !


ऐ सुनो न, उनसे कहो न कि हमारी इस एनीवर्सरी पर वे हमें वो सारी चिट्ठियाँ तोहफ़े में वापस कर दें। उसके बदले में हम उन्हें कुछ महँगे रिटर्न गिफ्ट दे देंगे। उनसे माँगो न, प्लीज़!


उनके लिए तो वह सब मनोरंजन था लेकिन मेरे लिये तो यह अनमोल निधि है। उस वक्त तुमसे दूर रहकर भी तुम्हारे पास होने का एहसास दिलाती थी ये चिट्ठियाँ।”


(रचना)




 

 

Tuesday, January 30, 2024

सनातन प्रश्न- क्या बनेगा?

‘बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया’ की तरह यह एक सवाल “क्या बनेगा?” हर दो घंटे बाद हम जैसी ‘हसीनों’ के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है।


यह उन हसीनों (गृहिणी) की बात है जिसकी सुबह की शुरुआत ही इस प्रश्न से होती है कि क्या बनेगा? और रात्रि-विश्राम के बाद पुनः वही प्रश्न— क्या बनेगा? दाँत निपोरे अगली सुबह का इंतज़ार करते मिल जाता है। जीवन का सवाल है और जीभ की बात है तो भला इससे बच कर कोई कहाँ जा सकता है? लेकिन है कोई ऐसा प्राणी जो एक बार यह प्रश्न हल कर के इतिहास बना सके? मेरे विचार से अभीतक तो कोई नहीं है।


एक अच्छे स्टूडेंट की तरह वह पूरी लगन और उत्साह के साथ अपनी कॉपी में मतलब रसोई में जाती है। ताजी और महकती हुई पत्तियों से सजाकर एक ही चीज को अलग-अलग कलेवर में बेहतरीन ढंग से गढ़ कर टेबल पर व्यंजनों के समीकरण प्रस्तुत करती है। उपभोगकर्ता द्वारा जिसका उपभोग भी बड़े चाव से किया जाता है। तत्पश्चात उसके चेहरे पर अगाध तृप्ति  का बोध स्पष्ट नमूदार होता है। लेकिन "बच्चा अभी इससे भी बढ़िया कर सकता है (इससे भी अच्छा बन सकता है)" इस जजमेंट के साथ उपभोक्ता अपनी मुस्कुराहट वाली स्याही के छीटें मारते हुए आगे बढ़ लेते हैं।


पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे दो-तीन घंटे बाद आते हैं और फिर वही क्लास शुरू। कुछ 'बढ़िया बनाओ-खिलाओ' की डिमांड डाइनिंग टेबल पर रख जाते हैं। मतलब वह व्यक्ति जो अभी दो घंटे पहले अपना बेस्ट देकर थोड़ी चैन की सांस लेना चाहता है, उसके सामने फिर वही प्रश्न आ जाता है- क्या बनेगा?


इधर यूट्यूब वाले अलग नाक में दम कर रखे हैं। 'सेहतमंद के साथ स्वाद भी भरपूर' का दावा करते हुए तरह-तरह के चैनल खोल रखे हैं। पैतालिस मिनट की डिश अपने चैनल पर तीन मिनट में दिखाकर ये दुनिया को न जाने क्या बताना चाहते हैं...! जैसे इनसे पहले सब भूसा ही खाते रहे हों। अभी एक क्लास ख़त्म नहीं हुई कि चलो अब एक्स्ट्रा कोचिंग में।


अब तो ये बहाना भी नहीं चलता कि फला सामान रसोई में नहीं है। उसकी रीफ़िल के लिए उन्हें कहीं निकल कर नहीं जाना पड़ता है। मन में सोचा नहीं कि तमाम डिलीवरी ब्वाय दरवाज़े की बेल बजाते मिल जाएंगे। मतलब अब किसी भी हाल में यह क्लास वो बंक नहीं कर सकती।

सारा दिन इसी उधेड़-बुन में निकल जाता है और प्रश्न वहीं सिर पर खड़ा रहता है - क्या बनेगा?


(रचना त्रिपाठी)