सप्ताह में रविवार सबसे सुहाना होता है यह मेरा नही गणितज्ञों का मानना है। क्या आपने कभी विचार किया है कि यह दिन इतना सुहाना क्यों होता है?
सप्ताह में ६ दिन काम करने के बाद रविवार की छुट्टी का इंतजार पूरी दुनिया करती है।
जहाँ तक रही गणितज्ञों की बात उनके विचार से मै भी सहमत हूँ जिन्होंने २० लाख ४० हजार ब्लॉगों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि रविवार सप्ताह का सबसे खुशनुमा दिन होता है। एक समाचार एजेन्सी के अनुसार वेरमोन्ट विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में यह सामने आया है कि रविवार हर किसी का पसंदीदा दिन है जबकि बुधवार सबसे खराब।
लेकिन क्या आप ने उन कामकाजी महिलाओं के बारे में सोचा है जो सप्ताह के बाकी दिन दफ्तर में, और छुट्टी के दिन घर के बीच अलग प्रकार का जीवन व्यतीत करती हैं। उनके लिए तो रविवार अतिरिक्त व्यस्तता का दिन होता है।
मैने किसी ब्लॉग पर शोध नही किया है, बल्कि अपने दायें-बायें, आस-पास, बिल्कुल पड़ोस की बात कर रही हूँ। मेरे सामने वाले घर में एक महिला ऑफिसर रहती हैं। इन्हें एक साल का बेटा भी है। मेरे ठीक बगल वाले मकान में एक और महिला ऑफिसर रहती हैं जिनकी करीब १० साल की एक बिटिया है। जैसा कि मै रोज इनको आते-जाते देखती रहती हूँ इसलिए इनकी व्यस्तता का भी अंदाजा लगा सकती हूँ।
दोनों महिलाएं जिनमें एक आई.ए.एस. प्रोबेशनर और दूसरी एक पी.सी.एस. अधिकारी है उनकी दिनचर्या और कार्यशैली देखकर मेरे अंदर आश्चर्य का भाव पैदा हो जाता है। चूँकि एक अच्छी पड़ोसन का धर्म निभाते हुए मेरा इनके घर के भीतर आना जाना है इसलिए प्रायः इनकी सामान्य गतिविधियों की मुझे जानकारी रहती है।
आई.ए.एस. महिला प्रोबेशनर जो आंध्र प्रदेश की रहने वाली है और इनके पति स्वयं सीविल इन्जीनियर हैं एक अच्छी फेमिली से जुड़ी हुई है, मगर सर्विस में उत्तर प्रदेश कैडर मिलते ही वह अपनी बेटी को साथ-साथ लेकर ट्रेनिंग भी करती है। उनका यह कठिन परिश्रम देखकर मै तो दंग रह जाती हूँ।
एक दिन मुझसे नही रहा गया। मै इनसे पूछ बैठी ...कैसे करती है आप यह सब अकेले? उन्होंने कहा, “...मत पूछो, ...मेरी ड्युटी तो सुबह के साढ़े चार बजे से लेकर रात को बारह बजे तक रहती है।” मैने उनको सलाह दिया जबतक आप ट्रेनिंग में हैं तबतक बेटी को उसके पापा के पास ही छोड़ देती। उन्होंने जवाब दिया, “नही... पुरूष यह काम अच्छे से नही कर सकता। रही बात महिलाओं की तो महिलाए हर तरह से सक्षम है। वह कुछ भी कर सकती है।” ...पुरूष के अंदर इतना धैर्य कहां?
मुझे भी यह बात सही लगी। अगर २४ घंटे के लिए बच्चों को उनके पापा के हवाले छोड़ दिया जाय तो इनकी हालत देखने लायक होती है। अगले दिन पता चलेगा ऑफिस से छुट्टी लेकर घर बैठ जाएंगे।
जो महिला एस.डी.एम हैं उन्हें घर के काम का भी अच्छा अनुभव रहा है और इसमें रुचि भी लेती हैं। एक दिन मैं उनसे भी पूछ बैठी, “आप बतायें ...घर के काम और दफ्तर के काम में क्या अंतर है?”
उन्होंने जवाब दिया, “घर का काम बहुत कठिन है...।”
“मैं तो यही समझती थी कि घर का काम आसान होता है... आप लोग कितना मेहनत करते हैं, इतनी कड़ी धूप में बाहर का काम तो और भी कठिन हो जाता होगा।” मैने कहा था।
उन्होंने बड़ी तेजी से सिर हिलाते हुए कहा- “ना ना ना ना... घर का काम बहुत कठिन है। दिमाग भी लगाओ और मेहनत भी... तब भी घर का काम समाप्त नही होता।”
इसके पहले इसी कॉलोनी में बिल्कुल नयी उम्र की एक कुँआरी लड़की भी ट्रेनी ऑफिसर बनकर आयी थी। कितनी खुशमिजाज दिखती रही वह... उसके चेहरे पर किसी तरह की चिन्ता की लकीरे नही दिखाई देती। चेहरे से खुशी टपकी पड़ती थी। यह तेजतर्रार लड़की पहले उसी घर मे रहती थी जिसमें आजकल एक बेटी वाली आईएस महिला रहती है।
एक दिन वह अपने पुराने घर को देखने और उनसे मिलने चली आयी। संयोगवश मै भी पहुँच गयी थी। बहुत खुश लग रही थी। उसके चेहरे की मुस्कान साफ साफ बता रही थी कि उसको अब किसका इंतजार है? लेकिन बात-बात में विवाहिता अधिकारी ने उसे बताया कि अभी जितने मजे कर सकती हो कर लो... शादी के बाद तो यह मुस्कान गुम ही हो जाएगी। यह सुनकर मेरा माथा घूम गया।
आखिर ऐसा क्यों कहा उन्होंने? यह बात मेरे जैसी एक आम गृहिणी करती तो शायद मुझे भी यह वही घिसा-पिटा रिकार्ड लगता। लेकिन एक सक्षम, योग्य और सम्पन्न महिला अधिकारी के मुँह से ऐसा सुनकर मैं आज एक उधेड़बुन मे लगी हूँ।
स्त्री अपने कैरियर की सीढ़ी में चाहे जितनी ऊँचाइयाँ छू ले, लेकिन जब घर-परिवार को सजाने सँवारने और बच्चों के जन्म से लेकर उनकी देखभाल करने का प्रश्न खड़ा होता है तो उसकी जिम्मेदारी बाँटने वाला कोई नहीं होता है। शायद इसीलिए वैवाहिक विज्ञापनों में लड़की के बायोडाटा में ‘गृहकार्य दक्ष’ लिखना अनिवार्य सा लगता है।
(रचना त्रिपाठी)