पीछे पलट कर देखिए तो तीन से चार दशक बाद कितना कुछ बदल गया है। मुझे याद आती है घर की ऊँची ‘देहरी’ और नल के पास पानी के छींटे से बचाव के लिए बनी सीमेंट की ठिगनी दीवाल जिसे ‘दासा’ कहा जाता था। वे अब अतीत में गुम हो गए लगते हैं। उस ऊँची देहली की वजह से छुटपन में कितनी बार आवेग में दौड़ते भागते ठोकर लगा के मुँह के बल गिरना हो जाता था। अमूमन एक बार घायल होने के बाद आदमी संभल जाता है। लेकिन वो आदमी हो तब न! जब कोई बार-बार एक ही जगह एक ही गलती को दुहराती जाए तो ऐसे में घर के बड़ों को झुँझलाहट तो होगी ही। इसी झुँझलाहट में उनके मुँह से अपने लिए कितनी बार ‘ऊपरतक्का’ शब्द सुनने को मिला है। इस शब्द का अर्थ किसी ने बताया नहीं लेकिन हमने अपनी हरकतों से समझ लिया था। आप डिक्शनरी में ढूँढने की कोशिश न करें। वहाँ से कुछ हासिल नहीं होगा। इसी प्रकार ‘खौरा-खापट’ होने की विशेषता ऐसी थी जो हममें जन्मजात थी।
जब दौड़ते-भागते खुद को गिराना और संभालना सीखा उस दौर में रोकते-रोकाते भी मेरी ठोकरों से कितने काँच के बर्तन चकनाचूर हो गए। इसीलिए मैं पूरी तरह ‘ऊपरतक्का’ सिद्ध हो गई। इसी तरह जब कभी घी का जार, चीनी का डब्बा आदि हाथ से छूट कर काँच सहित फ़र्श पर बिखर जाए तब ‘खौरा-खापट’ बन जाती थी।
इन सब हरकतों से उस वक्त प्रायः काँच के कप-ग्लास तो किक लगने से चकनाचूर हो जाया करते थे जिसे बिना वक्त गँवाए घर के लोग तत्काल झाड़ूँ के बहारन में उठा कर उसका अंतिम संस्कार कर के किसी भी खतरे की संभावना से निवृत्त हो लेते थे। कुछ और सोचने की गुंजाइश नहीं होती थी। क्योंकि पहले की रसोई के भीतर बासन का काम नहीं होता था। इसके लिए रसोई से अलग जगह बनी होती थी। अब न तो वैसा घर है, न घर के बीच में आँगन। ‘दासा’ व ‘ताखा’ का तो जैसे नाम ही मिट गया। अब इन बर्तनों को टूटने के लिए वैसा खुला मैदान मिलता ही नहीं है।
लेकिन इन विशेषणों (ऊपर-तक्का और खौरा-खापट) की वजह से उन दिनों की स्मृतियों में वापस खो जाना बड़ा सुखद लगता है।
‘खौराखापट’ का ठीक-ठीक अर्थ क्या है? मुझे भी नहीं मालूम। बहुत जोड़ा घटाया, सन्धि विच्छेद भी करके देखा : खौरा + खापट =?
अब इस उम्र में इन शब्दों से जब भी मेरा सामना होता है तो अपने कारनामे पर मैं खुद को समय के आइने में देखती हूँ। फिर एक लम्बी साँस के साथ बड़ा संतोष महसूस होता है कि कुछ तो तूफ़ानी हमने भी अपने जीवन में किया है। वरना आज के समय के सीमित दायरे का पूरी तरह से व्यवस्थित घर होता तो शायद ‘ऊपरतक्का’ और ‘खौरा-खापट’ शब्द का ईजाद नहीं हो पाया होता ।
इन दोनों शब्दों से मेरा नाता इतना गहरा हो गया था कि इन्हें मैं अपने साथ ससुराल भी लेकर आयी। यदा-कदा अपने बच्चों पर इस्तेमाल भी करती हूँ। हालाँकि इन बच्चों ने कभी कप-ग्लास को फ़ुटबाल की तरह अपने पैरों से नहीं उड़ाया। कभी-कभार इनके हाथों से कप के कोरों में खनक भर लग गयी होगी। कप की हेंडिल टूट गयी होगी। जिससे उसको फेंकने के लिए भी बहुत सोचना पड़ता है। कप की धारी पर खनकने से चाय तो नहीं टपकती लेकिन उसकी सुंदरता बिगड़ जाती है। इस कारण उसे बड़ा मन मसोस के फेंकना पड़ता है। तब याद आता है उस दासे का जहाँ से हम जब कप को किक लगाते थे तो उसको बाहर फेकनें में ज़रा भी मोह-माया नहीं घेरती थी। बस एक झन्नाटेदार आवाज़ “खौरा-खापट कहीं की” सुनने के साथ लगे हाथों उसका क्रिया-करम करके छुट्टी पा लेते थे। ऐसे में जब हमारे बच्चे कप-ग्लास को विकलांग करके छोड़ देते हैं तब उनपर बहुत ग़ुस्सा आता है और तब खुद पर नाज़ होता है कि हम इनकी उम्र में कितने खौरा-खापट थे। इसी बहाने उन बीते दिनों को याद कर के बड़ा सुकून भी मिलता है। अब बच्चे पूछते हैं कि खौरा-खापट क्या होता है तो मन में हल्की मुस्कान के साथ बुदबुदा-कर रह जाती हूँ - जैसी तुम्हारी अल्हड़ मम्मी।
(रचना त्रिपाठी)