कई सालों से जयनरायन बाबा की साध थी, भागवत कथा सुनने की। लेकिन पहले बेटियों की शादी, और फिर अपने टूटे कुल्हे के लम्बे इलाज में इतना टूट गए थे कि इसका बेवँत ही नहीं जुटा पा रहे थे। वैसे भी इनके पास पुरखों की थोड़ी सी जमीन के अलावा कोई दूसरा आर्थिक स्रोत नहीं था। ऐसे में जब उनके घरवालों ने उन्हें भागवत सुनवाने के लिए साइत दिखाकर दीन-बार तय कर दिया तो बाबा की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने इस धार्मिक अनुष्ठान में किस-किस को नहीं बुलाया। जो भाई-भतीजे, नाती-पोते गाँव छोड़कर दूर-दूर शहरों में जा बसे थे उन्हें भी मोबाइल से नेवत डाले। पूरी पटिदारी तो बाबा के घर आयोजित इस बहुप्रतीक्षित भागवत से वैसे ही उत्साहित थी। लेकिन तभी कोरोना का क्षेपक कूद पड़ा।
इस क्षेपक को पुरोहित जी ने पट्टीदारों और परिवार वालों के साथ सिर जोड़कर परे धकेल दिया। यह मान लिया गया कि इस धर्म के कार्य से इस कोरोना का आतप भी मिट जाएगा, सभी स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु हो जाएंगे। इस कथा का इतना बड़ा महात्म्य है कि इससे पूरे जग का कल्याण होगा। इसी मनोकामना से बाबा के घर भागवत ठन गई। पूरा गांव श्रद्धा से भर उठा। गाँव के छोटे-बड़े से ले के जवान-बूढ़, सब मरद-मेहरारू बाबा के घर हो रही भागवत और भजन-कीर्तन में डटे रहे। प्रत्येक दिन के कथा विश्राम के बाद वहाँ भक्तिरस में डूबे लोग जब अपने-अपने घर के लिए प्रस्थान करते तो उनकी छाती तन के इस कदर चौड़ी हो जाती मानो कोरोना को गाँव के सिवान से बाहर लखेद आये हों। उनकी बातों में कुछ उसी प्रकार का गर्व छलकता जैसे हमारे सैनिक चीनियों को सीमा-पार खदेड़ कर महसूस करते है। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, हर हर महादेव- नित्य-प्रति इस जयकारे के साथ पूरा गांव अहो-भाग्य कह के धन्य-धन्य हो जाता। बाबा के घर यह अद्भुत आनंद दुर्लभ था। न भूतो न भविष्यति!
जैसा कि होता है, हर जगह एकाध विघ्नसंतोषी होते ही हैं। यहाँ भी कुछ 'विधर्मी' कुछ न कुछ उल्टा-पुल्टा बोल के सबके मुंह में जाबी (फेस-मास्क) लगाने का ज्ञान बांट रहे थे। वे जैसे ही किसी बूढ़-ठेल मनई को देखते तो कोरोना का राग छेड़कर उनकी आस्था डगमगाने की जुगत भिड़ाते। बोलते - "सरकार ने कोरोना के खतरे से लॉकडाउन कर दिया था। थोड़ी छूट भले ही मिल गई है लेकिन ई कातिल कोरोना जस का तस फैल रहा है। तो बताइए, बाबा को यह भागवत नेवधने की क्या पड़ी थी?" लेकिन किसी ने कान नहीं धरा। वे अपनी 'कुचाल' में नाकाम ही रहे।
पूरे नौ दिन चली भागवत कथा में गाँव वालों ने दिखा दिया कि पूजा-पाठ और भगवत-भजन में कितनी शक्ति होती है। सब कुछ बड़े ढंग से निपट गया। समापन के दिन बड़े प्रेम से हवन-आरती और प्रसाद-वितरण हुआ। बाबा ने सभी रिश्तेदारों से लेकर पटिदारों और गाँव के दूसरे लोगों को भोजन की दावत भी दी थी। उस रात वहाँ खूब अहमक-दहमक भोज-भात हुआ। पूरा गाँव भगवान के साथ जयनरायन बाबा का नाम भी लेता रहा। इससे उन्हें परम सुख की प्राप्ति हुई।
लेकिन दहिजरा कोरोना का खेल तो अभी बाकी ही था!
होत बिहाने गाँव में हल्ला मचा कि भिक्खन के लइका डबलुआ का रिपोर्ट पॉजिटिव आया है। जिसने सुना वही सन्न रह गया। भगवत कथा में अनुष्ठान के संकल्प से लेकर समापन तक उसने अहम भूमिका निभाई थी। उसने पटिदारों की पंगत में बैठकर भोजन भी किया था और बड़े प्रेम से सबको प्रसाद का दोना भी थमाया था।
पूरा गाँव सनपात गया था। सब लोग नौ दिन की चर्या का मानसिक वीडियो उल्टा घुमाकर यह देखने लगे कि डबलुआ कब-कब और कितना उनसे सटा था। उसके नाक सुड़कने, खंखारने और खांसने का वर्णन सबकी जुबान पर आ गया। "मैंने तो उसे टोका था लेकिन दुष्ट ने एक न सुनी।" ऐसा दावा प्रायः सभी करने लगे। जो लोग दूर शहर से नहीं आ सके थे उन्हें भी इस खबर ने दहला दिया। उनके भीतर अपने लिए तो जान बची लाखों पाए का भाव था लेकिन गाँव में फोन मिलाकर अपने परिजनों की कुशलता जाँचने लगे।
गाँव की बुढ़िया काकी जिनके मुंह से नौ दिन भगवान के नाम के अलावा कुछ नहीं निकला था वो आज दुआर पर बैठकर डबलुआ की सात पुस्तों को तार रही थीं। "मुँहझंउसा, अभगवा, लवणा के पूत, कुलबोरना, सबके नासि दिहलस।"
भिक्खन बाबा को भी गरियाने और सरापने वालों ने इतना सुनाया कि उनके कान का कीरा झर गया। पता चला कि उन्होंने खुद ही जब डबलुआ को लाठी लेकर खोजना शुरू किया तो सारे गाँव ने उनके साथ उसे खरहा की तरह उंखियाड़ी से लेकर झंखियाड़ी तक झार डाला। अच्छा हुआ वह किसी के हाथ नहीं आया।
धीरे-धीरे गाँव के लोग भिक्खन के दुवार पर इकठ्ठा होने लगे। बारी-बारी से आने वाले सभी लोग उनसे सफाई माँगते। कब टेस्ट हुआ, क्यों टेस्ट हुआ, जब बीमारी थी तो कुरंटीन क्यों नहीं रक्खे, किस जनम का बदला लिए हो, गाँव भर से क्या दुसमनी थी, लवंडे को कहाँ गाड़ दिए हो, अब गांव भर को कौन बचाएगा, जयनरायन बाबा को जो पाप लगेगा इसका जिम्मेवार कौन होगा, आदि-आदि। भिक्खन को तो काठ मार गया था।
तभी किसी ने चिल्लाकर बताया - डबलुआ कोठा पर लुकाइल बा। चुप्पे से झाँकत रहल हs। पता चला कि वह चुपके से घर की छत पर जाकर छिप गया था और उसने सीढ़ी का दरवाजा बाहर से बंद कर लिया था। सभी लोग उसे ललकारने लगे। वह दुबका रहा। तब कुछ बड़े-बुजुर्ग मनुहार करने लगे। अब डबलू ने डरते-डरते रेलिंग से ऊपर सिर निकाला और चिल्लाकर बोला - हमरा कोरोना नइखे। हम त पासपोर्ट बनवावे खातिर जाँच करौले रहनी। इयार लोग से मजाक में निगेटिव के पॉज़िटिव बता देहनी। उहे लोग उड़ा देहल हs।
(रचना त्रिपाठी)
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