Thursday, September 14, 2023

सबदिन की हिंदी या एक दिन की?

एक वह भी जमाना था जब हम बच्चे न तो ‘क्यूट’ हुआ करते थे और न ही ‘स्मार्ट’। मम्मियों को यह सब मालूम ही नहीं था। वे तो अपनी भाषा में ही बच्चों को नवाजती थीं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनकी हिंदी का कोई एक 'दिवस' होता है और यह दिवस बड़े प्रचार-प्रसार से मनाया जाना होता है। 


उन्हें अपने बच्चे या तो बकलोल लगते थे या बहुत बदमाश। चंचल होते थे या गबद्दू। बुड़बक होते थे या चलबिद्धर। चुप्पा होते थे या बकबकहा। दब्बू होते थे या झगरहा। चतुर होते थे या भोंदू। सोझबक होते थे या लंठ। सालों साल ऐसे ही परिचय कराया जाता था। लेकिन जबसे बच्चे क्यूट, स्मार्ट, लवी-डवी, शार्प, मैनर्ड और एटिकेट्स वाले हो गये हैं शायद तभी से यह हिंदी-दिवस सिकुड़कर एक दिन का हो गया। 


हम तो क्यूट-स्वीट की गिटपिट से बेखबर रहते हुए ही बड़े हो गए। आजकल का चलन ऐसा हो गया है कि हम लगभग भूल ही गये हैं अपनी उस दुलारी हिंदी को जिसके साथ रगड़े जाने का हमारा दिन-रात का नाता था।


बच्चे अपनी माताओं को जब आजिज़ कर देते थे तो वे अपनी अनोखी हिंदी के अद्भुत भावप्रवण शब्दों का तबतक बौछार करती थीं जबतक बच्चे को पूरी प्रतीति न हो जाय। यह उत्सव प्रायः रोज ही होता था। माताएं तबतक चैन नहीं पाती थीं जबतक भाषा संपदा का पूरा उत्सव मनाकर  समाप्त न कर लें। उनके कुछ शब्द तो आज भी हमारे कानों में एक मधुर संगीत की तरह बजते रहते हैं। उनमें से एक था- लतखोरवा। जब चाहें तब ऐसे मनाये जाते थे हिंदी के दिवस।


आज जब एक दिन का उत्सव होता है तो हमें बड़ा अटपटा सा लगता है। ऐसा लगता है कि काल-कवलित होने से बाल-बाल बचायी जा रही हो हिंदी।


(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, September 5, 2023

ढक्कन-ए-सिन्होरा

विवाह के समय में बहुत कुछ नया-नया मिलता है। इसमें सिन्होरा का बड़ा महत्व है। इसकी ख़रीदारी करते हैं दुल्हन के भावी जेठ जी। लेकिन खरीदते समय उसके ढक्कन को चेक करना वर्जित होता है। एक बार जो हाथ लगा उसी को मोल करना होता है। अब यह ढक्कन सिन्होरा पर कैसे फिट बैठता है यह किस्मत का खेल है। किस्मत दूल्हा-दुल्हन की, उनके बीच प्रेम-संबंध की। 


लकड़ी से बने गोल-मटोल सिन्होरे के दो पार्ट होते हैं। पहला मुख्य पार्ट जिसमें पीला सिंदूर रखा जाता है, और दूसरा उसका ढक्कन, जो उसके ऊपर ठीक से बंद होता ही हो यह जरूरी नहीं। 


हमारी तरफ़ सिन्होरे के ढक्कन का फिट होना या ना होना, या कम फिट होना पति-पत्नी के बीच प्रेम का पैरामीटर है। यदि सिन्होरे का ढक्कन ख़ूब टाइट बंद होता है और बहुत ज़बरदस्ती करने पर खुलता है, तो माना जाता है कि उस दंपति में बहुत गहरा प्रेम है। जिसका ढक्कन ढीला होता है और इधर-उधर छिटक जाने की संभावना के कारण बहुत सँभाल कर रखना पड़ता है तो ऐसा कहा जाता है कि ऐसे दंपति में प्रेम के साथ आपसी सद्भाव भी बना रहे इसके लिए बड़ा सँभाल के चलना पड़ता है। जिस स्त्री के सिन्होरे का ढक्कन बंद ही न होता हो तो उसका भगवान ही मालिक है।  


अब ऐसे में यदि किसी के सिन्होरे का ढक्कन विवाह के पश्चात ऐसा बंद हुआ कि अब खुलता ही नहीं है तो ऐसे प्रेम को क्या कहिएगा?

इस अद्भुत रहस्य की खोज में नासा या इसरो के वैज्ञानिकों का कोई हाथ नहीं है। यह हमारे पुरखे-पुरनियों का अलौकिक विज्ञान है। जिन्होंने हमें पति को कैसे हैंडल करना है ये नहीं बताया लेकिन अपने सिन्होरे को कैसे सँभालकर रखना है यह जरूर बताया। पति तो ख़ुद-ब-ख़ुद सही हो जाएगा।


मुझे अपने सिन्होरे को हर बार ठोक-पीट कर बंद करना पड़ता है। लेकिन थोड़े प्रयास से यह भली-भाँति बंद जरूर हो जाता है। इसके बावजूद इसे एक मज़बूत कपड़े में बांधकर मुनिया में बंद कर के रखती हूँ। (अब 'मुनिया' क्या होती है यह मत पूछिएगा नहीं तो एक नई पोस्ट लिखनी होगी।)


फिलहाल आज हल-छठ है तो मैंने अपने सिन्होरे की फिर से ओवरहालिंग कर लिया है। अब बताइए आपने कैसे रखा है अपना ढक्कन-ए-सिन्होरा?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, August 29, 2023

दिल चाँद सा है मेरा

दिल चाँद सा है मेरा, सनम 

उतरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


रखो ना हकतलफ़ी इतनी 

अभी ठहरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


छप जाएँगे वे इश्किया 

अभी लिखो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


दिल चाँद सा है मेरा…

(रचना त्रिपाठी)


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Thursday, June 15, 2023

आपके पास कथरी बची है क्या?

ऐसा कहा जाता है कि इंसान जबतक अभाव में रहता है तबतक किसी के प्रभाव में रहता है। मतलब मजबूरी में ही अधीनता सही जाती है। समझौता किया जाता है। जो पसंद न हो उसे भी निभाया जाता है। लेकिन सब चीजों के साथ ऐसा नहीं है। कुछ चीजों का प्रभाव ऐसा होता है कि ज़िंदगी भर ख़त्म नहीं होता। भले ही कोई मजबूरी न रह गयी हो। ऐसी ही एक अमूल्य चीज है हमारी ये 'कथरी'। 


यह पुराने पड़ चुके कपड़ों को मोटी सुई व धागे से गूलकर बनाया हुआ सिर्फ़ एक कामचलाऊ बिछावन भर नहीं है। यह एक लंबे समय, बड़े कालखंड व पीढ़ी-अंतराल बीत जाने के बावजूद न जाने कितने रिश्तों की मुलायमियत को ख़ुद में समेटे हुए बहुत सी सुनहरी यादों का समुच्चय है। कितनी ही बतकही, हँसी-ठिठोली, बच्चों की मालिश की रगड़ से लेकर उनकी चें-पें तक, अकेलेपन की गुनगुनाहट और नींद के खर्राटों तक कितनी ही ध्वनियों की तरंगे इसमें समायी हुई हैं। तभी तो शांत पड़ी हुई भी यह बोलती सी लगती है।



नियमित तबादलों के चक्कर में हम कहीं भी रहे, यह हर मौसम में अपनी मौजूदगी और महत्व को महसूस कराती रहती है। दूर रहकर भी सबके क़रीब रहने का एक सुखद एहसास है ये कथरी। यह पुरानी धोतियों, सूती साड़ियों और कुछ दूसरे रिटायर हो चुके कपड़ों के मेल से बनी हुई 'बेस्ट ऑफ द वेस्ट' घरेलू उत्पाद है। इसमें एक धागे को छोड़कर कुछ भी नया नहीं लगा है। लेकिन जब-जब मैं इसके साथ होती हूँ तब-तब सब कुछ नया-नया सा लगता है। जैसे यह कल की ही बात हो। 


नयी नवेली दुल्हन थी जब रात के अंधेरे में घूँघट काढ़े एक हाथ में टॉर्च और दूसरे हाथ में कथरी दबाए, छुम-छुम पायल की आवाज़ करते घर की सीढ़ियों से चढ़ती और छत पर जाकर एक कोने में अपनी कथरी बिछाकर लेट ज़ाया करती थी। गाँव में बिजली बाद में आयी। नियमित आपूर्ति तो और बाद में आयी। लेकिन यह कथरी पहले भी थी और बाद में भी बदस्तूर सेवारत है।


उन दिनों छत पर चारपाई चढ़ाने की जरूरत तो नहीं ही थी, मच्छरदानी की ज़रूरत भी नहीं थी। अभी नयी-नयी दुल्हन बनकर आयी थी तो सिर से पाँव तक साड़ी में लिपटी रहती थी। जब छत पर सोना होता था तो और विशेष सावधानी बरतनी होती थी कि कहीं सोते वक्त मुँह खुल गया तो ससुराल में अगले दिन बात फैल बनती कि दुलहिन तो मुँह-बा के सोती हैं। इसलिए सोते वक्त भी चेहरे को ख़ूब अच्छे से ढँक लेती थी कि कोई देखने न पाए। उस हालात में मच्छर क्या, मच्छर के दादाजी भी मेरा मुँह नहीं देख पाते।


मेरा एक बड़ा परिवार था ससुराल का। जहाँ एक जोड़ी जेठ और ननदों व देवरों का एक जत्था था। उसमें भी एक जोड़ा ससुर का और एक जोड़ी सास का तो किसी भी वक्त ऊपर नीचे आना-जाना लगे रहता था। ग्रामीण परिवेश के घर में कर्ता-धर्ता वही लोग थे। भोर में तीन बजे से ही उठकर नल पर खटर-पटर और झाड़ू-बहारू शुरू हो जाता था। ऐसे में यह कथरी ही एकांत में आश्रय देती थी।


जून 1999 की गर्मी में जब मैं पहली बार ससुराल के गाँव में गयी तो वहाँ बिजली पहुँची ही नहीं थी। हाथ का पंखा और फर्श पर बिछी कथरी का साथ स्थायी हो गया। मेरी सासू-माँ ने अपने हाथ से बनाई हुई नयी कथरी मुझे थमाते हुए समझाया था कि यहाँ जबतक बिजली पंखा नहीं आ जाता तबतक सबसे अच्छी नींद इसी कथरी पर आएगी। हल्की, मुलायम, आरामदेह और पोर्टेबल। जहाँ चाहो बिछा लो और जैसे चाहो इस्तेमाल करो। तबसे अबतक बहुत कुछ बदल गया है। बिजली, पंखा, कूलर और एसी भी आया लेकिन यह कथरी आज भी मेरे साथ है। 


सरकारी नौकरी में तबादलों की श्रृंखला शुरू हुई तो चूल्हा-चौका एवं अन्य सामानों के साथ गाँव से अलग गृहस्थी सम्हालने के लिए जब हम विदा हुए तो इस कथरी से मेरा मोह नहीं छूटा। सासू-माँ ने अपने बेटे के साथ-साथ मुझे यह जो दूसरा अमूल्य उपहार दिया था वह बदस्तूर मेरा साथ लगातार देता आ रहा है। बहुत कम देखभाल की जरूरत के बावजूद समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी मैंने खूब किया है।


मैं आज इसके पुनरूद्धार में लगी हूँ। जमाने की रफ़्तार के हिसाब से सबने अपना हुलिया बदल लिया है तो हमारी कथरी क्यों न बदले! सोच रही हूँ इसे एक नया कलेवर दे ही दूँ। वैसे उम्र का असर तो प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु पर होता ही है। इसपर भी हुआ है। इसकी हालत ऐसी नहीं होती है कि इसको सार्वजनिक स्थल पर मतलब दर्जी के यहाँ ले ज़ाया जाए। 


कथरी की महत्ता और इसका सम्मान भी इसी में है कि इसे ज़मीन पर फैलाकर अपने हाथों से सिला जाय। इसके ऊपर एक साफ़-सुथरी पुरानी सूती धोती चढ़ाई जाए तो बात बने। इसको चाहे जितना नया खोल पहना दूँ, रंग बिरंगा रूप दे दूँ लेकिन मुझे लग रहा है कि इससे वह एहसास, वैसी मुलायमियत की फीलिंग दुबारा नहीं आ सकती जो पुरानी बनावट में आती थी।


(रचना त्रिपाठी)

Friday, June 9, 2023

बच्चों की बड़ाई

आज के अभिभावकों में बच्चों की कोमल भावनाओं की सुरक्षा को लेकर विशेष सजगता देखने को मिलती है। उन्हें स्पेशल फील कराने के लिए बेचारों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। कितनी बार उन्हें स्कूल में जाकर टीचर से बहस करते देखा है कि ऐसे कैसे उनके बच्चे को डाँट लगा दी गयी। 


बाल मनोविज्ञान कदाचित् यही कहता है कि बच्चे में आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच विकसित करने के लिए उनकी प्रशंसा का कोई मौका गँवाना नहीं चाहिए। अभिभावक ये समझते हैं कि रात-दिन क़सीदे पढ़ते रहने से ही उनके बच्चे का व्यक्तित्व महान बनेगा। शायद इसलिए वे उनके मनोबल का ख़्याल ऐसे रखते हैं, जैसे घर की बड़ी-बूढ़ियां अचार की घइली का ख़्याल करती हैं। परन्तु उसे समय समय पर उलट-पलट कर धूप दिखाना जरूरी होता है नहीं तो कभी भी फफूंद लग सकती है।


अनुशासन में लाने के लिए जहाँ सख़्ती बरतने से ही काम बनता हो वहाँ भी आजकल के माता-पिता अपने बच्चों से बेहद नरमी से बर्ताव करते हैं। नतीजा चाहे जो हो, बस बच्चे के मन को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। कठोर व्यवहार से आजकल के बच्चों का सामना न के बराबर होता है। पश्चिमी देशों में तो इसके विरुद्ध कठोर कानून तक बन चुके हैं। शायद इसी लिए उनको धीरे का झटका भी ज़ोर से महसूस होता है। यानि छोटी-छोटी बात भी उनके लिए बहुत बड़ी बन जाती है।

 

एक हमारा बचपन था- आज के दौर से बिल्कुल अलग। इतना अलग था कि आज के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।  हमने अपने माता-पिता को कभी किसी के सामने अपनी प्रशंसा करते नहीं सुना। शायद तब इसकी जरूरत नहीं समझी जाती थी। फिर भी हमारा बचपन बड़ा सलोना था। आज याद करने के लिए बहुत सी ऐसी घटनाएँ हैं जो आजकल के बच्चे सोच भी नहीं सकते। हम कब गिरे, किससे लड़े, क्यों रोये, कहाँ जीते, कहाँ हारे, स्कूल में गुरुजी ने मारा तो क्यों मारा, घर के बड़ों के सामने यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता था। शायद हमारी परवरिश ही ऐसी रही कि हम ऐसी छोटी-मोटी समस्याओं को खेल-खेल में ही सुलटा लेते थे और उन्हें कानों-कान ख़बर ही नहीं होती थी। यह सब हमारा निजी मामला होता था और इसे माता-पिता तक ले जाने से हम बचना चाहते थे। कई बार उनके प्रशंसात्मक लहजे में भी एक तरह की डांट का पुट ऐसा मिला होता था कि उससे हम ज़रूर बचना चाहते थे- वही प्रशंसा के बोल जिसकी चाहत में आज के बच्चे क्या-क्या नहीं कर जाते! बच्चों को एप्रिशिएट करना आज के अभिभावक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी हो गयी है। चूक गए तो उल्टे शिकायत सुननी पड़ सकती है।


हमारी नींव इनसे बहुत अलग पड़ी थी। हमारे अभिभावकों का प्रशंसा करने का अन्दाज़ बेहद अजीब था। वे हमारे अनाड़ीपन और अन्य कमियों को ही प्रशंसात्मक लहजे में कोसते थे। इसके विपरीत हमारी  प्रवीणता और उपलब्धियों को बहुत साधारण तरीके से लिया जाता था। आज की तरह बढ़ा-चढ़ाकर कहने की बात कल्पना से परे थी। 


हमारे चंचल बालमन को कैसे दुरुस्त रखना है इसके लिए उनका अन्दाज़ भी बहुत निराला था। जब-जब उनके मुँह से हमारे लिए प्रशंसा के बोल फूटे तब-तब हमारी इंद्रियाँ सचेत हुईं कि खुद को और बेहतर बनाने का प्रयास करना होगा। प्रशंसा की कौन पूछे, उनकी सीधी नज़र ही हमारी क़ाबिलियत का एहसास करा देती थी। बस उनकी नज़र हम पर टेढ़ी न होने पाए इसी में हम ख़ुद को प्रशंसनीय समझ लेते थे। 


उनकी निगाहें बिना किसी टोकाटाकी के हम पर कब सीधी पड़ी थीं,  इसे किसी अद्भुत घटना की तरह हम ज़रूर याद रखते थे। यही हमें अपने रहन-सहन में सुधार करने की प्रेरणा देता था, न कि कोई लेमनचूस या लॉलीपॉप।


सामान्य तौर पर तो वे हमारे दिलो-दिमाग़ को अपने कठोर और व्यंग भरे प्रशंसात्मक औज़ारों से ऐसा बींधते रहते थे कि हम आज भी किसी से अपनी मधुर प्रशंसा की अपेक्षा नहीं रखते हैं। बल्कि प्रशंसा के लिए प्रशंसनीय कार्य करते-रहने का हमारे ऊपर कोई नैतिक दबाव नहीं था। बल्कि हम जब चाहें तब कुछ भी उल्टा-सीधा, गड़बड़-सड़बड़ करके उनके मुख से वही बोल सुन सकते थे जिसके लिए आज के बच्चे हर समय कुछ भी साधारण या अच्छा करने के बाद साधिकार उनकी ओर देखते रहते हैं— “वाह बेटा… !! बहुत बढ़िया…!!  शानदार… !! ग़ज़ब कर दिखाया… !! कमाल कर दिया…!! हमें तुमसे यही उम्मीद थी… !! तुमको तो इनाम देना चाहिए….!! हमें नाज है तुमपर...” बस इन जुमलों से तब कुछ और ही अर्थ ध्वनित होता था।


यदि खेल-खेल में खुद को चोट-चपेट लगा बैठे, हाथ-पैर या मुँह फुड़वाकर घर लौटे तो देखते ही मलहम-पट्टी कौन पूछता, पहले भर पेट अपाच्य प्रशंसा की खुराक ही मिलती थी- “शाबाश बेटा…!! शकल कितनी सुंदर बना रखी है, मुँह थोड़ा और सुजा आते तो और बढ़िया लगता…!!” कभी सुबह जगने में देर हुई तो- “आज बड़ा जल्दी जग गए बेटा!” इतना सुनने के बाद अगले दिन सही में जल्दी जागने का संकल्प लिए पूरा दिन उनसे मुँह चुराए फिरते थे।


बचपन से अपनी बड़ाई में इन शब्दों को सुनकर हम इतना अघा चुके हैं कि आज हमारी प्रशंसा में कोई सच्चे क़सीदे भी पढ़े तो व्यंग्य लगता है। 

कहा जाता है कि किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती। तब हम खुद के प्रति अविश्वास में जीते थे और आज की पीढ़ी अतिविश्वास में जी रही है। दोनों ही बातें कोमल मन के बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिए ठीक नहीं है। आज के अभिभावकों को एक मध्यम-मार्ग चुनना चाहिए।

(रचना त्रिपाठी)