आज के अभिभावकों में बच्चों की कोमल भावनाओं की सुरक्षा को लेकर विशेष सजगता देखने को मिलती है। उन्हें स्पेशल फील कराने के लिए बेचारों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। कितनी बार उन्हें स्कूल में जाकर टीचर से बहस करते देखा है कि ऐसे कैसे उनके बच्चे को डाँट लगा दी गयी।
बाल मनोविज्ञान कदाचित् यही कहता है कि बच्चे में आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच विकसित करने के लिए उनकी प्रशंसा का कोई मौका गँवाना नहीं चाहिए। अभिभावक ये समझते हैं कि रात-दिन क़सीदे पढ़ते रहने से ही उनके बच्चे का व्यक्तित्व महान बनेगा। शायद इसलिए वे उनके मनोबल का ख़्याल ऐसे रखते हैं, जैसे घर की बड़ी-बूढ़ियां अचार की घइली का ख़्याल करती हैं। परन्तु उसे समय समय पर उलट-पलट कर धूप दिखाना जरूरी होता है नहीं तो कभी भी फफूंद लग सकती है।
अनुशासन में लाने के लिए जहाँ सख़्ती बरतने से ही काम बनता हो वहाँ भी आजकल के माता-पिता अपने बच्चों से बेहद नरमी से बर्ताव करते हैं। नतीजा चाहे जो हो, बस बच्चे के मन को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। कठोर व्यवहार से आजकल के बच्चों का सामना न के बराबर होता है। पश्चिमी देशों में तो इसके विरुद्ध कठोर कानून तक बन चुके हैं। शायद इसी लिए उनको धीरे का झटका भी ज़ोर से महसूस होता है। यानि छोटी-छोटी बात भी उनके लिए बहुत बड़ी बन जाती है।
एक हमारा बचपन था- आज के दौर से बिल्कुल अलग। इतना अलग था कि आज के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हमने अपने माता-पिता को कभी किसी के सामने अपनी प्रशंसा करते नहीं सुना। शायद तब इसकी जरूरत नहीं समझी जाती थी। फिर भी हमारा बचपन बड़ा सलोना था। आज याद करने के लिए बहुत सी ऐसी घटनाएँ हैं जो आजकल के बच्चे सोच भी नहीं सकते। हम कब गिरे, किससे लड़े, क्यों रोये, कहाँ जीते, कहाँ हारे, स्कूल में गुरुजी ने मारा तो क्यों मारा, घर के बड़ों के सामने यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता था। शायद हमारी परवरिश ही ऐसी रही कि हम ऐसी छोटी-मोटी समस्याओं को खेल-खेल में ही सुलटा लेते थे और उन्हें कानों-कान ख़बर ही नहीं होती थी। यह सब हमारा निजी मामला होता था और इसे माता-पिता तक ले जाने से हम बचना चाहते थे। कई बार उनके प्रशंसात्मक लहजे में भी एक तरह की डांट का पुट ऐसा मिला होता था कि उससे हम ज़रूर बचना चाहते थे- वही प्रशंसा के बोल जिसकी चाहत में आज के बच्चे क्या-क्या नहीं कर जाते! बच्चों को एप्रिशिएट करना आज के अभिभावक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी हो गयी है। चूक गए तो उल्टे शिकायत सुननी पड़ सकती है।
हमारी नींव इनसे बहुत अलग पड़ी थी। हमारे अभिभावकों का प्रशंसा करने का अन्दाज़ बेहद अजीब था। वे हमारे अनाड़ीपन और अन्य कमियों को ही प्रशंसात्मक लहजे में कोसते थे। इसके विपरीत हमारी प्रवीणता और उपलब्धियों को बहुत साधारण तरीके से लिया जाता था। आज की तरह बढ़ा-चढ़ाकर कहने की बात कल्पना से परे थी।
हमारे चंचल बालमन को कैसे दुरुस्त रखना है इसके लिए उनका अन्दाज़ भी बहुत निराला था। जब-जब उनके मुँह से हमारे लिए प्रशंसा के बोल फूटे तब-तब हमारी इंद्रियाँ सचेत हुईं कि खुद को और बेहतर बनाने का प्रयास करना होगा। प्रशंसा की कौन पूछे, उनकी सीधी नज़र ही हमारी क़ाबिलियत का एहसास करा देती थी। बस उनकी नज़र हम पर टेढ़ी न होने पाए इसी में हम ख़ुद को प्रशंसनीय समझ लेते थे।
उनकी निगाहें बिना किसी टोकाटाकी के हम पर कब सीधी पड़ी थीं, इसे किसी अद्भुत घटना की तरह हम ज़रूर याद रखते थे। यही हमें अपने रहन-सहन में सुधार करने की प्रेरणा देता था, न कि कोई लेमनचूस या लॉलीपॉप।
सामान्य तौर पर तो वे हमारे दिलो-दिमाग़ को अपने कठोर और व्यंग भरे प्रशंसात्मक औज़ारों से ऐसा बींधते रहते थे कि हम आज भी किसी से अपनी मधुर प्रशंसा की अपेक्षा नहीं रखते हैं। बल्कि प्रशंसा के लिए प्रशंसनीय कार्य करते-रहने का हमारे ऊपर कोई नैतिक दबाव नहीं था। बल्कि हम जब चाहें तब कुछ भी उल्टा-सीधा, गड़बड़-सड़बड़ करके उनके मुख से वही बोल सुन सकते थे जिसके लिए आज के बच्चे हर समय कुछ भी साधारण या अच्छा करने के बाद साधिकार उनकी ओर देखते रहते हैं— “वाह बेटा… !! बहुत बढ़िया…!! शानदार… !! ग़ज़ब कर दिखाया… !! कमाल कर दिया…!! हमें तुमसे यही उम्मीद थी… !! तुमको तो इनाम देना चाहिए….!! हमें नाज है तुमपर...” बस इन जुमलों से तब कुछ और ही अर्थ ध्वनित होता था।
यदि खेल-खेल में खुद को चोट-चपेट लगा बैठे, हाथ-पैर या मुँह फुड़वाकर घर लौटे तो देखते ही मलहम-पट्टी कौन पूछता, पहले भर पेट अपाच्य प्रशंसा की खुराक ही मिलती थी- “शाबाश बेटा…!! शकल कितनी सुंदर बना रखी है, मुँह थोड़ा और सुजा आते तो और बढ़िया लगता…!!” कभी सुबह जगने में देर हुई तो- “आज बड़ा जल्दी जग गए बेटा!” इतना सुनने के बाद अगले दिन सही में जल्दी जागने का संकल्प लिए पूरा दिन उनसे मुँह चुराए फिरते थे।
बचपन से अपनी बड़ाई में इन शब्दों को सुनकर हम इतना अघा चुके हैं कि आज हमारी प्रशंसा में कोई सच्चे क़सीदे भी पढ़े तो व्यंग्य लगता है।
कहा जाता है कि किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती। तब हम खुद के प्रति अविश्वास में जीते थे और आज की पीढ़ी अतिविश्वास में जी रही है। दोनों ही बातें कोमल मन के बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिए ठीक नहीं है। आज के अभिभावकों को एक मध्यम-मार्ग चुनना चाहिए।
(रचना त्रिपाठी)
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