Thursday, June 15, 2023

आपके पास कथरी बची है क्या?

ऐसा कहा जाता है कि इंसान जबतक अभाव में रहता है तबतक किसी के प्रभाव में रहता है। मतलब मजबूरी में ही अधीनता सही जाती है। समझौता किया जाता है। जो पसंद न हो उसे भी निभाया जाता है। लेकिन सब चीजों के साथ ऐसा नहीं है। कुछ चीजों का प्रभाव ऐसा होता है कि ज़िंदगी भर ख़त्म नहीं होता। भले ही कोई मजबूरी न रह गयी हो। ऐसी ही एक अमूल्य चीज है हमारी ये 'कथरी'। 


यह पुराने पड़ चुके कपड़ों को मोटी सुई व धागे से गूलकर बनाया हुआ सिर्फ़ एक कामचलाऊ बिछावन भर नहीं है। यह एक लंबे समय, बड़े कालखंड व पीढ़ी-अंतराल बीत जाने के बावजूद न जाने कितने रिश्तों की मुलायमियत को ख़ुद में समेटे हुए बहुत सी सुनहरी यादों का समुच्चय है। कितनी ही बतकही, हँसी-ठिठोली, बच्चों की मालिश की रगड़ से लेकर उनकी चें-पें तक, अकेलेपन की गुनगुनाहट और नींद के खर्राटों तक कितनी ही ध्वनियों की तरंगे इसमें समायी हुई हैं। तभी तो शांत पड़ी हुई भी यह बोलती सी लगती है।



नियमित तबादलों के चक्कर में हम कहीं भी रहे, यह हर मौसम में अपनी मौजूदगी और महत्व को महसूस कराती रहती है। दूर रहकर भी सबके क़रीब रहने का एक सुखद एहसास है ये कथरी। यह पुरानी धोतियों, सूती साड़ियों और कुछ दूसरे रिटायर हो चुके कपड़ों के मेल से बनी हुई 'बेस्ट ऑफ द वेस्ट' घरेलू उत्पाद है। इसमें एक धागे को छोड़कर कुछ भी नया नहीं लगा है। लेकिन जब-जब मैं इसके साथ होती हूँ तब-तब सब कुछ नया-नया सा लगता है। जैसे यह कल की ही बात हो। 


नयी नवेली दुल्हन थी जब रात के अंधेरे में घूँघट काढ़े एक हाथ में टॉर्च और दूसरे हाथ में कथरी दबाए, छुम-छुम पायल की आवाज़ करते घर की सीढ़ियों से चढ़ती और छत पर जाकर एक कोने में अपनी कथरी बिछाकर लेट ज़ाया करती थी। गाँव में बिजली बाद में आयी। नियमित आपूर्ति तो और बाद में आयी। लेकिन यह कथरी पहले भी थी और बाद में भी बदस्तूर सेवारत है।


उन दिनों छत पर चारपाई चढ़ाने की जरूरत तो नहीं ही थी, मच्छरदानी की ज़रूरत भी नहीं थी। अभी नयी-नयी दुल्हन बनकर आयी थी तो सिर से पाँव तक साड़ी में लिपटी रहती थी। जब छत पर सोना होता था तो और विशेष सावधानी बरतनी होती थी कि कहीं सोते वक्त मुँह खुल गया तो ससुराल में अगले दिन बात फैल बनती कि दुलहिन तो मुँह-बा के सोती हैं। इसलिए सोते वक्त भी चेहरे को ख़ूब अच्छे से ढँक लेती थी कि कोई देखने न पाए। उस हालात में मच्छर क्या, मच्छर के दादाजी भी मेरा मुँह नहीं देख पाते।


मेरा एक बड़ा परिवार था ससुराल का। जहाँ एक जोड़ी जेठ और ननदों व देवरों का एक जत्था था। उसमें भी एक जोड़ा ससुर का और एक जोड़ी सास का तो किसी भी वक्त ऊपर नीचे आना-जाना लगे रहता था। ग्रामीण परिवेश के घर में कर्ता-धर्ता वही लोग थे। भोर में तीन बजे से ही उठकर नल पर खटर-पटर और झाड़ू-बहारू शुरू हो जाता था। ऐसे में यह कथरी ही एकांत में आश्रय देती थी।


जून 1999 की गर्मी में जब मैं पहली बार ससुराल के गाँव में गयी तो वहाँ बिजली पहुँची ही नहीं थी। हाथ का पंखा और फर्श पर बिछी कथरी का साथ स्थायी हो गया। मेरी सासू-माँ ने अपने हाथ से बनाई हुई नयी कथरी मुझे थमाते हुए समझाया था कि यहाँ जबतक बिजली पंखा नहीं आ जाता तबतक सबसे अच्छी नींद इसी कथरी पर आएगी। हल्की, मुलायम, आरामदेह और पोर्टेबल। जहाँ चाहो बिछा लो और जैसे चाहो इस्तेमाल करो। तबसे अबतक बहुत कुछ बदल गया है। बिजली, पंखा, कूलर और एसी भी आया लेकिन यह कथरी आज भी मेरे साथ है। 


सरकारी नौकरी में तबादलों की श्रृंखला शुरू हुई तो चूल्हा-चौका एवं अन्य सामानों के साथ गाँव से अलग गृहस्थी सम्हालने के लिए जब हम विदा हुए तो इस कथरी से मेरा मोह नहीं छूटा। सासू-माँ ने अपने बेटे के साथ-साथ मुझे यह जो दूसरा अमूल्य उपहार दिया था वह बदस्तूर मेरा साथ लगातार देता आ रहा है। बहुत कम देखभाल की जरूरत के बावजूद समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी मैंने खूब किया है।


मैं आज इसके पुनरूद्धार में लगी हूँ। जमाने की रफ़्तार के हिसाब से सबने अपना हुलिया बदल लिया है तो हमारी कथरी क्यों न बदले! सोच रही हूँ इसे एक नया कलेवर दे ही दूँ। वैसे उम्र का असर तो प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु पर होता ही है। इसपर भी हुआ है। इसकी हालत ऐसी नहीं होती है कि इसको सार्वजनिक स्थल पर मतलब दर्जी के यहाँ ले ज़ाया जाए। 


कथरी की महत्ता और इसका सम्मान भी इसी में है कि इसे ज़मीन पर फैलाकर अपने हाथों से सिला जाय। इसके ऊपर एक साफ़-सुथरी पुरानी सूती धोती चढ़ाई जाए तो बात बने। इसको चाहे जितना नया खोल पहना दूँ, रंग बिरंगा रूप दे दूँ लेकिन मुझे लग रहा है कि इससे वह एहसास, वैसी मुलायमियत की फीलिंग दुबारा नहीं आ सकती जो पुरानी बनावट में आती थी।


(रचना त्रिपाठी)

2 comments:

  1. मैं एक छात्र हूं।
    जो कथरी पर ही सोता हूं।

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  2. मैं इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई करता हूं और कथरी पर ही सोता हूं।
    इलाहाबाद के ग्रामीण क्षेत्र से हूं।

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