मर्दानी फिल्म में रानी मुखर्जी ने औरत होते हुए भी जब बड़े-बड़े मुस्टंडो को मार-मार के बेहाल कर दिया, उनके हाथ-पैर तोड़कर जमीन पर लिटा दिया तो हॉल में तालियाँ बजाने वालों की कमी नहीं थी। खुश तो हम भी हुए; लेकिन बस थोड़ी देर के लिए। बाहर निकले तो जमीनी सच्चाई के बारे में सोचने लगे जो बिल्कुल अलग है।
जब मैं कक्षा ग्यारह में पढ़ती थी, अपने-आप को पी.टी. ऊषा से कम नहीं समझती थी। कहने का मतलब मैं धाविका थी। स्कूल की एथलेटिक्स चैम्पियन; जिससे मुझे यह गलतफहमी हमेशा बनी रहती थी कि मैं अपने भाइयों से बहुत ज्यादा ताकतवर हूँ। बात–बात पर अपने भाइयों को चैलेंज दिया करती थी- मुझसे तेज दौड़कर दिखाओ..चलो मुझसे पंजा लड़ाओ। तब वे शायद मुझे खुश करने के लिए कह दिया करते थे - “तुम मुझसे ज्यादा तेज दौड़ती हो और ताकतवर भी हो, हमें हरा दोगी।” यह कहकर वे मुझसे रेस करने से पहले ही हार मान जाया करते थे। मैं इस मुगालते में लम्बे समय तक अकड़ी रहती थी। मुझसे मात्र डेढ़ साल का छोटा था मेरा भाई जिससे मेरे अक्सर दो-दो हाथ हो जाया करते थे।
एक दिन की बात है। उससे मेरी खूब जमकर लड़ाई हुई। मैं लगातार उसे अपने दोनो हाथों से मुक्के जड़ी जा रही थी। घर में पापा की सख़्त हिदायत थी कि कोई भी छोटा (भाई/ बहन) अपने से बड़े के ऊपर हाथ नहीं उठाएगा। पापा के इस निर्देश की मुझे याद दिलाते हुए वह कह रहा था पापा ने ऐसा कहा है इसलिए मैं तुम्हारे ऊपर हाथ नहीं उठा रहा हूँ; वरना...। मैं फिर भी नहीं रुकी तो उसने आखिरी चेतावनी दी, “दीदी, मै जब तुम्हें मारुंगा तो नानी याद आ जाएंगी।” मैं बहुत आश्वस्त थी कि वह मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाएगा और अगर उठाता भी है तो मैं उसपर भारी पड़ूंगी। लेकिन मैं गलत थी। जब मेरी मार भाई के बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उसने मेरा दाहिना हाथ कलाई से पकड़ लिया, ऐंठकर मेरी पीठ के पीछे कर दिया और धम्म से दे मारा एक ‘जोरदार मुक्का’ मेरे पीठ पर।बस, फिर क्या था... एक ही मुक्के में मेरे अंदर की सांस अंदर और बाहर की सांस बाहर ही अटक गई। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मुझे ‘दिन में ही तारे नजर आने’ का वास्तविक अर्थ पता चल गया। मेरी हालत देखकर वह अपराधबोध से भर उठा। घबराकर वह मेरी पीठ सहलाने लगा और सफाई देते हुए बोला- “कितनी बार तुमसे कहा था कि मुझसे मत लड़ा करो.. देखो मुझे भी तुमने बहुत मारा है.. मैं तुम्हें मारता नहीं.. मुझे बहुत चोट लग रही थी.. और तुम हो कि मान ही नहीं रही थी... तो मैं क्या करता...”
मेरे बड़े भईया कुछ दूरी पर बैठे इस महाभारत का आनंद ले रहे थे। हमारी लड़ाई कब खेल-खेल से मार-पीट में बदल जाय इसका कोई ठिकाना नहीं था। ऐसे में मम्मी की भूमिका सिर्फ इतनी होती कि जब हममें वाद- विवाद होता तो वे हमको कहती- “जब तुम दोनों लड़ते-लड़ते हाथ-पैर तोड़-फोड़ लेना तब मुझे बुला लेना। आकर मैं दोनो की मलहम-पट्टी कर दूंगी। जरूरत पड़ी तो डॉक्टर के यहां भी ले जाउँगी। क्योंकि यहां तो मामला बराबरी का है। दोनो में से कोई मेरी सुनने वाला नहीं है।”
इस चोट के बाद मन ही मन मैने कसम खायी कि आज के बाद मैं अपने भाइयों के ऊपर हाथ नहीं छोड़ूंगी। गाल चाहे जितना बजा लूँ।
आज भी सोचती हूँ कि मैने उससे कम रोटियां नहीं खायी थी; और ना ही मम्मी ने मुझसे छुपाकर उसे ज्यादा दूध-दही खिलाया-पिलाया था। लेकिन मैं उससे बड़ी होते हुए भी जीत नहीं पायी। उसका एक मुक्का मेरे सौ मुक्कों पर भारी पड़ा; क्योंकि मैं उसके जैसी ताकतवर नहीं थी। यहाँ मेरी माँ ने कोई नाइंसाफी नहीं की थी। मुझे बनाने वाले ने ही मुझसे पक्षपात किया था। मैं जब भी उसके पास जाउँगी तो उससे इस बात की शिकायत जरूर करुँगी। यह बात भी सत्य है कि अगर ईश्वर ने लड़कों जैसी शारीरिक ताकत लड़कियों को भी दी होती तो इस देश का मंजर कुछ और होता। फिल्मों में एक ताकतवर स्त्री का अभिनय करना हकीकत से बिल्कुल अलग है। अगर सच में वैसा होता तो हर एक माँ अपनी बेटी को खूब खिला-पिला कर ‘‘मर्दानी” जरूर बनाती।
उस दिन को हम आजतक नहीं भुला पाए। इतने सालों बाद भी हम भाई-बहन जब मिलते हैं तो वह मुझे अपने उस एक मुक्के की याद जरूर दिलाता है। मैं उसे यह कहकर टाल दिया करती हूँ कि वह ऊधार है मेरे ऊपर, घबड़ाओ नहीं मौका मिलते ही चुका दुंगी। अब तो इसपर खूब ठहाके लगते हैं।
(रचना त्रिपाठी)