पिछले एक दशक से बच्चों के खिलौनों का आधुनिक बाज़ार देखकर लगता है कि हमारा बचपन कितना सरल और सस्ता था।फिर भी उम्दा था। उस वक्त भी कहीं कुछ मिसिंग नहीं था। हम भी खेलते थे। इतना खेलते थे कि खेलते-खेलते थक कर चूर हो जाया करते थे।फिर भी मन नहीं भरता था। बोर होने का तो मतलब ही नहीं जानते थे।
हमारे समय में भी बहुत सारे 'गेम्स' हुआ करते थे। उनमें से कुछ तो ऐसे थे जिसमें हर्रे लगे न फिटकरी, लेकिन रंग हर दम चोखा ही रहा।आस-पास के सभी बच्चे इसी ताक में रहते थे कि किसी तरह बस दो चार बच्चों की टोली बना ली जाए। फिर क्या, देख मज़ा खेल का! आनंद ही आनंद। रुपैया के आनंद में अपनी तो चवन्नी भी नहीं लगती थी। कबड्डी, खो-खो, आई-स्पाई, गेना भड़-भड़, सत-गोटिया, घो-घो रानी-केतना पानी आदि ये सभी ऐसे खेल थे जिसमें किसी की टेंट से कुछ नहीं लगता था और बचपन का आनंद भी ख़ूब मिलता था।
जैसे, बात स्लाइडर गेम की करते हैं। बड़े-बड़े पार्कों में ऊँचे-ऊँचे और महंगे स्लाइडर लगे होते हैं। आजकल ऑनलाइन रंग-विरंगे स्लाइडर गेम्स भी आ रहे हैं। लोहे, प्लास्टिक या फाइबर के बने इन स्लाइडर्स में बच्चों की सुविधा व सुरक्षा के लिए खास इंतजाम होते हैं। ऊपर से सरक कर नीचे आते बच्चे को थामने के लिए मम्मियां या भैया लोग भी तैयार रहते हैं। अब बच्चों के लिए घर के अंदर ही प्लेरूम बनाए जा रहे हैं। उनका कमरा खिलौनों से भरा रहता है। एक से एक महंगे और मन मोहक खिलौने बाज़ार में उपलब्ध हैं। आजकल के माता-पिता अपने जीवन की गाढ़ी कमाई अपने बच्चों का बचपन सँभालने में इस बाज़ार के हवाले कर देते हैं। बच्चे फिर भी बोर हो रहे हैं। एक हम थे- स्लाइडर जैसे किसी गेम का लुत्फ़ लेना होता था तो खलिहान में लगे पुआल की पुजवट पर चढ़कर सर्र से नीचे आ जाया करते थे। बार-बार पुजवट पर बिना सीढ़ियों के चढ़ना और तीखी ढलान पर सरकना तब बाएं हाथ का खेल हुआ करता था।
तबके माता-पिता को इसकी बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं थी कि उनके बच्चे कहीं किसी खेल से बोर तो नहीं हो रहे। जो बोर भी हुए तो उनके मान-मनुहार जैसा कोई प्रयास नहीं होता था। अलबत्ता तंग आने पर माता-पिता हमारे 'रिफ़्रेशमेंट' के लिए हमें दो-चार घंटे किसी कमरे में बंद कर दिया करते थे। तब हमारी सारी बोरियत सूख के हवा हो जाती थी।
कंचे खेलने का तो आनंद ही अलग था। इसके साथ हम गुच्ची-गुइया भी ख़ूब खेला करते थे। लेकिन यह खेल घर वालों से छुप-छुपाकर होता था। इसमें जीत और हार कंचों या सिक्कों की होती थी। पकड़े जाने पर मार भी पड़ सकती थी। मुफ़्त और सस्ते खेलों में भी हमें घर वालों के सामने काफ़ी सावधानी बरतनी पड़ती थी।
घर के कूड़े में से अलग-अलग रंग और डिज़ाइन वाली टूटी चूड़ियों को इकठ्ठा कर इनकी मैचिंग लगाने वाले खेल में कब हमारे घंटो बीत जाते थे, पता ही नहीं लगता था। इसको खेलने के लिए सिर्फ़ एक पार्टनर की ज़रूरत पड़ती थी। एक खिलाड़ी अपनी बंद मुट्ठी में एक चूड़ी के टुकड़े को रख लेता था और दूसरे खिलाड़ी को उस बंद मुट्ठी के ऊपर वैसी ही रंग और डिज़ाइन वाली चूड़ी का टुकड़ा रखकर उसकी मैचिंग मिलानी रहती थी। घर हो या स्कूल यह खेल हम कहीं भी खेल लेते थे। स्कूल बैग की सफ़ाई के दौरान टूटी हुई रंग-विरंगी चूड़ियाँ ख़ूब मिलती थी।
हमारी बचपन की ज़िंदगी जैसे-तैसे नहीं कटी, बल्कि बड़े मज़े में रही। अपने खेलने के लिए कभी खुद से कमरा अंधेरा नहीं करना पड़ा। उस वक्त बिजली अक्सर गुल रहती थी। जबतक उजाला रहता था तबतक बाक़ी सभी खेलों में जो उस वक्त के खाके में फ़िट बैठ जाए, खेल लेते थे और धीरे-धीरे शाम के बाद जब दिन अंधेरे में ढलने लगता था उस वक्त लुका-छुपी खेल लेते थे। यह खेल तबतक चलता रहता जबतक कि घर का कोई बड़ा हमारा कान उमेठ कर बुला न ले जाए।
जो खेल आजकल डार्क-रूम के नाम से बच्चे खेलते हैं हम उसे अन्हरिया-अन्हरिया के नाम से खेलते थे। शहरों में रात के वक्त भी इतनी रोशनी रहती है कि कमरे को अंधेरा करने के लिए भी बड़ा जतन करना पड़ता है। किस खिड़की और रौशनदान में कैसे पर्दे लगाएं कि कमरे में अंधेरा हो सके या मनचाही रौशनी मिल सके। क्योंकि रात में स्ट्रीट लाइट्स कहीं न कहीं से कमरें में घुसने के लिए कोई न कोई दरारें ढूँढ ही लेती हैं। इसके लिए भी बाजार में सेवा उपलब्ध है।
अब बाज़ार ने सब खेलों का आधुनिक विकल्प ढूँढ निकाला है; लेकिन एक 'कीमत' के साथ। बड़े-बड़े ब्रांड्स के नामों के साथ हर उम्र के बच्चों के लिए महंगे से महंगे गेम्स बाज़ार में उपलब्ध हैं। जहाँ हम तालाब की गीली मिट्टी से चूल्हा-चौका, बर्तन आदि बनाकर 'घर-घर' खेल लेते थे वहीं अब बच्चों के लिए दुकानों में रंग-बिरंगी मिट्टी जो ‘क्ले’ के नाम से बिकती है। इसकी क़ीमत उनका ब्रांड तय करता है।
हम दो हमारे दो के चक्कर में बच्चों की संख्या एकाकी बंद दरवाजे वाले घरों में कम होती चली गई है। इसकी वजह से अधिकतर बच्चे अकेलेपन के शिकार होने लगे हैं। इस स्थिति का बाज़ारवाद ने ख़ूब फ़ायदा उठाया है। क़िस्म-क़िस्म के ऐसे गेम बना डाले हैं कि ऐसे बच्चों को घर में अकेले रहने का कभी मलाल न हो। और ऐसा ही हो रहा है। आजकल के बच्चे अकेले रहने में ज़्यादा कम्फ़र्टेबल महसूस करने लगे हैं। ऐसे में शादी समारोह आदि जैसे सामाजिक सहजीवन का अवसर आने पर अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।
बताना ये है कि बाज़ार ने हमारे सभी पुराने सरल और सस्ते खेलों को नए रंग-रूप में गढ़ कर महंगा तो बना ही दिया है, इनसे बच्चे बहुत जल्दी बोर भी हो जाते हैं। हर दूसरे दिन एक नए खेल की तलाश रहने लगी है। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों की कहानी अलग ही है।
(रचना त्रिपाठी)
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