हाल ही में गिरिजेश जी ने यह कविता पोस्ट की थी। पढ़ने के बाद से तमाम बातें मन के भीतर गड्डमड्ड होती जा रही हैं-
न रो बेटी
माँ की डाँट पर न रो ।
वह चाहती है कि
वयस्क हो कर तुम
उस जैसी नारी नहीं
अपने पापा जैसी 'मनुष्य' बनो
(उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है) ।
बचपन में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी की यह मशहूर कविता पढ़ी थी तब मुझे मालूम भी न था इस कविता की गहराई में कितने रहस्य छुपे हैं, आज आये दिन मेरे मन में यही कविता डोलती रहती है।
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
‘थ्री इडियट्स’ देखने के बाद मेरी नौ साल बेटी ने मुझसे कहा, “मम्मी मै हाउस-वाइफ बनना चाहती हूँ । तुम मुझे इसके लिए मना नही करना।”
उस समय मै उसकी बात को हँस कर टाल गयी…। लेकिन उसको क्या पता कि उसकी इस चाहत ने मुझे कितना दुख पहुँचाया। मन में ही फुसफुसा कर रह गयी कि वह तो ‘पढ़ो ना पढ़ो बन ही जाओगी’। हाउस-वाइफ़ भी कोई कैरियर ऑप्शन है? लेकिन उसे एक गृहिणी की छवि ही क्यों आकर्षक लगती है?
इस स्रुष्टि को जन्म देने वाली माँ क्या सचमुच उसका कार्य छोटा है? कितना आसान है अपने मन को समझाना, लेकिन उतना ही कठिन है बेटियों को समझाना।
दिन में जाने कितनी बार मेरी बेटी बोलती है मम्मी, मै तुम्हारे जैसा बनना चाहती हूँ… लेकिन मै इस बात को सुनकर खुश नही होती। जाने क्यों उसका यह वाक्य मुझे दुख पहुँचाता है। मै उसको समझाने की कोशिश करती हूँ कि बेटा, मेरी तरह नही डैडी की तरह बनो। पढ़ लिखकर अच्छा कॅरियर बनाओ। स्वावलम्बी बनो।
लाख कोशिशो के बावजूद मै उसे बेटी कहकर नही पुकारती, मेरे मुँह से हमेशा उसके लिये बेटे का ही संबोधन निकलता है। जाने क्यों…?
इसमें उसका सम्मान है या अपमान?
मेरे अंदर कहीं न कहीं अपनी बेटी के लिए एक डर का भाव बना रहता है। पता नहीं क्या होगा इसका? एक माँ पुत्र का जन्म होने पर अपने आपको बेहतर महसूस करती है, पुत्री के जन्म की अपेक्षा। जैसा भी होगा अपने सामने तो रहेगा। उसका सुख और दुख अपनी आँखों के सामने तो घटित होगा। हम उसमें शरीक तो रहेंगे। उसके लिए जो बन पड़ेगा कर तो सकेंगे। उसपर हमारा अधिकार तो होगा। वह ‘पराया धन’ तो न होगा? लेकिन बेटी…?
सोचती हूँ कि क्या सचमुच उसकी सोच गलत है या मेरे मन का डर? आखिर मन डरता है तो किससे? उसके सामने एक ऐसी गृहिणी है जो सुखी है और सन्तुष्ट है। रोज ऑफ़िस जाने की भागमभाग नहीं है, कोई तनाव नहीं है। शायद इस आराम की जिन्दगी ने उसे आकर्षित किया हो…। लेकिन क्या सभी गृहिणियाँ सुखी और सन्तुष्ट हैं अपने जीवन से…? उसे क्या पता? उसने अभी दुनिया कहाँ देखी है?
कैसे समझाऊ उसे कि तुम्हें लेकर मैं कितना परेशान रहती हूँ। वह तो शायद उसी स्वाती कि बूँद की तरह है जिसको अपने बारे में पता नही कि उसका क्या हश्र होने वाला है। कितना कुछ अनदेखे भाग्य की मुठ्ठी में बन्द है…?
बेटी के जन्म के समय माँ का मन खुश कम चिंतित ज्यादा होता है, इस समाज के दोहरे मापदंड देखते हुए…। माँ का मन कैसे चिंतित न हो अपनी बेटी के भविष्य की सुरक्षा को लेकर…?
(रचना त्रिपाठी)
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteआईये जानें ....मानव धर्म क्या है।
ReplyDeleteआचार्य जी
samay badal rha hai..jyada chinta krnna swasthy ke lie hanikarak hai. samaj me nai soch utpann ho chuki hai.. jo hoga achcha hi hoga.
ReplyDelete"क्या सचमुच उसकी सोच गलत है या मेरे मन का डर" - वक्त के मिजाज देखते हुए मैं तो यही कहूँगा कि आप सही हैं "मै उसको समझाने की कोशिश करती हूँ कि बेटा, मेरी तरह नही डैडी की तरह बनो। पढ़ लिखकर अच्छा कॅरियर बनाओ। स्वावलम्बी बनो।" गहन चिंतन कि जरुरत है आपके इस आलेख पर.
ReplyDeleteचिंता स्वाभाविक है लेकिन सिर्फ बेटी की ही नहीं बेटे की भी होती है..दोनो ही घर और समाज के महत्त्वपूर्ण पात्र हैं..आप जानती नहीं कि नन्ही सी बेटी ने क्या कह दिया...कुशल गृहिणी बनकर सिर्फ अपने आप को नहीं परिवार के कई सदस्यों को नया रूप देकर समाज की नींव को मज़बूत करेगी...आप भी वही करेंगी...ऊँची शिक्षा पाकर आत्मसम्मान से जीने की कला वह आपसे ही सीखेगी..
ReplyDeleteउम्दा पोस्ट.
ReplyDeleteगिरजेश जी की कविता है ही ऐसी कि किसी भी संवेदनशील मनुष्य को बेचैन कर दे.
आपकी यह चिंता बेमानी हैं -बिटिया मन बाप का नाम रोशानरोशन करेगी
ReplyDeleteबड़ी होनहार है !
मैं बता दूं मुझे अपनी बेटी को लेकर उतनी चिंता नहीं जितनी बेटे को लेकर है !
अच्छा लिखा है आपने। आपको बधाई।
ReplyDeleteबस इसे टटोलने की जरूरत है...जो आप जैसी कवियत्री बखूबी करती हैं..
ReplyDeleteमैं भी बिटिया की बजाय बेटे के लिए ज्यादा चिंतित हूँ क्योंकि बिटिया बेटे से ज्यादा पढ़ाकू है :)
ReplyDeleteहम लोगों की वह पीढ़ी है जिसके एक पाँव पुरातन युग में हैं तो दूसरे आधुनिक काल में; एक तरफ गँवई संस्कार हैं तो दूसरी तरफ शहरात परिवेश है। संक्रमण काल है। लिहाजा बेचैनी होनी स्वाभाविक है। जागरूकता की यह पहचान है। खुशी हुई कि एक और बेचैन से रूबरू हुआ। आप को आभार कि आप ने कविता को गद्य के स्पष्ट संस्कार दिए।
ReplyDelete...मुझे लगता है कि नई पीढ़ी की दृष्टि साफ है और उसे अपने रास्ते स्पष्ट हैं। समस्या बस हम जैसों को ही होती है लेकिन अपने को अभिव्यक्त करना ही चाहिए। बहुत बार अपनी बात बहुतों की हो जाती है।
चलो अगर गृहणी ही बनना चाहे तो इसमें बुरा क्या है. इसे छोटा कहकर आप उन सभी महिलाओं का अपमान कर रहीं हैं जिन्होंने अपनी इच्छा से गृहणी होना चुना. खैर अगर बेटी इसी विचार पर कायम रहती है तो उम्मीद है की आप उसपर अनर्गल दबाव नहीं डालेंगी, आखिर सभी को अपनी राह चुनने का हक़ है.
ReplyDeleteरचना तो बहुत अच्छी है
ReplyDeleteपर हाँ ...अब वक्त पूरी तरह बदल चूका है
नारी गृहिणी हो या कामकाजी ...
ReplyDeleteप्रधानता यह होनी चाहिए कि आखिर हमें संतुष्टि किस काम में मिलती है ...
बदलते युग में आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होना भी आवश्यक है ...
समाज के दोहरे मापदंड को लेकर चिंता तो होती है हर बेटी की मां को ...मगर अपने माता -पिता के गर्व का कारण बनने वाली कई बेटियाँ इस चिंता को परे धकेल देती हैं ...
बस बेटियों को यह अहसास दिलाया जाए कि हमारी बाहें हमेशा खुली रहेंगी उनके लिए ...!!
यह सचमुच एक सांयोगिक चमत्कार है क्या कि एक ही काल खंड में एक और फर्क को समझाती हुयी एक पोस्ट यहाँ लिखी गयी -
ReplyDeleteदृष्टिपात करें -
http://indianscifiarvind.blogspot.com/2010/06/blog-post.html
दरअसल कोई भी माँ बाप अपने बच्चो में फर्क नहीं करते.. पर समाज धीरे धीरे हमारे अन्दर उतरता जाता है.. मेरे लिए नॉन वेज खाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है पर जो खाते है उन्हें ऐसा नहीं लगता होगा.. दरअसल वे बचपन से खाते आ रहे है अब उन्हें सबकुछ सहज लगता है.. ठीक वैसा ही इन केसेज में हुआ है.. आज भी प्रेग्नेंट औरत के लिए कहा जाता है कि इन्हें बेटा होने वाला है.. और ये सब सहज लगता है.. क्योंकि हम बचपन से सुनते आ रहे है.. और अब ये सब सहज हो रहा है..
ReplyDeleteमेरी लिखी एक छोटी कविता याद आ रही है..
बड़े अचरज से माँ
को देखते हुए पूछा था उसने
क्यू तुम मुझे राजा बेटा कहती हो ?
माँ ने मुस्कुरा के बोला
अरे पगली तुझे तो प्यार से
राजा बेटा कह देती हू..
फिर भैया को आप कभी प्यार से
रानी बेटी क्यो नही कहती ??
माँ के पास मुन्नी की इस
बात का कोई जवाब नही था!
गृहणी के कार्य महत्व नहीं समझा जाता है इस अर्थ प्रधान जगत में । पैसा कमाने की आपाधापी में जिनके घर टूटने की कगार पर हैं, उनसे जाकर कोई पूछे घर सहेज कर रखने का और जीवन को स्थायित्व देने का महत्व । जब सब ठीक चलता है, जीवन में उसका महत्व समझ नहीं आता है ।
ReplyDeleteचिंता स्वाभाविक है... परन्तु भविष्य अच्छा होगा आप निश्चिन्त रहें...
ReplyDeleteबेटी का पढ़ीलिखी समझदार होना सिर्फ जरुरी है... वो अपना भला खुद कर लेगी.
मैं वाणी जी की बात से सहमत हूँ. मुख्य बात ये है कि नारी को जिस कार्य में संतुष्टि मिलती है, वही कार्य उसके लिए अच्छा है.
ReplyDeleteमेरे विचार से गृहिणी का कार्य तो बहुत ही जटिल और महत्त्वपूर्ण है. विडम्बना ये है कि नारी चाहे सिर्फ घर संभाले या नौकरी करके घर संभाले, घर संभालने की जिम्मेदारी उसी पर होती है. इस कार्य में यदि पति थोडा-बहुत सहयोग करें तो काम आसान हो जाता है.
ऐसा नहीं है कि आजकल की सारी लडकियां सिर्फ नौकरी करना चाहती हैं. मेरी कई सहेलियां, जो हॉस्टल में रहकर पढीं हैं, आज पूरी तरह से गृहिणी हैं और सुखी जीवन बिता रही हैं. उनमें से कुछ तो अत्यधिक मेधावी थीं, पहले तो देखकर निराशा होती थी कि उन्हें प्रशासनिक सेवा में जाकर देश सेवा करनी चाहिए थी, पर फिर खुशी होती थी कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से वो विकल्प चुना, जो उन्हें अच्छा लगा.
आखिर एक परिवार को चलाना और बच्चों की सही परवरिश भी तो देशसेवा ही है. समाज को गृहिणियों का योगदान सबसे महत्त्वपूर्ण है... क्योंकि वो घर संभालती हैं तभी पुरुष बड़े-बड़े काम कर पाते हैं.
आपने हर माँ की चिन्ता को खूबसूरती से व्यक्त किया है...बेटियां आज आगे बढ़ रही हैं..पर कुछ भी सुरक्षित महसूस नहीं होता....सार्थक लेखन
ReplyDeleteबेटियाँ सुरक्षित चाहिये तो बेटो को समझाईए कि किसी भी लड़की के साथ बाद सलूकी ना करे । बाकी हर काम बराबर हैं हां आत्म निर्भरता बहुत जरुरी हैं
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट...
ReplyDeleteबहुत कुछ सोचने को बाध्य करता है यह आलेख...बेटा हों या बेटी...माता-पिता की चिंताएं इक सी होती हैं...माँ को दोनों के लिए उसे समझने वाला/वाली जीवनसाथी की अपेक्षा रहती है...ऐसा नहीं है कि बेटा पुरुष है ,इसलिए वह अपनी मर्जी से घर चला सकता है, (अब वे दिन नहीं रहें )....एक योग्य जीवनसाथी की तलाश उसे भी होती है...ताकि जीवन में सुकून बना रहें.
ReplyDelete"माँ का मन कैसे चिंतित न हो अपनी बेटी के भविष्य की सुरक्षा को लेकर…?"...इस सवाल के जबाब में बस यही कहूँगी....माँ उसे आत्मनिर्भर बनाए...और उसके हर सुख-दुख में उसके पीछे चट्टान की तरह खड़ी रहें....यह नहीं कि शादी कर दी ,अब जिम्मेवारी ख़त्म....बेटी को जिंदगी के रास्ते में कभी कांटे नहीं मिलेंगे.
नौकरी करनी है या गृहणी बनना है...यह परिस्थितयों और लड़की की इच्छा पर ज्याद निर्भर करता है...गृहणी ,की ज़िन्दगी कोई आराम की ज़िन्दगी नहीं है,खासकर बड़े शहरों में...पर फिर भी उनके काम को सम्मान नहीं मिलता यह तो कटु सत्य है.
मैं अक्सर कह देती हूँ,'नौकरी नहीं की तो क्या,समाज को दो अच्छे नागरिक देने के उपक्रम में तो लगी हूँ'...इसपर एक मित्र ने कहा,"क्या फायदा,समाज से एक अच्छा नागरिक छीन कर??...ऐसे तीन अच्छे नागरिक समाज में कुछ योगदान करते"
मैं भी वाणी कि बात से सहमत हूँ. नारी को हर रूप में संघर्ष करना है लेकिन उसके नारीत्व कि पूर्णता इसमें ही है कि वह अपने बच्चों को संस्कारी और सच्चा इंसान बनाये. आज इसकी ही सबसे बड़ी जरूरत है. बच्चों में अपने सोच के अनुकूल निर्णय लेने का क्षमता होती है और वह आपके रूप को देख कर और किसी के कार्यकारी होने के रूप में साम्य करके ही ये सोचती होगी. माँ होकर आपकी सोच भी सही है. समय के साथ उसके विचार भी बदल सकतेहैं.
ReplyDeleteबहुत कुछ कहने का मन था इस सार्थक लेख पर ..पर इतना ही कहूँगी कि बेटी का ये कहना कि मैं आप जैसा बनूँगी मुझे भी नहीं भाता ओर मैं दांत देती हूँ उसे .भगवन बेटियों को सदबुद्धी दे ...
ReplyDeleteरचना जी अभी मैं ब्लागवाणी देख रहा था कि मेरी पोस्ट किस नंबर पर है आज की हलचल की हॉट लिस्ट में पांचवे नंबर पर अपने को पाया ..सोचा पहले चौथे नंबर वाली पोस्ट को देखू कि क्या खास है..जब आपकी पोस्ट -क्या उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है…? पढ़ा तो लगा कि आपने तो मानो मेरे दिल की बात लिख दी..बेहद अच्छा लिखा आपने...मेरी भी दो बेटियां है.. और उनकी बांते भी आपकी बेटी की तरह रहतीं है...मै भी बडे कशमकश में रहता हूं कि आगे क्या होने को है..बहरहाल फिर एक बार आपको बधाई ..आपकी जैसी मां हैं तो बच्चियों का अच्छा ही होना है..आप ज्यादा चिंन्ता न करें..
ReplyDeleteRespected Rachna ji,
ReplyDeleteFor the first time i cried after reading a post.
Dunno why i am so much disappointed to read that the small girl wants to become a home maker.
Probably she is too sensitive a girl. May be she is influenced by some happenings around her. Her innocent mind is definitely under influence of some bitter reality she has witnessed in her surroundings or acquaintance or by watching some serial or movie.
She might be in impression that home makers lead a very happy and peaceful life.
I guess her dream will change with age.
Being a doctor , my heart bleeds when i have to compromise with my career, as my husband is migrating to different countries and i have to follow him like a tail.
I used to console myself by saying "Family is priority". But now i know majority of women do not opt for being a housewife by choice, but by the culture sown deep in our minds. They do not have any choice. Either look-after the family and compromise with your career and dreams , or
go for your career at the cost of children .
Women so soft and sacrificing by nature, opt for the former one and consoles themselves that this is their prime duty to stay back at home and give proper upbringing to kids.
Continued..
My daughter is very small. I feel delighted when she says .. "Mom i want to become cardiologist".
ReplyDeleteI am living my dreams through her. I do not know what she will become and whether i will be alive or not till then. But at least i have a reason to live and smile by seeing my dreams coming true through her dreams.At times she says , she wants to become Hannah Montana [TV serial pop singer]. I always smile at her changing dreams, but one thing is common in all her dreams that she wants to become something associated with name and fame, but never a home maker.
When i read your post, I imagined my daughter saying this to me...I cried !...Because i do not want my daughter to stay back at home and look after the family.
Working women are also managing their family and house and job with perfect ease and dedication.
Women must be properly educated and motivated to have bigger goals . They ought to learn that they should not be confined to a small family ( hubby and child ), instead they can contribute a lot to their bigger family [the society].
Every girl will become a WIFE and will manage a HOUSE one day. So being a housewife is not a big deal. But we have very few KIRAN BEDIS in our country.
We need empowered women and i wish to see genuine smiles on the faces of daughters and moms both.
Bitiya ko bahut sare pyar aur ashirwaad ke saath,
Divya
समझ में आती है पोस्ट!
ReplyDeleteमुझे लगता है जील ने बहुत संतुलित कहा है !
ReplyDeleteऊपर कि टिप्पणीयों ने सबकुछ कह डाला है. वैसे समय बदल रहा है इसलिए आपको ज्यादा परेशान होने की जरुरत नही. बेटी समझदार है समय के साथ सबकुछ समझ लेगी. हॉउस वाइफ के काम को समाज ने वह सम्मान नही दिया जो इसे मिलने चाहिए. किसी ने अपने टिपण्णी में कहा भी है की इसका महत्व उन्हें समझ में आता है जिनका परिवार टूटने को है या फिर टूट चूका है.....................
ReplyDeleteआपने दो कवियों को उद्ध्रत किया ,अच्छा लगा । मुझे इस सन्दर्भ में मेरे मित्र कवि नासिर अहमद सिकंदर की यह तीन पँक्तियों की कविता अक्सर याद आती है जो उन्होने जींस शर्ट पहने एक लड़की को देखकर कही थी....
ReplyDelete" मेरे सामने थी लड़की
मैने कहा , अरे लड़का
वह खुश हुई । "
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसमाज के दोहरे मापदंड और एक मां की कशमकश का अच्छा चित्रण किया है आपने। हालांकि अगर हम उन परिवारों को देखें जहॉं मां नौकरीपेशा नहीं है और अपने परिवार की देखरेख कर रही है तो वह परिवार ज्यादा सुखी मिलेंगे बजाय उनके जहाँ स्त्रियॉं भी नौकरी करती हैं और बच्चे किसी आया के पास पलते हैं।
ReplyDeleteaapki soch shayad her maa ki socha hai
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट खोजकर निकाली खजाने!
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