मेरी बचपन की सहेली ने, अपनी एक विचित्र समस्या से निज़ात पाने के लिए मुझे फोन किया और कहा,“ रचना! मेरे घर के सामने एक औरत आकर बस गयी है जो बहुत फूहड़ और बदतमीज है। अवैध रुप से कुछ जानवरों को सड़क पर ही पाल रखी है जिससे यहाँ गंदगी तो फैली ही रहती है साथ ही घर से निकलना भी मुश्किल हो गया है। गाय-भैंसों के चक्कर में यहाँ साँड़ भी आते हैं जिससे अक्सर अश्लील दृश्य उत्पन्न हो जाता है, बच्चों के घायल होने का खतरा तो बना ही रहता है। इससे मैं बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने देती। मुहल्ले के लोग भी उसे कुछ कहने से डरते हैं। झगड़ा करने पर उतारू रहती है। वह एक दलित जाति की है और बात-बात में ‘बहन जी’ का रौब दिखाती रहती है। एक दिन मैंने तय किया कि मै इसे सुधार दूंगी, इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करुँगी। मैने अपने पति महोदय से कहा कि… आप मेरी कुछ मदद करिये तो इन्होंने कहा कि बाकी मुहल्ले के लोग तुम्हे बेवकूफ लगते हैं क्या। इसके आगे पीछे का परिणाम सोच लो फिर आगे कदम बढ़ाना”।
उसके मन की बेचैनी को मै समझ सकती थी लेकिन मैं भी क्या कहती… उसके पति की तरफ़दारी करते हुए ही मैने कहा, “क्या गलत कह रहे हैं…ठीक ही तो कहा है। तुम तो शिकायत दर्ज कर के निकल लोगी लेकिन भुगतेगा कौन? यह सोचा है।”
उसने पूछा, “कौन भुगतेगा?”
उसकी नादानी पर मैं हँसते हुए बोली, “अरे मूर्ख तुम्हारे पति… और कौन?”
वह झुँझलाते हुए बोली, क्यों इसमें उनका क्या काम कि वह भुगतेंगे? ये पुरुष होने के नाते डर रहे हैं कि कहीं मेरे खिलाफ कोई गलत आरोप न लगा दे। लेकिन मैं तो एक महिला हूँ। सारे मुहल्ले के लोग पीठ पीछे इसका विरोध करते है लेकिन सामने कोई नही कहता। इस मुहल्ले में औरतें सकपकायी रहती हैं। पति जो बोलेगा वही करेंगी अपनी समस्याओं को बरदाश्त करती रहती हैं… पुरुष वर्ग तो अपने-अपने काम पर चला जाता है लेकिन हम महिलाएं और बच्चे कहाँ जाँय। मै तुमसे पूछती हूँ कि इसके खिलाफ मुझे शिकायत दर्ज करवानी है कैसे करूँ? देखती हूँ कि मेरा कोई क्या बिगाड़ लेता है?
मैने उसे समझाया, “जोश में कोई ऐसी-वैसी हरकत मत कर बैठना। दलित उत्पीड़न में फँस जाओगी। अगर तुम्हारे पति को सस्पेंड कर दिया जायेगा तो क्या करोगी?” उसने जोश में जवाब दिया, “शिकायत मैं करूँगी तो सरकार को या ‘बहिन जी’ को अगर बुरा लगता है तो मेरा नुकसान करे इसमें मेरे पति का क्या कुसूर?
मुझे भी मजाक सूझा तो मैने झट से बोला, पिक्चर नही देखती क्या? अगर हीरो से दुश्मनी निकालनी होती है तो गुन्डे उसकी माँ-बहन को परेशान करते हैं यही फ़ॉर्मूला है और क्या?
वह मेरे ऊपर भी नाराज होने लगी और बोली- तो क्या हम इस डर से बैठे रहें और चुपचाप यह सब अपनी आँखों से देखते रहें। मुझे तुमसे यह उम्मीद नही थी रचना… तुम मुझे समझा रही हो कि अन्याय को अपनी आँखों के सामने होते हुए देखते रहें और चुप बैंठे रहें। क्या तुम वही रचना हो जो कॉलेज लाइफ में बिना अंजाम की परवाह किए जो बुरा लगता था उसपर फ़ौरन आवाज़ उठाती थी। मैने कहा, “तबकी बात कुछ और थी तब अपने पापा के घर में थी और मेरे पापा सरकार के नौकर नही थे… लेकिन अब बात कुछ और है।”
मैंने उसे दुनियादारी की बात समझा तो दी लेकिन यह बात मै खुद ही नही समझ पाती कि अब बात कुछ और क्यों है? मैं तो यह भी बताने में डरती हूँ कि वह महिला दलित है और प्रदेश सरकार भी दलित आधार की है। आये दिन दलित महिलाओं को थाने जाते देखती और सुनती रही हूँ। कितने लोग उनसे आरोपित होने के बाद अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने में हलकान हो जाते हैं।
काश मेरे अंदर पहले जैसा आत्म-विश्वास होता। पहले जैसा यानी जैसा बचपन में था। किसी से बगैर पूछे दिल की आवाज़ पर कोई काम कर लेना- नतीजा चाहे जो निकले। इसकी किसको फिक्र थी! साँच को आँच कहाँ? लेकिन अब क्या है… ?
देखती हूँ कि सच्चाई का मोल घटता जा रहा है। ‘पोलिटिकली करेक्टनेस’ के चक्कर में नारों और जुमलों का हमारे व्यवहार पर बड़ा असर पड़ रहा है। बात-बात पर अपनी परवाह कम घर-परिवार, बच्चे और पति की चिंता ज्यादा रहती है। कभी-कभी अपने विचार खुद को ही सही नहीं लगते हैं, अपना ही व्यवहार टीसने लगता है। ऐसा क्यों हो जाता है?
(रचना त्रिपाठी)
कमाल की बात कही है रचना जी ...
ReplyDeleteलोग ये कब समझेंगे की उत्पीडन किसी भी व्यक्ति का किसी भी व्यक्ति द्वारा भी हो सकता है ...वर्ग विशेष का होने या नहीं होने से तकलीफ/शिकायत /दुःख /दर्द की मात्र में क्या कमी बेसी हो सकती है !
अपसे सहमत हूँ। हम मे आत्मविश्वास की कमी के कारण ही बुराई बढ रही है। अच्छा लगा प्रसंग ऐसा ही होता है। धन्यवाद।
ReplyDeleteएक बार तत्सम्बंधी सरकारी कार्यालय पर जाकर बात अवश्य करनी चाहिए। यदि वे भी मजबूर हों तो फिर आगे की बात सोचनी चाहिए। लेकिन कुछ नहीं करना, यह तो डर है। मैं ऐसे ही केस को एक बार ठीक कर चुकी हूँ, बस अन्तर इतना था कि वह दलित नहीं था।
ReplyDeleteउत्पीड़न की परिभाषा समुन्नत हो रही है।
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद। खालिस ब्लॉगरी।
ReplyDeleteसमस्या तो है। गरीब गुरबे अपनी बदतमीजियों पर कथित शोषणपीड़ित होने का मुलम्मा चढ़ाये रहते हैं।
कुछ दिन ही हुए मेरे पड़ोसी को एक दलित महिला ने सीधे ऐसे केस में फँसाने की धमकी दे डाली कि जमानत न हो। उनका दोष बस यह समझिए कि घर के बाहर हाजत रफा करने से रोका था।
जमाना ऐसा ही है। अगर आप सही हैं तो फूँक फूँक कर कदम रखना पड़ता है। वैसे एक बार पास पड़ोस को इकठ्ठा कर सामूहिक प्रयत्न करने में कोई खतरा नहीं होना चाहिए। बाकी कभी कभार हवन करते हाथ जलाने ही पड़ते हैं। क्या कीजिएगा?
आयी एस आफीसर तक दलित अधिकारियों से डरते हैं ऊ पी में ....उनका सात खून माफ़ और किसी का आँख उठा के देखना भी गुनाह .....यह नयी सामाजिक समरसता है ....आप का निर्णय ही ठीक है इस माहौल में .बहरहाल आगे क्या हुआ या होगा तब बताईयेगा !
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट रचना है ,रचनाओं का फर्क भी स्वयमस्पष्ट है :)
दलित-विमर्श के इस यथार्थ पहलू से हम सामान्य नागरिकों का अब तो रोज़ ही साबका पड़ता है.
ReplyDeleteकिसी को तो विरोध करना ही होगा.
यह दुखद यथार्थ है.सहना भी गलत और कुछ कहना भी.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
मुझे लगता है मामले में बहुत आगे तक सोच लिया गया है.
ReplyDeletemai koe comments nhi kar sakata hoo...
ReplyDeletemeri apni story hai na...
chah kar bhi kuch nhi kar sakta hoo...
इसमें दलित वाला एंगल समझ नहीं आ रहा... मैंने तो ऐसे ढीठ ऊँची जातियों में ज्यादा देखे हैं.. किसी गाँव में चले जाइए.. अधिकाँश सार्वजनिक जगहों पर दबंगों ने कब्जा जमा रखा है.. अब ये दलित महिला मंदबुद्धि है लड़ाकू टाइप है पर इसकी उस अत्याचार के सामने कोई बिसात नहीं जो लाखों दलितों के साथ रोज किया जाता है.
ReplyDeleteऔर ऐसा क़ानून है क्या कि कोई दलित आपको जूते मारते रहे और आप शिकायत नहीं कर सकते.. मुझे जानकारी नहीं थी कि न्याय-व्यवस्था और लोकतंत्र इतना कमजोर हो गया भारत के किसी प्रदेश में ..
रीड की फ्लेक्सिबल हड्डिया दुनियादारी के डाइरेक्टली पर्पोश्नल है
ReplyDeleteसिक्के के दो पहलूओं की तरह किसी भी कानून का सदुपयोग और दुरूपयोग हम लोग ही तय करते हैं। सडक पर दुर्घटना के भय से घर से बाहर न निकलना समझदारी तो नहीं कही जाएगी, हॉं दुनियादारी की बात कहकर स्वयं को समझदारों की टोली में शुमार भले ही किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना चरित्र और अपनी राह खुद चुनता है।
ReplyDeleteजिम्मेदारियों का एहसास करता हुआ लेख,
ReplyDeleteबात-बात पर अपनी परवाह कम घर-परिवार, बच्चे और पति की चिंता ज्यादा रहती है। कभी-कभी अपने विचार खुद को ही सही नहीं लगते हैं, अपना ही व्यवहार टीसने लगता है....
बहुत बढ़िया, चेतना को झकझोर देने वाला लेख..