मेरे गाँव में एक लड़का था- बउका। ‘बउका’ मतलब अक्ल से कमजोर, मन्द बुद्धि और किस्मत का मारा। यह नाम उसे गाँव वालों ने उसकी दशा देखकर दे रखा था।
उसके पैदा होने के कुछ दिनो बाद ही उसकी माँ भगवान को प्यारी हो गयी थी। बच्चे को किसी तरह उसकी चाची-काकी ने शहद-चीनी चटाकर जिला तो दिया लेकिन कोई उसकी माँ नही बन सकी। वह बचपन में अनाथ ही बना रहा।
हम देखते थे- गांव के एक कोने में पड़ी उसकी झोपड़ी, जिसमें झांकने पर एक-दो टिन के बर्तन, कलछी-पलटा, चिलम और एक-दो बोतलें ही दिखतीं। नहीं दिखता तो सिर्फ उस घर का वारिस- बउका। जाने कहाँ-कहाँ दिन भर घूमता रहता... कभी किसी के चौखट पर बैठा रोटियां मांगता, तो कभी किसी मालिक का पैर दबाता या फिर किसी के घर के बर्तन साफ करते हुए दिखता, सिर्फ एक रोटी के लिए ताकि उसके पेट की आग बुझ सके। हमें हैरत होती कि अपने घर का इकलौता वारिस ऐसा क्यों करता है? ऐसा भी नही कि वह घर का दरिद्र था। कुल पांच-छ: बीघे का अकेला मालिक था।
कम उम्र में ही पत्नी के मर जाने के बावजूद उसके बाप दुक्खी ने दूसरी शादी नही की थी। पुत्रमोह में आकर, गरीबी में या यूँ ही... पता नहीं। उसकी नज़र में दूसरी माँ शायद उसके बेटे को वह प्यार नहीं देती, जो उसको अपनी माँ से मिलता। दुक्खी अपने कबाड़ के धंधे में गाँव-गाँव की फेरी लगाने सुबह सबेरे ही निकल जाता तो रात को नशे में गिरते-पड़ते दरवाजे पर आकर बच्चे को सौ-सौ गालियाँ देता। सुबह जब वो होश में आता तो अपने बच्चे का हाल-चाल दूसरे लोगों से जान लेता। धीरे-धीरे बेटा बड़ा होने लगा, और उसकी जरूरतें भी बढ़ती गयी। अच्छी परवरिश के अभाव में उसका व्यक्तित्व अविकसित सा रह गया।
वह जिसको देखता उसके सामने हाथ फैला देता। लोंगो से बात करने में अटकता था, डरने भी लगा, कुछ पूछने पर कम बोलता आवाज भी साफ नही निकलती। सब लोग उसे ‘बउका’ कहने लगे।
बउका को कभी याद भी नही होगा कि कब उसने नये कपड़े पहने होंगे। गांव के लोग ही उसे अधनंगा देखते तो फटा पुराना दे देते, उसी से उसका काम चल जाता। गाँव के बच्चे उसके साथ दुर्व्यवहार करते। झगड़े में जाने कितने कटने के निशान उसके हाथ-पैर और चेहरे पर पड़े रहते। जब कभी खून निकल जाता तो वह उसपर मिट्टी डालकर सुखा देता। उसको कभी किसी दवा की जरूरत नही पड़ी। जाने कितनी बार तो उसे कुत्ते ने काट लिया होगा लेकिन उसे कभी कोई इन्जेक्शन नही लगा।
मैंने अपनी आँखों से कभी दुक्खी को उसकी मलहम-पट्टी करते नही देखा। एक दिन तो वह बाप के डर से अपने चाचा के छत पर सो गया, रात में न जाने कब नीचे गिर गया था और अन्धेरे में सुबकियां लेता रहा था। जब सुबह हो गयी तब लोंगो को यह बात पता चली।
जाको राखे साइयां मार सके न कोई...
दुक्खी तो गांजा और शराब पीकर अपनी जान का दुश्मन बन गया। आखिर में वही हुआ... दुक्खी मर गया। लेकिन मैने देखा बऊका की आँख में आंसू के नाम पर एक बूंद पानी तक नहीं था।
चूँकि उसके नाम कुछ बीघा जमीन थी इस नाते गांव वालो ने उसकी शादी एक गरीब लड़की से करा दी। इस लड़की के भी मां-बाप नही थे। घर में दुल्हन के आते ही बऊका ने रोज नहाना और टिप-टाप से रहना शुरू कर दिया। उसके घर में भी रोज चूल्हा जलना शुरू हो गया। उसने खुद भी कबाड़ का धंधा अपना लिया।
वह दिन पर दिन अपने घर को सवाँरने में लगा रहता... लेकिन उसकी बीबी को रोज-रोज एक बात सालती रहती थी कि आखिर उसके पति को लोग ‘बउका’ कहकर क्यों बुलाते है? वह उसकी उधेड़-बुन में लग गयी और इस बात की जड़ तक जा पहुंची। उसे पता चल गया कि उसकी मां ने तो पैदा होते ही उसका नाम ओमप्रकाश रखा था लेकिन हालात के थपेड़ों ने उसे बऊका बना दिया। उसकी पत्नी ने इसका विरोध करना शूरू किया जब भी कोई उसे बऊका कह कर बुलाता तो वह उसे समझाती कि इनका नाम बऊका नही है, इनका नाम ओमप्रकाश है। आइंदा कोई इन्हें बऊका कह कर नही बुलाएगा।
जब गांव में लोगो को इस बात का पता चला तो लोग मौज लेने के लिए उसे जानबूझ कर बऊका कहते। उसकी पत्नी पहले समझाती, फिर चिल्लाती और उसपर भी लोग नही मानते तो गालियाँ देती। गाली खाने के डर से लोगो को यह सम्बोधन छोड़ना ही पड़ा।
आज जब भी कोई उसके दरवाजे पर जाता है तो उसे ओमप्रकाश कहकर ही बुलाता है। अब वह बऊका से ओमप्रकाश हो गया है। लोग बताते हैं कि महीने में दस से पंद्रह हजार तक कमा लेता है। जब भी बेटियों को कहीं जाना होता है तो अपने हाथों से उन्हें नये-नये कपड़े पहनाता है। खुद तो अनपढ़ रह गया लेकिन अपनो बच्चों को स्कूल जरूर भेजता है। बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता जरूर करता है बच्चे स्वस्थ रहे इसके लिए अपने दरवाजे पर दूध देने वाली गाय भी पाल रखा है। बच्चों से जो दूध बच जाता उसे बेच कर उसकी बीबी घरेलू खर्च के लिए कुछ पैसे बना लेती है।
उसे पाँच बेटियां हो चुकी हैं और एक बेटा भी है। गांव के जिस कोने में निकल जाइए वहाँ ओमप्रकाश की एक बेटी जरूर दिखायी देती है। हाल ही में मुलाकात होने पर मैने उसकी पत्नी को नसबंदी कराने की सलाह दी तो उसने कहा कि एक बेटा और हो जाये तब। मैने नाराजगी दिखाते हुए कहा कि अगर फिर बेटी हो गयी तो क्या करोगी ?
उसने बहुत हँस कर जवाब दिया, “दीदी, अभी मैं दो बेटियों की परवरिश और कर सकती हूँ।”
मुझे उसकी यह बात सुनकर थोड़ी देर के लिए बहुत बुरा लगा लेकिन जब मैं ओमप्रकाश को अपनी बेटियों को फ्रॉक पहनाते और तैयार करते देखती तो बहुत खुशी भी होती कि घर में एक स्त्री के होने से उसकी जिंदगी बदल गयी। ओमप्रकाश को देखकर मुझे यह कहावत याद आ जाती है-
‘बिन घरनी घरनी घर भूत का डेरा।
(रचना त्रिपाठी)
बोका का बोका से ओमप्रकाश बनने का सफ़र रोचक रहा ..!!
ReplyDeleteयह है नारी की दुर्दम्य और अपराजेय शक्ति -नमन !
ReplyDeleteमेरे गांव में बागड़ है। बउका का ही भाई होगा। कहानियां कितनी मिलती जुलती है। पोस्ट अच्छा लगा।
ReplyDeleteबहुत रोचक और प्रेरक.
ReplyDeleteरामराम.
bahut rochak ...sach me bahut saral shabdon me .....kahi gai ek jeevan katha :)badhai ho haan omprakaash ki patni k bhi badhai:)
ReplyDeleteइसको कहतें हैं तरू में बीज छुपा अरू चकमक में आग तेरी साइयां तुझमें है जाग सके तो जाग ... वाकई बऊका की पत्नी ने घर के ओमप्रकाश से पूरी जिंदगी प्रकाशित कर दी.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! मेरी पत्नीजी ने भी ऐसी एक पोस्ट लिखी थी - जग्गू की गृहस्थी!
ReplyDeleteपढ़कर बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteएक बउका तो हमारे गाँव में भी है... गजब का गंजेडी है. इससे ज्यादा मुझे नहीं पता :)
ReplyDeleteबहुत अनोखी और अच्छी बातें लगीं
ReplyDelete' ओमप्रकाश ' का पात्र सजीव हो उठा
आपका आभार इस जानकारी के लिए
हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें
इसी तरह लिखते रहें
- लावण्या
एक कहानी पढ़ी थी 'जिन्दगी और जोंक'। जीवन के विद्रूप का चित्रण। शायद कमलेश्वर ने लिखी थी।
ReplyDeleteआप ने कहानी आगे बढ़ाई। गृहिणी का स्पर्श दे सुखांत बना दिया। ..कभी कभी यथार्थ त्रासद होते होते रह जाता है। ..
सुखद भी हो सकता है, पढ़ कर अच्छा लगा। लेखों की बारम्बारता बढ़ाइए।
समय धरावत तीन नाम परसू, पारस, परशुराम। सब प्रभु की महिमा है। जय हो!!!
ReplyDeleteवेद रत्न शुक्ल
बउका से ओमप्रकाश तक की यात्रा - बस नारी शक्ति का कमाल है.
ReplyDelete‘बिन घरनी घरनी घर भूत का डेरा।
-सत्य वचन.
बेहतरीन रहा पठन!!
बिलकुल अपने आसपास की कथा लगती है ठीक निर्वाह हुआ है ।
ReplyDelete“दीदी, अभी मैं दो बेटियों की परवरिश और कर सकती हूँ।” panch betiyon ke pita ki yah bat ham sabhya log kyon nahi sikh pate.
ReplyDeleteबहुत रोचक है। सुखद अन्त देख खुशी हुई।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
bhut rochak jeevan gatha ak aourt ne gharko svrg bana diya sath hi ldkiyo ke prti jo madhaym vrgiy privaro ki soch ko angtha dikha diya .bhut hi shj dhang se aapne prstuti di hai .
ReplyDeleteabhar
‘बिन घरनी घरनी घर भूत का डेरा।
ReplyDeleteसही कहा आपने ....!!
रचना जी
ReplyDeleteस्त्रियों ने तो सम्पूर्ण संसार को ही सँवारा है, न जाने कितने पागलों, अशिक्षितों के घर को घर बनाया है। बस महिलाएं ही अपनी शक्ति को पहचान नहीं रही हैं और बेबात रोती हैं। मुश्किलें तो सभी के जीवन में आती है लेकिन महिला होने के कारण रोना मुझे समझ नहीं आता। आपने बहुत ही प्रेरणादायी कहानी या सत्य लिखा है आपको बधाई।
इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.
ReplyDeleteरचना जी,मन बाँध लिया आपकी इस कथा ने.....
ReplyDeleteगाँव की गलियों में बौका और उसके परिवार के साथ ही मन ध्यान ऐसे घुल गया है,कि एकदम विमुग्ध सी दशा है.....
इस अभूतपूर्व जीवंत कथा के लिए आपकी लेखनी को नमन...
बउका से ओमप्रकाश तक की यात्रा प्रभावशाली लगी. बधाई.
ReplyDeleteअगर सच है तो बहुत प्रेरणास्पद है और अगर कहानी है तो भी बहुत प्रेरणादायक है.
ReplyDeleteप्रिय रचना ! आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ वो भी इस नाम के कारन.देखा.पढा.पाया अच्छा लिखती हो.क्या ये फोटोज ओम प्रकाश के ही हैं? उसके घर के? बहुत अच्छा लगा ओम के जीवन में आये सुखद परिवर्तन को देख के.शादी जीवन में स्थायित्व लाती है व्यक्ति 'किसी के' लिए जीना सीख जाता है. लिखो.और अपने आस पास बिखरी कहानियों को अपने शब्द दो.
ReplyDeleteप्यार.