Thursday, February 26, 2015

अपनी जमीन की बात ही कुछ और है...!

भूमि अधिग्रहण के लिए सरकार को और शक्तिसंपन्न बनाने के लिए एक विधेयक संसद में आ गया है। इसके विरोध में आंदोलन भी शुरू हो गया है। यह ठीक है कि विकास के लिए उद्योग लगाने जरूरी हैं जो मजदूरों और कामगारों को रोजगार देंगे। लेकिन मुझे डर है कि जब किसानों के पास अपनी जमीन नहीं रहेगी तो ये प्राइवेट फैक्ट्रियां उन्हें घर बिठाकर पगार नहीं देगी। अगर रोजगार देगी तो उनकी छुट्टियों पर वेतन भी काटेंगी। उनके बीमार पड़ जाने पर उन्हें घर बिठाकर मुफ्त की चिकित्सा मुहैया नहीं करायेगी। इस तरह अगर किसानों की अपने जमीन पर अगर उनका अपना अधिकार नहीं रहा तो वे उद्यमियों के गुलाम बन कर रह जायेंगे। मेरा यह डर काल्पनिक नहीं है, बल्कि अपनी आँखों से देखा हुआ कड़वा यथार्थ है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले का मुख्य शहर है पडरौना। इस शहर में वर्षो पुरानी एक चीनी मिल हुआ करती थी जो पन्द्रह-बीस साल से बंद पड़ी है। इस फैक्ट्री के बन्द होने से छोटे किसानों और मजदूरों से लेकर बड़े-बड़े जमींदारों की आर्थिक स्थिति डगमगा गयी है। वहाँ के किसानों की जमीन पर आज भी गन्ने की पैदावार होती है और उस गन्ने की कीमत भी मिलती है। वे दूर के शहर तक ढुलाई का दोगुना खर्च उठाकर दूसरी चीनी मिल पर अपना गन्ना ले जाते हैं और देर-सवेर उसकी कीमत पा ही जाते है। वे अपने घर बाल- बच्चों के पास रहते हुए मेहनत की रोटियां जरूर खाते हैं पर वे रोज रात को चैन की नींद सोते हैं। उन्हें थोड़ी परेशानी जरूर उठानी पड़ती है मगर वे इस बात से निश्चिन्त है कि उनकी जमीन उनके पास है जिसपर उनका अपना अधिकार है।

लेकिन जरा उन मजदूरों से पूछिये जिनके पास अपनी जमीनें नही हैं; जो उसी  फैक्ट्री में काम करते थे; जिनके परिवार का पेट उस फैक्ट्री में ही मेहनत-मजदूरी करने की बदौलत भरता था, वे आज किस दशा में होंगे...? जबतक फैक्ट्री चली उसमें काम करने वाले मजदूर बहुत मजे में रहे पर फैक्ट्री बन्द होने के कुछ दिनों बाद ही उनके घर में खाने के लाले पड़ने लगे। बहुतों की तो खटिया खड़ी हो गई। आज भी उनमें से कुछ फैक्ट्री को दुबारा चलवाने के लिये नेताओं का घेराव करते हैं, चक्का जाम करवाते हैं और भूख हड़ताल करते हैं। उस समय से अबतक फैक्ट्री चलवा देने के दावे के साथ कई सरकारें आयीं और चली गयीं; पर उस बन्द पड़ी चीनी मिल के अलग-अलग हिस्सों में जंग लगती गयी और कारखाना बन्द का बन्द ही पड़ा रहा। जो मजदूर इसकी देख-रेख और मरम्मत में लगे रहते थे आज वही इसके कल-पुर्जों को चोरी-चोरी कबाड़ में बेचना शुरू कर दिये हैं ताकि वे अपने परिवार के पेट की आग एक वक्त को ही सही, बुझा सके। पर वे कबतक ऐसा कर सकेंगे..?

इस जिले से एक से बढ़कर एक दिग्गज नेताओं का ताल्लुक भी रहा। जिसमें से एक जाना-माना नाम आर पी एन सिंह का भी है जो यहीं से सांसद रहे हैं और पिछली यूपीए सरकार में गृह, भूतल-परिवहन और पेट्रोलियम विभाग में राज्य-मंत्री भी रह चुके हैं। वे सोनिया और राहुल गांधी के बेहद करीबी माने जाते रहे हैं। पडरौना चीनी मिल की चारदिवारी से लगे हुए इनके राजमहल से ही इनकी राजनीति दिन-दूनी, रात-चौगुनी चमकती रही है। उधर गन्ना-किसान और मिल-मजदूर आंदोलित होते रहे हैं- कभी अपने खेतो में खड़े गन्ने को आग लगा कर तो कभी शहर चक्का जाम कर। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। बेचारे मजदूर जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी वे दूसरे शहर की ओर पलायन कर गये। कुछ ने अपनी बीबी-बच्चों को बेसहारा छोड़कर सन्यास धारण कर लिया तो कुछ ने बेरोजगारी से आहत होकर आत्महत्या कर ली। काश, आज उनके पास भी जमीन होती तो शायद वे ऐसा करने पर मजबूर नहीं होते।

(रचना त्रिपाठी) 

 

Friday, February 13, 2015

वैलेन्टाइन का रसिया

बचपन की दहलीज पार करके जब मैं किशोरावस्था में कॉलेज पहुँची तो पहली बार वैलेंटाइन-डे का नाम कान में पड़ा। वह भी किसी ऐसी चीज के रूप में जिसपर बड़े-बूढ़ों का पहरा लगा रहता है। बड़ा रहस्यमय टाइप लगा यह। मुझे इस वैलेन्टाइन-डे का मतलब समझने में ही सालों लग गये। जबतक इस डे को मैं पूरी तरह समझ पाती मेरी शादी हो चुकी थी। अब तो मन मसोसने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन मैंने अपना रास्ता निकाल लिया है।

सबका 'वैलेन्टाइन डे' मनाने का अपना-अपना तरीका होता है। मेरा भी यह दिन मनाने का अपना एक अलग तरीका है। शादी होने से लेकर आजतक कोई भी 'डे' हो हम अपने घर में ही अपने पति और परिवार के साथ मनाते हैं। इस दिन हम दाल भरी पूड़ी, सब्जी, खीर और साथ में ‘रसियाव’ बनाते हैं। कुछ लोग रासियाव को बखीर भी कहते हैं। इस व्यंजन का नाम तो सुनने में ही 'रसिया' की तरह बहुत मीठा लगता है। यह चावल में गुड़ डालकर पकाया जाता है । मीठी सुगन्ध वाले चावल में जब गुड़ भी मिल जाय तो यह और कितना मीठा हो जाएगा। हमें कोई भी 'डे' मनाना हो तो यह डिश जरूर बनाते हैं। घर में जिस दिन यह व्यंजन खाने को मिल जाय तो समझ लीजिये कि उस दिन हम जरूर कोई न कोई 'डे' मना रहें होते हैं जैसे- वैलेन्टाइन-डे, हग-डे, किस-डे, बर्थ-डे हो। रसियाव तब भी बनता है जब कोई निजी उत्सव जैसे शादी की सालगिरह हो, या कोई पारंपरिक त्यौहार हो जैसे- दीपावली, दशहरा, होली आदि।

वैलेन्टाइन डे पर एक मौज़ू गाना है सुनायी देता है जिसे आपने भी सुना होगा- "चेहरा क्या देखते हो दिल में उतर कर देखो ना" मुझे लगता है कि इस प्रेम-दिवस पर सभी प्रेमी जन इसी लक्ष्य का पीछा करते हैं कि कैसे अपने प्रिय के दिल में पक्की जगह बना ली जाय। प्रेम होने से पहले ही शादी हो जाने और जीवन साथी मिल जाने के बाद मुझे तो यह समझ में ही नहीं आया कि दिल में उतरने का काम भी बड़ा चुनौतीपूर्ण है। रास्ता भला कहाँ से ढ़ूढतें...। एक साथ रहते-रहते दिन, महीने, फिर साल गुजरते गये। हर एक 'डे' आता गया और इनके दिल में उतरने का रास्ता इनकी बातों से और दूसरे लक्षणों से प्रकट होता गया। हमारे यहाँ दिल में उतरने का एकमात्र और सटीक रास्ता है जो पारंपरिक भी है और ठोस आजमाया हुआ भी है। दिल तक पहुँचने का यह रास्ता न आँखों से होकर जाता है और न दिमाग से गुजरता है। यह रास्ता गुजरता है इनके पेट से होते हुये। अगर पेट की पूजा बढ़िया हो गयी तो दिल बाग-बाग हो जाता है और वहाँ अपना रिजर्वेशन पक्का।

अब ये वेलेंटाइन 'डे'! जिसमें फरवरी का महीना हो, रंग-बिरंगे फूलों के मौसम के साथ फूल गोभी और मटर का सीजन हो तो वेलेंटाइन 'डे' का क्या पूछना..यह तो कुछ ख़ास ही हो जाता है। हम दोनों इस दिन 'फूलगोभी' और 'मटर' जरूर खरीदते हैं। फरवरी का महीना आते तक तो मटर की कीमत भी कम हो जाती है। इस समय हम एक-दो किलो मटर नहीं खरीदते हैं। बल्कि पूरे तीस-चालीस किलो मटर  इकठ्ठा खरीदकर इसके दाने छुड़ा लेते हैं और फ्रीजर में रख लेते हैं। इसके बाद पूरे साल जितना भी अलाना-फलाना-‘डे’ पड़ता है, हमारी थाली का जायका हरी-मटर के साथ और भी बढ़ जाता है।

हाँ मटर छुड़ाने का बोरिंग काम भी मुझे नहीं करना पड़ता इसलिए यह आनंद दोगुना हो जाता है। मेरे पति को मेरा आलू-प्याज काटना और घंटों मटर छुड़ाना बिल्कुल नहीं देखा जाता। उनका मुझसे साफ-साफ कहना है कि- “मेरे होते हुये तुम प्याज काटो और मटर छीलो यह हो ही नहीं सकता, मैं हूँ ना...!" बस इस प्रकार मेरा तो 'वेलेंटाइन डे' ऐसे ही बहुत ख़ुशी-ख़ुशी घर के आनंद में पूरा हो जाता है।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, January 26, 2015

अद्भुत ज्ञानी सन्त

हाल ही में हमारे देश के कुछ संतों को यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए हमें दस-दस बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्हों ने इस ज्ञान को अपने प्रवचन में मिलाकर भक्तों के हवाले कर दिया। यह सुनकर पहले तो मैं हतप्रभ रह गयी कि कैसे संभव होगा इस सदुपदेश का अनुपालन करना। अब तो बहुत देर हो गयी, लेकिन यह देखकर मन को समझा लिया कि ज्यादातर लोग हमारी तरह ही मजबूर होंगे। लेकिन यह धरती वीरों से खाली भी नहीं है।

एक परिवार जिसे मैं वर्षों से देखती-सुनती आ रही हूँ, लगता है उसने हमारे देश के वर्तमान संतो की बातों पर अमल करने की ठान ली है। उस घर के मुखिया को अपने परिवार का पेट भरने को दो वक्त की रोटी के लिए हाड़- तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। घर के उस एकमात्र कमाऊ सदस्य ने एक दिन एक्सिडेंट के दौरान अपना शारीरिक स्वास्थ्य भी गवां दिया। लेकिन इस महावीर ने सात बच्चों को पैदा करने के बाद डॉक्टर की रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में आठवें का भी नम्बर लगा लिया है। ऐसे में खेद है कि अब वो इन सन्तों की इच्छा के आंकड़े को पूरा करने में दो की संख्या से और पीछे रह गया है।

जो असाधारण मनुष्य अपनी आठ सन्तानें भेंट स्वरूप इस राष्ट्र को प्रदान कर चुका है अगर उसे इस बीच कुछ हो जाता है तो वह इस राष्ट्र की एकता और अखण्डता बनाये रखने के लिए दो रत्नों को और पैदा करने से चूक जाएगा। मेरी चिंता का विषय यही है। ऐसे में उन सन्तों की ही तरह इस देश की खातिर आपका भी कुछ फर्ज बनता है! उन सन्तों से आप यह निवेदन करें कि किसी भी हाल में उस इंसान को जिन्दा रखने के लिए अगर कोई जड़ी-बूटी हो तो उसे पिलाकर उसकी प्राण रक्षा  करें;  नहीं तो जो अभी पैदा नहीं हो सके उन दोनों रत्नों के अभाव में इस देश का क्या होगा। संतो के कहे अनुसार उनकी इस देश को बहुत जरुरत है।

जो इस देश की मिट्टी पर खड़े हो चुके हैं उन सातों औलादों की चिंता आप छोड़ ही दे। वे बड़े 'होनहार' हैं। कम उम्र में ही वे पड़ोसियों के घर में हाथ साफ करके अपनी व्यवस्था बखूबी कर लेते हैं। आंठवा भी गर्भ में पड़े-पड़े ही माँ की हाड़-मांस में बची-खुची आयरन-कैल्शियम और विटामिन्स को चूस कर जिन्दा बाहर आने के लिए इस चक्रव्यूह को पार  कर ही जाएगा। ...और उस औरत का क्या? गजब की ताकत बख्शी है ईश्वर ने उसको। आठवाँ बच्चा पेट में है और पहली बेटी ससुराल जाकर माँ बन चुकी है फिर भी उसके शरीर ने जवाब नहीं दिया है। अपाहिज हो चुके पति की दुर्दशा से भी कोई शिकन नहीं है चेहरे पर। गाँव भर के लोग दीदे फाड़े देखते है उस उर्वर 'शरीर' को। गजब की है जिजीविषा। कुछ न कुछ पा ही जाती है अपने और बच्चों के पेट के वास्ते।

तो हे सन्त जन, आप इन बच्चों की चिंता ना ही करें। जिस भगवान ने इनके शरीर में मुंह दिया है वही इनके मुंह में भोजन भी दे देगा। आखिर आप लोग भी तो इस देश का दिया तरमाल उड़ा ही रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा का प्रमाण आपका यह अद्‍भुत बयान दे ही रहा है। ये बच्चे भी ऐसा ही दिव्य ज्ञान अर्जित कर लेंगे। आप तो बस इन बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी में कहीं कोई व्यवधान ना खड़ा हो जाय उसका उपाय जरूर कर लें। आखिर 'पड़ोसी' के घर में हाथ साफ करने का इनका अनुभव भी तो हमारे देश के लिए बहुत कारगर साबित होना है। आपके मतानुसार यही आंकड़े ही तो देश की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाले हैं

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, January 14, 2015

पीके जैसी फिल्मों से सीखती पीढ़ी

आज सुबह-सुबह मेरी बचपन की सहेली का फोन आया। वह एक तरफ थोड़ी परेशान सी लग रही थी तो दूसरी तरफ अपनी बात बताते हुए हँसती भी जा रही थी। मैंने बोला- "अजीब हो यार, या तो पहले मुझे पूरी बात बताओ या पहले खूब हंस लो।" वह चुप हो गयी और अपने को संयत करके बताने लगी। उसकी बातों में शर्मिंदगी भी थी और झुंझलाहट भी; फिर भी बीच-बीच में हँसती जा रही थी। बच्चों ने हरकत ही ऐसी की थी कि उसपर न तो क्रोध किया जा सकता है, न उसे स्वीकार किया जा सकता है और न तो सराहा ही जा सकता है। बता रही थी कि उसका दस साल का बेटा अपने पिता से पीके फ़िल्म में “डांसिंग कार” के बारे में बात कर रहा था। बेटे ने कहा-

pk-parody

" वो डांसिग कार नहीं थी पापा।"

पापा ने पूछा- फिर क्या था..?

"उसमें सेक्स हो रहा था"

वो क्या होता है..?

"इसी से तो पापुलेशन बढ़ता है"

तुम्हें कैसे पता चला.?

"फ़िल्म से ही, आपने देखा नहीं उसमें स्ट्राबेरी फ्लेवर कामसूत्र  कंडोम का सीन था...!"

वो क्या होता है..?

"अरे मेरे बुद्धू पापा! वो पापुलेशन कंट्रोल ले लिए सेक्स के दौरान पहना जाता है"

पापा की थूक तो गले में सटक गई। बेटे का डिस्क्रिप्शन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसने फिर बताया-

" पापा मुझे तो लगा कार में बच्चा पैदा हो रहा हो रहा है"

वो कैसे पता चला..?

“आपने सुना नहीं उसमें इह.. इह..की आवाज आ रही थी। ”

अब उसे हम दस साल का बच्चा कहें या दस साल का जवान बेटा! हद होती है। हास्य और मनोरंजन के नाम पर ऐसे फूहड़ दृश्य परोसे जा रहे हैं जो हमारे सामान्य जन जीवन का हिस्सा भी नहीं हैं। हो सकता है फिल्म के कर्ता-धर्ता लोग ऐसे वातावरण में रहने के आदी हों लेकिन भारतीय समाज के आम आदमी के लिए तो इस फिल्म ने लगातार मर्यादा की सीमा पार की है। व्यावसायिक सिनेमा बनाने वालों की अधिक से अधिक पैसा कमाने की चाह और उपभोक्तावादी संस्कृति के जाल में उलझा हुआ जनमानस मिलकर जो काकटेल बना रहे हैं उससे मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे असहज दृश्य उत्पन्न होते ही रहेंगे। हम एक भयानक पैराडाइम-शिफ़्ट देख रहे हैं।

फिल्मों में आजकल जिस तरह के दृश्य दिखाये जा रहें हैं उसपर हमारे बच्चों का बालमन समय से पहले वयस्क हो रहा है। इन फिल्मों से करोड़ों की कमाई करने वाले डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टर ने फ़िल्म बनाते समय देश के नौनिहालों के बारे में रत्ती भर भी विचार नहीं किया होगा; और सेंसर बोर्ड ने तो अपनी आँख पर सिर्फ धर्म से जुड़ी समस्याओं का ही चश्मा चढ़ा रखा होगा; जिसने इन बेहूदे दृश्यों को नजरअंदाज कर फ़िल्म दिखाने की इजाजत दे डाली होगी। इन फिल्मी कलाकारों का क्या इन्हें तो सिर्फ अपने नाम, पैसा और शोहरत से मतलब है। हमारे बच्चों के भविष्य से तो जैसे कोई ताल्लुक़ ही न हो। सत्यमेव जयते के माध्यम से लोकप्रिय प्रवचन देने वाले आमिर खान से इसकी उम्मीद नहीं थी।

एक तरफ आमिर खान की फ़िल्म थ्री इडियट्स ने मासूम बच्चों के सामने नार्मल डिलेवरी की प्रक्रिया  का सीधा प्रसारण कर डाला तो दूसरी तरफ अब फ़िल्म पीके में बार-बार डांसिंग कार का दृश्य दिखाकर हमारे बच्चों को सेक्स के बारे में और जानने की उत्कंठा बढ़ा दी। ज़रा सोचिए, ऐसे दृश्यों से उनके दिमाग में कितने रहस्य अपनी छाप छोड़ गए होंगे...? अब ये बालमन आगे क्या करेगा.. उनका जिज्ञासु मन किस प्रकार शांत होगा..?

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, January 7, 2015

लोकल बनाम नेशनल देवी...

हमारे गाँव में किसी भी यज्ञ-प्रयोजन के सकुशल सम्पन्न हो जाने के बाद घर के सामने वाले बाग में स्थापित काली माँ के मंदिर में ‘कड़ाही चढ़ाने’ की परम्परा है। जहाँ पूजा-पाठ के बाद कच्ची मिट्टी के चूल्हे या मिट्टी के तेल से जलने वाले स्टोव पर गरमा-गर्म हलवा और पूड़ी - चाहे वह शुद्ध देशी घी का हो या कच्ची घानी सरसो के तेल में बना हो - उसे मंदिर परिसर में ताजा बनाकर ही देवी माँ का भोग लगाया जाता है।

यथा शक्ति तथा भक्ति की परिपाटी में देवी माँ को बस साफ-सुथरा “अपनी आँखों के सामने” बना प्रसाद ग्रहण करना पसन्द है। यहाँ घर से बनाकर लाने या बाजार से खरीदकर प्रसाद चढ़ाने की परंपरा नहीं है। उस मन्दिर के सामने कोई ऐसी दुकान नहीं है जिसपर रेडीमेड प्रसाद मिलता हो। गाँव-गाँव में स्थापित कोट माई, बरम बाबा, काली माई, डीह बाबा, इत्यादि नामों से प्रचलित देवी-देवताओं के असंख्य स्थानों पर यही होता है। नहा धोकर जाइए, अपनी श्रद्धा के अनुसार शीश नवाइए, कपूर-अगरबत्ती जलाइए या कड़ाही चढ़ाइए। कोई दक्षिणा नहीं देना पड़ता, न दानपात्र रखा होता है और न यहाँ किसी की पंडागीरी चलती है।

महालक्षमी मंदिर

महालक्षमी मंदिर

इस पूजा-विधि में प्रसाद बनाते वक्त साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह बर्तन की शुद्धता और सफाई हो या उस प्रसाद को बनाने वाले के लिए स्नान करके साफ धुले कपड़े पहनने की आनिवार्यता हो या फिर उस स्थान की लिपाई-पुताई करके स्वच्छ रखने की जहाँ चूल्हा जलाया जाता है। बिना स्नान किये और धुला-धुलाया वस्त्र पहने कड़ाही चढ़ाने पर निषेध है। ऐसा माना जाता है कि इस विधि में थोड़ी सी भी चूक देवी माँ को मंजूर नहीं है। वह शीघ्र ही कुपित हो जाती हैं और लापरवाही बरतने वाले के ऊपर ही सवार (प्रकट) हो जाती हैं। इस भय से लोग साफ-सुथरा प्रसाद बनाने में विशेष सावधानी बरतते हैं। बिहार की प्रसिद्ध छठ पूजा में तो शुद्धता की जबरदस्त संहिता का पालन होता है।

बच्चों को उस प्रसाद से थोड़ा दूर ही रखा जाता है कि कहीं वे उसे देवी माँ को अर्पित करने से पहले जूठा ना कर दें। जूठा मतलब देवी माँ को हलवा पूरी चढ़ाने (भोग लगाने) से पहले बच्चों द्वारा चख लिया जाना जूठा हुआ मान लिया जाता है। वैसे ही जैसे गाँव में सासू जी के भोजन करने से पहले अगर बहू ने खा लिया तो उस भोजन को सखरी यानी जूठा मान लिया जाता है। आज भी गाँव के देवी-देवता के वहां इसी विधि से प्रसाद बनाकर चढ़ाया जाता है। जिसे बहुत मन हुआ उसने प्रसाद के साथ एक-दो सिक्के चढ़ा दिए नहीं तो वे फूल-अक्षत, धार-कपूर आदि चढ़ा देने से ही प्रसन्न हो जाती हैं।

इसके विपरीत बड़े सिद्ध स्थलों पर जहाँ दूर-दूर से भक्तगण दर्शन के लिए आते हैं वहाँ इसी देवी माँ के दर्शन के लिए पंडा जी लोग तो रेडीमेड महंगे प्रसाद और कीमती चढ़ावे लेकर आने वाले भक्तों पर ही इनकी कृपा बरसने देते हैं। यानी वहां देवी माँ की उतनी नहीं चलती जितना कि उनके पहरू बने पण्डा महराज की चलती है। भले से वह प्रसाद बासी ही क्यों ना हो। व्यावसायिक स्तर पर वह कहाँ और कैसे बना इससे उनका कोई सरोकार नहीं होता। उसकी शुद्धता के बारे में भक्तगण भी शायद ही सोचते हों। मंदिरों के बाहर सजी प्रसाद की प्रायः सभी दुकानें भक्त गणों के जूते चप्पल रखवाने की सुविधा भी देती हैं, यानि देश भर के जूते चप्पल उस प्रसाद के बगल में ही रखे जाते हैं। मंदिर प्रबन्धन द्वारा जूता-चप्पल रखवाने की जो व्यवस्था की जाती है उसका प्रयोग करने के बजाय भक्तगण प्रसाद की दुकान में ही उसे रखना श्रेयस्कर समझते हैं।

मंदिर के भीतर भक्त महोदय पूर्ण स्नान करके आये है या नहीं यह कम महत्वपूर्ण है लेकिन उनके हाथ का चढ़ावा कितना दमदार है उसी से उनकी गरिमा का आकलन पंडा जी करते हैं। बड़े-बड़े मन्दिरों के आस-पास की दुकानों में मॉल की तरह सजा हुआ प्रसाद भी शायद ब्रांडेड हो जिसपर देवी माँ आँखमूंद कर विश्वास कर लेती हों। तभी तो भक्तगण को उनके कुपित हो जाने का कोई भय नहीं होता। मुझे तो यही माजरा समझ में आता है। नहीं तो फिर हमारे गाँव की देवी माँ शायद कम पढ़ी-लिखी पुराने खयालों की दकियानूस टाइप हों उन सासू माँ जैसी जिनका गुस्सा उनकी नाक पर ही होता है।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, December 4, 2014

इज्जत बचाने की सहनशक्ति...?

आज सुबह बच्चों को स्कूल-बस तक छोड़ने के लिए बिल्डिंग के नीचे आकर बाहर सड़क पर निकली तो देखा एक भाईसाहब सामने की दुकान से आँख मलते हुए बाहर निकले और सड़क पार करके मेरी बिल्डिंग की चारदीवारी की ओर बढ़े। उन्होंने आव देखा न ताव, मेरे सामने ही दीवार पर मूत्र विसर्जन की तैयारी करने लगे। पहले तो मैं थोड़े असमंजस में पड़ गयी, फिर मैंने सोचा कि इन्हें एक बार आवाज देकर जगा ही दूँ। शायद इनकी तमीज की नींद खुल जाय। हमने टोका - भाई साहब क्या कर रहे हैं आप..? वे अपना एक हाथ उठाकर अफसोस नुमा चेहरा बनाकर मेरी बात मान गये और उल्टे पांव वापस चले गये। तब तक उसी दुकान से दूसरे महाशय जो बहुत दबाव में दिखे उसी मुद्रा में कूदते हुए चले आ रहे थे। मुझे वहाँ खड़ा देखकर अचानक उनके कदम रुक गये और वे अपने एक हाथ से सिर का बाल सहलाते हुए वहीं खड़े हो गये।

दोनों शरीफ़ प्राणी करीब दस मिनट तक मेरे वहाँ से चले जाने का इंतजार करते रहे। मैं भी उनकी इस परेशानी को समझ रही थी मगर क्या करती; स्कूल-बस आज देर कर रही थी। सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी का तकाजा था कि जबतक बच्चे बस के भीतर न चले जाँय तबतक वहीं प्रतीक्षा करती रहूँ। इस प्रतीक्षा अवधि में मेरा मन सामने प्रकट हुए इस मुद्दे पर सोचता रहा। यह प्राकृतिक कार्य तो वे वहीं रोज करते हैं। उनके इस कृत्य से हम बिल्डिंग वाले परेशान भी रहते हैं। इनकी लघुशंका का समाधान करते-करते प्रायः बन्द रहने वाला हमारी बिल्डिंग का पिछला गेट तो खराब हो ही चुका है अब चार दीवारी की बारी है। हमने मजबूर होकर उस गेट को भी खोलने बन्द करने का सिलसिला शुरू कराया,  दो-तीन बार तो वहां चूना भी डलवाया ताकि गंदगी कट जाय और कहीं इनके आँख में थोड़ा सा भी पानी बचा हो तो स्वच्छता पर घिरे इनकी फूहड़ता के बादल छँट जाय।

खैर जो भी हो, उनकी आँखों में अपने लिये इतना लिहाज़ देखकर मैं खुश थी। तब मैने उन्हें वहां कभी भी पेशाब करने से मना किया। उन्हें ये बात रास नहीं आयी और बड़ी ही बेशर्मी से हमसे ही पूछ बैठे- तो आपही बता दें कि हम इसके लिये कहाँ जाएँ? मैं इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी। हक्का- बक्का खड़ी थोड़ी देर तक अपने दायें-बायें झांककर मानो उनके लिए विकल्प तलाशती रही; लेकिन कुछ नजर नहीं आया। अब उस आदमी की बड़ी-बड़ी लाल आँखें और काला-कलूटा चेहरा देखकर मुझे थोड़ा डर भी लगने लगा। मगर इस डर को मैंने दूर झटक दिया और उन्हें अपनी दुकान वाली बिल्डिंग में ट्वाएलेट बनवाने की सलाह दे डाली।

उन्होंने यह कहते हुये साफ मना कर दिया कि हमारी बिल्डिंग में शौचालय के लिये जगह नहीं है। हम नहीं बनवा सकते। मतलब उनके पास बस यही एक विकल्प था। साफ था कि इनके अंदर सामाजिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। फिर मै अधिकारों की बात पर उतर आयी और उनसे साफ-साफ कह दिया कि आपको हमारी बिल्डिंग की दीवार और गेट को गंदा करने का कोई अधिकार नहीं है। क्या आप अपने दरवाजे पर; दुकान के सामने या दुकान के अंदर पेशाब कर सकते हैं..? यदि ऐसा कर सकते हैं तो बिल्कुल करें मैं मना नहीं करुंगी। यह आपकी समस्या है; पर सड़क पार करके मेरी बिल्डिंग पर मत करें। इस बात पर उनकी बोलती बंद हो गई। शायद सोच रहें होंगे कि शराफत का जमाना नहीं है थोड़ी सी तबज्जो दी तो सिर पर चढ़ गयी।

बिल्डिंग के अंदर कुछ शुभचिंतक टाइप महिलाएं मुझे इस तरह से मर्दों के साथ टोका-टाकी करने से मना करती हैं। उनका कहना भी सही है कि कौन जाने ये मर्द किस बात पर इगो पाल लें, घात लगाये बैठे रहें और कहीं मौका मिलने पर मेरे साथ कुछ उँच-नीच कर बैठें। फिर तो समाज में मेरी क्या ‘इज्जत’ रह जायेगी? लेकिन ये बात मेरी समझ में नहीं आती है कि कितनी नाजुक और भंगुर होती है स्त्रियों की इज्जत जो एक बार चली गई तो फिर लौट कर नहीं आती; यह भी कि कैसे-कैसे जघन्य अपराध सह लेने के बाद भी बनी रहती है और जरा सी बात हवा में फैल जाय तो चकनाचूर हो जाती है।

इज्जत के नाम पर एक अवांछित प्रेम-संबंध के लिए एक लड़की की हत्या करने में जब एक स्त्री भी शामिल हो जाती है तो उसकी इज्जत नहीं जाती, घर के भीतर तमाम तरह के शोषण और बलात्कार का शिकार होते हुए भी उफ़्फ़ तक न करने पर इज्जत बनी रहती है लेकिन अगर शिकायत की आवाज बाहर निकल गयी तो इज्जत मटियामेट हो जाती है। किसी धोखेबाज भेंड़िए की वासना का शिकार हुई मासूम बेटी का गर्भपात किसी महिला डॉक्टर को मोटी रकम देकर चुपके से करा देने पर इज्जत बची रह जाती है लेकिन उस अपराधी के खिलाफ आवाज उठाते ही इज्जत तार-तार हो जाती है। राह चलते हुए आगे-पीछे से सीटी मारते लफंगो और उनकी अश्लील टिप्पणियों के बीच सिर झुँकाए अपमान का घूँट पीते हुए घर लौट आने पर इज्जत बची रहती है लेकिन पलट कर मुँहतोड़ जवाब देते ही इज्जत में बट्टा लग जाता है।

उफ्फ..इन महिलाओं को  कैसे उबारा जाय इस इज्जत जाने की ‘फोबिया’ से जो उन्हें अपने लिए ही कुछ अच्छा करने से रोकता है और चैन से सोने भी नहीं देता।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, November 28, 2014

ज्योतिष पर बहस के साइड-इफेक्ट्स

आजकल मैं बड़ी दुविधा में हूँ। जबसे स्मृति ईरानी ने एक ज्योतिषी से अपना हाथ दिखा लिया है, बल्कि जबसे उनके द्वारा ज्योतिषी से हाथ दिखाने का प्रचार इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया ने कर दिया है तबसे तमाम प्रगतिशील और वैज्ञानिक टाइप लोग इसपर तमाम लानत-मलानत करने पर उतर आये हैं। रोज-ब-रोज देश की छवि मटियामेट हो जाने से चिन्तित लोगों को देखकर मेरा मन भी धुकधुका रहा है। इस बहस में कहाँ रखूँ अपने आप को? हमने जन्तु विज्ञान में परास्नातक किया है। मतलब हाईस्कूल, इंटर, बी.एस-सी. और एम.एस.सी. सबकुछ `साइंस-साइड' से। लेकिन मेरी सभी परीक्षाओं का फार्म भरवाने से पहले अपने खानदानी पंडितजी जो ज्योतिष के प्रकांड विद्वान माने जाते हैं उनसे पापा ने शुभ-मुहूर्त जरूर दिखवाया है। यह बात भी सत्य है कि हम बिना फेल हुए हर साल अच्छे नंबर से पास भी होते रहे हैं। ऐसे में क्या आप एक विज्ञान के विद्यार्थी से यह उम्मीद करते हैं कि वह इतना अंधविश्वासी होगा…?

जन्म से लेकर आजतक हमारा कोई महत्वपूर्ण कार्य पंडितजी की राय या अनुपस्थिति में नहीं हुआ है। हम तो यही देखते आये हैं कि घर में कोई शुभ-कार्य करना है, यहाँ तक कि कहीं दूर की यात्रा पर भी जाना है तो बिना पंडितजी से शुभमुहूर्त दिखाये नहीं जाते है। शिक्षा- दीक्षा रही हो या विवाह का योग; दूल्हे की दिशा-दशा का अनुमान लगाना हो या शारीरिक सौष्ठव जानना हो; वह नौकरी-शुदाहोगा, बेरोजगार होगा या किसी व्यावसायिक या उद्योगपति घराने से संबन्धित होगा; यह सब ज्योतिषी जी से ही पूछा जाता था। मेरा दाम्पत्य-सुख निम्न, मध्यम या उत्तम कोटि का होगा; इन सब बातों की जानकारी के लिए हम ज्योतिष का ही सहारा लेते रहे।

विवाह हुआ नहीं कि घरवाले संतान-योग की जानकारी के लिए और होने वाली संतान सर्वगुण-संपन्न और योग्य ही हो इसके लिए ‘पंडीजी’ के बताये अनुसार अनुष्ठान, स्नान–दान, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन आदि हम बिना विज्ञान-गणित लगाये निरंन्तर करते रहे हैं। सच पूछिये तो हमें अपना वर्तमान और भूत-भविष्य जानने की उत्कंठा आजतक रहती है। मैं यह सब करते-धरते बेटी से बहू भी बन गई लेकिन अपना भी कोई चान्स राजनिति में है कि नहीं यह जानने की ललक आज भी है। घर पर आने-जाने वाला कोई व्यक्ति जो यह बता दे कि उसे ज्योतिष की कुछ भी जानकारी है तो उसे पानी पिलाने से पहले अपनी हथेली दिखाने बैठ जाती हूँ। कई बार तो अपनी इस हरकत के लिए डाँट भी खा चुकी हूँ। मगर क्या करूँ मन के आगे मजबूर हूँ। यह मन बहुत महत्वाकांक्षी होता है जो उसे कभी- कभी अंधविश्वासी होने पर भी मजबूर कर देता है। इस अंधविश्वास में कालांतर सुख हो ना हो मगर तात्कालिक आनंद बहुत होता है। कभी मौका मिले तो आजमाकर देखिए।

हमारे ज्योतिषी के कहे अनुसार तो अबतक की प्रायः सभी भविष्यवाणी सही साबित हुई है। ज्योतिषशास्त्र द्वारा जो चाँद और सूरज की चाल की गणना करके ग्रहण आदि का समय बताया जाता है वह भी बिल्कुल सटीक बैठता है। जब हमने कंप्यूटर का नाम भी नहीं सुना था तब भी ग्रहण लगने पर कब नहाना है और कब दान-पुन्न करना है यह पंचांग देखकर पापा बता देते थे; और हम लोग मनाही के बावजूद छत पर जाकर राहु-केतु के मुंह में समाते और निकलते चाँद मामा और सूरज देवता को देख भी लेते थे। सदियों से चली आ रही हमारी परम्पराएं भी तो जन्म से लेकर शादी-ब्याह और मृत्युपर्यन्त कर्मकांड तक बिना पंचांग देखे पूरी नहीं होती है। इसके बिना मन को संतोष और हृदय को आश्वस्ति कहाँ मिलती है?

अब हम तो आजतक यही जानते है कि पंडितजी ने बताया है कि विवाह से पूर्व “हल्दी” का लेप लगाने की रस्म है, तो  है। हमें हर हाल में यह रस्म अदा करनी है। नहीं किया तो अशुभ हो जायेगा। इस प्रक्रिया में कितना विज्ञान है, कितना ज्योतिष है और कितनी चिकित्सा यह कभी नहीं सोचा। उस समय हम तो शुभ-अशुभ मानते हैं। विज्ञान तो यही कहता है कि किसी तरह की बीमारी या साइड इफेक्ट से बचने के लिए हल्दी का प्रयोग अनिवार्य है। क्योंकि हल्दी बेस्ट एन्टीसेप्टिक होता है। विज्ञान को समझने में हमें थोड़ी देर लगेगी लेकिन पंडितजी की बात हम तत्काल समझ जाते हैं। इसका कारण यह है कि  हमारे तो छठी के दूध में ही ज्योतिष शास्त्र मिला हुआ है।

(रचना त्रिपाठी)