Tuesday, September 22, 2015

अतिक्रमण पुलिसिया

आज मैंने अपनी आँखों से एक ऐसे अतिक्रमण का वाकया देखा जो किसी फुटपाथ पर जीविका कमाने वाले ठेले-खोमचे अथवा टाइपराइटर वाले ने नहीं किया। बल्कि उसी वर्दी वाले एक 'लोकसेवक' ने किया जिस वर्दी को पहनकर अभी हाल ही में एक दरोगा जी अतिक्रमण हटाने के अति उत्साह में टाइपिस्ट के साथ दुर्व्यवहार करने के जुर्म में निलंबित हुए हैं।

यह लोमहर्षक घटना मेरी आँखों के सामने हुई। बल्कि मैं खुद ही इस पुलिस वाले की ज्यादती का शिकार होने से बाल-बाल ही बची। मैं अपनी सहेली से मिलने स्कूटी से जा रही थी तभी 100 न. हेल्पलाइन की पीसीआर गाड़ी बगल से गुजरी। इसमें ड्राइविंग सीट पर एक खाकी वर्दी वाला सवार था जो घोषित रूप से जनता का मददगार था। उसने भरी ट्रैफिक में अपनी गाड़ी को पूरी स्पीड में मेरी गतिशील स्कूटी के ठीक सामने लाकर अचानक घुमाने की कोशिश की। मैंने झट से ब्रेक लगाकर अपनी स्कूटी को जैसे-तैसे बचा लिया। लेकिन अगले ही क्षण उसने बिना हार्न बजाये भीड़ को चीरते हुये यू-टर्न लेने की कोशिश की और अपने सामने  से गुजर रहे एक बाइक सवार को ठोक दिया। बाइक सवार गिर पड़े।

पीछे से आ रही एक दूसरी बाइक भी गिरते-गिरते चिचिया कर संभल गई। चूँकि बाइक वाले नयी उम्र के लड़के थे इसलिये मुझे लगा कि कुछ नोंक-झोंक होगी और मामला गंभीर हो जाएगा। बाइक वाले युवक ने अपनी बाइक को तेजी से उठाते हुये बहुत गुस्से में पीछे पलट कर देखा भी। लेकिन पुलिस की गाड़ी पाकर उसके चेहरे का पारा जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा था उससे दोगुनी रफ़्तार से नीचे गिर गया। पुलिसवाले को मैंने एक बार ऊँची आवाज में बताने की कोशिश भी की- ''आप सड़क और नियम के साथ जबरदस्ती कर रहे हो।" लेकिन वहाँ मेरी बात वह बन गयी जिसे नक्कारखाने में तूती की आवाज कहते हैं।

मुझे ऐसा लगा वो महाशय अपनी गाड़ी का हूटर बजाते और बाइक वालों को घूरते अपनी सीट पर बैठे ट्रैफिक नियम के साथ छेड़छाड़ का आनन्द उठा रहे थे। सड़क और उसके नियमों के साथ पुलिस द्वारा किया गया ऐसा बर्ताव क्या किसी अतिक्रमण से कम है? यह देखकर मैं तो सन्न रह गई कि इतना खतरनाक स्टंट करने और बाइक गिरा देने के बाद भी उस पुलिस वाले के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी और सहम कर अपराध बोध से ग्रस्त होना उन लड़कों के हिस्से में आया।

मुझे लगा था कि लड़को में अभी नया खून हैं; जरूर अपना हिसाब वर्दी वाले रंगबाज से चुकता कर ही लेंगे पर मैं गलत थी। मैंने देखा बाइक पर सवार नौजवान लोगों का गरम खून ऐसा ठंडा हुआ कि मानो उसे नार्मल करने के लिए सिंकाई करनी पड़ेगी। वे अपनी बाइक जल्दी से साइड में लगाकर काठ बन गये नजर आ रहे थे।

ऐसी दुर्घटना अगर किसी आम नागरिक की गाड़ी से हुई होती तो मामला इतना आसान न होता और यही पुलिस उसे अपने कायदे से निपटा भी रही होती। अतिक्रमण का मैंने कभी समर्थन नहीं किया। पर ऐसे अतिक्रमण का क्या किया जाना चाहिये जिसका संबंध दूसरों के जान-माल की हानि से हो, और नुकसान पहुँचाने वाले स्वयं कानून के रखवाले हो।

अभी बीते दो दिन पहले की बात है एक दरोगा साहब को अखिलेश सरकार ने इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि उन्होंने फुटपाथ पर बैठे किसी गरीब की टाइपराइटर अपने पैरों से मार-मार कर तोड़ दिया। अतिक्रमण के जुर्म में अगर दरोगा जी ने उसे वहाँ से हटाने के लिए साम-दाम दण्ड-भेद का फार्मूला अपनाया तो उन्हें कौन रोक सकता था? उन्हें तो ऐसे ही बहुत से अधिकार मिले हैं जो वे बिना किसी के इजाजत के खुद प्रयोग कर सकते हैं। यह तो भला हो खबरिया चैनेलों और सोशल मीडिया का जो सरकार के ऊपरी माले तक खबर पहुँच गयी और मुख्यमंत्री जी ने संवेदनशीलता का परिचय देकर उस आदमी की मज़बूरी, गरीबी और लाचारी पर तरस खाते हुये आनन-फानन में उसका टाइपराइटर नया कर दिया।

सुना है उसके उत्पीड़न की क्षतिपूर्ति के लिए एक लाख की आर्थिक सहायता भी दी गयी है। यह कदम आम जनमानस के लिये जरूर राहत भरा होगा।  पर मेरे लिये यह टोकेनबाजी के अलावा कुछ भी नहीं है। फुटपाथ छेंककर बैठे दूसरे लोग सोच रहे होंगे की काश दरोगा की लात उनके ऊपर भी पड़ गयी होती तो मुख्यमंत्री की राहत आ जाती। सीएम साहब ने दरोगा जी को निलंबित कर उस गरीब को नये टाइपराइटर से उपकृत कर जनता के दिलों में अपनी जगह तो बना ली! पर बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि अतिक्रमण और विशेष तौर पर पुलिसिया अतिक्रमण से निजात पाने के लिये क्या यह सरकार कोई पुख्ता प्रबन्ध कर पाने में सक्षम भी है? क्या इसकी इच्छाशक्ति भी दिखायी देती है?

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 2, 2015

बाबू बनल रहें

दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में 'बाबू बनल रहें'

सात बहनों के बीच उनके इकलौते भाई थे-बाबू। बहुत देवता-पित्तर को पूजा चढ़ाने और देवकुर लीपने के बाद कोंख में आये थे बाबू। पंडी जी ने तो जन्म मुहूर्त के अनुसार दूसरा नाम रखा था लेकिन पूरा परिवार प्यार से उन्हें ‘बाबू’ ही कहता था। सभी बहनें उनसे अत्यधिक प्यार करती थीं। राखी के पर्व पर उनकी पूरी कलाई रंग-बिरंगी राखियों से भरी रहती थी। चार-पांच साल की उम्र में ही वो अपने दो-तीन भांजो के मामा बन चुके थे। उनकी बहनों द्वारा बाबू की देख-भाल और सेवा-सुश्रुषा देखकर मुझे कुढ़न होती थी। ‘बाबू’ की पसन्द-नापसंद का ख्याल रखना उनकी बहनों की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था। 'छोटिया' और 'बचिया' उम्र में बाबू से कुछ ही बड़ी थीं। छोटी करीब तीन साल और बचिया सिर्फ डेढ़ साल बड़ी रही होगी। वे दोनों चौबीस घण्टे परछाई की तरह बाबू के पीछे लगी रहतीं। सबसे बड़ी तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। दो बहनें घर के चूल्हा-चौका झाड़ू पोछा बर्तन आदि कामों में लगी रहती थी।
माता जी का बच्चे पैदा कर लेने के बाद एकसूत्री कार्यक्रम अपने पति के पास बैठकर ठकुरसुहाती गाना था। वे 'मालिक' की सेवा-टहल के लिये अपनी लड़कियों का नाम लेकर हमेशा हांकते-पुकारते रहने में ही थक जाती थीं। संवेदना विहीन, भावशून्य, निष्क्रिय चेहरा उनकी पहचान थी। उनके लिए शीत वसंत में कोई फर्क नहीं था। मैंने उन्हें कभी हँसते हुये नहीं देखा। न कभी आँखे ही नम हुई। सुना था कभी-कभार बाबू की हरकतें उन्हें मुस्कराने पर मजबूर कर देती थीं।
बाबू को छोड़कर बाकी बेटियाँ अपने पिता को बाऊजी पुकारती थी; लेकिन बाबू उन्हें पापा कहा करते थे।

पापा कहीं बाहर से लौटते तो छोटिया और बचिया बाबू की पूरी दिनचर्या उनसे हंस-खिलखिला कर बताना शुरू कर देतीं - बाबू ने क्या खाया; क्या पिया; क्या पढ़े; आज कहाँ-कहाँ घूमने गए; उनके पैरों में चप्पल किसने पहनाया; उनकी किन-किन बच्चों से लड़ाई हुई; किस-किसको इन दोनों ने बाबू के लिए मारा; किसके-किसके घर शिकायतें लेकर गयीं; और आज बाबू को दिन में क्या-क्या खाने का मन हुआ...? कभी समोसे-पकौड़ियां तो कभी जलेबियां ! यह सब सुनकर अधेड़ उम्र के पापा की आखों में चमक आ जाती।

चूँकि उनका घर बीच बाजार में ही  पड़ता था इसलिए बाबू की फरमाइश सुनते ही उनके खाने के लिए गर्मागरम समोसे, पकौड़ियाँ और जलेबी तुरन्त आ जाया करती थी।
बाबू के लिए पापा की आसक्ति देखते ही बनती थी। एक दिन गोधूलि बेला में बाबू ने कहा- "पापा, जब मैं सीढ़ी से चढ़कर छत पर आ रहा था तो मैंने अपने पैर के नीचे सांप देखा।” उस दिन उनके पापा की थूक गले में ही अटक गई। बदहवास से हो गये। पहले तो बाबू का पैर उलट-पुलट कर चारो तरफ  बारीकी से देखा कि कहीं साँप ने काटा तो नहीं है...! बाबू ने बताया भी था कि सांप ने काटा नहीं है, फिर भी उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
फिर पापा का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। कड़कती आवाज में फट पड़े- “छोटिया... बचिया... आव इहाँ”। जैसे ही फरमान जारी हुआ दोनों जिन्न की तरह वहां तत्काल प्रकट हो गई लेकिन बाप का रौद्र रूप देखकर दोनो सहम गयीं। चेहरे का भाव बता रहा था कि जरूर बाबू के प्रति कोई चूक हो गयी है। संयोग से बाबू के पैर में चप्पल नहीं थी। बाऊजी ने उन दोनों की कड़ाई से क्लास लेनी शुरू की..."कहाँ थी तुम दोनों? बाबू के पैर में चप्पल नहीं है... सीढ़ी पर साँप था... कहीं काट लेता तो? जी भर डांट लेने के बाद बोले- जल्दी जाओ नीचे से 'हरिहर मरिचा' लेकर आओ...। मैं भी उनके पास खड़ी थी। यह सुनते ही झट से बोल पड़ी- पर चप्पल तो इन दोनों के पैर में भी नहीं है और नीचे जाने का रास्ता भी वही है। साँप ने इनको काट लिया तो? लेकिन उस समय मेरी कौन सुनता? सही बात तो ये है कि उन दोनों को मैंने पहले भी कभी चप्पल पहने हुए नहीं देखा था।

बाबू के लिए उनकी चिन्ता और बाबूजी के आदेश का प्रभाव ऐसा था कि वे उल्टे पाँव तेजी से नीचे की ओर सीढ़ियों पर दौड़ पड़ीं। कुछ उतनी ही तेजी से जितनी बाबू के लिए बाजार से कागज के ठोंगे में समोसे और पकौड़ियाँ लाने के लिए दौड़ती थीं। इस दौड़ में कभी-कभी तो उन्हें ठोकर खाकर जमींन पर मुँह के बल गिरते भी देखा था मैंने। कभी-कभी कागज के दोने में लाये जाते बाबू के मन पसन्द समोसे जलेबियाँ या पकौड़ियाँ इन बच्चियों को ठोकर लगने के कारण जमीन पर गिर जाते और उनपर धूल की परत चढ़ जाती। ऐसे में उनके पापा बाबू को वह खिलाने से सख्त मना कर देते थे। फिर डांट-फटकार लगाकर दुबारा उन्हें पैसे देकर सावधानी से लाने की हिदायत देते।तब यह डाँट उन लड़कियों को बुरी नहीं लगती क्यों कि उसके बाद उनकी जिह्‍वा को भी कुछ स्वाद मिल जाता। बाबू का सामान लाने के लिये कभी-कभी दोनों बहनें आपस में ही भिड़ जाया करती। यहाँ तक कि गिरी हुई पकौड़ियाँ कूड़े तक फेंकने के लिए भी उनके बीच मार-पीट हो जाती।

पंडित जी को किसी ने बता दिया कि रोहू का मूड़ा, अंडे की जर्दी और बकरे की कलेजी से शरीर में ताकत आती है और दिमाग बढ़ता है।फिर तो यह बाबू के लिए रोज का उठौना हो गया।

बाबू के बाबा अपने गाँव-जवार के नामी ज्योतिषी और कर्मकांडी पंडित थे।उनके घर की रसोई में बिसइना लाना वर्जित था। लेकिन बाबू के लिए इंतजाम हो गया। बाजार से एक आदमी कलेजी के चार-पाँच टुकड़े रोज घर दे जाया करता था। उसे घर की रसोई से दूर आँगन में भुना जाता था। यह काम छोटिया किया करती थी। कलेजी को खूब साफ धुलकर; नमक लगाकर छोटी स्टोव की आंच पर भुनती। यह बहुत कौशल का काम था। उसकी नन्हीं सी उँगलियाँ यह काम करते-करते बहुत अभ्यस्त हो गई थीं। फिर भी उसमें से एक-आध कलेजी कभी जल भी जाया करती थी।

बचिया वहीं खंभे से चिपककर खड़ी-खड़ी बाबू को भुनी हुई कलेजी खाते देख निहाल होती रहती। उसे अपलक निहारने के अलावा क्या करती भला! अच्छी भुनी हुई कलेजियां बाबू खा जाते और जली हुई छोड़ देते। यह बची हुई कलेजी इन दोनो बहनों के लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं होती। किसी-किसी दिन बचिया कलेजी को खुद ही पकाने के लिये छोटी से लड़ जाया करती।

एक दिन आँगन में बहुत पानी बरस रहा था। ओसारे में खाट पर बाबूजी बैठे हुए थे। पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था, बाबू को कलेजी खिलाने में अबेर हो रही थी इसलिए वे छोटिया से बोले- "यहीं स्टोव जला कर कलेजी भून दे।" छोटिया खाट के पास ही कलेजी भूनने के काम पर लग गई। वह बहुत सावधानी बरत रही थी फिर भी एक टुकड़ा कलेजी भभकते स्टोव की आंच पर लगकर काली हो गयी थी। बाबू ने उसे नहीं खाया। दूर से यह देखकर खुश हुई बचिया दौड़कर आयी लेकिन उससे पहले ही छोटी ने पूरा टुकड़ा अपने मुँह में डाल लिया। बचिया को उसकी यह अनदेखी देखी न गई और चिल्लाकर बाऊजी से बोल पड़ी-" बाऊजी, छोटिया जानिके करेजिआ जरा देहलस हे कि बाबू छोड़ि दीहें आ ऊ खाए के पा जाई!"
बाबूजी के गुस्से का पारा चढ़ गया। अपनी आँखे लाल किये चूल्हे के पास जलावन के लिए रखी आम की लकड़ी के ढेर से एक च‍इला उठाकर पिल पड़े। डर से थरथर काँपती छोटिया चिग्घाड़ मारकर बाबूजी के पैरों से लिपट गयी-   "बाबूजी... अबकी माफ क दीं... अब कब्बो नाही जराइब!"

Monday, August 17, 2015

प्रेम बनाम विवाह

स्त्री हो या पुरुष- दोनों के जीवन में प्रेम का होना बहुत जरुरी है! प्रेम- यह वो संजीवनी है जिसे पाने की चाह शायद हर प्राणी में होती है।

पर प्रेम में पागल होकर प्रेमी के साथ विवाह कर लेना बहुत समझदारी नहीं होती। क्योंकि प्रेम और विवाह दोनों की प्रकृति अलग-अलग है। इसलिए प्रेम को विवाह के खाके में फिट करना थोड़ा कठिन हो जाता है। तो जरुरी नहीं है कि जिससे प्रेम करें उससे विवाह भी करें। क्यों कि प्रेमविवाह में विवाह के बाद पवित्र प्रेम की जैसी आशा होती है वह कहीं न कहीं विवाह के पश्चात क्षीण होने लगती है।

देश की अदालत ने लिव-इन को क़ानूनी मान्यता भले ही दे दी हो, लेकिन हमारी सामाजिक बनावट ऐसी नहीं है जहाँ प्रेम करने वालों को शादी किये बिना विशुद्ध प्रेम की मंजूरी मिलती हो। इसलिए प्रेमीयुगल इस संजीवनी को पाने की चाह में प्रेम की परिणति विवाह के रूप में करने को मजबूर हो जाते हैं; और विवाह हो जाने के बाद वैसा प्रेम बना नहीं रह पाता।

दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसे युगलों की भी बहुत बड़ी संख्या है जिनके जीवन में प्रेम का आविर्भाव ही शादी के बाद होता है। अरेंज्ड मैरिज की इस व्यवस्था को समाज में व्यापक मान्यता प्राप्त है। इसमें साथ-साथ पूरा जीवन बिताने के लिए ऐसे दो व्यक्तियों का गठबंधन करा दिया जाता है जो उससे पहले एक दूसरे को जानते तक नहीं होते। फिर भी अधिकांशतः इनके भीतर ठीक-ठाक आकर्षण, प्रेम और समर्पण का भाव पैदा हो जाता है। गृहस्थ जीवन की चुनौतियों का मुकाबला भी कंधे से कंधा मिलाकर करते हैं। संबंध ऐसा हो जाता है कि इसके विच्छेद की बात प्रायः कल्पना में भी नहीं आती। ऐसी आश्वस्ति डेटिंग करने वाले प्रेमी जोड़ों में शायद ही पायी जाती हो। वहाँ तो कौन जाने किस मामूली बात पर रास्ते अलग हो जाँय कह नहीं सकते।

प्रेम उस मृगनयनी के समान है जिसे पाकर कोई भी फूला न समाये लेकिन शादीशुदा व्यक्ति के लिए है यह अत्यंत दुर्लभ है। यह मत भूलिए कि विवाह उस लक्ष्मण रेखा से कम नहीं जिससे बाहर जाने की तो छोड़िये ऐसा सोचना भी भीतर से हिलाहकर रख देता है।

विवाह के पश्चात् स्त्री पुरुष के बीच प्रेम का अस्तित्व वैसा नहीं रह जाता जैसा कि विवाह से पहले रहता है। प्रेम का स्वभाव उन्मुक्त होता है और विवाह एक गोल लकीर के भीतर गड़े खूंटे से बँधी वह परम्परा है जिसके इर्द गिर्द ही उस जोड़े की सारी दुनिया सिमट कर रह जाती है। फिर विवाह के साथ प्रेम का निर्वाह उसके मौलिक रूप में सम्भव नहीं रह जाता। प्रेम का विवाह के बाद रूपांतरण सौ प्रतिशत अवश्यम्भावी है।


विवाह और प्रेम को एक में गड्डमड्ड कर प्रेमविवाह कर लेने वालों की स्थिति वेंटिलेटर पर पड़े उस मरीज की भाँति हो जाती है जिसकी नाक में हर वक्त ऑक्सीजन सिलिंडर से लगी हुई एक लंबी पाइप से बंधा हुआ मास्क लगा रहता है। यह प्रेम-विवाह में प्रेम-रस का वह पाइप होता है जिसपर यह संबंध जिन्दा रहता है। जिसके बिना चाहकर भी दूर जाने की सोचना खतरे को दावत देने जैसा है। सिलिंडर से लगी वह पाइप सांस लेने में सहायक तो जरूर बन जाती है पर वह स्वाभाविक जिंदगी नहीं दे पाती। अगर जिंदगी बची भी रह जाय तो शायद उसे उन्मुक्त होकर जीने की इजाजत न दे।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, July 30, 2015

वो लाल स्कार्फ

मेरा वो लाल स्कार्फ! कहाँ होगा...? जो मुझे आज  बिल्कुल भी याद नहीं है। कैसा था वो... कहाँ से लाऊँ उसे...? दिमाग के कपबोर्ड को खंगालते हुए अपने स्मृति-पटल पर उसकी कोई छवि नहीं बना पा रही हूँ। वही तो मेरी पहचान थी। काश मुझे वो मिल जाता तो मैं फिर से उसे ही पहनती। हो सकता है उसको पहनने के बाद मैं आज भी उतनी ही प्यारी लगने लगूँ जितनी कि कॉलेज के दिनों में अपने सीनियर्स को लगती थी।

मुझे कैसे पता होता कि मैं उसको पहनने के बाद कैसी लगती थी? आज से पहले किसी ने मेरे मुँह पर ये बात तो कही नहीं कि मैं लाल स्कार्फ में बहुत प्यारी लगती थी।

मेरी एक सीनियर जो इंटरमीडिएट में मेरे से एक क्लास आगे थी, आज उनका फोन आया। उन्होंने अपना परिचय देते हुये कहा- रचना! मैं रेनू... रेनू पांडे...तुम्हें कुछ याद आया...हम दोनों उदित (कॉलेज) में पढ़ते थे। मैं ख़ुशी से चौक कर बोल पड़ी- ओओओओ... रेनू दीईईईईई... कैसी हैं आप... कहाँ हैं आजकल... मेरी याद कैसे याद आई आपको...? मुझे तो सिर्फ आपकी ब्लू-सूट में दो चोटी वाली, चेहरे की एक हल्की परछाई सी याद है। चूँकि आप पढ़ने में बहुत अच्छी थीं, तो नाम कभी नहीं भूला। क्या आपको मेरा चेहरा याद है?

उनकी वो मधुर आवाज अभी तक मेरे कानों में गूँज रही है-
" अरे! मुझे तो अभी तक नहीं भुला वो  'लाल स्कार्फ' वाला गुलाबी चेहरा जिसमें तुम बहुत प्यारी लगती थी।"

ओहोहो... मेरा मन तो ऐसे झूमा कि बस पूछिये मत! सुना तो मैंने बिल्कुल स्पष्ट था। पर मुझे अपने ही कानों पर भरोसा न हुआ। और मैं उनसे गोल-मोल बातें घुमाते हुये फिर से पूछ बैठी- "क्या कहा... लाल स्कार्फ! कहीं मैं उसमें बेवकूफ तो नहीं लगती थी?"

"नहीं यार! तुम हम लोगों को बहुत प्यारी लगती थी। पहले तुमसे कभी ये बात कही नहीं। पर जब तुम लाल स्कार्फ लगाकर आती थी, तो तुम्हें बार-बार देखने का मन होता था। सच में।"

जी, तो मुझे कहना ये था कि अब वे बीते हुये दिन तो वापस आ नहीं सकते। पर रेनू दी! काश आपने मुझे ये बात पहले बता दी होती, तो मैं अपना 'वो' लाल स्कार्फ अपने साथ लेकर आयी होती! 

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, May 27, 2015

मैगी-कांड के साइड-इफ़ेक्ट्स

खाने के लिए मैगी हो या निभाने के लिए कोई रिश्ता, उसका आनंद सिर्फ "दो मिनट" में मिलता नहीं है। यदि सच्चा आनंद चाहिए तो सभी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे और जवानों को इस पर भरोसा करने से पहले अपने आप को थोड़ा वक्त देना चाहिए। जिस तरह रातो-रात बड़ा आदमी बनने की जल्दबाजी ने कई तरह के अपराधों को जन्म दिया है ठीक उसी तरह चट-पट खा लेने की जल्दबाजी ने "मैगी" को जन्म दे दिया है। मैगी ही क्यों ऐसे और भी बहुत से रेडीमेड उत्पाद हैं जिसे निपटाने में दो मिनट भी नहीं लगते। कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती; बस पैकेट फाड़ा और सीधे मुंह में ही उड़ेल लिया। कुरकुरे, अंकल-चिप्स, टकाटक, नाच्चोज, आदि तमाम ऐसे और नाम हैं जिन्हें याद रखना मुश्किल है।
ये माना कि जीवन में अनेक संघर्ष हैं, व्यस्तताएँ हैं और काम बहुत ज्यादा है; जिसमें खाने-पीने के लिए समय कम मिल पाता है; लेकिन इस बहाने से स्वास्थ्य की समस्या को दावत देना ठीक नहीं। जीने की राह बहुत कठिन है पर इसे सरल बनाने के तरीके भी बहुत से हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में इंसान खुद को स्वस्थ रखने के लिए भी समय नहीं देना चाहता। यह सही है कि फास्ट-फूड आपका पेट भरने में ज्यादा समय नहीं लेता। पर यह कैसे संभव है कि आप समय भी न दें और स्वाद के साथ सेहत भी बनी रहे।
यह धारणा गलत है कि खुद को सुखी बनाने के लिये सिर्फ एक ही उपाय है- "रुपैया"। सारी भाग-दौड़ रुपया कमाने के लिए ही तो हो रही है। लेकिन क्या इससे सारा सुख खरीदा जा सकता है?
मेरी मानो तो सुख का मतलब रुपैया ही सब कुछ नहीं है। इस रुपैया के पीछे अपने  शरीर को दांव पर लगाना ठीक न होगा; क्योंकि जब यह "देह" ही सही-सलामत नहीं रहेगी तो हमारी ख़ोपड़िया ठीक-ठाक कैसे काम करेगी...? बस खाली नवरत्न तेल लगाने से ख़ोपड़िया अगर कूल-कूल रहती और टेंशन चला जाता पेंशन लेने तो यह रामबाण इलाज सभी कर लेते, लेकिन इलाज तो कहीं और है...।
हमारे यहाँ जीवन की तीन मूल भूत आवश्यकताओं-रोटी कपड़ा और मकान में से सबसे महत्वपूर्ण है रोटी अर्थात् भोजन। अच्छे उदर-सुख की तीन अनिवार्य शर्तें इस भोजपुरी कहावत में समाहित है-"जूरे, रुचे, पचे"। आइए इसका अर्थ जानते है- सर्वप्रथम शर्त है अच्छे भोजन की उपलब्धता अर्थात् क्रयशक्ति का होना, दूसरी शर्त है भोजन का रूचिकर होना अर्थात् भोजन हमारी स्वाद इन्द्रियों के अनुकूल हो और हमें पसन्द आये। लेकिन अगर हमने भोजन अर्जित भी कर लिया और उसका स्वाद भी पसन्द आ गया तो भी जरुरी नहीं है कि वह भोजन डाइजेस्ट/ हजम भी हो जाएगा। इसलिए तीसरी महत्वपूर्ण शर्त है कि भोजन सुपाच्य भी हो अर्थात् जिसे हमारा पेट पचा सके। आज के फ़ास्ट फ़ूड कल्चर में यह शर्त सबसे महत्वपूर्ण है। आजकल स्वाद के चक्कर में बहुत हानिकारक तत्व हमारे शरीर में समाते जा रहे हैं। मैगी-कांड इसका ताजा उदाहरण है।
आपके शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन का सुख चाहिए और इस सुख के लिए इन तीन शर्तों में संतुलन चाहिए। तीनों में से किसी भी एक चीज की कमी हुई तो बात बिगड़ जाएगी। गरीबी है तो संतुलित भोजन नहीं मिलेगा। खूब पैसा कमाते हैं तो खाने के लिए होटल और रेस्तराँ जाना पसन्द करते हैं, जहाँ आपको तेल-मसाला और रासायनिक पदार्थों को पेट में भरना होता है। कुछ दिन बाद यह पचना बन्द हो जाएगा। तो भाइयों और बहनों, अगर आप आजीवन स्वस्थ और सुखी रहने की तमन्ना रखते हैं तो अपने और अपने परिवार के लिए थोड़ा वक्त निकालिये।
यह वक्त घूमने-फिरने में नहीं बल्कि अपने घर में, अपने किचेन में बिताइए। मिलजुलकर अपने हाथों से साफ-सुथरा और ताजा कुछ बना लीजिए। अपने घर का बना भोजन अवश्य ही आप और आपके परिवार के लिए हितकारी होगा। यह ऊपर बताई गयी तीनो शर्तों को एक साथ पूरा करेगा। पूरा संतुलन साध लेंगे आप। आपसी रिश्ते भी मजबूत होंगे । घर की रसोई में बना भोजन अच्छे स्वास्थ्य के साथ-साथ स्वस्थ रिश्तों को भी जन्म देता है। मेरी माने, तो इस नुस्खे को एक बार जरूर आजमाएं। आप पर भी किरपा अवश्य बरेसगी।
(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, May 13, 2015

आस्तीन में मुंहनोचवा

सन् 2002-03 की बात है, जब हम लोग नेपाल से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक जिला मुख्यालय की सरकारी कालोनी में रहते थे। उस समय पूरा शहर 'मुंहनोचवा' की मार से आजिज था।

आये-दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता था, आज यहाँ देखा गया तो कल वहाँ। कोई कहता कि पंजो वाला बड़ा जंतु है, नाखूनों से वार करता है। तो कोई उसे बड़ी टांगों और लंबी पूछ वाला कीड़ा बताता था। अखबार का एक पूरा पेज मुंहनोचवा से प्रताड़ित लोगों की तस्वीरों से भरा रहता था। इस विचित्र हमलावर का प्रहार अक्सर शरीर के खुले हिस्से में होता था। जैसे- हाथ, पैर और गर्दन का ऊपरी हिस्सा... घाव देखकर ऐसा लगता था मानों कोई  किसी साजिश के तहत रात में लोगों के ऊपर तेज़ाब फ़ेंक कर भाग जाता हो। ऐसा अखबारों में पढ़ा था। मुंहनोचवा की खोज का सिलसिला भी महीनों अख़बारों में जारी रहा। पर ठीक से किसी को मालूम नहीं चला कि वह देखने में कैसा था...?

उस दिन सुबह से शाम हो गई थी पर हमारी पड़ोसन मिसेज शर्मा नीचे नहीं उतरीं। दिन में करीब एक से दो बार बड़े करीने से पतली प्लेट्स में साड़ी पहने... कभी अपने दाहिने हाथ की तर्जनी में घर के दरवाजे की चाभी की रिंग डाले, उसे गोल गोल घुमाते हुए तो कभी ऊन-सलाई के साथ अपनी बुनाई का काम लिए वे नीचे सड़क पर निकल पड़ती थी। अक्सर सिर ऊपर उठाकर मेरी बालकनी की तरफ देखतीं और मुझे भी आवाज लगातीं- " जुनजुन की मम्मी नीचे आइये, चौकड़ी जमाते हैं।"

मेरी भी आदत सी बन गई थी - साहब लोगों के ऑफिस या कहीं बाहर जाने के बाद मुहल्ले की सभी गृहिणियों के साथ बैठकर गप्पे लड़ाते हुये ठहाके मारने की। मिसेज शर्मा के हाथों स्वेटर की बुनाई की चर्चा तो पूरी कालोनी में थी। अक्सर कोई न कोई स्वेटर की डिजाइन सीखने के बहाने हमारी चौकड़ी में साथ देने पहुंच ही आता था। फिर तो दो-तीन घण्टे कैसे बीत जाते थे, पता ही नहीं चलता।

उस दिन उनके घर का दरवाजा खुला हुआ था, लेकिन वे दिख नहीं रहीँ थीं। मुझसे भी रहा नहीं गया। मैं जायजा लेने अंदर चल पड़ी। भाभीजी...! आवाज लगाते उनके ड्राइंग रूम से होकर भीतर वाले कमरे  की तरफ बढ़ी।

"आप भी यहीं आ जाइये" किचेन की तरफ से आवाज आई। देखा तो पकौड़ियाँ बनाने के लिए प्याज काट रही थीं। मैंने पूछा- "कोई आने वाला है?"
"नहीं तो!"
"फिर इतनी सारी तैयारी किसके लिए?"
"आज चुन्नी के पापा ऑफिस से घर जल्दी आ गये थे। चाय के साथ पकौड़ियाँ भी बनाने को बोले हैं।"
"ओय-होय... तो ये बात है... तभी मैं कहूँ आज आप इतनी व्यस्त क्यूँ है जो नीचे नहीं उतरीं?"
" ऐसी कोई बात नहीं... सुबह से मेरी तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी"
"ओहो, इसीलिए भाई साहब घर जल्दी आ गये होंगे...? पर यह भी क्या खूब रही! जब तबियत ठीक नहीं थी तो आपको आराम करना चाहिए था और आप हैं की पकौड़ियों में लगीं हैं...? इससे तो अच्छा था कि वो ऑफिस में ही रहते"

मेरे मुंह से इतना सुनते ही वह भावुक होकर अप्रत्याशित आवेश में आ गई। मेरी तरफ पलटकर बड़ी तेजी से बोली- " उन्हें इससे क्या फर्क पड़ता है...?" बुदबुदाते हुये... उनकी आवाज फिर कुछ ऐसी आई- "मरती रहो पर करती रहो"

मेरी नजर  उनके चेहरे पर टिक गयी थी। जो गोरा-चिट्टा, चमकदार और गुलाबी नाजुक चेहरा देखकर बहुतों को रश्क हो जाता था उसकी हालत देखकर  मैं चौक पड़ी।
"अरे, ये क्या! आज फिर वही काला धब्बा...हो न हो भाभी जी, आपके घर में भी मुंहनोचवा है!"
अब मुंहनोचवा को लेकर मेरी उत्सुकता और चिंता बढ़ गई थी। मैं पूरी तरह विश्वास कर चुकी थी कि यह प्राणी काल्पनिक नहीं है। उनका बिगड़ा चेहरा देखकर मैंने मन में सोचा शायद इसीलिए लोगों ने उसका नाम मुंहनोचवा रख दिया हो।

मैं उनसे ठिठोली करने पर उतर आई- "अब पता चला इस मुएं मुंहनोचवा का राज... इसका टारगेट भी ख़ूबसूरत चेहरे ही हैं।" लेकिन उनकी प्रतिक्रिया अनमनी सी थी। सच में दुःखी लग रही थीं।

तत्काल हमने भाव बदला और उन्हें अलर्ट किया- "देखिये, आप सावधान हो जाइए! रोज रात में मच्छरदानी लगाकर सोया करिये। मैं कुछ दिनों से देख रही हूँ कि आपके चेहरे का एक दाग अभी ठीक नहीं होता तबतक दूसरा धब्बा फिर उग आता है। हो न हो यह मुंहनोचवा का ही प्रकोप है! और सुनिये, अगर आपको कहीं दिख जाय तो मुझे भी बताइयेगा। मैं भी उसे देखना चाहती हूँ। फिर हम दोनों अखबार वालों को जीते-जागते सबूत के साथ उस मुंहनोचवा के बारे में बताएँगे। सच में भाभी, फिर बड़ा मजा आएगा!"

हमेशा की तरह उनके चेहरे की चमक और बिंदास ठहाके वाली हंसी आज गायब थी। अचानक मेरे सामने एक अदद मुस्कान बनाये रखने की उनकी कोशिश भी नाकामयाब हो रही थी।
मेरे प्रश्नवाचक चेहरे की ओर आँख उठाकर उन्होंने देखा तो भीतर दबाया हुआ दर्द जुबान पर आ ही गया।
पीड़ा से भरी मुस्कान को सहेजकर धीरे से बोली-  "...और मुंहनोचवा जब मच्छरदानी के भीतर ही मौजूद हो तब क्या करेंगे...?"
इतना सुनकर कुछ देर तक मैं सन्न रह गई...! सोच नहीं पा रही थी की क्या बोलूँ। उनकी पीड़ा पर मुझे अबतक मजाक सूझ रहा था। अब ग्लानि ने घेर लिया।
मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा-
"यह तो बलात्कार है...?"
"नहीं-नहीं, यही उनका प्यार है...!" उनके चेहरे की वितृष्णा साफ़ झलक रही थी।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, April 15, 2015

बुरा होना अच्छा है

आपको नहीं लगता कि एक स्त्री को पूर्ण बनाने में जितना जरूरी उन प्राकृतिक गुणों जैसे- ममता; प्यार; धैर्य, सहनशीलता, त्याग और साहस का होना है, उतना ही जरुरी उन्हें खुद को सुरक्षित रखने के लिये अपने अंदर कुछ सांसारिक गुणों का भी समावेश करना है...? थोड़ी नफरत, थोड़ा क्रोध, थोड़ी लालच, थोड़ी चालाकी, कुछ क्रूरता और ढेर सारी ताकत! यह सब उन्हें इसी जमाने से सीखना होगा !!!

याद करिये, जब प्यार करने और अपनी मर्जी से अंतर्जातीय विवाह करने के जुर्म में पंचायत के ग्यारह सदस्यों ने बारी-बारी से उसकी आबरू लूटी थी तो कहाँ थी उसकी ये अनमोल निधियां जो कथित रूप से एक बेहतर संसार की रचना करती हैं। ये जो सद्गुण एक अच्छी स्त्री में रचे-बसे हैं... इनमें से कोई भी तो उसका साथ देकर उसकी रक्षा के लिये सामने नहीं आये। उसका धैर्य; उसकी लज्जा; उसकी शाहनशक्ति; उसका प्रेम; उसकी ममता और वह करुणा भी; जो इस समाज के ढांचे को मजबूत बनाये रखने के लिये कथित तौर पर बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्या प्रकृति प्रदत्त जन्मजात उसके ये सभी गुण इस समाजिक बर्बरता के आगे निरुत्तर नहीं हैं…?

जब यहाँ स्त्रियों को उनके पति की मृत्यु के पश्चात् उनकी चिता के साथ ही सती बनाने के लिए जबरदस्ती जलाया गया तब क्या वहां उसका यह ईश्वरीय गुण "साहस" उसकी सुरक्षा में ढाल बनकर खड़ा हुआ... काश उस समय उनके अंदर हिम्मत के अलावा हथियार उठाने की शक्ति भी होती तो उस समय यह प्रथा जन्म ही न लेने पायी होती।

16 दिसंबर की रात जब निर्भया उन दरिंदो द्वारा नोची जा रही तो क्या कर रही थी उसकी 'सहनशक्ति'... जो उसे टूटकर बिखर जाने से रोक न सकी? अगर इस सहनशक्ति के साथ उसके पास आर्थिक क्षमता भी होती तो उतनी रात में उसके पास खुद की गाड़ी; अपना ड्राइवर और अपनी सुरक्षा के लिये बॉडीगार्ड भी होता तब क्या उसके सामने यह नौबत आती...अगर आई भी होती तो क्या वे दरिंदे वहीं के वहीं ढेर न हो गये होते...?

जब कानपुर की ज्योति अपने पति की साजिश के तहत चाकुओं से गोद-गोद कर छलनी की जा रही थी उस समय भी तो उसका "धैर्य" जवाब दे गया... आपको नहीं लगता कि उसने भी समय रहते पहले ही थोड़ा अधीर होना सीखा होता तो उस दिन अपने पति के छलावे में नहीं आयी होती... और उसके जीवन की रौशनी भी आज हमारे बीच ही कहीं दीप्तिमान होती...!

और तो और, हमारी न जाने कितनी बहू-बेटियां माँ बनने के बाद भी जब दहेज के लोभ में जलायी जा रही थीं उस समय यह "ममता" और "त्याग" की निधियाँ किस कोने में दुबकी पड़ी हुईं थीं… जो उनको जलता देख थोड़ी भी पिघल न सकीं... अपनी सुरक्षा के लिये अगर इन्हें थोड़ी नफरत; थोड़ा क्रोध और थोड़ी लालच भी सीखनी पड़े तो क्या बुरा है...?

लखनऊ के निकट मोहनलाल गंज में जब एक महिला के साथ दुष्कर्म कर हत्या के बाद उसका लहू-लुहान नंगा बदन पूरी मीडिया में घण्टों तमाशा बनाया गया तब क्या  इस प्रकृति की "लज्जा" भी तार-तार न हुई...? ऐसे में अगर स्त्री थोड़ी बेहयाई ही सीख ले तो कम से कम इस "लज्जा" के लुटने के भय से कुछ पल मुक्त होकर जी तो सकेंगी...!

जहां कई दशकों से एक माँ की कोंख में इस दुनियां से बेखबर एक लड़की को ख़त्म करने की साजिश रची जाती रही हो और न जाने कितने तरह के औंजारों से उसके मोम से नाजुक बदन पर लगातार प्रहार किये गए हों उस समय क्या उसे "करुणा" की भीख भी मिलती है...? ऐसे में हम स्त्रियों को क्या सिर्फ भगवान् के भरोसे ही बैठे रहना काफी है...? उन्हें थोड़ा सा ज्ञान और गुण इस दुनिया और समाज से सीखकर अपनी सुरक्षा खुद से कर सकने के लिये अपना हथियार भी पहले से तैयार नहीं रखना चाहिये...?

(रचना त्रिपाठी)