Thursday, December 4, 2014

इज्जत बचाने की सहनशक्ति...?

आज सुबह बच्चों को स्कूल-बस तक छोड़ने के लिए बिल्डिंग के नीचे आकर बाहर सड़क पर निकली तो देखा एक भाईसाहब सामने की दुकान से आँख मलते हुए बाहर निकले और सड़क पार करके मेरी बिल्डिंग की चारदीवारी की ओर बढ़े। उन्होंने आव देखा न ताव, मेरे सामने ही दीवार पर मूत्र विसर्जन की तैयारी करने लगे। पहले तो मैं थोड़े असमंजस में पड़ गयी, फिर मैंने सोचा कि इन्हें एक बार आवाज देकर जगा ही दूँ। शायद इनकी तमीज की नींद खुल जाय। हमने टोका - भाई साहब क्या कर रहे हैं आप..? वे अपना एक हाथ उठाकर अफसोस नुमा चेहरा बनाकर मेरी बात मान गये और उल्टे पांव वापस चले गये। तब तक उसी दुकान से दूसरे महाशय जो बहुत दबाव में दिखे उसी मुद्रा में कूदते हुए चले आ रहे थे। मुझे वहाँ खड़ा देखकर अचानक उनके कदम रुक गये और वे अपने एक हाथ से सिर का बाल सहलाते हुए वहीं खड़े हो गये।

दोनों शरीफ़ प्राणी करीब दस मिनट तक मेरे वहाँ से चले जाने का इंतजार करते रहे। मैं भी उनकी इस परेशानी को समझ रही थी मगर क्या करती; स्कूल-बस आज देर कर रही थी। सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी का तकाजा था कि जबतक बच्चे बस के भीतर न चले जाँय तबतक वहीं प्रतीक्षा करती रहूँ। इस प्रतीक्षा अवधि में मेरा मन सामने प्रकट हुए इस मुद्दे पर सोचता रहा। यह प्राकृतिक कार्य तो वे वहीं रोज करते हैं। उनके इस कृत्य से हम बिल्डिंग वाले परेशान भी रहते हैं। इनकी लघुशंका का समाधान करते-करते प्रायः बन्द रहने वाला हमारी बिल्डिंग का पिछला गेट तो खराब हो ही चुका है अब चार दीवारी की बारी है। हमने मजबूर होकर उस गेट को भी खोलने बन्द करने का सिलसिला शुरू कराया,  दो-तीन बार तो वहां चूना भी डलवाया ताकि गंदगी कट जाय और कहीं इनके आँख में थोड़ा सा भी पानी बचा हो तो स्वच्छता पर घिरे इनकी फूहड़ता के बादल छँट जाय।

खैर जो भी हो, उनकी आँखों में अपने लिये इतना लिहाज़ देखकर मैं खुश थी। तब मैने उन्हें वहां कभी भी पेशाब करने से मना किया। उन्हें ये बात रास नहीं आयी और बड़ी ही बेशर्मी से हमसे ही पूछ बैठे- तो आपही बता दें कि हम इसके लिये कहाँ जाएँ? मैं इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी। हक्का- बक्का खड़ी थोड़ी देर तक अपने दायें-बायें झांककर मानो उनके लिए विकल्प तलाशती रही; लेकिन कुछ नजर नहीं आया। अब उस आदमी की बड़ी-बड़ी लाल आँखें और काला-कलूटा चेहरा देखकर मुझे थोड़ा डर भी लगने लगा। मगर इस डर को मैंने दूर झटक दिया और उन्हें अपनी दुकान वाली बिल्डिंग में ट्वाएलेट बनवाने की सलाह दे डाली।

उन्होंने यह कहते हुये साफ मना कर दिया कि हमारी बिल्डिंग में शौचालय के लिये जगह नहीं है। हम नहीं बनवा सकते। मतलब उनके पास बस यही एक विकल्प था। साफ था कि इनके अंदर सामाजिक मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। फिर मै अधिकारों की बात पर उतर आयी और उनसे साफ-साफ कह दिया कि आपको हमारी बिल्डिंग की दीवार और गेट को गंदा करने का कोई अधिकार नहीं है। क्या आप अपने दरवाजे पर; दुकान के सामने या दुकान के अंदर पेशाब कर सकते हैं..? यदि ऐसा कर सकते हैं तो बिल्कुल करें मैं मना नहीं करुंगी। यह आपकी समस्या है; पर सड़क पार करके मेरी बिल्डिंग पर मत करें। इस बात पर उनकी बोलती बंद हो गई। शायद सोच रहें होंगे कि शराफत का जमाना नहीं है थोड़ी सी तबज्जो दी तो सिर पर चढ़ गयी।

बिल्डिंग के अंदर कुछ शुभचिंतक टाइप महिलाएं मुझे इस तरह से मर्दों के साथ टोका-टाकी करने से मना करती हैं। उनका कहना भी सही है कि कौन जाने ये मर्द किस बात पर इगो पाल लें, घात लगाये बैठे रहें और कहीं मौका मिलने पर मेरे साथ कुछ उँच-नीच कर बैठें। फिर तो समाज में मेरी क्या ‘इज्जत’ रह जायेगी? लेकिन ये बात मेरी समझ में नहीं आती है कि कितनी नाजुक और भंगुर होती है स्त्रियों की इज्जत जो एक बार चली गई तो फिर लौट कर नहीं आती; यह भी कि कैसे-कैसे जघन्य अपराध सह लेने के बाद भी बनी रहती है और जरा सी बात हवा में फैल जाय तो चकनाचूर हो जाती है।

इज्जत के नाम पर एक अवांछित प्रेम-संबंध के लिए एक लड़की की हत्या करने में जब एक स्त्री भी शामिल हो जाती है तो उसकी इज्जत नहीं जाती, घर के भीतर तमाम तरह के शोषण और बलात्कार का शिकार होते हुए भी उफ़्फ़ तक न करने पर इज्जत बनी रहती है लेकिन अगर शिकायत की आवाज बाहर निकल गयी तो इज्जत मटियामेट हो जाती है। किसी धोखेबाज भेंड़िए की वासना का शिकार हुई मासूम बेटी का गर्भपात किसी महिला डॉक्टर को मोटी रकम देकर चुपके से करा देने पर इज्जत बची रह जाती है लेकिन उस अपराधी के खिलाफ आवाज उठाते ही इज्जत तार-तार हो जाती है। राह चलते हुए आगे-पीछे से सीटी मारते लफंगो और उनकी अश्लील टिप्पणियों के बीच सिर झुँकाए अपमान का घूँट पीते हुए घर लौट आने पर इज्जत बची रहती है लेकिन पलट कर मुँहतोड़ जवाब देते ही इज्जत में बट्टा लग जाता है।

उफ्फ..इन महिलाओं को  कैसे उबारा जाय इस इज्जत जाने की ‘फोबिया’ से जो उन्हें अपने लिए ही कुछ अच्छा करने से रोकता है और चैन से सोने भी नहीं देता।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, November 28, 2014

ज्योतिष पर बहस के साइड-इफेक्ट्स

आजकल मैं बड़ी दुविधा में हूँ। जबसे स्मृति ईरानी ने एक ज्योतिषी से अपना हाथ दिखा लिया है, बल्कि जबसे उनके द्वारा ज्योतिषी से हाथ दिखाने का प्रचार इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया ने कर दिया है तबसे तमाम प्रगतिशील और वैज्ञानिक टाइप लोग इसपर तमाम लानत-मलानत करने पर उतर आये हैं। रोज-ब-रोज देश की छवि मटियामेट हो जाने से चिन्तित लोगों को देखकर मेरा मन भी धुकधुका रहा है। इस बहस में कहाँ रखूँ अपने आप को? हमने जन्तु विज्ञान में परास्नातक किया है। मतलब हाईस्कूल, इंटर, बी.एस-सी. और एम.एस.सी. सबकुछ `साइंस-साइड' से। लेकिन मेरी सभी परीक्षाओं का फार्म भरवाने से पहले अपने खानदानी पंडितजी जो ज्योतिष के प्रकांड विद्वान माने जाते हैं उनसे पापा ने शुभ-मुहूर्त जरूर दिखवाया है। यह बात भी सत्य है कि हम बिना फेल हुए हर साल अच्छे नंबर से पास भी होते रहे हैं। ऐसे में क्या आप एक विज्ञान के विद्यार्थी से यह उम्मीद करते हैं कि वह इतना अंधविश्वासी होगा…?

जन्म से लेकर आजतक हमारा कोई महत्वपूर्ण कार्य पंडितजी की राय या अनुपस्थिति में नहीं हुआ है। हम तो यही देखते आये हैं कि घर में कोई शुभ-कार्य करना है, यहाँ तक कि कहीं दूर की यात्रा पर भी जाना है तो बिना पंडितजी से शुभमुहूर्त दिखाये नहीं जाते है। शिक्षा- दीक्षा रही हो या विवाह का योग; दूल्हे की दिशा-दशा का अनुमान लगाना हो या शारीरिक सौष्ठव जानना हो; वह नौकरी-शुदाहोगा, बेरोजगार होगा या किसी व्यावसायिक या उद्योगपति घराने से संबन्धित होगा; यह सब ज्योतिषी जी से ही पूछा जाता था। मेरा दाम्पत्य-सुख निम्न, मध्यम या उत्तम कोटि का होगा; इन सब बातों की जानकारी के लिए हम ज्योतिष का ही सहारा लेते रहे।

विवाह हुआ नहीं कि घरवाले संतान-योग की जानकारी के लिए और होने वाली संतान सर्वगुण-संपन्न और योग्य ही हो इसके लिए ‘पंडीजी’ के बताये अनुसार अनुष्ठान, स्नान–दान, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन आदि हम बिना विज्ञान-गणित लगाये निरंन्तर करते रहे हैं। सच पूछिये तो हमें अपना वर्तमान और भूत-भविष्य जानने की उत्कंठा आजतक रहती है। मैं यह सब करते-धरते बेटी से बहू भी बन गई लेकिन अपना भी कोई चान्स राजनिति में है कि नहीं यह जानने की ललक आज भी है। घर पर आने-जाने वाला कोई व्यक्ति जो यह बता दे कि उसे ज्योतिष की कुछ भी जानकारी है तो उसे पानी पिलाने से पहले अपनी हथेली दिखाने बैठ जाती हूँ। कई बार तो अपनी इस हरकत के लिए डाँट भी खा चुकी हूँ। मगर क्या करूँ मन के आगे मजबूर हूँ। यह मन बहुत महत्वाकांक्षी होता है जो उसे कभी- कभी अंधविश्वासी होने पर भी मजबूर कर देता है। इस अंधविश्वास में कालांतर सुख हो ना हो मगर तात्कालिक आनंद बहुत होता है। कभी मौका मिले तो आजमाकर देखिए।

हमारे ज्योतिषी के कहे अनुसार तो अबतक की प्रायः सभी भविष्यवाणी सही साबित हुई है। ज्योतिषशास्त्र द्वारा जो चाँद और सूरज की चाल की गणना करके ग्रहण आदि का समय बताया जाता है वह भी बिल्कुल सटीक बैठता है। जब हमने कंप्यूटर का नाम भी नहीं सुना था तब भी ग्रहण लगने पर कब नहाना है और कब दान-पुन्न करना है यह पंचांग देखकर पापा बता देते थे; और हम लोग मनाही के बावजूद छत पर जाकर राहु-केतु के मुंह में समाते और निकलते चाँद मामा और सूरज देवता को देख भी लेते थे। सदियों से चली आ रही हमारी परम्पराएं भी तो जन्म से लेकर शादी-ब्याह और मृत्युपर्यन्त कर्मकांड तक बिना पंचांग देखे पूरी नहीं होती है। इसके बिना मन को संतोष और हृदय को आश्वस्ति कहाँ मिलती है?

अब हम तो आजतक यही जानते है कि पंडितजी ने बताया है कि विवाह से पूर्व “हल्दी” का लेप लगाने की रस्म है, तो  है। हमें हर हाल में यह रस्म अदा करनी है। नहीं किया तो अशुभ हो जायेगा। इस प्रक्रिया में कितना विज्ञान है, कितना ज्योतिष है और कितनी चिकित्सा यह कभी नहीं सोचा। उस समय हम तो शुभ-अशुभ मानते हैं। विज्ञान तो यही कहता है कि किसी तरह की बीमारी या साइड इफेक्ट से बचने के लिए हल्दी का प्रयोग अनिवार्य है। क्योंकि हल्दी बेस्ट एन्टीसेप्टिक होता है। विज्ञान को समझने में हमें थोड़ी देर लगेगी लेकिन पंडितजी की बात हम तत्काल समझ जाते हैं। इसका कारण यह है कि  हमारे तो छठी के दूध में ही ज्योतिष शास्त्र मिला हुआ है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, November 19, 2014

लैंगिक समानता की कठिन राह

एक पुरुष किसी स्त्री के साथ जब  प्रेम में होता है तो वह उसके साथ “संभोग” करता है और जब नफरत करता है तो उसका “बलात्कार” करता है..ऐसा क्यों? नफरत की स्थिति में भी वह एक स्त्री को देह से इतर क्यों नहीं सोच पाता? अगर समाज का बदलता स्वरूप आज भी वही है जो सदियों पहले था तो यह स्पष्ट है कि पुरुष की सोच आज भी प्रधान है। अगर कुछ बदला है तो वो स्त्रियों का मुखर होना। आज के दौर में स्त्रियां अपने शोषण/ बलात्कार के बाद चुप बैठकर सुबकती नहीं, बल्कि चिल्लाती हैं।

इस बदलते परिवेश में अधिकांश पुरुष आज भी स्त्री को पितृसत्ता की जागीर ही समझते हैं। उसे अपनी इज्जत का डर ना हो तो मौका मिलने पर आज भी वह अपने इर्द-गिर्द एक नहीं हजार स्त्रियों को नंगा ही देखना पसंद करे। मगर जब एक स्त्री स्वेच्छा से अपनी पसंद के वस्त्र पहनती; अपने पसंद के लड़के/पुरुष के साथ घूमने जाती; एकांत में अपने प्रेमी के साथ समय बिताना चाहती है तो इसी समाज के पुरुष वर्ग को आपत्ति होने लगती है। इसमें उन्हें अपनी संस्कृति का ह्रास दिखाई देने लगता है। ऐसे लोग एक स्त्री को लांछित करते हुए यह भी कहने से नहीं चूकते कि “जब लड़की/स्त्री एकांत में एक (अपने किसी प्रेमी)  के साथ प्रेमालाप कर सकती या सो सकती है तो चार और के साथ उसे सोने में क्यों आपत्ति है? ऐसे में उसके साथ बलात्कार होना तो स्वभाविक है” क्योंकि ‘‘मर्द तो मर्द होता है।’’ इस समाज की यह सोच आज भी बताती है कि- पुरुष ही प्रधान है!

बहुत दिनों से ऐसे कईं सवाल मेरे जेहन में खटकते हैं जिसका जवाब ढूंढने की कोशिश करती हूँ तो यही मिलता है- पुरुष की अपनी ‘सोच’ और उसका अपना ‘सुख’ ही आज भी सर्वोपरी है। भले से इसके लिए उसे एक नहीं सैकड़ों स्त्रियों की देह से होकर गुजरना पड़े।

किसी के साथ आपसी रंजिश हो तो इस समाज का एक पुरुष वर्ग ‘माँ-बहन’ की गालियां देने से नहीं चूकता; और जब दोस्तों के साथ हंसी-ठिठोली भी करता है तब भी माँ-बहन ही करता फिरता है। पुरुषों को इसकी स्वतंत्रता किसने दी.. क्या हमारी संस्कृति में कहीं भी यह लिखा है.. किसी ने कहीं पढा़ है तो जरा बताए.. ?  या फिर कानून इन्हें गाली देने  के इजाजत देता है…?

ऐसा लोग कहते हैं कि- “शारीरिक सबंध बनाने के बाद एक स्त्री के लिए पुरुष का प्रेम और प्रगाढ़ हो जाता है।” तो किसी  स्त्री के साथ बलात्कार करने के बाद एक पुरुष के अंदर प्रेम क्यों नहीं उपजता..? बलात्कार के बाद वह एक स्त्री को मार-काट देने अथवा हत्या कर देने जैसा जघन्य अपराध क्यों कर बैठता है..? जानवर भी एक पल के लिए इस तरह का दुष्कृत्य करने से पहले ठिठक जाए।

घर से दफ्तर तक महिलाओं की स्थिति में पहले से सुधार आया है। लड़कियों की शिक्षा में बराबरी का अधिकार; नौकरी में भी लड़कियों को उतना ही अधिकार दिया गया है जितना कि लड़कों को दिया गया। इन दिशाओं में बदलाव निस्संदेह आया है। लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है - लगातार बढ़ते उपभोक्तावाद में घर-परिवार की आर्थिक जरूरतों का बढ़ता जाना । जबतक स्त्री/ पुरुष दोनों शिक्षित नहीं होंगे; रोजगारशुदा नहीं होगे तबतक एक परिवार के लिए सामान्य जीवन जीना भी मुश्किल होगा। इस बदलाव में हमें लैंगिक समानता की उत्कंठा कम और मजबूरी ज्यादा झलकती है। यदि ऐसा नहीं है तो उसे स्वेच्छा से कपड़े पहनने; प्रेम करने; अपनी मर्जी से शादी करने; अपने किसी पुरुष से मित्रवत बात करने के सवाल पर यह समाज क्यों बौखला उठता है; जो कथित रूप से बदल रहा है?

(रचना त्रिपाठी)

 

Saturday, November 1, 2014

मन स्वच्छ तो सब स्वच्छ

स्वच्छता अभियान तबतक नहीं सफल हो सकता जबतक कि इस देश का प्रत्येक नागरिक इस कहावत को सही नहीं साबित करता- “मन चंगा तो कठौती में गंगा”। हर प्राणी चाहता है कि वह अपना जन्मस्थल, कर्मस्थली और धर्मस्थल साफ-सुथरा रखे। अपने इस नेक इरादे को सफल बनाने के लिए हर संभव प्रयासरत भी है। पर वह एक स्थान भूल बैठा है- वह है ‘मनस्थल’। इस अभियान में इसका कहीं जिक्र ही नहीं है। इसकी सफाई की तरफ उसका ध्यान आकर्षित ही नहीं हो रहा। सर्वप्रथम  उसे मन के भीतर की गंदगी को साफ करना होगा जिसकी साफ-सफाई किसी उत्सर्जन क्रिया के जरिए नहीं होती।

इर्ष्या, द्वेष, कुंठा, क्रोध, भय, मोह, घमंड आदि  ऐसे रोग हैं जो मन की गंदगी से उपजते है और दीमक की भांति मनुष्य का पूरा व्यकित्व चट कर जाते है- बंजर खेत की तरह, जहाँ न तो कोई सकारात्मक विचार पनपता है और ना ही कोई अच्छी सोच विकसित होती है; क्योंकि व्यक्तित्व ही विचारों की उपजाऊ जमीन होता है।

मन की मैल कोई प्लास्टिक का कचरा नहीं है जो कभी समाप्त ही नहीं हो सकती। इसकी सफाई करना तो और भी आसान है। पर यहां हर आदमी का सिद्धान्त उलट जाता है। वह यही सोचता है कि- जग सुधरेगा, पर हम नहीं सुधरेंगे। जिससे वह अपनी जड़ स्वयं खोदता है। कभी-कभी तो इसका परिणाम बहुत भयावह हो जाता है।

जब तक व्यक्तित्व रूपी जमीन को रोग मुक्त नहीं बनाएंगे तब तक स्वस्थ, स्वच्छ और सुन्दर समाज की कल्पना करना भी बेमानी है, स्वच्छता अभियान की सफलता तो अभी दूर की बात है। लेकिन जाने क्यों मनुष्य इस मलिनता से निवृत्त होना नहीं चाहता। बल्कि एक हथियार के रूप में आपसी रंजिश में इसका इस्तेमाल भी करता है। जो इस समाज के लिए नुकसानदेह ही नहीं बहुत शर्मनाक भी है।

मनुष्य एक प्रगतिशील और विवेकशील प्राणी है। उसके पास तो इन सभी समस्याओं का समाधान करने का संसाधन भी है। बस कमी है तो एक मजबूत ‘इच्छाशक्ति’ की। इसे हासिल करना भी उसके लिए बहुत आसान है; क्योंकि वह एक वैज्ञानिक है, एक योगी है और एक चिकित्सक भी है।  उसे अपने इस हुनर का इस्तेमाल कर पहले मन को चंगा कर अपने व्यक्तित्व को चमका लेना चाहिए। फिर तो बाकी गंदगी अपने-आप साफ हो जाएगी।

(रचना त्रिपाठी)

 

Thursday, October 30, 2014

क्या औरत की भी माँ होती है?

औरत होकर ये तेवर
किसने दी तुम्हें इजाजत 
चीखने -चिल्लाने की
ये तो है मर्दों का हुनर

क्यों रुँधता है गला 
सूख जाती हैं आँखे 
खुद ही तो चुना था अपना धन 
रीति-रिवाज और सामाजिक बंधन

कहाँ है बेटी तेरी माँ 
जो पोछती तेरे आंसू 
भरते तुम्हारे भी जख़्म

मत भर झूठा दंभ कि 
तुम्हारी भी “माँ" होती है
अगर यह सच है तो बता 
क्यों चुपचाप यूं 
मझधार में अकेले ही रोती है

आगे से तू भी 
बेटी की माँ बन
उसे पराया न बना
अधिकारों की बात मत कर

पहले बन एक ‘औरत’ की माँ 
जो भरती है आत्मविश्वास 
देती है संबल 
सुख-दुख में 
देती है साथ, और
अपना कहने का हक

(रचना त्रिपाठी) 

 

Wednesday, October 1, 2014

भारत में सफाई- बड़ी मुश्किल है भाई

आज कल जिस तरह सफाई अभियान का जोश सरकार से लेकर सरकारी महकमें तक दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि सच में गांधी जी का सपना साकार होने जा रहा है। शरीर, मन और मस्तिष्क तीनों के विकास के लिए देश से कूड़ा- कचरा और गंदगी का उन्मूलन होना बहुत जरूरी है। जब तक इस देश का प्रत्येक नागरिक शरीर से स्वस्थ, मन से मजबूत और दिमाग से दुरुस्त नहीं होगा तब तक इस अभियान का उद्देश्य पूरा नहीं हो पायेगा। यह जिम्मेदारी सिर्फ ‘मोदी’ की नहीं है।

हमारे यहां एक कहावत कही जाती है- “कौन अभागा जे के राम न भावें” मतलब ये कि शायद ही कोई ऐसा हो जिसे ईश्वर को पाने की चाह न हो। ठीक वैसे ही साफ-सफाई को लेकर प्रत्येक नागरिक के मन में यही चाह होती है कि हमारा घर और आस-पास का वातावरण हमेशा स्वच्छ बना रहे। लेकिन इसे बनाये रखने के लिए हमारी चाहत ही काफी नहीं है बल्कि सबका दायित्व भी है कि वे इसके लिए पूरे मनोयोग से यह संकल्प लें कि अपने घर के साथ- साथ अपने आस-पड़ोस, गली मुहल्ला, चौराहा, नदी-नाले से लेकर गंगा की सफाई तक का ध्यान रखना है। लेकिन यह कार्य भी उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को पाना।

जिस प्रकार ईश्वर को पाने की चाह में हम अपनी भक्ति के साथ अपनी पूरी शक्ति भी लगा डालते है ठीक उसी प्रकार अगर एक मजबूत, स्वच्छ और सुंदर भारत के निर्माण के लिए इस देश के प्रत्येक नागरिक को अपना श्रम, साधन और शक्ति का योगदान करना होगा। लेकिन यह भारत है। यहां मामला थोड़ा उल्टा पड़ जाता है।

सबको सिर्फ अपने की पड़ी रहती है। लोग अपना घर तो साफ-सुथरा रखना चाहते हैं। लेकिन अपने घर की गंदगी निकालकर पड़ोस में फेंक कर पड़ोसी धर्म निभाने का स्वांग भी रचते हैं। हद तो तब हो जाती है जब अपने घर से मुंह में पान की पीक दबाये बाहर निकलते ही पड़ोसी की दीवाल पर थूक मारते हैं। घर से निकलते ही जहां-तहां खड़े होकर पैंट की जिप खोलकर ‘पेशाब’ कर निकल लेते हैं। बिना इसकी परवाह किए कि मेरे सामने से गुजरने वाले हर एक व्यक्ति खासतौर पर स्त्रियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।

ये वही लोग हैं जो अपने घर में अपनी मां-बेटी और बड़े बुजुर्गों के सामने सभ्यता की चादर ताने सभ्य होने का दिखावा करते हैं; जिन्हें सिर्फ अपने घर को साफ रखने की चिंता सताती है। अगर प्रत्येक व्यक्ति यही सोच रखने लगे तो सोचिए देश की हालत क्या होगी..? जिसका अंजाम इन्हें भी भुगतना पड़ेगा; और भुगतना पड़ता भी है। लेकिन फिर भी कोई बदलाव नहीं आता। मुझे आशंका है कि मोदी के माह अभियान के बाद भी हमें यह न कहना पड़े कि- वही ढाक के तीन पात।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 17, 2014

मर्दानी से खुशफहमी न पालें

मर्दानी फिल्म में रानी मुखर्जी ने औरत होते हुए भी जब बड़े-बड़े मुस्टंडो को मार-मार के बेहाल कर दिया, उनके हाथ-पैर तोड़कर जमीन पर लिटा दिया तो हॉल में तालियाँ बजाने वालों की कमी नहीं थी। खुश तो हम भी हुए; लेकिन बस थोड़ी देर के लिए। बाहर निकले तो जमीनी सच्‍चाई के बारे में सोचने लगे जो बिल्कुल अलग है।

जब मैं कक्षा ग्यारह में पढ़ती थी, अपने-आप को पी.टी. ऊषा से कम नहीं समझती थी। कहने का मतलब मैं धाविका थी। स्कूल की एथलेटिक्स चैम्पियन; जिससे मुझे यह गलतफहमी हमेशा बनी रहती थी कि मैं अपने भाइयों से बहुत ज्यादा ताकतवर हूँ। बात–बात पर अपने भाइयों को चैलेंज दिया करती थी- मुझसे तेज दौड़कर दिखाओ..चलो मुझसे पंजा लड़ाओ। तब वे शायद मुझे खुश करने के लिए कह दिया करते थे - “तुम मुझसे ज्यादा तेज दौड़ती हो और ताकतवर भी हो, हमें हरा दोगी।” यह कहकर वे मुझसे रेस करने से पहले ही हार मान जाया करते थे। मैं इस मुगालते में लम्बे समय तक अकड़ी रहती थी। मुझसे मात्र डेढ़ साल का छोटा था मेरा भाई जिससे मेरे अक्सर दो-दो हाथ हो जाया करते थे।

एक दिन की बात है। उससे मेरी खूब जमकर लड़ाई हुई। मैं लगातार उसे अपने दोनो हाथों से मुक्‍के जड़ी जा रही थी। घर में पापा की सख़्त हिदायत थी कि कोई भी छोटा (भाई/ बहन) अपने से बड़े के ऊपर हाथ नहीं उठाएगा। पापा के इस निर्देश की मुझे याद दिलाते हुए वह कह रहा था पापा ने ऐसा कहा है इसलिए मैं तुम्हारे ऊपर हाथ नहीं उठा रहा हूँ; वरना...। मैं फिर भी नहीं रुकी तो उसने आखिरी चेतावनी दी, “दीदी, मै जब तुम्हें मारुंगा तो नानी याद आ जाएंगी।” मैं बहुत आश्वस्त थी कि वह मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाएगा और अगर उठाता भी है तो मैं उसपर भारी पड़ूंगी। लेकिन मैं गलत थी। जब मेरी मार भाई के बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उसने मेरा दाहिना हाथ कलाई से पकड़ लिया, ऐंठकर मेरी पीठ के पीछे कर दिया और धम्म से दे मारा एक ‘जोरदार मुक्का’ मेरे पीठ पर।लड़ाईबस, फिर क्या था... एक ही मुक्‍के में मेरे अंदर की सांस अंदर और बाहर की सांस बाहर ही अटक गई। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मुझे ‘दिन में ही तारे नजर आने’ का वास्तविक अर्थ पता चल गया। मेरी हालत देखकर वह अपराधबोध से भर उठा। घबराकर वह मेरी पीठ सहलाने लगा और सफाई देते हुए बोला- “कितनी बार तुमसे कहा था कि मुझसे मत लड़ा करो.. देखो मुझे भी तुमने बहुत मारा है.. मैं तुम्हें मारता नहीं.. मुझे बहुत चोट लग रही थी.. और तुम हो कि मान ही नहीं रही थी... तो मैं क्या करता...”

मेरे बड़े भईया कुछ दूरी पर बैठे इस महाभारत का आनंद ले रहे थे। हमारी लड़ाई कब खेल-खेल से मार-पीट में बदल जाय इसका कोई ठिकाना नहीं था। ऐसे में मम्मी की भूमिका सिर्फ इतनी होती कि जब हममें वाद- विवाद होता तो वे हमको कहती- “जब तुम दोनों लड़ते-लड़ते हाथ-पैर तोड़-फोड़ लेना तब मुझे बुला लेना। आकर मैं दोनो की मलहम-पट्टी कर दूंगी। जरूरत पड़ी तो डॉक्टर के यहां भी ले जाउँगी। क्योंकि यहां तो मामला बराबरी का है। दोनो में से कोई मेरी सुनने वाला नहीं है।”

इस चोट के बाद मन ही मन मैने कसम खायी कि आज के बाद मैं अपने भाइयों के ऊपर हाथ नहीं छोड़ूंगी। गाल चाहे जितना बजा लूँ।

आज भी सोचती हूँ कि मैने उससे कम रोटियां नहीं खायी थी; और ना ही मम्मी ने मुझसे छुपाकर उसे ज्यादा दूध-दही खिलाया-पिलाया था। लेकिन मैं उससे बड़ी होते हुए भी जीत नहीं पायी। उसका एक मुक्‍का मेरे सौ मुक्‍कों पर भारी पड़ा; क्योंकि मैं उसके जैसी ताकतवर नहीं थी। यहाँ मेरी माँ ने कोई नाइंसाफी नहीं की थी। मुझे बनाने वाले ने ही मुझसे पक्षपात किया था। मैं जब भी उसके पास जाउँगी तो उससे इस बात की शिकायत जरूर करुँगी। यह बात भी सत्य है कि अगर ईश्वर ने लड़कों जैसी शारीरिक ताकत लड़कियों को भी दी होती तो इस देश का मंजर कुछ और होता। फिल्मों में एक ताकतवर स्त्री का अभिनय करना हकीकत से बिल्कुल अलग है। अगर सच में वैसा होता तो हर एक माँ अपनी बेटी को खूब खिला-पिला कर ‘‘मर्दानी” जरूर बनाती।

उस दिन को हम आजतक नहीं भुला पाए। इतने सालों बाद भी हम भाई-बहन जब मिलते हैं तो वह मुझे अपने उस एक मुक्‍के की याद जरूर दिलाता है। मैं उसे यह कहकर टाल दिया करती हूँ कि वह ऊधार है मेरे ऊपर, घबड़ाओ नहीं मौका मिलते ही चुका दुंगी। अब तो इसपर खूब ठहाके लगते हैं।मर्दानी

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 10, 2014

नरभक्षी को फाँसी देने में विलंब ठीक नहीं

                                                                    नरभक्षी                                                                                           नरभक्षी डेली न्यूज

निठारी नरभक्षी कांड में अपराधी सुरेंद्र कोली को आखिरकार फांसी की सजा देने का समय आ गया मगर सालों बाद; जब इस समय तक अधिकांश लोगों के दिलों-दिमाग में इस जघन्यतम अपराध की परछाईं मात्र ही शेष बची होगी। इसे इस देश की लचर कानून व्यस्था की लेटलतीफी कही जाय या उस नरपिशाच की क्रूर हिंसा के शिकार बने बच्चों के परिवार वालों के प्रति विलंबित न्याय जो वंचित न्याय के समान है। उनकी आंखे तो अभी तक अपने मासूमों की बोटी-बोटी काटकर खा जाने वाले राक्षस को सजा दिलाने के इंतजार में पथरा ही गयी होंगी।

बीते सालों में हमारे समाज में जितने भी अपराध हुए उनकी सुनवाई भी कुछ इसी रफ्तार से होती रही है। यही कारण है कि समाज में आपराधिक प्रवृतियां बढ़ रही हैं। अपराध तो हर एक दिन, हर घंटे, हर मिनट पर हो रहा है। लेकिन दोषियों के पकड़े जाने के बाद उनपर कानूनी कार्यवाही की लेटलतीफी का नतीजा है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए समाज को सही संदेश नहीं मिल रहा है। आज भी इस तरह की घटनाओं से अनजान बहुत से निर्दोष और भोले-भाले बच्चे सामाजिक अपराध के शिकार हो रहे हैं।

माना न्याय का अपना सिद्धान्त है कि- सौ अपराधी सजा पाने से भले ही छूट जाँय मगर एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। यह बिल्कुल सही है। लेकिन जब सजा के पात्र अपराधियों को कोर्ट से तारीख पर तारीख मिलने लगे तो कहीं न कहीं वे अपने को उतना कसूरवार नहीं मानते जितना कि वे वास्तव में होते हैं। यह तंत्र ऐसे काम करता है कि अपने को निर्दोष साबित कर लेने की या कम से कम अंतिम फैसला दशकों तक टाले रखने की उनकी आशा बनी रहती है और वे इसके लिए कोई कसर नहीं छोड़ते। कभी-कभी तो उन्हें महंगे वकीलों की दलीलों से सफलता भी मिल जाती है। अपनी सफलता पर वे खुलेआम इसी समाज में अपनी बेहयाई का गुणगान भी करते रहते है।

आर्थिक अपराधों के मामले में तो इसके ऐसे उदाहरण हैं कि अपराधी ने भारी अपराध करने के बाद लगभग पूरी जिन्दगी सत्ता के शीर्ष पदों का मजा लिया और दोषसिद्ध हो जाने के बाद जेल चले जाने के बावजूद राजनैतिक अखाड़े में विधिवत्‌ दाँव लगाता रहा और अपने उम्मीदवारों को जीत भी दिलाता रहा। जाहिर है कि जनता की स्मृति का लोप बहुत आसानी से हो जाता है।

इतने सालों बाद अगर इस अपराधी को जघन्य अपराध में फांसी की सजा मिली है तो कहीं न कहीं वो ऐसे लोगों के सामने जो इस प्रकरण से पूरी तरह से परिचित न हो, दया का पात्र भी बन सकता है। खासतौर पर ऐसे युवाओं के सामने जिनकी उम्र उस घटना के समय सिर्फ आठ से दस वर्ष रही होगी। आज की तारीख में वे सोलह से अठारह की उम्र में होंगे। इन्हें उन दिनों की खबरें याद नहीं होंगी जो कठोर से कठोर व्यक्ति का खून जमा देने वाली थी। उन्हें पता नहीं होगा कि कितने मासूमों के शरीर से काटे गये अंगों के टुकड़े उस आदमखोर के किचेन की खिड़की के पीछे बहने वाले नाले से बरामद किये गये थे।

आज तो सुरक्षाकर्मियों से घिरा हुआ फाँसी की सजा से भयाक्रान्त दिखता सुरेन्द्र कोली ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर दिख रहा है। दीन-हीन और कातर। मुझे डर है कि उसकी रक्षा के लिए चन्द वकीलों के साथ-साथ मानवाधिकारवादी धंधेबाज दस्ता भी न कूद पड़े। काश सुप्रीम कोर्ट द्वारा बढ़ायी गयी फाँसी की मियाद एक सप्ताह से आगे न बढ़े।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, September 4, 2014

प्रेम-प्रपंच

प्रेम-प्रपंच

पुष्पा मैत्रेयी जी के एक आलेख में एक वाक्य पढ़कर पहले तो मैं चकित हुई लेकिन ध्यान से दुबारा सोचने पर बहुत ही अर्थपूर्ण लगा यह संदेश- “अब जब मोहब्बत का जलवा है तो कभी किसी समझदार आधुनिक युवती को किसी कंगाल बूढ़े से प्रेम क्यों नहीं होता यदि कहीं ऐसा हुआ हो तो मुझे बताइये। मै उस मोहब्बत को सलाम भेजूंगी ”

यह प्रसंग उन स्त्रियों के लिए आया है जो किसी पुरुष के प्यार में पड़कर उससे शादी करने का निर्णय ले लेती हैं यह जानते हुए भी कि वह पुरुष पहले से शादी-शुदा है। हाल ही में कुछ ‘देर-आयद-दुरुस्त आयद’ टाइप “प्रेम-विवाह’ अखबारों की सुर्खियाँ बने और न्यूज चैनेलों ने भी खूब चटखारे लेकर खबरें दिखायीं। इस प्रेम में पोलिटिकल पॉवर और धन-सम्पत्ति की भूमिका को उभरते देखा गया तो यह भी कहा गया कि प्यार उम्र नहीं देखता। कुछ सुबह के भूले शाम को घर लौटते बताये गये तो कुछ ढलती उम्र वाले राजनेता अपने उत्कृष्ट व्यक्तित्व व विचारों से सेलिब्रिटी महिलाओं को क्लीन बोल्ड करते बखाने गये।

लेकिन पुष्पा जी इस सारी बखान और खबरनवीसी के पीछे जाकर किसी और ही सच्चाई की ओर इशारा करती दिखायी दे रही हैं। उनके मतानुसार यदि कोई पुरुष एक ही साथ कंगाल और बूढ़ा दोनो हो तो कोई समझदार आधुनिक युवती उससे प्यार नहीं करेगी। मतलब यह कि किसी समझदार युवती का प्यार पाने के लिए या तो आपको बांका जवान होना पड़ेगा अथवा मोटे माल का मालिक होना पड़ेगा। अगर किसीके पास यह दोनो काबिलियत हो तो समझिए उसके दोनो हाथ में लड्डू हैं जिसके लिए तमाम आधुनिक युवतियाँ मचलती चली आयेंगी। यदि पुष्पा जी की बात सही है तो मुझे प्रेम के बारे में बड़ी चिन्ता ने घेर लिया है। मैं उस बॉलीवुड अभिनेता की बात नहीं कर रही जिसका अधिकांश रोमांटिक फिल्मों में नाम ही प्रेम रखा गया है।

मै ‘प्रेम’ के बारे में अपने कुछ ऐसे भाव व्यक्त करना चाहूंगी जो पुष्पा जी के महावाक्य से पहले तक मेरे मन में पलते रहे हैं। प्रेम किसी निरे ठूंठे व्यक्ति अथवा वस्तु से नहीं हो सकता। प्रेम एक आकर्षण है, जो किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति केवल उसकी समग्रता में ही नहीं बल्कि उसके कुछ अंश के प्रति भी हो सकता है। यह कह देना कि किसी को किसी कंगाल बूढे व्यक्ति से प्रेम नहीं होता, मुझे मान्य नहीं है। मै इस ख़याल से असहमत हूँ। अगर यहां कंगाल होने का मतलब सिर्फ रूपये-पैसे और धन-दौलत की कमी से है तो भी यह सोचना गलत है।

अगर किसी बूढ़े व्यक्ति के पास धन-दौलत न हो मगर उसके अंदर मन को भली लगने वाली बात करने की कुशलता हो, उत्कृष्ट ज्ञान हो और प्रभावशाली बुद्धिमत्ता हो, वह साहित्य संगीत या दूसरी कलाओं का हस्ताक्षर हो तो भी वह प्रेम और आकर्षण का केन्द्र बिन्दु हो सकता है। ऐसे व्यक्तियों पर स्त्रियां निःसंदेह आकर्षित होती हैं बिना उसकी उम्र या पैसा देखे। यह आकर्षण भी प्रेम का एक रूप है। प्रेम जब किसी अभीष्ठ को पाने के लिए किया जाय तो वह प्रेम की श्रेणी में नहीं बल्कि स्वार्थ की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। कहा गया है कि प्रेम अंधा होता है। लेकिन मुझे लगता है कि असली प्रेम गूंगा और बहरा भी होता है। प्रेम एक ऐसी भावना है जिसका सिर्फ एहसास किया जा सकता है। इसीलिए पुष्पा जी ने अपने सधे हुए शब्दों में ‘समझदार और आधुनिक’ होने की शर्त भी जोड़ दी है। ये दोनो गुण ऐसे हैं जो निःस्वार्थ विशुद्ध प्रेम की राह पर जाने से रोकते हैं।

प्रेम में यदि किसी चाहत के लिए शब्द फूटने लगे तो वह प्रेम नहीं कुछ और पाने की कामना है। प्रेम में पाने या खोने जैसी कोई चीज नहीं होती। जिसे वास्तव में प्रेम हो जाय उसका जीवन बहुत सुखद और सरल हो जाता है। उसे अपने से ही नहीं बल्कि अपने आस-पास में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति से - बूढ़ा, बच्चा, जवान - सबकी भावनाओं की कद्र होने लगती है। वह किसी और का घर उजाड़ने में नहीं बल्कि बसाने में विश्वास करने लगता है। विवाह एक रस्म है और प्रेम एक भाव। प्रेम को किसी भी रस्म में बांध देना उसपर पहरा बिठा देने जैसा है। निःस्वार्थ सच्‍चे प्रेम को सलाम भेजने में पुष्पा जी के साथ मैं भी खड़ी हूँ।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, August 23, 2014

उभय-लिंगी चोला

आज के इस दौर में लड़कियों और स्त्रियों के प्रति बढ़ती असुरक्षा और हमारे कथित खैरख्वाहों की बयानबाजी को देखते हुए मेरे मन को एक तरकीब सूझ गयी है। लड़कियों की छेड़छाड़ से लेकर उनका यौन उत्पीड़न और सामूहिक बलात्कार का कारण उनके पहनावे को बताया जा रहा है। सूरज उगने से पहले और डूबने के बाद इस औरत जात को घर से बाहर निकलने की बीमारी भी एक बड़ी समस्या है जो समाज के ठेकेदारों से सम्हाले नहीं सम्हल रही है। मैं जो सोच रही हूँ उसे आप इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान भी कह सकते हैं -

सरकार को चहिए कि स्त्री और पुरुष दोनो को घर से बाहर निकलने पर एक ही जैसा वस्त्र यानी ‘उभय-लिंगी चोला’ पहनना अनिवार्य कर दे; ठीक वैसे ही जैसे स्कूली बच्चों के लिए यूनिफार्म में होना जरूरी होता है। इस चोले की बनावट ऐसी होनी चाहिए जिससे वह पूरे ‘बदन’ को अच्छी तरह से ऊपर से नीचे तक ढक लें…इस प्रकार कि घर से बाहर निकलने वाला वह मनुष्य स्त्री है या पुरुष, लड़की है या लड़का इसकी पहचान करना मुश्किल हो जाय… और बाहर निकलने वाला प्रत्येक व्यक्ति “पादरी” लगने लगे। इस चोले को पहनने के बाद किसी के मन में असमानता की भावना या हीनता ग्रन्थि नहीं पनपने पाएगी… अमीर- गरीब सभी एक समान दिखेंगे...घर से बाहर जाने वाले वाले सभी लोग यूनीफार्म में एक ही जैसे नजर आने लगे तो सड़क पर आवारा घूमते जानवरों, सॉरी शोहदों के द्वारा स्त्रियों की पहचान करना मुश्किल हो जायेगा। जिससे लड़कियों के साथ बलात्कार और एसिड अटैक जैसी घटनाओं की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाएगी।

दूसरी तरफ हमारे खैरख्वाह भी लड़कियों और माताओं-बहनों के वस्त्र पर बेवजह टिप्पणी करने की तकलीफ से बचे रहेंगे… स्त्री-पुरुष के अंदर एक दूसरे को देख आकर्षण बल में भी कमी आएगी; स्त्री का बदन ढका रहेगा तो उसे देखकर उसी की तरह ढके बदन वाले पुरुष को कोई उत्तेजना नहीं पैदा होगी और स्त्री देह पर यौन हमले की घटनाओं में भारी गिरावट आ जाएगी…। इस तरह सामाजिक वातावरण भी स्वस्थ बना रहेगा। काम वसना से प्रेरित पुरुष अगर किसी स्त्री से दुराचार करने का दुस्साहस करेगा भी तो उसकी सफलता का प्रतिशत बहुत ही कम रहेगा क्योंकि ऐसा करने में उसे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा... पकड़े जाने के डर से  उसके पास छोड़कर भाग निकलना ही एक मात्र विकल्प बचेगा और पादरी के परिधान में सरपट भागना भी आसान नहीं होगा। फिर कोई मूर्ख ही ऐसा रिस्क लेगा अपनी फजीहत कराने के लिए।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, August 13, 2014

राखी की परंपरा और आधुनिक परिवेश

तीन दिन हो गया रक्षाबंधन का त्यौहार बीते हुए…लेकिन मै आज भी उस पर्व की महत्ता पर अटकी हुई हूँ...रोज यही सोचती हूँ कि इस पर्व को मनाने की आखिर क्या वजह रही होगी… सुरक्षा तो सबके लिए जरूरी है, वह स्त्री हो या पुरुष…लेकिन यह विशेषतौर पर स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ही क्यों मनाया जाता है… यह भाई-बहनों के बीच एक विश्वास की डोर है… प्यार का बंधन है… मगर इस त्यौहार को रक्षाबंधन के नाम से मनाते है… इस पर्व के उपलक्ष्य में हर एक स्त्री अपने भाई को वह चाहे उससे उम्र मे दस साल छोटा हो या बड़ा… रक्षासूत्र बांधती है और उससे यह संकल्प लेती है कि वह उसकी रक्षा करे… ऐसा क्यों है…? एक बेटी या लड़की के मन में जन्म से ही असुरक्षा का बोध कराना और फिर उस घर का लड़का/ भाई की कलाई में एक लड़की/ बहन के द्वारा राखी बंधवाना, यह प्रथा क्यों बनायी गई…?

सोशल मीडिया पर ऐसी बहस चल रही है कि क्या आज के दौर में यह पर्व एक स्त्री के मन में असुरक्षा का भाव उत्पन्न नहीं करता…! जहां एक तरफ स्त्रियां अपने को पुरुष से किसी भी मामले में कम न होने का दावा करती हैं… दूसरी तरफ इस पर्व के माध्यम से राखी बांधकर भाई; पिता; चाचा या भतीजा के आगे अपनी सुरक्षा का वादा मांगती हैं…कहीं न कहीं उनके अंदर यह बात बचपन से ही बैठायी जा रही है कि वह इन सभी से कमजोर है…। सवाल है कि अगर कमजोर हैं भी तो किस मामले में- शारीरिक, आर्थिक या मानसिक या बौद्धिक…?

मुझे तो रक्षाबंधन का पर्व स्त्री सुरक्षा के प्रश्न का एक मनोवैज्ञानिक समाधान लगता है… वो इसलिए कि भाई-बहन दोनों लम्बें समय तक अपना जीवन एक दूसरे के संपर्क में रहकर बिताते हैं… उनके जीवन काल में ऐसे मौके भी कई बार आते हैं, जहां उन्हें एकांत समय भी व्यतीत करने को मिलता हैं… ऐसे में दो विपरित लिंगों के प्रति उनके अंदर भी आकर्षण होना स्वाभाविक है… मगर ऐसा नही होता… यह इसी संस्कृति की देन है…जिसके बहाने एक परिवार में रहने वालों बच्चों को यह संस्कार दिया जाता है कि भाई-बहन का रिश्ता बहुत पवित्र होता है… हर भाई का यह कर्तव्य बनता है कि वह अपनी बहन को प्यार देने के साथ-साथ उसकी सुरक्षा का भी ख्याल रखे… उसके साथ किसी तरह की अभद्रता न करे…

याद है मुझे जब मै छोटी थी तो राखी वाले दिन अपने भाइयों को राखी तो बांधती ही थी…साथ में अपने आस-पड़ोस में रहने वाले अपने से छोटे-बड़े लड़को को भी बांधती थी…तो कहीं न कहीं रक्षाबंधन का त्यौहार एक मनोवैज्ञानिक अनुकूलन की प्रक्रिया है, जिससे एक घर ही नहीं बल्कि पूरे समाज को लाभ मिलता है। यह कहना कि इससे लड़की के मन में जन्म से ही कमजोर होने और लड़कों की तुलना में हीनता का भाव पैदा होता है कोरी सैद्धान्तिक बात है। बल्कि हमारी सामाजिक वस्तुस्थिति को नकारने का प्रयास है।

यह तो एक आदर्श स्थिति होगी जब प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक सुरक्षा उसकी लैंगिकता से निरपेक्ष होगी; जहाँ लड़की और लड़के को कहीं भी आने-जाने, कोई भी काम कर लेने और किसी भी प्रकार की जीवन चर्या चुन लेने का समान अवसर और अधिकार हो तथा उसमें लिंग के आधार पर कोई विभेद न हो। लेकिन दुर्भाग्यवश वास्तविक समाज अभी ऐसा नहीं हो पाया है। इस समाज में केवल आदर्श पुरुष नहीं रहते कि लड़कियाँ उनकी ओर से निश्चिन्त होकर अपनी स्वतंत्रता का पूरा लाभ उठा सकें। समाज में ऐसे तत्वों की कमी नहीं जो एक लड़की को कमजोर करने और उसकी कमजोरी का फायदा उठाने की ताक में रहते हैं। हमारे समाज के लिए तो यह जुमला मुफीद है- सावधानी हटी- दुर्घटना घटी।

जब तक हम एक आदर्श समाज की स्थापना नहीं कर लेते तबतक ऐसे तत्वों के प्रति सावधान रहने, उन्हें ऐसा मौका हाथ न लगने देने के लिए यदि कुछ व्यावहारिक उपाय करना पड़े तो करना ही चाहिए। इसे स्त्री स्वातंत्र्य और आधुनिकता के नाम पर खारिज कर देना उचित नहीं होगा।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, August 11, 2014

किरपा के काबिल तो बनिए

साधारण परिवार में जन्मीं एक बेटी जो आगे चलकर “डेली सोप” की बहू बनी और बहू से फिर ‘मंत्री’ तो कोई खास योग्यता तो जरूर रही होगी। ऐसे में बार-बार इनकी पात्रता पर सवाल खड़ा कर इनके मन को बेवजह तकलीफ दी जा रही है… योग्यता या पात्रता के लिए किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय का प्रामाणपत्र हो यह जरूरी तो नहीं। विद्या अथवा ज्ञान तो कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है। इसका स्रोत निर्मल बाबा की ‘किरपा’ हो या ‘डेली सोप’।

यदि कुछ खास लोगों की कृपा बनी रहे तो पात्रता के बगैर भी पद और प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सकती है। अब अपनी स्मृति को ही ले लीजिए जिनपर साक्षात्‌ “मोदी” की माया है। नहीं तो क्या इस देश में टीवी की बहुओं अथवा साधारण परिवार की स्त्रियों की कमी है? क्रिकेट के भगवान सचिन तेन्दुलकर की डिग्री भी तो किसी से छुपी नहीं है जो आज राज्यसभा में सांसद के पद पर आसीन हैं। यह बात अलग है कि राज्य सभा में वह गाहे-बगाहे भी नजर नहीं आते हैं। जब भगवान ही हैं तो संसद में उनके फोटो से भी काम चलाया जा सकता है। रेखा का सिलसिला तो बहुत पुराना हो गया है। लोगों को इसपर इतना बावेला मचाने की क्या जरूरत है? बस किरपा बरसाने वाले बने रहें... इस देश को और क्या चाहिए...?

जब किरपा से सब कुछ उपलब्ध हो जाता है तो डिग्री के लिए इतनी माथा-पच्ची क्यों...? इन मंत्रियों और सांसदो के नीचे काम करने वाले उन अधिकारियों की हालत तो देखिए...। बेचारे..., ये सभी स्नातक, परास्नातक करने के बाद भी तमाम किताबें घोटकर वहां तक पहुँचने में अपनी एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं। इतने पढ़े –लिखे होने के बावजूद ये अधिकारी उन्हीं मंत्रियों और नेताओं के अधीन काम करते है। क्या गरज थी इन्हें इतनी डिग्री बटोरने की…? किसी की किरपा मांग लेते...।

शास्त्रों में कहा गया है कि- “विद्या से विनय की प्राप्ति होती है और विनय से व्यक्ति सुपात्र बनता है।” यहां राजनीति में क्या इस श्लोक की आवश्यकता है…? नहीं न…? अरे जब फूलन देवी सांसद बन सकती हैं और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हाल सकती हैं तो आप ही बताइए कि “किरपा” में ज्यादा ताकत है या डिग्री में?

अपात्र तो धरती पर बहुत पड़े हैं लेकिन सभी पर किसी महापुरुष की किरपा नहीं बरसती। उसको पाने के लिए ज्ञान और कर्म की थाती हो ना हो, अच्छे भाग्य, राजकुल वंशावली, उससे वैवाहिक संबंध अथवा कलियुगी कला जैसे चाटुकारिता, असाधारण सेवा धर्मिता जैसे उपायों की जरूरत पड़ती है। इसमें कहीं कोई कमी नहीं आनी चाहिए। ये मार्ग अपनाकर छुटभइए भी बहुत उच्च पदों पर विराजमान हो सकते हैं। इसके मूल में बस वही है- किसी व्यक्ति विशेष की “किरपा”।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, August 8, 2014

जादू है जादू …

किसी भी कार्य को देखने का अपना-अपना नजरिया होता है। मुलायम-पुत्र-अखिलेश सरकार के बारे में रोज छप रही खबरों को देखते हुए आज अचानक मैने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया। थोड़ी उदारता से देखें तो ‘थोड़ी सी’ कमी के साथ बहुत सी खूबियां भी नजर आयेंगी। बस एक पारखी नजर की जरूरत है। कुछ उसी तरह की पारखी नजर का इस्तेमाल करते हुए मैंने  अपने खोजी दिमाग पर थोड़ा जोर डाला तो मुझे अपने यूपी के लोकशाह और नौकरशाह बहुत सी ऐसी खूबियों से भरे नजर आये जिन्हें अबतक मै देख नहीं पा रही थी। सरकार चलाने वाले ये दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आप शायद यूं भी कहेंगे कि एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। एक योजना बनाता है तो दूसरा उसका क्रियान्यवन करता है। दोनों में ताल-मेल ऐसा है कि जो चाहें कर सकते हैं। अगर चाह लें तो किसी भी योजना को अंजाम तक पहुंचाना इनके बायें हाथ का खेल है। अगर न चाहें तो एक तिनका भी नहीं हिल सकता। इनके इस हुनर की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।

सरकारी महकमें में किसी नियुक्ति का विज्ञापन निकलने से पहले ही अगर रिजल्ट तैयार हो जाय; कोई दुर्घटना होने से पहले या चोरी, डैकैती, लूट-मार, हत्या की घटना घटित होने से पहले उस अपराधी की ‘बेल’ हो जाय; किसी ‘शव’ के अस्पताल पहुँचने से पहले ही अगर पोस्टमार्टम-रिपोर्ट तैयार मिले; तो हम इसे क्या कहेंगे...? हाईटेक्‍नालॉजी का कमाल या वैज्ञानिक चमत्कार…? सरकारी महकमा हो, पुलिस तंत्र या मेडिको-लीगल प्रोफेशन सबकी कार्य करने की शैली से इस बात का पता चलता है कि ये सभी विभाग इस युग से कहीं बहुत ज्यादा आगे चल रहे हैं। मतलब सबकुछ ‘सुपर हाईटेक’ हो गया है। अब आप इसे “थेंथरोलॉजी” कहना चाहें तो आप की बला से। जिस लैपटॉप ने अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापनों में स्थान पाया, चुनाव जिताया और घर-घर पहुँचकर ढिबरी की रोशनी में रातें गुजारी, भाई-बहनों के बीच रार मचायी, जिसने लम्बे समय तक सबकी जुबान पर राज किया उसी को इस सरकार ने जिस कुशलता से रद्दी के भाव कर दिया उसे क्या कहेंगे? मैं तो इसे ‘थेंथरई’ नहीं कहने वाली…!

‘सुपर हाईटेक्‍नालॉजी’ के मामले में आजकल हमारा यूपी शिखर पर चल रहा है। यह कला किसी और प्रदेश या विदेशों से हाईजैक नहीं की गई है बल्कि यह तो यहीं ईजाद की गई है। कोई यह मत कह दे कि बिहार में पहले से है। हमारे प्रदेश में पेट और किडनी का ऑपरेशन किसी मेडिकल कॉलेज में नहीं बल्कि मदरसे में ही हो जाता है। उसमें सर्विस इतनी अच्छी है कि भी महिला के घर वालों को कोई देखभाल भी नहीं करनी पड़ती। उन्हें तो बहुत बाद में पता  चलता है जब महिला खुद घर लौटकर बताती है कि उसका क्या कुछ बदल दिया गया है। इसपर जिसे संदेह हो वह किसी कम्पनी से सर्वे करा कर देख ले। पक्का अब्बल नम्बर पर हमारा यूपी और हमारे यूपी के जाँबाज पुलिसकर्मी और नौकरशाह ही होंगे; और इनके सिर पर ताज पहनाने वाले हमारे द्वारा चु्ने गये लोकप्रिय नेता जिनके हाथ में सत्ता की चाभी है।

हमारे प्रदेश में ‘सत्ता की चाभी’ बिल्कुल उस जादू की छड़ी  की तरह है जिसे घुमाने मात्र से ही असंभव कार्य भी संभव हो जाय। सात ताले में बंद किसी भी तिजोरी का माल बाहर आ सकता है और बाहर का माल सात ताले के भीतर जा सकता है। आपके पास सत्ता की चाभी हो तो आपको अलादीन के चिराग की भी जरूरत नहीं। कुछ भी कर गुजरने के लिए यही काफी है। इस चाभी से यहां कि इस अद्‍भुत तकनीकी को बढ़ावा देने में लेशमात्र भी देर नहीं लगती। मिनटों का कार्य सेकण्डों में पूरा हो जाता है। है ना कुछ विशेष !

(रचना त्रिपाठी)

Monday, July 21, 2014

लखनऊ की मुलायम जनता

राजधानी लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके में गुरुवार को एक महिला के साथ दुस्साहसिक कांड ने रोंगटे खड़े दिए। जिस समय अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के आगमन को लेकर सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद थी उसी समय  उसी थानाक्षेत्र के बलसिंह खेड़ा गांव के बाहर स्थित प्राथमिक बिद्यालय के परिसर में एक महिला के साथ दरिंदगी की हर हद पार कर इस प्रदेश के साथ देश की इज्जत भी तार-तार हो रही थी।

एक साल पहले की बात है दिल्ली में “निर्भया काण्ड” के दामिनी को इसी तरह से दरिंदगी का शिकार बनाया गया; जिसकी पीड़ा को पूरे देश ने महसूस किया। इस घटना से उद्वेलित दिल्ली के लोगों की संवेदनाएं ज्वालामुखी बन कर सड़क पर उतर आयीं; जिसकी लपटों ने सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के कोनें-कोनें को प्रभावित किया। उसका परिणाम यह हुआ कि उस घटना को अंजाम देने वाले सभी अपराधी पकड़े गये, और सबको “फास्ट ट्रैक कोर्ट” द्वारा त्वरित कार्यवाही कर सजा भी सुना दी गयी।

एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मानवता की सारी हदें पार कर उसी तरह की घटना दुहराई गई है। उस निर्वस्त्र महिला की लाश के साथ जिस तरीके से पुलिस पेश आयी है वह और भी शर्मसार कर देने वाली हरकत है। घंटो उस लाश को पुलिस और मीडिया उलट–पलट कर अपनी आंखे सेकती रहीं; फोटो खींचती रही लेकिन उस लहूलुहान पड़ी लाश पर दो गज कपड़ा नहीं डाल सकी।

यह वही प्रदेश है जहाँ के युवा मुख्यमंत्री के सहयोगी एक नौजवान मंत्री ने बयान दिया था कि- “हर एक लड़की के पीछे पुलिस नहीं लगायी जा सकती।” राजनीति के शीर्ष पर बैठे प्रभु-वर्ग के लोग लड़कियों के चाल-चलन, पहनावे-ओढ़ावे को लेकर अजीब तरीके की बयानबाजी करते- फिरते हैं। मै पूछती हूँ कि हर एक लड़की के पीछे अगर पुलिस नहीं लगायी जा सकती, तो क्या एक लड़की के पीछे दस गुंडों को खुलेआम दुष्कर्म करने से रोका भी नहीं जा सकता है क्या…? उस समय पुलिस कहाँ रहती है जिस समय किसी के घर की बेटी, बहन, बहू लूटी जाती है…? हैरत है कि इस जघन्य घटना के बाद यहाँ के लोगों को साँप सूंघ गया या उनके दिल भी “मुलायम” हो गये हैं…?

जिस तरह से आये दिन यहाँ छेड़खानी, ब्लात्कार ,एसिड अटैक और हत्या जैसे जघन्य अपराध हो रहे हैं, उससे यहाँ पर रहने वाले लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि सभी कमजोर, स्वार्थी, बुजदिल, कायर व डरपोक हैं; या इनकी संवेदनाएं कहीं किसी कोने में पड़े दम तोड़ रही हैं। इन्हें इन सभी न्यूनताओं से नवाजा जाय तो भी कम है।

यह सरकार लोकशाही के नाम पर मिले जनमत के उन्माद में रात–दिन अपनी काली करतूतों को अपने कुर्ते की तरह सफेद बताने में लगी रहती है। इसके अंदर संवेदनहीनता और निरंकुशता कूट-कूट कर भरी हुई है। यहाँ के लोगों पर इसके निक्कम्मेपन और गुंडई का प्रभाव इस कदर पड़ा है कि सबने मानो चूड़ियाँ पहन रखी हैं। जिसमें पुलिस भी जनता के प्रति अपनी कर्तब्य को ताख पर रख कर इनके हर गलत कार्यों पर पर्दा डालने का काम कर रही है। इस दुधमुँही सरकार को और क्या कहा जा सकता है…? जिसकी न तो अपने राज्य के लिए कोई प्रगतिशील सोच है और ना ही इस तरह के अपराध को रोकने के लिए कोई इच्छाशक्ति ही है।

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, July 15, 2014

उत्पीड़न का विरोध जरूरी है

एक साधारण परिवार में पैदा हुई, पली-बढ़ी, मात्र स्नातक की डिग्री प्राप्त तारा के अंदर अपने परिवार के विरुद्ध इतना बड़ा फैसला लेने की हिम्मत कहां से आयी...? पूरे गांव में चर्चा का विषय ही यही था–“तारा आज कितने बजे सो कर उठी; कहां गई; क्या खाया, क्या किया? ” उसकी माँ के ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। शादी को एक साल हो गए है। वह ससुराल में कुल आठ-दस दिन रहने के बाद अपने भाई को बुलाकर उसके साथ मायके वापस लौट आयी थी। उसके घरवालों से लेकर सगे संबंधियों को भी उसका इस तरह बिना शुभ मुहूर्त के ससुराल से लौट आना बहुत ही बेतुका और चिंताजनक लगने लगा था। गाँव वाले तरह-तरह की बाते करने लगे थे।

उसकी माँ तो उस दिन से लेकर आजतक उसे बिना नागा, कोसा करती - “चोटही! जाने कौन-कौन से दिन दिखाएगी मुझे! किस राजवाड़े के घर जाती, जहां तुझे सात बजे तक सोने को मिलता, ससुराल और नईहर में यही तो अंतर है !”

वह अपनी माँ को टन्न से जवाब देती- “तो तू ही चली जा मेरी जगह, लगी रहना नौकरानी की तरह सुबह चार बजे से लेकर रात को बारह बजे तक।

“जीवन भर यहीं पड़ेगी रहेगी, हमारी छाती पर मूंग दलने के लिए हरामजादी !!! जो जानती कि मुझे यह दिन दिखाएगी, तो पैदा होते ही गला घोंट देती।”

“तो अब से घोंट दे…! नहीं जाउँगी.. नहीं जाउँगी.. नहीं जाउँगी! और कान खोलकर सुन लें जबतक “छोटकी” रहेगी तबतक तो किसी कीमत पर नहीं जाउँगी!”

छोटकी - उसके पति की छोटी बहन जो उसे सुबह जगाने से लेकर उठना, बैठना, चलना, घूंघट करना आदि तमाम बातों के लिए पल-पल टोकती और सिखाती रहती थी।

तारा को अपनी छोटी ननद के द्वारा अपने ऊपर किये जा रहे अनुशासन बिल्कुल पसंद नहीं थे। उसकी ननद सुबह चार बजे ही दरवाजा खटखटाकर उसे जगा देती और खुद तनकर सो जाती। तारा का कहना था कि-“ मेरी आदत नहीं है कि देर रात तक जगूं भी और सुबह जल्दी उठ जाऊँ। ...मुझपर इस तरह की हु्कूमत नहीं चलेगी उसकी। छोटी है छोटी की तरह रहे।”

उसके श्वसुर इस बीच कई बार आए और उसे बहुत समझाने की कोशिश की- “लौट चलो!” यहां तक कि उसे तलाक की धमकी भी मिली । लेकिन उसने किसी की एक न सुनी और अपनी जिद्द पर अड़ी रही। आज अपनी शर्तों पर ससुराल जाने के लिए तैयार हो गई। उसने अपने श्वसुर से कह दिया- “आप अपनी छोटी बेटी को यह समझाएं कि वह हमें सुबह जगने का आदेश न दिया करें..या पहले उनकी शादी करके उन्हें ससुराल भेज दें, उसके बाद मुझे बुलाए।” अंततः उन्होंने उसकी शर्त मंजूर कर ली और बोले- “ बेटी की शादी इतनी जल्दी तो नहीं कर पाउँगा; लेकिन तुम्हें जैसे अच्छा लगे वैसे रहना। मै छुटकी को समझाउँगा कि वह तुमपर शासन न चलाया करे।”

उस लड़की का आत्मविश्वास देखकर मै बहुत खुश हूं और आश्चर्यचकित भी। परिवर्तन के इस दौर को देखकर गाँव वालों को भी खुश होना चाहिए; लेकिन वे तो उल्टा उसे ‘कोसे’ जा रहे हैं- “बड़ी नकचढ़ी है ! आखिर अपनी वाली ही करके मानी।”

(रचना त्रिपाठी)                             

Saturday, July 12, 2014

गरीबों के अच्छे दिन

इस बार के बजट में सरकार द्वारा गरीबों की स्वास्थ्य सेवाओं पर दिखाये गये रहमों-करम को देखकर यह कहा जा सकता है कि गरीब मजदूर, ठेले-खोमचे वाले, रिक्शा चालक, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के भी अच्छे दिन आ गए हैं। इन्हें टैक्स-वैक्स से तो कोई वास्ता है नहीं। वरना यह बीमारी इन गरीबों के लिए लाइलाज ही साबित होती। इसके बावजूद कुछ लोगों का कहना है- ‘बेचारे इनके तो अच्छे दिन अभी गच्चे में हैं !’ ये क्या जाने अर्थ व्यवस्था का विकास…? इन्हें तो पता है बस वही ‘माटी –कानों और रोटी-पानी !’

गरीबी तो खुद ही एक बीमारी है लेकिन सरकार ने सोचा कि इस बीमारी का एक बड़ा कारण है नशा ! जैसा कि कई बार सर्वेक्षणों में भी देखा गया है- गुटका, खैनी, तंबाकू इत्यादि का सेवन गरीब तबके के लोग ज्यादा करते हैं। कारण जो भी हो, मुझे तो लगता है ये वर्ग अपने परिवार का पालन-पोषण अच्छी तरह से न कर पाने की वजह से इन नशीले पदार्थों का सेवन मजबूरी में करते हैं। अज्ञानता वश कहें या अपना ग़म गलत करने के लिए। यह भी सुना है कि इन पदार्थों का सेवन करने के बाद भूख कम हो जाती है। लेकिन इससे ये भयंकर बीमारी की चपेट में भी आ जाते हैं। अच्छा हुआ जो ये नशीले पदार्थ महंगे हो गए। पेट के वास्ते कुछ तो संयम इन्हें भी बरतना ही पड़ेगा। भले ही नशे की महंगाई की वजह से मजबूरी वश ही सही!

इन सभी समस्याओं को देखते हुए सरकार ने जो कदम उठाएं हैं उसे अच्छा ही कहेंगे। ऐसे लोग जूते-चप्पल पहने ना पहने क्या फर्क पड़ता है इन पर। मगर अपने ‘पेट’ को कहां रखे बेचारे! जहां जाते है वहीं गले पड़ा रहता है। अगर पेट में कुछ नहीं गया तो इनका और इनके बच्चों का क्या होगा…? फिर तो ये कुपोषण के शिकार हो जाएंगे, ऐसे में इस सरकार का इनकी स्वास्थ्य की ‘चिंता’ करना बहुत बड़ी बात है। इस पर भी अगर लोग कहें कि इन बेचारों के अच्छे दिन तो अभी पिच्छे ही हैं तो यह सरकार के साथ नाइंसाफी ही कही जाएगी…

गरीब वर्ग जो दो वक्त की रोटी-प्याज का जुगाड़ न कर पाए तो उसे सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में मिलने वाली ‘मल्टी-विटामिन्स’ की गोलियाँ किस दिन काम आएंगी? आखिर इसी दिन के लिए तो ये सुविधाएं उपलब्ध करायी गई हैं। जितना दिन मेहनत-मजदूरी करके मिले, रोटी-प्याज खाएं… न मिले तो सरकार द्वारा उपलब्ध मल्टी-विटामिन्स का सेवन करें…भूख से पेट में मरोड़ होने लगे, सिर चकराने लगे या गला सूखने जैसा कुछ लक्षण दिखने लगे तो सरकारी अस्पताल में उपलब्ध मुफ्त के बिस्तर पर लेट जाएँ और “बोतल” चढ़वाएं। बोतल यानि  “ग्लूकोज़ ड्रिप”। इससे भी बात न बने तो तेल और माचिस भी तो सस्ते हो गये…! “ना रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी”

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, June 25, 2014

रक्षक ही बने भक्षक

काश हमारे पास भी इतनी हिम्मत होती कि हम उस पुलिस वाले के नाजायज तरीके से बाइक उठा ले जाने पर पुलिस चौकी के सामने धरना ही दे सकते! लेकिन हमें केजरीवाल बनने के लिए अभी कई जनम लेने पड़ेंगे। ऐसे धरने का हश्र देखकर तो कोई समर्थक भी नहीं मिलेगा।

हमारे घर आए हुए एक संबंधी ने अपनी बाइक ऍपार्टमेन्ट बिल्डिंग के नीचे खड़ी की थी जिसे एक पुलिस वाला रात में करीब दस से ग्यारह बजे के बीच उठा ले गया। सुबह बाइक गायब देखकर सोसायटी के सिक्योरिटी गार्ड से हमने पूछा - “बाइक कहां गई..?”

उसने बताया- “पुलिस वाले आए थे, ले गये।”

“तुमने रोका नहीं?” मैंने व्यग्र होकर पूछा।

“हमने रोका,  मगर वे बोले… पूछेंगे तब बताना कि पुलिस चौकी पर आकर ले जाएं।”

“लेकिन वे बाइक को ले कैसे गये? चाभी तो हमारे पास है!” मेरे संबंधी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

“उनके पास एक चाभी थी उसी से स्टार्ट हो गयी तो लेकर चले गये” - गार्ड ने बताया।

“क्या बाइक गलत तरीके से पार्क की गई थी?” मैंने गार्ड से पूछा।

“नहीं तो, सड़क के इसी किनारे खड़ी थी जहां रोज बहुत सी गाडि़याँ खड़ी होती हैं। यहाँ और भी गाडियां पहले से खड़ी थीं जिसमें कुछ फोर-व्हीलर्स भी थीं।”

वह तो हम भी रोज देखते हैं। जिन गाड़ियों ब्लैक फिल्म भी लगी रहती हैं वह उन्हें नहीं दिखाई देता; “लेकिन सिर्फ हमारी बाइक ही क्यों ले गये, वह भी बिना कसूर बताए?”

गॉर्ड ने बताया कि उस सिपाही ने और भी गाड़ियों में अपनी चाभी लगाने की कोशिश की लेकिन लगी नहीं। उसी बाइक में चाभी लग गयी तो लेकर चले गये।

इसका मतलब तो यह हुआ कि सिपाही के रूप में वह कोई बाइक चोर था जो टोक दिये जाने पर सिपाही की भूमिका निभाने लगा। फिलहाल इस बार तो गॉर्ड ने देख लिया था। अगर उस गाड़ी को ले जाते किसी ने नहीं देखा होता तो हम यही समझते कि गाड़ी चोरी हो गयी। उसके बाद हम पुलिस स्टेशन के चक्कर काटते रहते। एफ़.आई.आर. दर्ज कराने में भी पसीने छूट जाते।

ऐसे में क्या उस पुलिस वाले के ऊपर एफ.आई.आर. नहीं दर्ज होनी चाहिए?

मै तो पुलिस की इस हरकत पर आग-बबूला थी। मगर जिनकी बाइक थी उन्होंने कहा- “हम चाह कर भी इस समय कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि वे हमारे खिलाफ कोई भी चार्ज लगा देंगे, फिर हमें महंगा पड़ जाएगा इनसे बहस करना”

वे अपनी गाड़ी लेने पुलिस चौकी पर गये तो उस सिपाही ने उनसे गाड़ी का कागज मांगा जो उनके पास मौजूद था। जब कागज में कोई कमी नहीं मिली तो उसने देर रात तक वहां गाड़ी नहीं खड़ी करने की हिदायत देते हुए वापस ले जाने की अनुमति दे दी। लेकिन जब इन्होंने बाइक स्टार्ट किया तो पता चला कि उसी शाम फुल करायी गयी टंकी का सारा पेट्रोल गायब था। वे सिपाही से तेल निकाल लेने की बात पूछ बैठे। इसपर पुलिस वाला भड़क गया।

“आप हम पर तेल चुराने का इल्जाम लगा रहें हैं! एक तो आप लोग रात-भर गाड़ी लावारिस छोड़ देते हैं। अब सुबह आ रहे हैं.. मैं रातभर बाइक की रखवाली के चक्कर में सोया नहीं।” उसने तैश में जेब से रूपये निकाले, “आज रात छ: सौ कमाया था; ये लीजिए दो सौ रुपए अपने पेट्रोल का दाम। लेकिन बाइक यहीं छोड़ जाइए। अब चालान करूंगा। आप इसे कोर्ट से छुड़ा लीजिएगा। जब कोर्ट के चक्कर काटेंगे तब सारी अकड़ हवा हो जाएगी।”

इसके बाद बाइक छुड़ाने के लिए इन्होंने कितनी मिन्नते की और कैसे सफल हुए इसकी कल्पना ही की जा सकती है। यह सब एक आम आदमी को दहशत में डालने के लिए काफी है।

अभी करीब दो महीने पहले की बात है। हमारी बिल्डिंग के गेट के सामने एक नयी चमचाती हुई बड़ी और महंगी गाड़ी खड़ी हुई तो घंटो लावारिस हालत में पड़ी रही। बिल्डिंग के लोगों को पार्किंग बेसमेन्ट से गाड़ियाँ निकालने में परेशानी होती रही। तंग आकर बिल्डिंग के ही एक सदस्य ने गेट पर से वह गाड़ी हटवाने की कोशिश की तो अचानक शराब के नशे में धुत्त चार-पांच लड़के प्रकट हो गये और उन्हें बुरी तरह मार-पीट कर उनकी जेब से रुपए और उनकी चेन भी छीन ले गये। बिल्डिंग का गार्ड जब बीच-बचाव को दौड़ा तो उसे भी मार खानी पड़ी। वह क्रूरता का यह खेल बेचारगी में देखता रहा। जबतक दूसरे लोग आवाज सुनकर नीचे आये तबतक वे सभी भाग निकले, लेकिन उनकी गाड़ी को कुछ लोगों ने घेर कर पंचर कर दिया। इसके बाद सौ मीटर दूर स्थित पुलिस चौकी से पुलिस वाले भी मौके पर पहुँच गये।

हम लोगों ने उम्मीद तो यही किया था कि शायद अब वे गुंडे-लुटेरे पकड़ लिए जाएंगे क्योंकि उनकी गाड़ी पुलिस के हाथ में थी। लेकिन अगले दिन पुलिसवालों ने उन अपराधियों से इस पीड़ित व्यक्ति का समझौता करा दिया। निर्मम पिटायी की भरपाई कुछ हजार रूपयों से करा दी गयी। पुलिस ने लेन-देन करके उसकी गाड़ी भी सुरक्षित उसके घर तक पहुंचवा दिया। उन अपराधियों की गाड़ी हमारी आंखों के सामने ही पुलिसवालों ने यह कहकर जाने दिया कि पीड़ित द्वारा एफ.आइ.आर. वापस ले लिया गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह गाड़ी किसी बड़े नेता की थी और वे गुंडे उनके चमचे थे।

इस पुलिस चौकी की नाक के नीचे अंग्रेजी शराब की दुकानें चलती हैं जिसके आसपास सड़कों पर बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ घंटो खड़ी रहती हैं। काले शीशे चढ़े हुए। दूसरे पीने वाले अपनी बाइक की सीट पर ही चियर्स करते रहते हैं। पुलिस को और चाहिए ही क्या? कुछ महीनों पहले नुक्कड़ पर एक ‘बार’ भी खुल गया है। यहाँ पुलिस हमेशा गश्त पर रहती है लेकिन सबकुछ बदस्तूर जारी है। वे खाली हाथ राउंड पर आते हैं और अपनी ‘जेबें’ हरी-भरी करते चले जाते हैं। यह बात तब स्पष्ट हो गई जब हमारे संबंधी अपनी बाइक लेने पुलिस चौकी पहुँचे।

अब कहाँ गुहार लगाये बेचारा आम आदमी?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, June 17, 2014

उत्पीड़न विपर्यय

मेरे अपार्टमेन्ट की फ़्लैट ओनर्स सोसायटी ने जबसे मुझे इसकी जिम्मेदारी दी है तबसे मुझे एक उलझन ने आ घेरा है। महीनों हो गया बिल्डिंग के स्वीपर से यह कहते कि- सफाई अच्छे से करो; चारों तरफ गदंगी फैली रहती है; झाड़ू लगाते हो मगर कूड़ा उठाकर फेंकते नहीं; वहीं कोने में छोड़कर चले जाते हो; तेज हवाएं चलने पर फिर से कूड़ा इधर-उधर बिखर जाता है; लेकिन कोई सुधार नहीं है। वह एक तरफ से झाड़ू लगाता और दूसरी तरफ मुंह में दबाए तंबाकू और सुपारी की ‘पीक’ बिल्डिंग की दीवार पर थूक देता। एक दिन ऊपर वाले फ्लैट में रहने वाली भाभीजी ने उसे दीवार पर थूकते हुए देख लिया। उन्होंने जब इस हरकत पर आपत्ति जताई तो वह तुनक कर झाडू-पोछा फेंक कर काम छोड़ने की धमकी देने लगा। कहने लगा- “हम काम ऐसे ही करेंगे आपको हमारा काम पसंद नहीं आता तो किसी और को रख लीजिए।”

उसने यह हरकत मेरे सामने भी की। मैने उससे कहा- पहले तो दीवार की सफाई करो उसके बाद अगर काम छोड़कर जाना चाहो तो जा सकते हो। इतना सुनते ही उसने दीवार की सफाई तो किया ही मगर काम छोड़कर नहीं गया। फिर भी उसके काम करने का अंदाज वही है जिसमें कोई सुधार नहीं आ रहा है। कभी झाड़ू लगाता है तो पोछा नहीं और अगर पोछा लगा देता है तो उसके बाद दो-चार दिन तक झाडू नहीं लगाना चाहता। अभी इसे आये हुए तीन महीना हुआ है। पहले वाले स्वीपर को इसलिए निकाला था कि वह रेग्युलर काम पर नहीं आता था।

एक दिन हमने इससे बिल्डिंग की ठीक से सफाई करने की बात गंभीर होकर कहा तो वह फिर से भड़क गया और बोला- “आप मेरा हिसाब कर दीजिए। मैं आपके अनुसार काम नहीं करुंगा।” हमने भी कह दिया- ठीक है, काम छोड़ ही दो। तब वह इस बिल्डिंग के एक वरिष्ठ सदस्य के पास फरियाद लेकर पहुँच गया। मैं भी बुलायी गयी। यह उनसे कहने लगा – “हम तो रोज-रोज आते हैं और जब भी आते हैं इनको नमस्कार भी करते हैं और ये हैं कि जब देखो तब ‘यहां नहीं झाड़ू लगा’ तो ‘वहां नहीं पोछा लगा’ करती रहती हैं।”

हमने मुस्कराते हुए कहा कि- “हमने तुम्हें सैल्यूट मारने के नहीं रखा है; तुम्हें सफाई के लिए रखा है तो सफाई की बात ही करेंगे। तुमसे पूजा-पाठ कि बात तो करेंगे नहीं।” इतना सुनते ही उसने तपाक से मेरी जुबान से निकले हुए शब्द को पकड़ लिया और बड़े तैश में बोला- “हमको हमारी जाति मत बताइए हम भी जानते हैं कि हम किस जाति के हैं; लेकिन हर समय हमारी जाति उघटी जाय यह सही नहीं है।” इतना सुनते ही मैं हतप्रभ रह गयी। लगभग डरते हुए बोली- “देखो तुम अपना महीने का हिसाब करवा लो, न तो तुम यहाँ की सफाई का कार्य करने के लिए मजबूर हो और ना ही मै तुमसे ही काम लेने के लिए प्रतिबद्ध हूं।” इतना कहकर मैं वहाँ से तत्काल लौट आयी।

इसके बाद भी वह आज बहुत अच्छे से काम करके गया; लौट कर अपनी तनख्वाह लेने भी नहीं आया है। सोचती हूँ क्या उसके इस अंदाज से हमें सतर्क नहीं हो जाना चाहिए। उसे पुन: काम पर रखना अपने साथ जोखिम उठाना नहीं है? जाने कब किस बात पर वह हम पर केस ठोक दे? वैसे उसने किसी केस-वेस की बात तो नहीं की लेकिन मेरा मन फिर भी इस बात से अशांत है कि अगर मैं उसे काम से निकाल देती हूं तो वह कोई ऐसा कदम उठा सकता है...।

दूसरी तरफ, क्या गारंटी है कि इसके बाद कोई दूसरा आयेगा तो वह इससे बेहतर ही होगा?

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, May 31, 2014

यूपी सरकार का नायाब नुस्खा ‘मुहैया’

              

यूपी सरकार के पास तरक्की के उन नायाब नुस्खों में से एक नुस्खे का कोई जवाब नहीं है! गजब का है यह नुस्खा जिसका नाम है ‘मुहैया’। इसे यह सरकार आए दिन अपने राज्य के लोगों को उपलब्ध कराती रहती है। अखिलेश यादव ने हाईस्कूल-इण्टर पास बच्चों को टैबलेट और लैपटॉप ‘मुहैया’ कराया। बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता, किसी बिजली के खंभे से लटके हुए मनुष्य को हजार से लेकर लाख रुपए तक नगद ‘मुहैया’ कराया है।

लात्कार जैसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार उन लड़को को क्षमा-दान जैसा महादान तक भी ‘मुहैया’ कराने पर लगे हुए हैं। एक युवा मुख्यमंत्री से आप और क्या उम्मीद कर रहे हैं.. अभी इन्हें जुम्मा-जुम्मा ढाई साल ही तो हुए मुख्यमंत्री बने…। अभी तो ढाई साल और बचे है… देखिए अभी कितने बड़े-बड़े कारनामें ‘मुहैया’ करते हैं…।

यहां हमारी बेटियों के लिए तो नाना-प्रकार की उपलब्धियाँ ‘मुहैया’ है। एसिड अटैक में घायल लड़कियों के लिए मुफ्त इलाज और उनके घर वालों के लिए नगद रुपए; छेड़खानी और बलात्कार के बाद पीड़िता की हालत अगर नाजुक हो गई, तो यह ‘मुहैया’ पचास हजार से एक लाख तक कर दिया जाता है।

हमारी सरकार द्वारा प्रदत्त ये सारे तोहफे जो हमने ‘मुहैया’ के नमूने के तौर पर पेश किया है वह उपहार तब और कीमती हो जाता है जब यहां हमारी बेटियों के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या करके किसी नदी-नाले में बहा दिया जाय या किसी पेड़ पर टांग दिया जाय। तब ‘मुहैया’ की कीमत जानना चाहेंगे आप..? पांच लाख तक..! यहां एक माँ की कोंख और आंसू की कीमत तक ‘मुहैया’ कराया जाता है।

हम माताओं के सीने में तो सिर्फ जलन है! जिसका उपचार न तो यह सरकार मुफ्त में करा पाएगी और ना ही ‘मुहैया’ से ठंडा कर पाएगी। क्योंकि हम तो अपनी जुबान पर ताला मारे बैठे हैं कि कहीं कोई ‘यादव’ डॉक्टर या किसी ‘यादव’ सिपाही के भेंट चढ़ गये, तो बाकी बच्चियों का क्या होगा..?  सरकार का नजरिया भी हमारी बेटियों के लिए यही है कि वे तो सिर्फ हाड़-मांस की बनी भोग की वस्तुएँ है। अलबत्ता भैंसो की सुरक्षा के लिए तो यहां पुलिस और प्रशासन दोनों ही बड़े काबिल हैं..।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, May 22, 2014

समाज में असुरक्षित स्त्री

अपार्टमेन्ट में रात को करीब बारह बजे एक पुरुष दूसरी महिला के साथ अपने फ्लैट में घुसता है… अंदर से चीखने चिल्लाने; घर के दरवाजों की धड़-धड़ और बर्तन पटकने की आवाज आती है… कुछ देर बाद खिड़की में लगे पल्ले का शीशा टूटकर ग्राउंड फ्लोर पर गिर जाता है… आधे घंटे तक घर के अंदर शोर-शराबे के बाद अचानक सन्नाटा छा जाता है… घर का मेन दरवाजा अंदर से बंद हो जाता है… रात को एक बजे उस घर की महिला और उसका दस साल का बेटा बिल्डिंग के सामने बने पार्क में टहलते हुए नजर आते हैं… दोनो मां-बेटे देर रात तक सड़क से पार्क और फिर पार्क से सड़क पर बेचैनी की हालत में दिखाई देते है…। बिल्डिंग के लगभग सभी सदस्यों की नजर उसके फ्लैट पर रहती है…सबकी नजर इस तलाश में रहती है की वह महिला अपनी तकलीफ बताए तो  उसकी कुछ मदद की जाय… लेकिन किसी को उससे पूछने की हिम्मत नहीं होती… क्योंकि वह सबको देखकर बनावटी मुस्कान से यह जताने का प्रयास करती कि उनके साथ सबकुछ ठीक है… और वे मां-बेटे टहलते हुए स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं..।

उसकी इस बेबसी को देखकर मेरा मन उद्विग्न हो उठा। एक बार को मन में आया कि उसकी मदद के लिए आगे बढ़ूँ; शायद उसको हमारी बात से मनोबल मिले और वह अपने पति के खिलाफ आवाज उठा पाए। लेकिन पता चला कि वह किसी के पूछने पर बुरा मान जाती है और अपने परिवार के मामले में किसी दूसरे की दखलअंदाजी बिल्कुल भी पसंद नहीं करती। लेकिन इस बात पर विश्वास कैसे किया जाय…? उसके घर में तो पहले से ही दूसरी स्त्री की दखलअंदाजी हो चुकी है जिसकी वजह से  आज इतनी रात को वह अपने घर के अंदर होने के बजाय सड़क पर है। लेकिन इस बात को उसे कौन समझाए… यह उसका सिद्धान्त नहीं हो सकता… जरूर उसकी मजबूरी रही होगी…।

समाज में अपना और अपने  परिवार की इज्जत बनाए रखने के लिए वह अपने अंदर कितना दर्द लेकर जी रही है। उसके चेहरे से स्पष्ट हो रहा था कि वह अपनी हालत पर लाचार है; लेकिन उसकी इस लाचारी के बारे में लोग न जानने पाए इस प्रयास में वह अपने-आप को ही धोखा दे रही थी। यह कैसी मजबूरी है उस स्त्री कि जो उसे समाज के सामने अपने साथ हो रहे अन्याय को स्वीकार करने में भी असहज बना देती है...?

नारी को सशक्त बनाने के लिए अबतक जितनी भी योजनाएं लायी गयी हैं और कानून बनाये गये हैं उनका उपयोग करने में अभी भी हमारे समाज की अनेक स्त्रियां इसे लज्जा की बात समझती हैं। कदाचित् उनका मानना है कि अपने पति की ‘उपेक्षा’ अगर दुनिया के सामने स्वीकार कर लेंगी तो उस समाज में उन्हें सम्मान की नजर से नहीं देखा जाएगा। इस वजह से वह अपने पति के द्वारा हो रहे सभी जुल्मों को सहने के लिए तैयार रहती हैं ताकि घर की बात घर में ही रहे, बाहर न जाए; जिससे उनका और उनके परिवार का सम्मान समाज में बना रहे।

उसका यह व्यवहार हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है। अगर वह अपने पति के खिलाफ कोई कदम उठाना चाहे तो उसका अंजाम क्या-क्या हो सकता है? जिसकी अपनी सम्पत्ति सिर्फ एक चारदीवारी हो, जिसकी चौकीदारी में अबतक का उसका सारा समय व्यतीत हुआ हो, जहां से बाहर निकलने में उसे पग-पग पर अपने पति के सहारे की जरूरत पड़ती रही हो; वह स्त्री आज अचानक कहां से इतनी हिम्मत जुटा पाएगी? इसमें बड़े मनोबल के साथ आर्थिक मजबूती की भी आवश्यकता होगी। ऐसे में एक स्त्री को जिसका अपना कोई आर्थिक श्रोत न हो कानूनी तौर पर कितना मजबूत बनाया जा सकता है..? फिर उसके सामने एक और सवाल खड़ा होगा – इज्जत की रोटी का।

ऐसे में यदि  स्त्री आर्थिक रूप से इतना सशक्त बने और देश का कानून उसे सामाजिक सुरक्षा प्रदान करे तो शायद आज उसके सामने इस तरह का कोई संकट न पैदा हो। एक पुरुष होने के नाते एक पिता या भाई पुरुष की मानसिकता से और अच्छी तरह से परिचित होते हैं। इसलिए घर की लड़की को शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाना उनकी जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि उनका कर्तब्य भी बनता है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, April 30, 2014

क्या होगा पॉलिटिक्स का..?

आज जाके हमें यह बात समझ में आ रही है कि सभी दल ‘वादे’ की बात क्यों करते हैं..? असल में वे सभी ‘वादे’ के मतलब को सिद्ध करने पर तुले हुए है- वादा तो टूट जाता है! उसके बाद पुन: शुरु होती है- क्या..? पॉलिटिक्स। इस देश में आज के दौर के नेताओं का यही मानना है कि अगर देश में पॉलिटिक्स को जिंदा रखना हैं तो सिर्फ ‘वादे’ करते रहो। अगर ये ऐसे ही झूठे वादे करते रहे तो इनकी गोटी चम रहेगी, और देश का बंटाधार।

प्यार में, फिल्म हो या राजनीति अगर वादा टूटेगा नहीं तो कहानी में ट्‍विस्ट कैसे आएगा..! कहीं ऐसा न हो कि मोदी के आने के बाद अगर देश विकास के रास्ते चल पड़ा तो क्या होगा पॉलिटिक्स का..? फिर तो इसकी लुटिया डूबी समझिए! देश का उत्थान तो तभी संभव है जब धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर और सम्प्रदाय के नाम पर सियासत छोड़ कर सिर्फ विकास के नाम पर की जाय। लेकिन अगर वास्तव में ऐसा ही हुआ तो क्या होगा बाकी दलों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का; उनकी उड़ान का जहां विदेशों से देश चलाने की कोचिंग ली जाती है। जहां से ये अपनी सफलता , ईमानदारी और प्रभावशाली होने के सर्टिफिकेट्स लाते हैं।

देश में मोदी की भूमिका कुछ इसी तरह की बनायी जा रही है जैसे वास्तव में अब विकास के लिए यज्ञ शुरु हो गया हो.. नमो-नमो की जाप के बाद बाकी सभी दल ‘स्वाहा’ होने जा रहे हों। ऐसे में क्या अन्य राजनैतिक दल इस यज्ञ को सफल होने देंगे..? हमें तो नहीं लगता।

सुना है भ्रष्टाचार ने भी देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रखा है। क्योंकि मोदीजी आ रहे हैं। अगर भ्रष्टाचार वाकई समाप्त हो गया फिर तो सियासी चालबाजों की चलुवई धरी की धरी रह जाएगी। अभी-अभी पैदा हुए सियासी दल, जो भ्रष्टाचार के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं उनके पराभव की तो उलटी गिनती शुरु हो गयी है। ऐसे में क्या आप लोगों को लगता है कि देश विकास के रास्ते पर चल पाएगा? अभी जाने कितने छुटभैये लोमड़ी की तरह नजर गड़ाए इस फिराक में लगे हैं कि विकास में लगातार गिरावट बनी रहे ताकि राजनीति में ये भी अपनी किस्मत चमका सकें। इसलिए आजकल सब अपना-अपना ‘लक’ पहन कर चल रहे हैं।

(रचना त्रिपाठी)

सोलहवें की बात ही कुछ और है …

अपना देश आजकल सोलहवीं लोकसभा चुन रहा है। चारो ओर जबरदस्त उत्साह, जोश, और उन्माद सा छाया हुआ है। कुछ वैसा ही माहौल जैसा सोलह की उम्र हमारे जीवन में लेकर आती है। ऐसा लगता है सोलहवीं लोकसभा के निर्माण में भारतीय लोकतंत्र की जवानी भी इस समय अपने उरोज पर है। वोटर्स में एक उन्माद, एक ऐसी उर्जा का प्रवाह देखने को मिल रहा है जैसे वे अपने यौवन की दहलीज पर खड़े हों। परिवर्तन तो लाजमी है! अब मानो लोकतंत्र कह रहा हो कि ‘छोटा बच्चा जान के हमको ना बहलाना रे..डुवी-डुवी डम-डम’। ऐसे में बस, इन्हें अपने प्रतिनीधि के चयन के लिए जोश में होश बनाए रखने की जरूरत है।

अब हमारे नेतागण यह जान ले कि इनकी घटिया नीति से लोकतंत्र को सिर्फ एक प्याला ‘पॉलिटिक्स’ पिलाकर और एक थाली राजनीति खिलाकर नशे में धकेलते हुए अपनी दाल गलाने की मंशा सफल नहीं होने वाली है। अब नादान नहीं रहा हमारा गणतंत्र। इसकी भी आँखे खुल गई हैं। इस लोकतंत्र को एक सच्चे ‘नायक’ की तलाश है जिसे वह पूरा करने की हर संभव कोशिश कर रहा है ताकि इसकी बागडोर ऐसे हाथों सौपी जा सके जो सही मायने में इस देश में लोकतंत्र स्थापित कर सकने का भरोसा दिलायें।

देश की आधी से अधिक जनता पानी, बिजली, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, अशिक्षा, गरीबी के संकट से जूझ रही है। ऐसे में अगर हमारे जनप्रतिनिधि ‘लकुसी’ से पानी पिलायें तो यह उनकी भूल होगी। उन्हें भ्रांति फैलाने की कोशिश कत्तई नहीं करनी चाहिए। इस समय लोकतंत्र में जो क्रान्ति की लहर चल रही है अब वह अपने उफान पर है। जिससे लोकशाही में बहुत बड़ा उठा-पटक होने वाला है।

अब भलाई इसी में है कि लोकतंत्र पर्व के इस सोलहवें चरण में हमारे जनप्रतिनीधि भी कंधे से कंधा मिलाकर चलें, और इसके उज्ज्वल चेहरे में चार-चांद लगाने की कोशिश करें। तब तो इनकी बची-खुची प्रतिष्ठा भी बनीं रहेगी और ये मैदान में मुंह दिखाने लायक रहेंगे; नहीं तो यही समय है जब वे अपना झोला-डंडा उठा लें और चलते बनें। क्योंकि अब नया नारा है- लोकतंत्र की जवानी जिन्दाबाद..!

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, April 23, 2014

सत्ता का स्वयंवर

मेरे घर के सामने वाले पार्क की चार दीवारी जिसपर बर्षो से ‘काई’ जमीं पड़ी थी, एक दिन मैने उसकी रंगाई-पुताई के बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि पिछले पांच साल पहले भी इसकी पुताई हुई थी। आज दीवार फिर से चमचमा उठी है। उसके अंदर गिने-चुने पेड़-पौधे जिसकी कटाई-छ्टाई हुए बर्षों बीत गए थे। वह भी आज अपनी हजामत बनवाकर चकाचक हो गये हैं। पार्क से सटे सड़क जिसकी छ: महीने पहले ही मरम्मत हुई थी, पर  कूड़े का अंबार लगा रहता था। जिसपर आते-जाते यात्री मूत्र-विसर्जन भी किया करते थे। इधर  से गुजरते समय सहसा मेरी उंगलियां नाक पकड़ लिया करती थी। उफ! कितनी घुटन होती थी कल-तक यहां। आज वह भी नदारद है। सोच रही थी अचानक आज ऐसा क्या हो गया जिससे हमारे मोहल्ले की रौनक ही बदल गई।

अपने चारों तरफ नजर दौड़ाया तो पता चला कि सिर्फ यही नहीं, हमारे पीछे  वाले पार्क का हुलिया भी बदल गया है। शहर की सभी टूटी-फूटी सड़के एवं पार्को की मरम्मत हो रहीं है।  मुझे ये बात कुछ हजम नहीं हो रही थी। अचानक याद आया कि ‘सत्ता देवी’ का ‘स्वयंवर’ जो रचने वाला है..! कितनी चंचला है ये! हर पांच साल पर तलाक ले लेती हैं और पुनर्विवाह के लिए तैयार हो जाती हैं। उन्हीं की रश्म की तैयारियां शुरु हो गई हैं। हमें तो अभी से ढोल-नगाड़े और शहनाई की धुन भी सुनायी पड़ने लगी हैं। लगता है मेरे अपने ही कान बजने लगे हैं..! अभी तो स्वयंवर में कुछ दिन और बाकी है। बहुत उत्सुकता है मुझे, यह जानने के लिए कि सत्ता देवी किसके गले में ‘जयमाला’ डालेंगी..? आखिर कौन है वह भाग्यशाली जिसको पांच साल के लिए फिर से वरण करने जा रहीं है..?

पंडितों की भी बहार आयी है। बड़े-बड़े दिग्गजों के घर में  ज्योतिषाचार्य आजकल  ‘कंचन’ चर रहे हैं जो इस स्वयंवर के प्रत्याशी हैं। ये दिग्गज अपनी-अपनी कुण्डली दिखा रहे हैं सत्ता रानी के चाह में। बिना मुहूरत दिखाए और पूजा-पाठ किए कोई काम ही नहीं करते। हर विधा वे उन्हें पाना चाहते हैं।  हाल कुछ ऐसा ही है- एक अनार सौ बीमार!

गांव में महिलाएं भी इस उत्सव पर साज-श्रृंगार करके समूह में गीत  गाते हुए सत्ता देवी के ‘दुल्हे’ के चुनाव में अपना-अपना मत देने जाती हैं। वे इस अवसर पर एक खास किस्म का गीत भी गाती है- ‘चल सखी वोट देवे..फुलवा/पंजा निशानी।’ निर्भर करता है कि महिलाएं किस पार्टी की ‘दुल्हे’ के पक्ष में हैं, पंजा अथवा फूल या कोई अन्य पार्टी। देखना यह है कि इनके विवाह की हल्दी किसको लगती है.. और यह किसके गले ‘हार’ पहनाती हैं..?

(रचना त्रिपाठी)

Monday, April 21, 2014

अज्ञानता का कहर

मेरी एक क्लोज फ्रेंड का सुबह-सुबह फोन आया- “हेलो, मैने  बहुत जरूरी काम के लिए तुम्हें फोन किया है।”

“कहो! क्या बात है?’’

‘‘मेरे एक बड़े ही घनिष्ट अपनी लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं। तुम्हारी नजर में कोई अच्छे घर-खानदान का लड़का हो तो मुझे बताना। बहुत परेशान हैं बेचारे!’’

मैने पूछा- “कैसा लड़का चाहिए, सरकारी नौकरी या प्राइबेट.. लड़की क्या करती है और उसका क्वालिफिकेशन क्या है..? यह पता चल जाय तो उसके अनुरूप लड़का ढ़ूढ़ने में आसानी होगी।’’

उसने कहा- ‘‘बहुत बुरा हुआ उसके साथ; वह तलाक-शुदा है। शादी के सिर्फ चार महीने बाद ही उसका तलाक हो गया।’’

‘‘अरे! ऐसा क्यों हुआ?’’

हिचकते हुए उसने कहा-‘‘उसका पति उसके ऊपर थूक दिया करता था।’’

‘‘लड़के की पसंद से यह शादी नहीं हुई थी क्या?’’

‘‘लड़का-लड़की दोनों को यह रिश्ता मंजूर था।’’

“तब ऐसा क्यों करता था..?”

फिर उसने मुझे पूरी बात बतायी- ससुराल जाने के बाद वह पहले महीने में ही गर्भवती हो गई। वहाँ उसका पीरियड नहीं हुआ। उसके पति को ऐसा संदेह हो गया कि शायद होने वाले बच्चे का पिता वह नहीं कोई और है। वह अपनी पत्नी से घृणा करने लगा। इतनी कि वह बात-बात पर उसके ऊपर थूक दिया करता था। पहले तो निर्दोष लड़की ने उसे समझाने की कोशिश की लेकिन जब मामाला बर्दाश्त के बाहर हो गया तो उसने तलाक लेने का निर्णय ले लिया। उसके बाद उसने अपना एबॉर्शन भी करा लिया। तबसे लेकर आजतक वह मायके में ही है।”

“क्या करती है..?”

“गवरन्मेंट टीचर है!” मैने कहा-“अच्छा!  इसीलिए वह अपने जीवन का इतना बड़ा फैसला स्वयं ले सकी! नहीं तो, जाने कितनी जिल्लत सहनी पड़ती उसको अपनी ससुराल में। शायद इसलिए कहते है कि लड़कियों का स्वावलम्बी होना बहुत जरूरी है! ऐसी जाने कितनी लड़कियां ससुराल में आज भी उपेक्षा की शिकार होती होंगी, जिसमें उनका कोई कसूर नहीं हैं। आज के जमाने में भी लड़को के अंदर कितनी अज्ञानता है.. क्या लड़कियों को ससुराल भेजने से पहले नान-प्रिगनेंसी का मेडिकल सर्टीफिकेट भी देना पड़ेगा..? हद हो गई!”

अज्ञानता का कहरयह अपनेआप में कोई इकलौता केस नहीं है। इसके पहले भी कई लड़कियों के साथ ऐसा हो चुका है। इस तरह के केस में तो कई लड़कियों को जहर देकर मार दिया गया है, तो कहीं लोक-लाज के भय से गर्भपात कराया जा चुका है। कुछ स्त्रियां तो आज भी अपनी आँखों में  अपमान का दर्द लिए जी रहीं हैं। वह खुद भी यह नहीं जानती कि आखिर, इसमें उनका गुनाह क्या है..?

हमारे समाज के कुछ हिस्सो में आज भी यह एक बहुत बड़ा दोष है जिसका दुष्परिणाम लड़कियों को भुगतना पड़ रहा है। इस तरह की घटना सिर्फ कम पढ़े- लिखे वर्गों में ही नहीं है बल्कि अच्छे पढ़े-लिखे लोगों में भी इस तरह की अज्ञानता देखने को मिल रही हैं।

(रचना त्रिपाठी)   

Sunday, April 13, 2014

पीढ़ी- भेद समझना होगा…!

गाँव के बड़कवा शुक्ला जी की सोच हमेशा उनके अपने ही इर्द- गिर्द घूमती रहती। अपने बनाए हुए सिद्धान्तों को किसी भी सिद्धान्त से ऊपर मानते। वह अपने जीवन में बहुत ही अनुशासित रहे। एक स्कूल में बच्चों को हिन्दी पढ़ाते थे। बचपन से लेकर एक बड़े संयुक्त परिवार का मुखिया होने तक उनका जीवन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा। उन्हें शायद कोई अभिभावक नहीं मिला था और उन्हें बहुतों का अभिभावक बनना पड़ा था। इसलिए राह चलते मार्गदर्शन देते रहने की आदत पड़ गयी थी। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते उनमें एक संकोचहीन बेबाकीपन आ गया था। जो बात उन्हें पसंद नहीं आती उसका विरोध तो नहीं कर पाते लेकिन उसपर टीका-टिप्पणी किए बिना भी नहीं रह पाते। उन्हें समाज के सभी लोगों से मिलना-जुलना और भाँति-भाँति की बातें करना पसन्द था। रिटायरमेंट के बाद शुक्ला जी जहां भी जाते अपनी जान-पहचान के लोगों से जरूर मिलना चाहते।

शुक्ला जी के गाँव में उनके एक पड़ोसी थे ज्ञानप्रकाश। उनकी बेटी वृन्दा की शादी बनारस में हुई थी। जब भी शुक्ला जी बनारस अपने रिश्तेदारों के यहां जाने को होते तो वह भतीजे ज्ञानप्रकाश से पूछना नहीं भूलते थे कि ‘अपनी बेटी के पास कोई संदेश भेजना हो तो बता दो मैं बनारस जा रहा हूँ; बहुत दिन हो गया उसे देखे; इसी बहाने उससे मिल भी लूंगा और उसका हाल-चाल भी ले लूंगा।’ लेकिन ज्ञानप्रकाश इधर-उधर की बातों में शुक्ला जी को उलझा कर अपनी बेटी का पता देने से कन्नी काट लेता।

generation gap1ज्ञानप्रकाश शुक्ला जी का बहुत सम्मान करता था। आस-पास के गांव के लोग भी शुक्लाजी के परिवार की बहू-बेटियों के संस्कार से बहुत प्रभावित रहते। जबसे ज्ञानप्रकाश की बेटी की शादी हुई तबसे शुक्ला जी दसियों बार बनारस आये-गये होंगे। हर बार वे ज्ञानप्रकाश के पास जाते और वृन्दा का पता मांगते लेकिन हर बार उन्हें निराश होना पड़ता। धीरे-धीरे उन्हें इस बात का अंदाजा लग गया कि ज्ञानप्रकाश जानबूझकर वृन्दा का पता नहीं देता है।

एक दिन शुक्लाजी ने ज्ञानप्रकाश से पूछ ही लिया- ‘बहुत दिनों से मैं तुमसे वृन्दा का पता मांग रहा हूँ लेकिन तुम किसी न किसी बहाने उसका पता देने से इनकार कर देते हो। आखिर क्या बात है?’ ज्ञानप्रकाश ने कहा- ‘चच्चा, बुरा न मानें तो एक बात कहूं..मेरा दामाद बहुत शौकीन है..वृन्दा अपने ससुराल में बहू नहीं, बेटी की तरह रहती है .. कभी सलवार-सूट पहनती है तो कभी जिंस-टॉप.. उसके घर वाले भी उसकी पसंद का बहुत ख्याल रखते हैं..उसके ऊपर किसी भी तरह की पाबंदी नहीं है। आपको उसका यह रूप देखकर शायद अच्छा न लगे.. और आप टीका-टिप्पणी करना शुरु कर दें, इसलिए मैं आपको उसके घर का पता नहीं देता।’ शुक्लाजी टका सा मुंह लेकर वहां से चले आये.. उन्होंने इस बात की चर्चा अपने घर वालों से भी की। लेकिन उनकी बातों से ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगा कि उनको भी अब अपनी सोच बदलने की जरूरत है..

शुक्ला जी का एक भरा-पूरा परिवार है उनके नाती-पोते भी अब शादी करने योग्य हो गये हैं। उनकी यह सोच जो बहुत ही पुरानी रूढ़िवादी परम्पराओं की जंजीरों से जकड़ी हुई है। जहां अभी भी स्त्रियों को घूँघट में रहना और इशारों में ही बात करना उचित माना जाता है वहां इस जेनरेशन गैप के साथ शुक्ला जी का कैसे निर्वाह होगा? क्या ऐसे बुजुर्ग अपनी आने वाली पीढ़ी की उपेक्षा के शिकार नहीं होंगे? घर का बुजुर्ग होने के कारण किसी ने उन्हें टोका नहीं, पड़ोसी ज्ञानप्रकाश भी इनसे कन्नी काटता रहा; लेकिन जब पीछे ही पड़ गये तो सच्चाई का सामना हो गया। यह नौबत तो उनके घर में भी आ सकती है। शुक्ला जी को अपने इस व्यवहार पर चिंतित होना चाहिए न कि गौरवान्वित। समय के साथ उनको अपनी सोच में परिवर्तन लाने की जरूरत है।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, April 5, 2014

चुनाव खतम, वोट हजम

आया है मुझे फिर याद वो बचपन के दिनों का जादुई बाइस्कोप; जो बच्चों को लुभाने के लिए एक बंद बक्से में कुछ भारतीय संस्कृति की धरोहर और परम्पराओं से जुड़ी अच्छी तस्वीरों को इकठ्ठा कर बहुत खूबसूरत और सुसज्जित ढंग से माला की तरह पिरोये हुए रहता था। बाइस्कोप वाला आता था और रंगीन बक्से को अपनी पीठ से उतार कर गाँव के बीचो-बीच एक स्टैंड पर लगाकर भोंपू बजाना शुरु कर देता था। जिससे गाँव के सभी बच्चे उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो जाते।

बाइस्कोप वाला बक्से के भीतर झांकने के लिए बने झरोखों का ढक्कन खोल देता था और हम सभी अपनी आँखों को उन झरोखों से सटाकर बैठ जाया करते थे। उस बंद बक्से के अंदर तस्वीरों की एक लड़ी चलती जिनके नजारों को हम बच्चे कौतूहल से देखते और अपने कानों से बाइस्कोपवाले की रोचक आवाज में उनका वर्णन सुनते- ‘दिल्ली का कुतुबमिनार देखो.. और बम्बई का मीनाबाजार देखो..ये आगरे का ताजमहल... घर बैठे सारा संसार देखो।’ घुटनों के बल बैठकर उस जादुई बक्से में घूमती पूरी दुनिया की सैर बस कुछ ही मिनटों में करके हम बहुत खुश होते थे। इसी खुशी में अपने-अपने घरों से रूपये/ अनाज इत्यादि लाकर उस जादूगर को दे जाते थे जो उन्हें कुछ पल के लिए सुनहरे सपने दिखा जाया करता था। उसके बाद वह बोलता- बच्चों, तमाशा खतम पैसा हजम अब अपने अपने घर जाओ।

967991_473895092711227_1601921678_n

जब चुनाव नजदीक आता है तो देश में कुछ इसी तरह के दृश्य नजर आने लगते हैं। एक बार फिर चुनावी सरगर्मी बढ़ गई है और सभी राजनैतिक दल अपना-अपना घोषणा पत्र बाइस्कोप के रूप में तैयार कर लिए हैं। जगह-जगह रैलियां होने लगीं हैं। सियासी दलों में जनता को लुभाने की होड़ मची हुई है। वोट पाने की लोलुपता में राजनैतिक मूल्यों का स्तर गिरने लगा है। कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इनके आँख का पानी मर चुका है। लोग भी जानते है कि कौआ चला हंस की चाल फिर भी उमड़े जा रहे हैं। विकल्प भी क्या है? सोचते होंगे कि एक बार इन्हें सुनने और देखने में क्या जाता है..।

आम आदमी बच्चों की तरह सभी दलों का चुनावी बाइस्कोप देखने के लिए कौतूहल से भरा हुआ है। नयी उमर के नये मतदाता तो और भी उत्साहित हैं। चुनावी अभियान तो रोचक होता ही है; जिसमें किस्म-किस्म के नारे लगाकर; डायलॉग बोलकर; और गाना-गाकर विकास और जनहित का मॉडल प्रस्तुत किया जाता हैं। जनता जानती है कि सियासी बाइस्कोप की खुमारी सिर्फ चुनाव होने तक है, आगे वही ढाक के तीन पात रहेंगे। चुनाव खत्म होने पर सियासी चालबाज यही कहने वाले हैं कि चुनाव खतम और वोट हजम। फिर मिलेंगे अगले पांच साल बाद। तबतक के लिए सायोनारा।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, April 4, 2014

अक्स

आज अचानक ऐसा लगने लगा जैसे मेरी बेटी मुझसे कुछ कह रही है-   माँ तू मुझमें

ऐ माँ तू मुझमे
खुद को देख ले..

मेरी बेवकूफियों  पर             
तू फिर से
नादाँ हो ले

मेरी बढ़ती उम्र के साथ
तू फिर से
जवाँ हो ले

मेरी आँखों में सजा के

तू अपने सपने

साकार कर ले

ऐ माँ...

(रचना त्रिपाठी)

 

Thursday, March 27, 2014

नक्‍कारों की नेतागीरी का करियर

सोच रही हूँ नेता बन जाऊँ। घर परिवार की जिम्मेदारी बच्चों के बड़ा हो जाने के बाद थोड़ी कम ही हो जाएगी। उसके बाद कोई ऐसा काम करना ठीक रहेगा जिसमें हर्रे लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा हो जाय। इस हिसाब से राजनीति से अच्छा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। उम्र के हिसाब से भी दूसरी नौकरियों या धन्धों के बजाय चालीस पार करने के बाद राजनीति का करियर ही सबसे लाभदायक हो सकता है। आज-कल नेता बनना बाकी नौकरियों से बहुत आसान है।

मेरी निगाह में एक जबर्दस्त मुद्दा भी है - हमारे समाज में चारो ओर फैली बाल-मजदूरी का। यह जानते सभी हैं कि ‘बच्चों से काम कराना जुर्म होता है’; लेकिन इस जुर्म का लाभ उठाने के लिए सभी तैयार होते हैं। मैं अपनी राजनीति के लिए यही मुद्दा उठाउंगी। सड़क, गली-चौराहे पर जहां देखो वहां चार साल से लेकर चौदह साल तक के बच्चे कूड़े की ढेर से जूते, चप्पल, प्लास्टिक बटोरने का काम करते हैं। खाते-पीते घरों में भी गरीब घरों के बच्चे-बच्चियाँ छोटी-मोटी सेवा के लिए लगा दिये जाते हैं; जब कि इनके लिए सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था के साथ- साथ पका-पकाया गरम भोजन (हाट कुक्ड फूड) देने की योजनाएं भी चला रखी हैं। सरकार द्वारा मुफ़्त में दी गयी यूनीफ़ॉर्म पहने हुए कुछ बच्चों को भी मैंने कूड़ा उटकेरते देखा है। सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में जिन बच्चों का नामांकन भारी-भरकम अभियान चलाकर कराया जाता है ताकि “एक भी बच्चा छूटने न पाये”, उन बच्चों को इन स्कूलों में जो शिक्षा मिल रही है उसे देखकर ही मेरे मन में यह विश्वास पनप रहा है कि इनको सुनहरे सपने दिखाकर एक सॉलिड वोट-बैंक जरूर बना लूंगी और अपनी नेतागीरी चमका लूँगी।

मुफ़्त का भोजन, मुफ़्त का कपड़ा और कॉपी-किताबें व बैग, और भोजन के बाद मुफ़्त की छुट्टी; पढ़ाई के नाम पर यह पक्का आश्वासन की कक्षा पाँच और आठ तक कोई माई का लाल फेल कर ही नहीं सकता। अनपढ़ और नकारा बने रहने के लिए और क्या चाहिए?इन स्कूलों में गुरूजी लोग की बात न की जाय तो ही अच्छा। अव्वल तो स्कूलों में जरूरत के मुताबिक इनकी संख्या है ही नहीं; दूसरे,जो लोग तैनात हैं भी वे दूसरी तमाम चिन्ताओं में घुले जाते हैं। बच्चों की ओर ताकने की भी फुरसत उन्हें नहीं है। शिक्षामित्र अपनी मजदूरी के हिसाब से जितना पढ़ाना चाहिए उतना पढ़ाते हैं जो ऊँट के मुंह में जीरा के समान ही है।

इस प्रकार सरकार द्वारा अरबो रूपये खर्च करके जो अनपढ़ और मुफ़्तखोरी की आदत पाल चुके नक्कारों की फौज तैयार की जा रही है उनके आगे के जीवन में भी सरकारी कृपा की (मैं भीख क्यों कहूँ?) व्यवस्था जारी रखने का मिशन चलाने का काम तो करना ही पड़ेगा। मनमोहन सिंह की सरकार ने जाते-जाते इस टाइप की कुछ नीतियाँ घोषित कर दी हैं और कांग्रेस के मैनीफेस्टो में भी इस थीम पर काम किया गया है। अब इन बच्चों को न तो घर के काम सीखने की जरूरत है और न ही किसी और कौशल की। अगर ऐसे बच्चे सरकार की इस योजना का लाभ नहीं उठा पाएंगे तो युवा होकर करेंगे क्या..और किसके काम आएंगे? नेताओं का वोट बैंक बनने के अलांवा?

हमें विश्वास है कि थोड़ी मेहनत कर देने पर ये हमें बड़का नेता तो बना ही सकते हैं। उसके बाद हम इन्हें ‘अनपढ़ बेरोजगारी भत्ता’ या ‘बिना काम वेतन’ वाला रोजगार दिलाएंगे, जैसे मनरेगा में। सफाई कर्मचारियों की संविदा पर नियुक्ति दिलाएंगे। नगर निगमों में निकलने वाले जितने कूड़े है उनकी छँटाई और सफाई का जिम्मा इन्हें ही सौपेंगे। यानि ऐसे काम जो करने नहीं पड़ते। इनकी कार्य कुशलता तो इन्हीं सब कार्यों में है। नेता और एक बार मंत्री बन जाने के बाद तो सबकुछ मैनेज ही हो जाएगा। हम चाहे बाल-मजदूर रखे या वृद्ध सेवक, क्या फर्क पड़ता है?

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, March 15, 2014

होली की मौज

मन हमारी इन्द्रियों का राजा है और इन्द्रियां उसकी प्रजा। होली के दिन मन अपनी प्रजा को पूरी तरह संतुष्ट करने की सोचता है। पूरे साल बेचारी इन्द्रियों पर बहुत ही अंकुश रहता है। यह मत छुओ; वह मत देखो; यह मत सुनो; वह मत चखो; यह मत सूंघों। होली के  दिन मन इन्द्रियों से कहता है- आज तुम सभी स्वतंत्र हो! जाओ, और जी लो अपनी जिंदगी! इतना सुनते ही इन्द्रियां  बहैल्ला हो जाती है। अपने सभी दमित इच्छाओं को इसी एक दिन में ही पूरा कर लेना चाहती हैं। लड़कियों सरीखा इनके ऊपर भी बहुत पहरा लगा रहता है। होली के अवसर पर मेरी शुभकामनाएं इनके साथ है। होली के रंग में  इनका विवेक बना रहे ताकि हर साल ये इसी तरह हँसी-खुशी होली मना सके।holi-2014

हम सभी जानते है कि होली की मादकता, दीवाली की रौशनी, दशहरे का भोज, बॉलीवु्ड का संगीत और बसंती रंग बिरंगे फूल  किसे अच्छे नहीं लगते। लेकन इसका उपभोग करने से पहले यह हमारे लिए कितना स्वास्थ्यवर्धक होगा यह जरूर सोच लेना चाहिए। कुछ लोग तो इस दिन ‘बुरा न मानों होली है’ के बहाने अपनी जुबान तक तरह-तरह के शब्दों और वाक्यों से रंग डालते है। होली में मस्ती के साथ आत्मानुशासन जीवन के रंग को और भी बढ़ा देता है।

रंगों के बहाने हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हमने होली के रंगों की तरह अपने जीवन में भी कई रंग देखे हैं। बचपन के दिनों की रंगीनियां याद कर मन बहुत प्रसन्न हो जाता है। कितने कीमती थे वो दिन जो बीत गये। कुछ खट्टी-मीठी यादें रह गई हैं जिसे याद करके मैं हँस लेती हूँ। लेकिन  कभी-कभी तो रोने का मन भी होने लगता है। काश वो दिन लौट आते!

मैं भाइयों के साथ मिलकर होली के चार दिन पहले से ही रंग खेलना शुरु कर देती थी। उनकी की तरह मुझे भी सभी खेल खेलने की आजादी मिली हुई थी; लेकिन  होलिकादहन में जब पापा के साथ भाई भी जाने लगते थे तो मैं भी जाने की जिद्द करने लगती थी लेकिन मुझे नहीं जाने दिया जाता था। मम्मी का कहना था कि लड़कियों का होलिकादहन देखना अशुभ माना जाता है। मम्मी ऐसा क्यों कहती मैं नहीं समझ पाती थी। उस समय मेरा मन मुझे कोसने लगता था कि काश मैं भी लड़का होती तो मुझे भी वहां जाने दिया जाता..।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, March 8, 2014

बेटी के लिए भी सोहर गायें...।

आज महिला दिवस पूरा देश मना रहा है। इस दिन का जश्न मनाने के लिए महिला सशक्तिकरण पर कार्य करने वाली संस्थाएं, सभी प्रकार के राजनैतिक दल, सोशल मीडिया एवं सामान्य पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष सब उत्साहित दिख रहे हैं। मैं सोच रही हूँ कि महिला दिवस मनाने के लिए किसी जुलूस, सार्वजनिक स्थल या मंच की क्या जरूरत है..? सिर्फ एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिला का सम्मान नहीं बढ़ जाता। जरूरत है तो समाज में नारी सम्मान, नारी शिक्षा, नारी स्वास्थ्य के साथ-साथ नारी के राजनैतिक सशक्तिकरण की जो सिर्फ कानून बन जाने से नहीं मिल सकता।

आज महिला दिवस पर भी अगर किसी व्यक्ति के घर में बेटी पैदा होगी तो ‘सोहर’ नहीं गाया जाएगा। सोहर गाना एक ऐसी प्रथा है जिसमें सिर्फ लड़का पैदा होने के उपलक्ष्य में घर की महिलाओं द्वारा यह खुशी का गीत गाया जाता है। अभी तो महिला अपने ही घर में स्वतंत्र या सशक्त नहीं है कि बेटी पैदा होने पर ‘सोहर’ गा सकें या किसी अन्य प्रकार का ‘जश्न’ मना सके; अपनी ही प्रतिरूप को अपने आंचल में रखकर घर के अन्य सदस्यों के सामने अपनी खुशी का इजहार कर सके। ऐसा नहीं है कि एक परिवार में महिलाओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा कम होती है। जब तक एक स्त्री के द्वारा दूसरी स्त्री की उपेक्षा होती रहेगी तब तक किसी भी प्रकार से महिला को सशक्त नहीं बनाया जा सकता तथा महिला दिवस या महिला सशक्तिकरण जैसे कानून सिर्फ अखबार के पन्नों की शोभा बढ़ाते रहेंगे जिसके लाभ से महिलाएं हमेशा ही वंचित रहेंगी।

एक गर्भवती महिला को जब प्रसव के दौरान किसी महिला डॉक्टर के पास ले जाया जाता है तो बेटा होने पर डॉक्टर जितनी गर्मजोशी से उस महिला के घर वालों को बधाई देती है उतनी गर्मजोशी एक बेटी के होने पर नहीं दिखाती। वहां की नर्स और दाइयों का भी बेटा होने की बक्शीस ज्यादा होती है। महिलाओं में स्वयं ही लिंगभेद को लेकर असमानताएं है। हर स्त्री को चाहिए कि वह अपने घर में इस पर्व को जरूर मनाये; बेटी के होने पर भी सोहर गाये; पूड़ी- पकवान बनाए। अगर एक स्त्री अपने ही घर में उपेक्षित हो या दूसरे स्त्री की उपेक्षा करे तो समाज से उसे उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बेटे का जन्म हो या बेटी का अपनी पुरानी रुढिवादी परम्पराओं को घर की स्त्रियों को खुद तोड़ कर बाहर निकलना होगा। अपने वजूद को समझना होगा। अपने कार्यों के महत्व को समझना होगा। तभी वह सशक्त बन पाएंगी।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, March 6, 2014

छोटी बातों में बड़ी खुशी..

एक दिन की बात है मैं सुबह-सुबह बाथरूम में कपड़े धुलने के बाद स्नान करके बाहर निकली तो मेरे हा्थ में कपड़े से भरी बाल्टी को देखकर मेरे श्रीमानजी ने कहा- “अरे यार, तुम्हे ठंड लग जाएगी जल्दी से स्वेटर पहन लो” इतना सुनते ही मेरा हृदय प्रफुल्लित हो गया लेकिन मै उन्हें अपने इस आनंन्द का एहसास न दिलाकर थोड़ा सा इतराते हुए बोली- “अगर इतनी ही चिंता है मेरी तो कपड़े आप फैला दीजिए, मै तब-तक स्वेटर पहन लेती हूँ।” मुझे नहीं पता कि मेरी यह बात उन्हें कैसी लगी होगी..? इतना सुनते ही ये मेरे हाथ से बाल्टी लेकर बालकनी में कपड़े फैलाने लगे। मै स्वेटर पहनते हुए बालकनी में आकर खड़ी हो गई। उस दिन मै बहुत खुश थी। इस तरह की छोटी-छोटी खुशियां हमारे जीवन में बहुत सुख दे जाती हैं।

बहुत लोगों का मानना है कि अगर जीवन में पैसा है तो सब कुछ है। लेकिन हमें लगता है खुशियां खरीदी नहीं जा सकती और ना ही किसी से छीनी जा सकती है। वह इंसान जिसके पास अकूत सम्पत्ति का भंडार पड़ा हो; ऐश-आराम; धन-दौलत; बंगला; गाड़ी-घोड़ा; नौकर-चाकर; मोटरकार के साथ ड्राइवर भी हो; बीवी के साथ बैरा भी; इज्जत-प्रतिष्ठा; मान-सम्मान;  बच्चों के साथ एक भरा पूरा परिवार और साथ में माँ भी हो; तो ऐसे इंसान अगर प्रसन्न होते होंगे तो कैसे दिखते होंगे? उन्हें देखकर हम कैसे समझ सकेंगे कि वे आज बहुत खुश हैं..? उनके आनंद के पल कैसे होते होंगे जिन्हें कभी किसी चीज का अभाव न हुआ हो? उनकी थकान कैसी होती होगी जिनका पाला कभी शारीरिक और मानसिक श्रम से न पड़ा हो; बैठे बिठाए सब कुछ मिल जाता हो?

हम जैसे सामान्य लोगों को रोजमर्रा की थकान भरी जिंदगी में कभी कोई मूल्यवान वस्तु मिल जाने पर जिस खुशी का एहसास हमें होता है, ऐसे खुशी के पल उनके जीवन में किस तरीके से आते होंगे..? एक तरफ जहां हमें अपने बच्चों  की छोटी-छोटी खुशियों को पूरा करने के लिए सौ बार सोचना पड़ता है और उसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, तदुपरान्त हमें उनकी खुशियों को पूरा करके जिस चैन और सकून की अनुभूति होती है क्या ऐसा ही चैन उनके जीवन को नसीब होता है या इससे भी कहीं ज्यादा मिलता है, जिनके पास सब कुछ है? ऐसे घर के बच्चे और स्त्रियों की खुशियां किन-किन बोतों पर निर्भर करती होंगी जहां हर जरूरत की वस्तुएं पहले से मौजूद हों? स्त्रियों का अपने पति से नोंक-झोंक होती होगी भी तो किस बात पर..अगर नोंक-झोंक नहीं है तो प्यार कैसा होगा?

अक्सर स्त्रियां पति के द्वारा अपने छोटे-छोटे क्रिया-कलापों पर मिलने वाली सहानुभूति से बहुत प्रसन्न हो जाती हैं। जैसे- अगर उसका पति उसे एक बार प्यार से पूछ दे कि- तुमने अभी कुछ खाया कि नहीं.. सुबह से काम में लगी हो थोड़ा सा आराम कर लो.. किचेन में काम करते समय कितना पसीना आ जाता है तुम्हें आओ मैं इसे पोछ दूं.. मै समझ सकता हूं कि तुम पूरे परिवार के लिए कितना कुछ करती हो.. खाना लगाते समय पति से मिलने वाली छोटी-छोटी मदद जैसे टेबल पर खुद से पानी रख लेना खाने के प्लेट्स लगाना..इत्यादि। आखिर इनकी खुशियों का भी कुछ तो पैमाना होगा..

(रचना त्रिपाठी)