Thursday, August 11, 2016

आस्था का विसर्जन

यह नज़ारा लखनऊ के मुंशीपुलिया चौराहे की पुलिस चौकी के सामने एक पीपल के नीचे के चबूतरे का है।

हिन्दू आस्था की प्रतीक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ जिन्हें लोग अपने घरों में सबसे साथ-सुथरे और पवित्र स्थान पर रखते हैं, इनकी पूजा करते हैं और अपने लिए सुख समृद्धि की कामना करते हैं; वहाँ शुद्धता और संस्कारों की रक्षा के लिए नाना प्रकार की वर्जनाएँ भी काम करती हैं; वहीं मूर्तियाँ पूजा-पाठ और अनुष्ठान की समाप्ति के बाद इस पेड़ के नीचे गाड़ियों के धुँए व शोर-गुल के बीच धूल-धूसरित क्षत-विक्षत पड़ी हुई जानवरों के मलमूत्र पर रोज़ टूटती... बिखरती... विलाप करती नज़र आ रही हैं।

ये कैसी आस्था है जो अपने इष्ट के प्रतीक का विसर्जन भी समुचित ढंग से नहीं कर पाती।नवरात्रि के बाद माँ दुर्गा की मूर्तियों का विसर्जन हो या गणपति महोत्सव के बाद बप्पा का; नदियों-तालाबों और दूसरे घाटों पर अगले दिन हृदय-विदारक दृश्य उपस्थित हो जाता है। क्या हमारी ऐसी लापरवाही हमारी संस्कृति को अशोभनीय और गंदे स्वरुप में नहीं प्रकट कर रही है?


(रचना त्रिपाठी)