Thursday, March 27, 2014

नक्‍कारों की नेतागीरी का करियर

सोच रही हूँ नेता बन जाऊँ। घर परिवार की जिम्मेदारी बच्चों के बड़ा हो जाने के बाद थोड़ी कम ही हो जाएगी। उसके बाद कोई ऐसा काम करना ठीक रहेगा जिसमें हर्रे लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा हो जाय। इस हिसाब से राजनीति से अच्छा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। उम्र के हिसाब से भी दूसरी नौकरियों या धन्धों के बजाय चालीस पार करने के बाद राजनीति का करियर ही सबसे लाभदायक हो सकता है। आज-कल नेता बनना बाकी नौकरियों से बहुत आसान है।

मेरी निगाह में एक जबर्दस्त मुद्दा भी है - हमारे समाज में चारो ओर फैली बाल-मजदूरी का। यह जानते सभी हैं कि ‘बच्चों से काम कराना जुर्म होता है’; लेकिन इस जुर्म का लाभ उठाने के लिए सभी तैयार होते हैं। मैं अपनी राजनीति के लिए यही मुद्दा उठाउंगी। सड़क, गली-चौराहे पर जहां देखो वहां चार साल से लेकर चौदह साल तक के बच्चे कूड़े की ढेर से जूते, चप्पल, प्लास्टिक बटोरने का काम करते हैं। खाते-पीते घरों में भी गरीब घरों के बच्चे-बच्चियाँ छोटी-मोटी सेवा के लिए लगा दिये जाते हैं; जब कि इनके लिए सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था के साथ- साथ पका-पकाया गरम भोजन (हाट कुक्ड फूड) देने की योजनाएं भी चला रखी हैं। सरकार द्वारा मुफ़्त में दी गयी यूनीफ़ॉर्म पहने हुए कुछ बच्चों को भी मैंने कूड़ा उटकेरते देखा है। सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में जिन बच्चों का नामांकन भारी-भरकम अभियान चलाकर कराया जाता है ताकि “एक भी बच्चा छूटने न पाये”, उन बच्चों को इन स्कूलों में जो शिक्षा मिल रही है उसे देखकर ही मेरे मन में यह विश्वास पनप रहा है कि इनको सुनहरे सपने दिखाकर एक सॉलिड वोट-बैंक जरूर बना लूंगी और अपनी नेतागीरी चमका लूँगी।

मुफ़्त का भोजन, मुफ़्त का कपड़ा और कॉपी-किताबें व बैग, और भोजन के बाद मुफ़्त की छुट्टी; पढ़ाई के नाम पर यह पक्का आश्वासन की कक्षा पाँच और आठ तक कोई माई का लाल फेल कर ही नहीं सकता। अनपढ़ और नकारा बने रहने के लिए और क्या चाहिए?इन स्कूलों में गुरूजी लोग की बात न की जाय तो ही अच्छा। अव्वल तो स्कूलों में जरूरत के मुताबिक इनकी संख्या है ही नहीं; दूसरे,जो लोग तैनात हैं भी वे दूसरी तमाम चिन्ताओं में घुले जाते हैं। बच्चों की ओर ताकने की भी फुरसत उन्हें नहीं है। शिक्षामित्र अपनी मजदूरी के हिसाब से जितना पढ़ाना चाहिए उतना पढ़ाते हैं जो ऊँट के मुंह में जीरा के समान ही है।

इस प्रकार सरकार द्वारा अरबो रूपये खर्च करके जो अनपढ़ और मुफ़्तखोरी की आदत पाल चुके नक्कारों की फौज तैयार की जा रही है उनके आगे के जीवन में भी सरकारी कृपा की (मैं भीख क्यों कहूँ?) व्यवस्था जारी रखने का मिशन चलाने का काम तो करना ही पड़ेगा। मनमोहन सिंह की सरकार ने जाते-जाते इस टाइप की कुछ नीतियाँ घोषित कर दी हैं और कांग्रेस के मैनीफेस्टो में भी इस थीम पर काम किया गया है। अब इन बच्चों को न तो घर के काम सीखने की जरूरत है और न ही किसी और कौशल की। अगर ऐसे बच्चे सरकार की इस योजना का लाभ नहीं उठा पाएंगे तो युवा होकर करेंगे क्या..और किसके काम आएंगे? नेताओं का वोट बैंक बनने के अलांवा?

हमें विश्वास है कि थोड़ी मेहनत कर देने पर ये हमें बड़का नेता तो बना ही सकते हैं। उसके बाद हम इन्हें ‘अनपढ़ बेरोजगारी भत्ता’ या ‘बिना काम वेतन’ वाला रोजगार दिलाएंगे, जैसे मनरेगा में। सफाई कर्मचारियों की संविदा पर नियुक्ति दिलाएंगे। नगर निगमों में निकलने वाले जितने कूड़े है उनकी छँटाई और सफाई का जिम्मा इन्हें ही सौपेंगे। यानि ऐसे काम जो करने नहीं पड़ते। इनकी कार्य कुशलता तो इन्हीं सब कार्यों में है। नेता और एक बार मंत्री बन जाने के बाद तो सबकुछ मैनेज ही हो जाएगा। हम चाहे बाल-मजदूर रखे या वृद्ध सेवक, क्या फर्क पड़ता है?

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, March 15, 2014

होली की मौज

मन हमारी इन्द्रियों का राजा है और इन्द्रियां उसकी प्रजा। होली के दिन मन अपनी प्रजा को पूरी तरह संतुष्ट करने की सोचता है। पूरे साल बेचारी इन्द्रियों पर बहुत ही अंकुश रहता है। यह मत छुओ; वह मत देखो; यह मत सुनो; वह मत चखो; यह मत सूंघों। होली के  दिन मन इन्द्रियों से कहता है- आज तुम सभी स्वतंत्र हो! जाओ, और जी लो अपनी जिंदगी! इतना सुनते ही इन्द्रियां  बहैल्ला हो जाती है। अपने सभी दमित इच्छाओं को इसी एक दिन में ही पूरा कर लेना चाहती हैं। लड़कियों सरीखा इनके ऊपर भी बहुत पहरा लगा रहता है। होली के अवसर पर मेरी शुभकामनाएं इनके साथ है। होली के रंग में  इनका विवेक बना रहे ताकि हर साल ये इसी तरह हँसी-खुशी होली मना सके।holi-2014

हम सभी जानते है कि होली की मादकता, दीवाली की रौशनी, दशहरे का भोज, बॉलीवु्ड का संगीत और बसंती रंग बिरंगे फूल  किसे अच्छे नहीं लगते। लेकन इसका उपभोग करने से पहले यह हमारे लिए कितना स्वास्थ्यवर्धक होगा यह जरूर सोच लेना चाहिए। कुछ लोग तो इस दिन ‘बुरा न मानों होली है’ के बहाने अपनी जुबान तक तरह-तरह के शब्दों और वाक्यों से रंग डालते है। होली में मस्ती के साथ आत्मानुशासन जीवन के रंग को और भी बढ़ा देता है।

रंगों के बहाने हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हमने होली के रंगों की तरह अपने जीवन में भी कई रंग देखे हैं। बचपन के दिनों की रंगीनियां याद कर मन बहुत प्रसन्न हो जाता है। कितने कीमती थे वो दिन जो बीत गये। कुछ खट्टी-मीठी यादें रह गई हैं जिसे याद करके मैं हँस लेती हूँ। लेकिन  कभी-कभी तो रोने का मन भी होने लगता है। काश वो दिन लौट आते!

मैं भाइयों के साथ मिलकर होली के चार दिन पहले से ही रंग खेलना शुरु कर देती थी। उनकी की तरह मुझे भी सभी खेल खेलने की आजादी मिली हुई थी; लेकिन  होलिकादहन में जब पापा के साथ भाई भी जाने लगते थे तो मैं भी जाने की जिद्द करने लगती थी लेकिन मुझे नहीं जाने दिया जाता था। मम्मी का कहना था कि लड़कियों का होलिकादहन देखना अशुभ माना जाता है। मम्मी ऐसा क्यों कहती मैं नहीं समझ पाती थी। उस समय मेरा मन मुझे कोसने लगता था कि काश मैं भी लड़का होती तो मुझे भी वहां जाने दिया जाता..।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, March 8, 2014

बेटी के लिए भी सोहर गायें...।

आज महिला दिवस पूरा देश मना रहा है। इस दिन का जश्न मनाने के लिए महिला सशक्तिकरण पर कार्य करने वाली संस्थाएं, सभी प्रकार के राजनैतिक दल, सोशल मीडिया एवं सामान्य पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष सब उत्साहित दिख रहे हैं। मैं सोच रही हूँ कि महिला दिवस मनाने के लिए किसी जुलूस, सार्वजनिक स्थल या मंच की क्या जरूरत है..? सिर्फ एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिला का सम्मान नहीं बढ़ जाता। जरूरत है तो समाज में नारी सम्मान, नारी शिक्षा, नारी स्वास्थ्य के साथ-साथ नारी के राजनैतिक सशक्तिकरण की जो सिर्फ कानून बन जाने से नहीं मिल सकता।

आज महिला दिवस पर भी अगर किसी व्यक्ति के घर में बेटी पैदा होगी तो ‘सोहर’ नहीं गाया जाएगा। सोहर गाना एक ऐसी प्रथा है जिसमें सिर्फ लड़का पैदा होने के उपलक्ष्य में घर की महिलाओं द्वारा यह खुशी का गीत गाया जाता है। अभी तो महिला अपने ही घर में स्वतंत्र या सशक्त नहीं है कि बेटी पैदा होने पर ‘सोहर’ गा सकें या किसी अन्य प्रकार का ‘जश्न’ मना सके; अपनी ही प्रतिरूप को अपने आंचल में रखकर घर के अन्य सदस्यों के सामने अपनी खुशी का इजहार कर सके। ऐसा नहीं है कि एक परिवार में महिलाओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा कम होती है। जब तक एक स्त्री के द्वारा दूसरी स्त्री की उपेक्षा होती रहेगी तब तक किसी भी प्रकार से महिला को सशक्त नहीं बनाया जा सकता तथा महिला दिवस या महिला सशक्तिकरण जैसे कानून सिर्फ अखबार के पन्नों की शोभा बढ़ाते रहेंगे जिसके लाभ से महिलाएं हमेशा ही वंचित रहेंगी।

एक गर्भवती महिला को जब प्रसव के दौरान किसी महिला डॉक्टर के पास ले जाया जाता है तो बेटा होने पर डॉक्टर जितनी गर्मजोशी से उस महिला के घर वालों को बधाई देती है उतनी गर्मजोशी एक बेटी के होने पर नहीं दिखाती। वहां की नर्स और दाइयों का भी बेटा होने की बक्शीस ज्यादा होती है। महिलाओं में स्वयं ही लिंगभेद को लेकर असमानताएं है। हर स्त्री को चाहिए कि वह अपने घर में इस पर्व को जरूर मनाये; बेटी के होने पर भी सोहर गाये; पूड़ी- पकवान बनाए। अगर एक स्त्री अपने ही घर में उपेक्षित हो या दूसरे स्त्री की उपेक्षा करे तो समाज से उसे उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बेटे का जन्म हो या बेटी का अपनी पुरानी रुढिवादी परम्पराओं को घर की स्त्रियों को खुद तोड़ कर बाहर निकलना होगा। अपने वजूद को समझना होगा। अपने कार्यों के महत्व को समझना होगा। तभी वह सशक्त बन पाएंगी।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, March 6, 2014

छोटी बातों में बड़ी खुशी..

एक दिन की बात है मैं सुबह-सुबह बाथरूम में कपड़े धुलने के बाद स्नान करके बाहर निकली तो मेरे हा्थ में कपड़े से भरी बाल्टी को देखकर मेरे श्रीमानजी ने कहा- “अरे यार, तुम्हे ठंड लग जाएगी जल्दी से स्वेटर पहन लो” इतना सुनते ही मेरा हृदय प्रफुल्लित हो गया लेकिन मै उन्हें अपने इस आनंन्द का एहसास न दिलाकर थोड़ा सा इतराते हुए बोली- “अगर इतनी ही चिंता है मेरी तो कपड़े आप फैला दीजिए, मै तब-तक स्वेटर पहन लेती हूँ।” मुझे नहीं पता कि मेरी यह बात उन्हें कैसी लगी होगी..? इतना सुनते ही ये मेरे हाथ से बाल्टी लेकर बालकनी में कपड़े फैलाने लगे। मै स्वेटर पहनते हुए बालकनी में आकर खड़ी हो गई। उस दिन मै बहुत खुश थी। इस तरह की छोटी-छोटी खुशियां हमारे जीवन में बहुत सुख दे जाती हैं।

बहुत लोगों का मानना है कि अगर जीवन में पैसा है तो सब कुछ है। लेकिन हमें लगता है खुशियां खरीदी नहीं जा सकती और ना ही किसी से छीनी जा सकती है। वह इंसान जिसके पास अकूत सम्पत्ति का भंडार पड़ा हो; ऐश-आराम; धन-दौलत; बंगला; गाड़ी-घोड़ा; नौकर-चाकर; मोटरकार के साथ ड्राइवर भी हो; बीवी के साथ बैरा भी; इज्जत-प्रतिष्ठा; मान-सम्मान;  बच्चों के साथ एक भरा पूरा परिवार और साथ में माँ भी हो; तो ऐसे इंसान अगर प्रसन्न होते होंगे तो कैसे दिखते होंगे? उन्हें देखकर हम कैसे समझ सकेंगे कि वे आज बहुत खुश हैं..? उनके आनंद के पल कैसे होते होंगे जिन्हें कभी किसी चीज का अभाव न हुआ हो? उनकी थकान कैसी होती होगी जिनका पाला कभी शारीरिक और मानसिक श्रम से न पड़ा हो; बैठे बिठाए सब कुछ मिल जाता हो?

हम जैसे सामान्य लोगों को रोजमर्रा की थकान भरी जिंदगी में कभी कोई मूल्यवान वस्तु मिल जाने पर जिस खुशी का एहसास हमें होता है, ऐसे खुशी के पल उनके जीवन में किस तरीके से आते होंगे..? एक तरफ जहां हमें अपने बच्चों  की छोटी-छोटी खुशियों को पूरा करने के लिए सौ बार सोचना पड़ता है और उसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, तदुपरान्त हमें उनकी खुशियों को पूरा करके जिस चैन और सकून की अनुभूति होती है क्या ऐसा ही चैन उनके जीवन को नसीब होता है या इससे भी कहीं ज्यादा मिलता है, जिनके पास सब कुछ है? ऐसे घर के बच्चे और स्त्रियों की खुशियां किन-किन बोतों पर निर्भर करती होंगी जहां हर जरूरत की वस्तुएं पहले से मौजूद हों? स्त्रियों का अपने पति से नोंक-झोंक होती होगी भी तो किस बात पर..अगर नोंक-झोंक नहीं है तो प्यार कैसा होगा?

अक्सर स्त्रियां पति के द्वारा अपने छोटे-छोटे क्रिया-कलापों पर मिलने वाली सहानुभूति से बहुत प्रसन्न हो जाती हैं। जैसे- अगर उसका पति उसे एक बार प्यार से पूछ दे कि- तुमने अभी कुछ खाया कि नहीं.. सुबह से काम में लगी हो थोड़ा सा आराम कर लो.. किचेन में काम करते समय कितना पसीना आ जाता है तुम्हें आओ मैं इसे पोछ दूं.. मै समझ सकता हूं कि तुम पूरे परिवार के लिए कितना कुछ करती हो.. खाना लगाते समय पति से मिलने वाली छोटी-छोटी मदद जैसे टेबल पर खुद से पानी रख लेना खाने के प्लेट्स लगाना..इत्यादि। आखिर इनकी खुशियों का भी कुछ तो पैमाना होगा..

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, March 1, 2014

खबरों पर लगाइए दिमाग की छननी

तथा-कथित सर्वे कंपनियां और मीडिया वाले सबका हाल बताते-बताते खुद की चाल बिगाड़ बैठे है। याद आ रहा है वो दिन जब हम पूरे दिन इंतजार करने के बाद रात को साढ़े आठ बजे दूरदर्शन पर सारी दुनिया का हाल-चाल जानने के लिए बैठे रहते थे। दूरदर्शन पर आधे घंटे के समाचार में किसी भी पार्टी या प्रोडक्ट का प्रचार नाम की कोई चीज नहीं दिखाई जाती थी। लेकिन अब क्या है..रंग-बिरंगे न्यूज चैनल और रंग बिरंगी चटपटी खबरें! इन चैनलों पर समाचार के नाम पर आचार-विचार की कोई चीज देखने को नहीं मिलती हैं। दस से पंद्रह सालों में जो विकास का उदाहरण देखने को मिल रहा है क्या उसमें से एक विकास का मॉडल यह पेड न्यूज और धंधेबाज सर्वे कंपनियां भी हैं?

चौथे स्तंभ का रवैया तो ऐसे ही ढुल-मुल लग रहा था। बाकी बची-खुची कसर अब आइटम गर्ल की तरह सर्वे कम्पनियां अपना- अपना ओपीनियन पोल पब्लिक को दिखाकर पूरा कर दे रही हैं। क्या होगा भला इस जनतंत्र का? जिस पार्टी ने अपने दस साल के कार्य-काल में देश में सिर्फ गड्ढा खोदने का कार्य किया हो कुछ न्यूज चैनल्स तो उनका गुणगान गा-गा कर फिचकूर फेंक देते हैं। देखने वाले को घिन्न आने लगती है ऐसे न्यूज चैनलों को। एक चैनल से मन ऊबने लगता है तो दूसरे पर रिमोट घुमाते ही पता चलता है कि यहां पर भी उसी पार्टी का गाना-बजाना चल रहा है। अब देखे भी तो कोई क्या? और रही बात सर्वे कंपनियों की तो पब्लिक को चाहिए कि इनका भरोसा हरगिज न करें।

अगर आम जनता को जरूरत है तो सिर्फ अपने विवेक का इस्तेमाल करने की। क्योंकि सुना है आजकल चुनावी मार्केट में गंजो को भी कंघी बेची जा रही है। अपने आस-पास के विकास को देखकर अपने दिमाग की बत्ती जलाने की; जो सिर्फ मिंटोफ्रेश खाने से नहीं जलेगा। चुनावी खबरों की चाय की चुस्की लेने से पहले अपने दिमाग की छननी से छान लेना बहुत जरूरी है।