सोच रही हूँ नेता बन जाऊँ। घर परिवार की जिम्मेदारी बच्चों के बड़ा हो जाने के बाद थोड़ी कम ही हो जाएगी। उसके बाद कोई ऐसा काम करना ठीक रहेगा जिसमें हर्रे लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा हो जाय। इस हिसाब से राजनीति से अच्छा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। उम्र के हिसाब से भी दूसरी नौकरियों या धन्धों के बजाय चालीस पार करने के बाद राजनीति का करियर ही सबसे लाभदायक हो सकता है। आज-कल नेता बनना बाकी नौकरियों से बहुत आसान है।
मेरी निगाह में एक जबर्दस्त मुद्दा भी है - हमारे समाज में चारो ओर फैली बाल-मजदूरी का। यह जानते सभी हैं कि ‘बच्चों से काम कराना जुर्म होता है’; लेकिन इस जुर्म का लाभ उठाने के लिए सभी तैयार होते हैं। मैं अपनी राजनीति के लिए यही मुद्दा उठाउंगी। सड़क, गली-चौराहे पर जहां देखो वहां चार साल से लेकर चौदह साल तक के बच्चे कूड़े की ढेर से जूते, चप्पल, प्लास्टिक बटोरने का काम करते हैं। खाते-पीते घरों में भी गरीब घरों के बच्चे-बच्चियाँ छोटी-मोटी सेवा के लिए लगा दिये जाते हैं; जब कि इनके लिए सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था के साथ- साथ पका-पकाया गरम भोजन (हाट कुक्ड फूड) देने की योजनाएं भी चला रखी हैं। सरकार द्वारा मुफ़्त में दी गयी यूनीफ़ॉर्म पहने हुए कुछ बच्चों को भी मैंने कूड़ा उटकेरते देखा है। सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में जिन बच्चों का नामांकन भारी-भरकम अभियान चलाकर कराया जाता है ताकि “एक भी बच्चा छूटने न पाये”, उन बच्चों को इन स्कूलों में जो शिक्षा मिल रही है उसे देखकर ही मेरे मन में यह विश्वास पनप रहा है कि इनको सुनहरे सपने दिखाकर एक सॉलिड वोट-बैंक जरूर बना लूंगी और अपनी नेतागीरी चमका लूँगी।
मुफ़्त का भोजन, मुफ़्त का कपड़ा और कॉपी-किताबें व बैग, और भोजन के बाद मुफ़्त की छुट्टी; पढ़ाई के नाम पर यह पक्का आश्वासन की कक्षा पाँच और आठ तक कोई माई का लाल फेल कर ही नहीं सकता। अनपढ़ और नकारा बने रहने के लिए और क्या चाहिए?इन स्कूलों में गुरूजी लोग की बात न की जाय तो ही अच्छा। अव्वल तो स्कूलों में जरूरत के मुताबिक इनकी संख्या है ही नहीं; दूसरे,जो लोग तैनात हैं भी वे दूसरी तमाम चिन्ताओं में घुले जाते हैं। बच्चों की ओर ताकने की भी फुरसत उन्हें नहीं है। शिक्षामित्र अपनी मजदूरी के हिसाब से जितना पढ़ाना चाहिए उतना पढ़ाते हैं जो ऊँट के मुंह में जीरा के समान ही है।
इस प्रकार सरकार द्वारा अरबो रूपये खर्च करके जो अनपढ़ और मुफ़्तखोरी की आदत पाल चुके नक्कारों की फौज तैयार की जा रही है उनके आगे के जीवन में भी सरकारी कृपा की (मैं भीख क्यों कहूँ?) व्यवस्था जारी रखने का मिशन चलाने का काम तो करना ही पड़ेगा। मनमोहन सिंह की सरकार ने जाते-जाते इस टाइप की कुछ नीतियाँ घोषित कर दी हैं और कांग्रेस के मैनीफेस्टो में भी इस थीम पर काम किया गया है। अब इन बच्चों को न तो घर के काम सीखने की जरूरत है और न ही किसी और कौशल की। अगर ऐसे बच्चे सरकार की इस योजना का लाभ नहीं उठा पाएंगे तो युवा होकर करेंगे क्या..और किसके काम आएंगे? नेताओं का वोट बैंक बनने के अलांवा?
हमें विश्वास है कि थोड़ी मेहनत कर देने पर ये हमें बड़का नेता तो बना ही सकते हैं। उसके बाद हम इन्हें ‘अनपढ़ बेरोजगारी भत्ता’ या ‘बिना काम वेतन’ वाला रोजगार दिलाएंगे, जैसे मनरेगा में। सफाई कर्मचारियों की संविदा पर नियुक्ति दिलाएंगे। नगर निगमों में निकलने वाले जितने कूड़े है उनकी छँटाई और सफाई का जिम्मा इन्हें ही सौपेंगे। यानि ऐसे काम जो करने नहीं पड़ते। इनकी कार्य कुशलता तो इन्हीं सब कार्यों में है। नेता और एक बार मंत्री बन जाने के बाद तो सबकुछ मैनेज ही हो जाएगा। हम चाहे बाल-मजदूर रखे या वृद्ध सेवक, क्या फर्क पड़ता है?
(रचना त्रिपाठी)
मजेदार प्रेक्षण और योजना है :-)
ReplyDeleteऐसा नेता बनने के लिए शुभकामनाये नहीं दूंगी वैसे भी वहाँ पहले ही भरमार है।
ReplyDeleteपिछले ६० सालो में शिक्षा का यह रूप ?मन तो बहुत दुखता है किन्तु नेता नहीं बनेगे।
ये योजनाये तो यूँ भी लागू ही है :(
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