Friday, December 27, 2013

बड़े बोल की पोल

देश में सियासत का जुनून सभी सियासी दलों में सिर चढ़ कर बोल रहा है। बिल्कुल वालीवुड की फिल्मों में उस नायक की तरह जो नायिका को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए, उसके सामने अपनी बहादूरी के कारनामें दिखाने के लिए भांति-भांति प्रकार के तरीकों का प्रदर्शन करता हैं। इन तरीकों में सबसे नायाब तरीका यह होता है कि नायक नायिका के सामने पहले तो खुद गुंडे भेजता है और अपना प्रभाव जमाने के लिए अचानक सुपर मैन की तरह प्रकट होता है, फिर नायिका को उन गुंडों से बचाने का ढोंग करता है। नायिका उसे रक्षक मानकर अपना दिल दे बैठती है। सियासी दलों के बीच भी वोट पाने के लिए कुछ इसी प्रकार का नाटकीय अभिनय चल रहा है।

एक समय था जब सियासत होती थी इस देश के लिए। इस देश से गरीबी, भुखमरी, बीमारी दूर करने के लिए; राष्ट्र के लिए हर नागरिक में प्रेम भावना बनाए रखने के लिए; लेकिन अब सियासत होती है भ्रष्टाचार करके पांच सालों तक भ्रष्टाचार मिटाने की ‘बात करने’ के लिए। ठीक उसी फिल्मी शो की तरह जो सिर्फ तीन घंटे में पूरी हो जाते है; और फिल्म मेकर मालामाल हो जाता है।

यूपी में भी सियासत की सरगर्मी बढ़ कर बोल रही है। तरह-तरह के तोहफों से जनता को रिझाने की कोशिश की जा रही है। सपा मुखिया अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं को नसीहत देने में जुट गये हैं। २०१४ के चुनाव को ध्यान में रखकर गुंडई न करने की बात कुछ इस तरह समझाते हैं। आइए उनकी बातों का अर्थ समझते है-

“अगर मंत्री के परिवार का लड़का गुंडई करेगा तो हमारी छवि खराब होगी। अगर खबर मिली की फला जगह गुंडई हुई तो मै पार्टी से निकाल दुंगा।” यानि चुनाव जीत जाने के बाद कुछ भी करें इन्हें आपत्ति नहीं होगी।

“मंत्रियों और कार्यकर्ताओं की छवि बेदाग रही तो पार्टी लंबे समय तक सत्ता में बनी रहेगी।” यानी लंबे समय तक लूट, हत्या, डकैती, छिनैती, दंगा, फसाद करते रहेंगे।

“यूपी में मंत्री आगे से इस तरह की घटनाओं को न दुहराएं। मंत्री अपने समर्थकों को संभालें।” यानि चुनाव होने तक उसी वालीवुड हीरो की तरह जनता को रिझाते रहो एक बार सत्ता अपनी मुट्ठी में आ जाय तो फिर खलनायक की तरह अपना असली चेहरा जनता को दिखाएंगे।

“मंत्रियों ने अगर खुद को नहीं सुधारा तो लाल बत्ती छिन सकती है।” ‘आप पार्टी’ को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका भी साइड इफेक्ट अच्छा ही होगा।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, December 20, 2013

बेचारी कांग्रेस..!

जज साहब ने एक मुजरिम को सजा के तौर पर दो विकल्प दिए-

१-सौ जूते खाओ या २- सौ प्याज खाओ। मुजरिम ने सौ प्याज खाने को मंजूर किया। जब प्याज खाना शुरु किया तो उसे लगा कि यह तो बड़ा ही असहनीय है, तो उसे सौ जूते खाना ज्यादा सरल लगने लगा। जज साहब से बोला, ‘मै जूते ही खाउंगा’। इस तरह जब वह जूते खाना शुरु किया तो, दो-चार जूते खाने के बाद, उसे यह सजा भी ज्यादा कठिन लगने लगी। उसने फिर बोला , ‘जज साहब मै प्याज खाउंगा; और प्याज खाना शुरु कर दिया। इस तरह बारी-बारी से उसने जूते भी खाये और प्याज भी।

आखिरकार कांग्रेस पार्टी ने लोकपाल कानून बनाने की सहमति दे दी, और दिल्ली में मुख्यमंत्री के पद के लिए केजरीवाल को समर्थन भी। इस पार्टी की इस बेबसी को देखकर यही लगता है कि इसने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी।

भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल कानून में ४०प्रतिशत पर सफलता तो मिल गयी, लेकिन ६० प्रतिशत पर बात अभी अटकी पड़ी है। हमें तो लगता है कि अन्ना के लोकपाल बिल में ६०प्रतिशत दिल्ली के  मुख्यमंत्री की गद्दी पर विराजमान शीला दीक्षित को कहीं हटाना तो न था… अगर ऐसा है तो अन्ना का मिशन पूरी तरह कामयाब होता नजर आ रहा है।  राष्ट्रीय राजधानी में महिलाओं  में बढ़ती असुरक्षा का बोध, और भ्रष्टाचार ने आम जनता के सब्र का बांध तोड़ डाला। नतीजतन ‘आप’ का अभ्युदय हुआ जिसकी बागडोर अरविंद केजरीवाल के हाथ में है।

एक मीडियाकर्मी ने शीला दीक्षित से  कहा कि, ‘आपकी पार्टी   अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता से चिंतित नजर आ रही है। उन्होंने झट से जवाब दिया कि ‘कौन है अरविंद केजरीवाल?’

जब अन्ना हजारे का आंदोलन चरम छू रहा था उस समय कांग्रेस के कर्णधार कपिल सिब्बल ने अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की खिल्ली उड़ाते हुए यह कहा था कि कानून को संसद बनाती है, न कि रामलीला मैदान में जमा होने वाली भीड़। याद होगा कि द्रौपदी द्वारा दुर्योधन के ऊपर किए गए एक व्यंग भरे उपहास ने युगों युगों तक याद रखने वाला महाभारत रच दिया। कपिल सिब्बल ने तो पूरे लोकतंत्र का ही मजाक उड़ा डाला। राजशाही के नशे में धुत्त इन्हें तनिक भान न था कि आम जनता के ऊपर की गई  टिप्पणी की कीमत कांग्रेस को अपनी गद्दी गवांकर चुकानी पड़ेगी।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, December 18, 2013

सावधानी हटी दुर्घटना घटी..!

उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम की प्रायः सभी बसों में ड्राइवर के सामने लिखा यह सूक्ति वाक्य बहुत प्रासंगिक है : सावधानी हटी दुर्घटना घटी। यह तो तय है कि भय न हो तो मानवमन अनुशासित नहीं हो सकता। तेज रफ्तार में गाड़ी चलाई तो दुर्घटना होने का डर रहता है, इसलिए गाड़ी की स्पीड कम करनी पड़ती है। ऐसा नहीं होता तो सबको जल्दी निकलने की होड़ मची रहती और मिनटों का काम सेकेण्डों में पूरा कर हर आदमी अपनी पीठ थपथपाता रहता। अक्सर यह देखा जाता है कि बड़ी- बड़ी ट्रकों के पीछे यह लिखा होता है कि ‘सटला ता गईला’। यह ठेठ चेतावनी हर यात्री को आगाह करती है कि गाड़ी चलाने में जल्दबाजी न करें नहीं तो आप दुर्घटना के शिकार हो सकते। जानबूझकर लाइनमैन भी नंगे हाथ से बिजली प्रवाहित नंगा तार कत्तई नही छूते। ऐसा इसलिए होता है कि उन्हे करंट लगने का डर होता है, और यही डर उन्हे सावधानी से कार्य करने की चेतना प्रदान करता है।

‘‘विनय न मानत जलधि जड़ गये तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब भय बिन होत न प्रीत’’। राम जी द्वारा प्रार्थना करने व लाख मान-मनुहार के बाद भी ‘जड़ समुद्र’  ने उन्हें लंका पहुँचने का रास्ता नहीं दिया। अंततः जब उन्होंने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ायी तो त्राहि माम्‌ की पुकार करते हुए समुद्र महराज पैर पर गिर पड़े। इसलिए डर की महिमा कम करके नहीं आंकी जा सकती।

ऐसा ही एक डर कानून का है, दंड संहिता का है जो अपराध न करने की चेतना प्रदान करता है। कानूनों के प्रति बढ़ती जागरूकता से और उनमें बताये गये दंड विधान के प्रचार-प्रसार से अब माहौल ऐसा बनता जा रहा है कि कुछ महापुरुषों को भी अब डर लगने लगा है। निर्भया ने जाते-जाते एक उपहार इस समाज को दे दिया। औरत अब चुप नहीं लगाने वाली। लाज की गठरी बनकर वहशी दरिन्दों का शिकार नहीं बनने वाली। अब उसने मुंह खोलना और संघर्ष करना शुरू कर दिया है। अब कोई माननीय हों या स्टिंग की शक्ति से मदान्ध ऊँची रसूख के दलाल सबके खिलाफ आवाज उठने लगी है। अब वह बात नहीं चलेगी कि कभी इनकी जुबान फिसले तो कभी उनके हाथ-पैर।

कानून का डर इन्हें फिसलने से जरूर रोकेगा। लेकिन इनके अंदर एक मलाल तो हमेशा बना रहेगा कि अन्जाने में भी ये फिसल नहीं सकते। अब इन्हें वही याद आएगा जो ट्रक के पीछे लिखा होता है - ‘सटला त गईला’।

इनका डर इतना भारी हो गया है कि अब ये दफ्तरों में महिला स्टाफ़ नियुक्त न करने की बात करते हैं। कहाँ-कहाँ बचोगे बच्चू इस तरह मुंह छिपाते? इससे तो अच्छा है कि अपनी आदत ही सुधार लो। अपना व्यवहार ही ऐसा बना लो जो तुम्हारे आस-पास दिखने वाली लड़कियों और औरतों की गरिमा के अनुकूल हो। अपने ऊपर इतना नियंत्रण तो रखो, विश्वास तो करो कि तुम्हारी आंखों में लंपटता का वास नहीं होगा, तुम्हारी नसों में पशुओं सा संवेग नहीं पनपेगा, तुम्हारे विवेक पर ताला नहीं पड़ेगा; जब तुमारे आस-पास किसी की माँ, बहन, बेटी या दोस्त अपना काम कर रही होगी। सभ्यता की परीक्षा देने में इतनी घबराहट क्यों?

अरे..! दुर्घट्ना होने के डर से हम घर से निकलता तो नही बंद कर देते...? हां , सावधानी जरूर बरतनी चाहिए। डर से ही सही, अब तो हमें सभ्य बन ही जाना चाहिए।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, December 12, 2013

समलैंगिको के साथ यह भेद-भाव क्यों..?

समलैंगिक भी इस लोकतांत्रिक समाज का एक हिस्सा हैं, जिन्हें अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का पूरा अधिकार है। जबतक उनसे इस समाज और देश का कोई नुकसान नहीं होता तबतक उनकी यौनिक पसन्द पर आपत्ति नहीं की जा सकती। समलैंगिकता अपराध तब है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य के साथ अप्राकृतिक ढंग से जबरदस्ती संबंध बनाने का प्रयास करे। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस वर्ग के लोगों के लिए कदाचित उचित नहीं है क्योंकि समलैंगिक प्रवृत्ति, आप इसे गुण कहे या दोष; यह भी प्रकृत प्रदत्त ही है जो हार्मोन पर निर्भर करता है न कि समाज में किन्हीं अराजक तत्वों द्वारा उत्पन्न हुआ है। एक स्त्री का किसी अन्य स्त्री के प्रति आकर्षण या एक पुरुष का किसी अन्य पुरुष के प्रति आकर्षण उतना ही संभव है, जितना एक पुरुष अथवा स्त्री का विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होता है। प्रकृति में ऐसे मनुष्यों का आविर्भाव भी हो सकता है जिसे ठीक-ठीक स्त्री या पुरुष की श्रेणी में ही न रखा जा सके। प्रकृति प्रदत्त ऐसे विशिष्टियों के लिए किसी को अपराधी ठहरा देना कहाँ तक न्यायसंगत हो सकता है?  सुप्रीम कोर्ट ने अप्राकृतिक यौनाचार और समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दिया है, जिसकी सजा में उम्रकैद तक का प्रावधान है।

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इस तरह से देखा जाय तो इस यौनवृत्ति को अवैधानिक घोषित कर सजा का प्रावधान गलत है। इसको सामान्य प्राकृतिक लक्षणों से अलग एक आंशिक विकृति मानकर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर उपचारात्मक प्रक्रिया की बात तो समझ में आती है। लेकिन इसे अपराध की श्रेणी में रखकर देखा जाना उचित नहीं समझा जा सकता है। अगर लोकतंत्र मे सेरोगेसी को स्थान मिल सकता है, लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिल सकती है तो समलैंगिको के साथ यह भेद-भाव क्यों है? समलैगिकता को एक दायरे में सीमित कर देना तो उचित हो सकता है ताकि यह इस समाज में एक अपराध बनकर न उभरे; लेकिन इसे स्वयं एक अपराध घोषित कर देना ज्यादती होगी।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, December 7, 2013

मैन-मनी-मसल पावर में महिला है मिसफिट

संसद के इस शीतकालीन सत्र में अगर महिला आरक्षण बिल पास नहीं होता है तो यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जायेगा कि संसद और विधानसभा में बैठे हुए पुरुष राजनेता महिलाओं को अपनी बराबरी में नहीं देखना चाहते हैं, या वह इस बात से डरते है कि महिलाएं इन्हें कही इस क्षेत्र में भी कंधे से कंधा न मिलाने लगें।

राजनीति में महिलाओं की बराबर की भागीदारी होना अब जरूरी ही नहीं बल्कि अपरिहार्य हो गया है। महिलाओं की योग्यता और उसकी क्षमता पर बार-बार प्रश्नचिह्न खड़ा कर के एक तरह से उसका मानसिक उत्पीड़न किया जाता है। स्त्री को अपने से कम आंकने की पुरुषों की नीयत सी बन गयी है । आज की तारीख में हर क्षेत्र का रिकार्ड उठाकर देख लेने की जरूरत है कि महिलाएं किस क्षेत्र में पीछे हैं। अंतरिक्ष से लेकर, चाहे पुलिस सेवा हो, सेना हो अथवा नेवी मे, महिलाएं अपनी योग्यता के बदौलत वहाँ आगे पहुंच रही हैं; लेकिन राजनीति के क्षेत्र में आशाजनक स्थिति नहीं बन पा रही है। आखिर क्यों नहीं?

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चित्र साभार : www.businessnewsthisweek.com

मुझे सुषमा स्वराज जी की यह बात सही लगती है कि राजनीति के प्रवेशद्वार पर अभी भी पुरुषों का ही पहरा है जो शायद महिलाओं को अन्दर नहीं जाने देना चाहते। शायद इस आशंका से कि महिलाएं उनकी कुर्सी पर कब्जा कर लेंगी और उन्हें अपनी जागीर छोड़नी पड़ेगी। इसमें स्पष्ट रूप से पुरुष नेताओं का अपना स्वार्थ हावी है। उनका अपना वर्चस्व बना रहे इसलिए वे राजनीति में महिलाओं के आने का रास्ता ही बंद कर रखे हैं। राजनीति में “मैन, मनी और मसल पावर” को सफलता की कुंजी मान लिया गया है क्योंकि आजकल जिस प्रकार चुनाव लड़े और जीते जाते हैं उसे देखकर यह सही भी लगता है। इसी ने इन पुरुष नेताओं को अहंकारी बना दिया है। उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी ने आज ही इलाहाबाद के एक माफिया डॉन को दुबारा पार्टी में शामिल करके संसद का चुनावी टिकट थमा दिया है।

ऐसे में महिलाओं की राह राजनीति में आसान नहीं है। लेकिन जहाँ भी महिलाओं को अवसर दिया गया है उन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया है। राजनीति में नेतृत्व करने के लिए मसल और मनी पावर इस्तेमाल करना अवैध होता है। नेतृत्व हमेशा योग्यता के बल पर ही होना चाहिए परन्तु योग्यता की परिभाषा वह नहीं रह गयी है जो हम आप किताबों में पढ़ते हैं। आज के माहौल में तो महिला मिसफिट होती जा रही है; जबकि महिलाएँ ही इस स्थिति को सुधार सकती हैं।

महिलाओं का चुनाव क्षेत्र में उतरना इस समाज, देश, काल के लिए शुभ संकेत होगा। शायद बेहतर अनुशासन और साफ-सुथरा प्रशासन भी सामने आ जाये। ऐसा होने पर देश में विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। सत्य की जय और झूठ का नाश होगा।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, December 4, 2013

पुलिस की रासलीला

जानलेवा हमले और बलवा कराने के आरोप में उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के विधायक रविदास मेहरोत्रा को पकड़ पाने में असफल रहने पर कोर्ट ने उनकी संम्पत्ति कुर्क करने का आदेश दिया था। अब खबर छपी है कि विधायक जी को गिरफ्तार करने में असफल रहने वाली पुलिस विधायक जी के घरपर आयोजित ऐटहोम समारोह में बाकायदा मौजूद थी और राज्य सरकार के कद्दावर मन्त्री शिवपाल सिंह यादव जी भी दावत में शामिल थे। दैनिक जागरण की आज (03 दिसंबर) की इस खबर को पढ़कर यह तो स्पष्ट दिख रहा है कि यह सरकार सिर्फ गुंडों-मवालियों की खैरख्वाह होकर रह गयी है।

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जिन पुलिस वालों को रविदास मेहरोत्रा को गिरफ्तार करना चाहिए था वे उन्हीं के कूचे में बैठे दावत उड़ा रहे थे। यह देखकर अखबारों में छपी इन खबरों पर भी विश्वास करने का मन करता है कि कथित तौर पर पुलिस को चकमा दे रहे नारायण साईं को भी किसी न किसी सत्ता प्रतिष्ठान का आश्रय प्राप्त है।

अपराधी और नेता की रासलीला में पुलिस की भूमिका गोपियों की तरह लगने लगी है। अपराधी आए दिन लूट, हत्या, बलात्कार जैसी घिनौनी हरकतें किए जा रहे हैं; और पुलिस उनके इस अपराध में खड़ी मूकदर्शक बनी मुस्कराती और उनके द्वारा दिये गये लूट के हिस्से का लुत्फ उठाती रहती है।

जनता भी आँखों-देखी मक्खी निगलने को मजबूर है; और कर भी क्या सकती है भला! जिसे आम लोग अपना रखवाला मानते है,वह पुलिस खुद अपराधियों के गिरोह में शामिल हो गयी है। ऐसे में अपने समाज के हितों के बारे में सोचने के लिए आम जनता की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है जिसका निर्वहन उसे करना ही चाहिए। लेकिन कैसे करे? अगर आम जनता उन पुलिसवालों केनिलम्बन की मांग करती है तो क्या शासन उस पर कार्यवाही करेगा? शायद नहीं। जब सरकार की ऊँची पायदान पर बैठे एक वरिष्ठ मंत्री ही उस वांछित अपराधी के साथ गलबहियाँ डाले दावत उड़ाते देखे गये तो भला उन पुलिस वालों को क्या दोष दें?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, November 26, 2013

समाज का अपराध

 

कुछ अपराध ऐसे होते है जिसका कूसूरवार सिर्फ उस घटना को अंजाम देने वाला ही नहीं बल्कि उसका पूरा परिवार और कभी-कभी तो हमारा समाज भी होता है जो परोक्ष रूप से उस अपराध को करने के लिए मजबूर करता है। कितनी विडम्बना है कि एक स्त्री जो नौ महीने अपने गर्भ में पालने के बाद बेटी को जन्म देती है; उसकी हर छोटी-बड़ी खुशियों का खयाल रखती है; उससे जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए डाँटती-समझाती है और जिसमें अपना अक्स देखती है उसी के साथ ऐसा निष्ठुर घात कर बैठती है जिसपर यकीन करना कठिन हो जाता है। किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखते ही बेटी से ऐसी कौन सी गलती हो गयी जो एक माँ के लिए भी अक्षम्य थी और जिसकी सजा मौत बन गयी? मेरा मन नहीं मान रहा कि इस तरह के अपराध में एक माँ का हाथ हो सकता है। लेकिन कानून ने फिलहाल उसे अपराधी ठहरा दिया है। ऐसे में कानून की नजर में अगर ऐसे अपराध की सजा मौत है तो भी कम है...। इसने तो माँ की छवि ही कलंकित कर दी। अब आगे से कोई माँ के रिश्ते को वह ऊँचा स्थान कैसे दे पाएगा जिसके आंचल में अपनी संतान के लिए सागर से भी गहरा प्यार और आसमान से भी ऊँचा वात्सल्य होता है।

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आरुषी की हत्या के मामले में कानून तो अपना कार्य कर गया; लेकिन एक माँ की ममता इतनी क्रूर कैसे हो गयी? इसके पीछे क्या सामाजिक दबाव एवं झूठी प्रतिष्ठा के लिए मन की बेचैनी है? एक माँ को अपने बच्चे से ज्यादा प्रिय समाज में अपनी इज्जत कैसे हो गयी? क्या परिवार और समाज की गरिमा बेटियों की इज्जत से जुड़ी होती है। इस माँ से मै पूछना चाहती हूँ - क्या आरुषी की जगह उसका बेटा होता और एक नौकरानी के साथ जिस्मानी संबंध बनाते हुए पकड़ा जाता तो उसकी भी सजा माँ की नजर में यही होती जो उसने अपनी बेटी को दी? अगर एक ही भूल बेटियां करती हैं तो बहुत बड़ी भूल बन जाती है और बेटे करें तो मामूली बात कह के रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश हो जाती है। शायद तब दाँव पर बेटा लगा होता है जो बेटी से अधिक कीमती है।

बेटी और सामाजिक इज्जत का आपस में क्या ऐसा संबंध है? अगर है तो मत जनो बेटी को... गर्भ में मार डालने का अपराध भी शायद इसी की एक कड़ी है। “समाज को क्या मुंह दिखाएंगे” इस चिन्ता के दबाव में अपना हाथ रक्तरंजित कर लेने से मुँह काला नहीं होता क्या? आज सभी लोग उन्हें थू-थू कर रहे हैं लेकिन इसी समाज का भय क्या उस दुष्कृत्य के लिए उत्प्रेरक नहीं रहा होगा? इस सारे घटनाक्रम में हमारे समाज का दोहरा मापदण्ड है जो इस तरह के कुकृत्य करने पर लोगों को मजबूर करते हैं। मुझे लगता है कि आरुषी हत्याकांण्ड में यह समाज भी उतना ही दोषी है जितना उसके माता-पिता।

(रचना)

Tuesday, November 19, 2013

गिफ्ट कहो या तिहवारी बात बराबर है…

तिहवारी देने का प्रचलन हमारी सदियों पुरानी परंम्परा से चला आ रहा है। घर में काम करने वाले नौकर-चाकर, धोबी-मोची, स्वीपर आदि छोटे कर्मचारियों एवं समाज में रहने वाले छोटे तबके के लोगों को होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर कुछ पैसे, अनाज, कपड़े जैसी बस्तुएं दी जाती है जिसे हम तिहवारी के नाम से जानते है। सगे-संबंधियों के यहाँ से आने वाले नाई-कहाँर को भी तीज-त्यौहार के समय तिहवारी देकर विदा करने का रिवाज बहुत पुराना है।

त्यौहारों के आगमन में हम महीनों पहले से इसकी तैयारी के लिए जुटे रहते है; जैसे- होली-दिवाली हो या दशहरा, किसी का जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह; इन सभी कार्यक्रमों में सबसे महत्वपूर्ण काम होता है गिफ्ट का लेन-देन। जितना समय घर की साफ-सफाई और साज-सज्जा पर नहीं लगता है उससे कहीं ज्यादा समय यह सोचने और करने में लग जाता है कि किसको क्या और कैसा गिफ्ट देना है । घर हो या दफ्तर, सचिवालय हो या मंत्रालय; गिफ्ट का आदान-प्रदान सब ओर होता रहता है। बस उसके तौर-तरीकों, उनके मूल्य व प्रकार को देखकर गिफ्ट पाने वाले व्यक्ति की सामाजिक हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है। खरीदारी के समय गिफ्ट के चुनाव के साथ-साथ उसकी पैकिंग में भी प्रोटोकॉल का ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है।

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मैं सोच रही थी कि तात्विक रूप से तिहवारी और गिफ्ट में कोई खास अंतर नहीं है। दोनो मामलों में देने वाले का उद्देश्य लेने वाले को खुश करना होता है। खास त्यौहारों के अवसर पर सेवक टाइप कर्मचारियों को उनके मालिक या गृहिणियों द्वारा जो बख्शीश दी जाती है वह तिहवारी है और जब ऐसे ही अवसरों पर छोटे कर्मचारी या अधिकारी अपने बॉस या वरिष्ठ अधिकारी को कुछ भेंट करते है तो उसे ‘गिफ़्ट’ कह देते हैं। मैंने एक ही व्यक्ति को अलग-अलग लोगों को तिहवारी बाँटते और गिफ़्ट लेते तथा गिफ़्ट देते देखा है। समाजिक पायदान पर वह जहाँ खड़ा है उसी के अनुसार यह आदान-प्रदान आकार लेता है। इसको समझने के लिए दी जाने वाली वस्तु या कैश की मात्रा पर एक नजर डाले तो पता चल जाता है कि क्या तिहवारी है और क्या गिफ्ट। लेने व देने वाले की हैसियत का पता भी यह सामग्री दे देती है।

गिफ्ट के मामले में लेने वाला इसकी डिमांड नहीं करता जबकि तिहवारी लेने वाले पीछे पड़कर ले लेते हैं। गिफ़्ट शौकिया दिया जाता है या भयवश इसमें विद्वानों में मतभेद है। किसी वांछित कार्य के हो जाने पर या अवांछित कार्य के रुक जाने पर जो खुशी मिलती है उसे प्रकट करने के लिए अपने संबंधित अधिकारी या मंत्री को गिफ़्ट दिया जाता है। लेकिन कभी कभी उस खुशी की प्रत्याशा में पहले ही गिफ़्ट टिकाना पड़ता है; वह भी आकर्षक पैकिंग व वजन के साथ। इसकी तुलना में तिहवारी देने में इतना टिटिम्मा पालने की जरूरत नही पड़ती। उसे झोले में लटकाकर दिया जाय, किसी प्लास्टिक में बांध कर दे दीजिए या वैसे ही खुले में थमा दीजिए पाने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता।

गिफ्ट देने वाला तो महान होता है लेकिन गिफ्ट पाने वाला उससे भी कहीं ज्यादा बड़ा महान व्यक्ति होता है। जिसका जितना बड़ा गिफ्ट, उसकी उतनी बड़ी इज्जत होती है। तिहवारी तो हर व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार दे सकता है; लेकिन गिफ्ट देने के लिए अपनी पॉकेट से पहले उस व्यक्ति की हैसियत देखनी पड़ती है जिसे गिफ्ट देना होता है।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, November 15, 2013

जुबान जो संभलती नही…

SLIP OF TONGUE

चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। वह देश के बारे में नहीं सोच सकता। आजादी के बाद हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा भले ही कर लें लेकिन हमारे नेता आज भी ऐसा सोचते हैं।

इस देश की प्रगति में सबसे बड़े बाधक के रूप में बैठे हुए सामंती सोच वाले उच्च पदाधिकारी और राजनेता हैं, जो अपने स्वार्थ के वशीभूत अपनी जिम्मेदारियों को भूल चुके हैं और सिर्फ अपनी गद्दी के बारे में ही सोचते हैं। इनका राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र यह बताता है कि “चाय बेचने वाले का बेटा चाय ही बेचेगा, मोची का बेटा मोची ही होगा, एक बड़े नेता का बेटा एक बड़ा नेता ही बनेगा।”

यह सोच नयी नहीं है। जिसके पास ताकत आ जाती है वह दंभ से भर ही जाता है। मै कक्षा आठ में पढ़ती थी तो मुझे याद है जब स्कूल के प्रिंसिपल साहब ने एक मास्टर साहब से बोला था कि ‘मास्टर का बेटा होकर प्रिंसिपल के बेटे की बराबरी करता है...!’ मास्साब का बेटा और प्रिंसिपल का बेटा दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। ये दोनों मुझसे दो साल सीनियर थे। किसी बात को लेकर उन दोनों में लड़ाई हो गई थी। यह बात प्रिंसिपल को नागवार लगी और उन्होंने अपनी नाराजगी मास्साहब से इन शब्दों में व्यक्त किया था। उस समय मास्साब हम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाने आये तो प्रिंसिपल साहब की इस सामंती सोच पर बहुत दुखी लग रहे थे। वाचाल होने की वजह से मै मास्साहब की मुँहलगी थी, इस वजह से मै उनसे पूछ पड़ी, ‘प्रिंसिपल सर आप से किस बात पर नाराज हुए है? मास्साब मुझसे बोले- “तुम देखना मास्टर का बेटा मास्टर ही बनेगा!” यानि कि हर क्षेत्र में प्रवीण

इस फार्मूले के हिसाब से तो सचिन के बेटे अर्जुन को सचिन जैसा बड़ा और धुरंधर बल्लेबाज होना चहिए। अगर गाँधी जी अपने जैसे चार गाँधी और पैदा किए होते तो इस देश का नजारा कुछ और होता। लेकिन ‘सौभाग्य से’ ऐसा हो ही नहीं सकता। व्यक्तिगत प्रतिभा और परिश्रम का मूल्य हमेशा बड़ा होता है। बाँस की जड़ से रेंड़ उगना आम बात है। फिर राजनीति में अंधे ये बयानबाज अपनी सहूलियत से ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करते हैं?

सीमा पर जवानों के सिर कलम कर दिए जाते है तो भी देश के मुखिया का मुंह नहीं खुलता। आतंकवादी हमले करने वालों की हदें नही समझायी जाती है, लेकिन जब सी.बी.आई. प्रधानमंत्री की जाँच में लगती है तो प्रधानमंत्री के द्वारा बेशर्मी से मौन व्रत तोड़ते हुए उसकी हदें बतायी जाने लगती है। इन नेताओं और नौकरशाहों की यह सोच आखिर क्या दर्शाती है? क्या इस तरह के लोग लोकतंत्र को चलाने के काबिल हैं?

भोजपुरी की एक कहावत याद आ गई, “आन के पाड़े दिन देलें अपने घमावन लेलें।” इसका अर्थ यही निकलता है कि जब सूर्य निकलता है तो पांडेजी खुद तो आराम से बैठे धूप का आनंद लेते है मगर दूसरो को नसीहत देते है कि जाकर अपना काम करो, मेहनत करो।

विकास की गति में भ्रष्टाचार, राजनीति और महंगाई का स्पीडब्रेकर देखकर आम पब्लिक का मन उद्विग्न हो रहा है, और ये बड़े-बड़े लोग इसकी नयी-नयी परिभाषाएं गढ़ने और व्याख्या करने में लगे हुए है। इनको लगता है कि देश पर शासन करने और इसे लूटने का एक्स्क्लूसिव राइट इन्हीं के पास है और इसलिए सबको प्रवचन देने का भी काम इन्हीं के लायक है। बाकी सभी मूर्ख और नालायक हैं। कैसा लोकतंत्र है यह?

मै एक घर और परिवार सम्हालने वाली सामान्य स्त्री हूँ; फिर भी इस परिवार के अलावाँ अपने समाज तथा देश के विकास के बारे में सोचती हूँ। मुझे भी लगता है कि मै अगर प्रधानमंत्री होती तो यह देश बेहतर उत्थान की राह पर होता। नरेश अग्रवाल जैसे दम्भी नेता क्या इस सोच को बन्द कर सकते हैं।

(रचना)

 

Monday, October 28, 2013

नक्कारों की फौज भर्ती को तैयार…

प्रदेश सरकार की मेहरबानियों पर पलता-बढ़ता हमारा समाज और इस समाज के युवा वर्ग की हालत देखकर मन उद्विग्न है। यह प्रचार हो रहा है कि उनकी पढ़ाई के लिए कितने खर्चे अपने सिर पर ढो रही है उत्तर प्रदेश की सरकार। इन बच्चों में पढ़ाई के प्रति ललक बनी रहे इसके लिए इन्हें कितने तोहफे बांट चुकी है। लेकिन सच्चाई यह है कि नकल की खुली छूट देकर बोर्ड परीक्षाओं में सामान्यतः सत्तर प्रतिशत से ऊपर अंक देने के बाद एक-एक घर में चार-चार लैपटॉप और टैबलेट बाँटना कहीं से जायज नहीं कहा जा सकता। राजनीति के तोहफे इसी प्रकार लुटाये जाते है हमारे देश के बेरोजगार युवाओं पर। सरकार अब उन्हें आसान नौकरी का भी तोहफा देने की तैयारी कर चुकी है।

उत्तर-प्रदेश में ग्राम पंचायत अधिकारियों की भर्ती होने जा रही है। हाईस्कूल व इंटरमीडिएट बोर्ड परीक्षा के अंको के आधार पर मेरिट सूची तैयार की जायेगी और रिक्तियों के दस-बीस गुना अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए काल कर लिया जायेगा। जिले के सरकारी अधिकारी इनका इंटरव्यू लेंगे और उसमें प्राप्त अंकों के आधार पर नियुक्ति कर दी जाएगी। यानि कोई लिखित प्रतियोगी परीक्षा नहीं करायी जाएगी। एक अभ्यर्थी चाहे जितने जिलों से आवेदन कर सकेगा और अपना भाग्य आजमा सकेगा। इस भर्ती प्रक्रिया में बेरोजगार युवाओं से अधिक तैयारी और दौड़-धूप उनके अभिभावक कर रहे हैं। जिसकी जितनी ऊँची पहुँच और जितनी भारी जेब है वह उतना अधिक आश्वस्त है।

त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के सबसे निचले स्तर की इकाई ग्राम पंचायत के सचिव की कुर्सी की शोभा बढ़ाने वाले इन ग्राम पंचायत अधिकारियों की सरकारी योजनाओं को ग्राम स्तर पर लागू करने में बहुत अहम भूमिका होती है। इसलिए इस पद के लिए एक से बढ़कर एक बोली लगायी जा रही है। सुना है एक कैन्डीडेट पर करीब बारह लाख रूपए तक की बोली लग चुकी है। देखना रोचक होगा कि तृतीय श्रेणी के इस पद के लिए बारह लाख देने वाले ‘बेरोजगार’ की हैसियत क्या होगी? जो बेरोजगार बारह लाख नहीं दे पायेगा वह अपने आप को जीवन भर कोसता रहेगा। अब इस बारह लाख के लिए उन्हें या उनके घर वालों को जाने कौन-कौन से कार्य करने पड़ेंगे- चोरी, डकैती लूट, हत्या और आत्महत्या जैसे अनेक प्रयासों के वे भागीदारी बनेंगे।

ऐसे युवाओं को शुरू से ही भ्रष्टाचार और निकम्मेपन की राह पर भटकाने के अलावा हमें उनके हित की कोई बात नही दिख रही। इन शर्तों पर भी यदि भर्ती प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है तो इन ग्राम पंचायत अधिकारियों के हाथों हमारा गांव और समाज किस तरह का विकास कार्य कर पाएगा?

प्रदेश सरकार ऐसे में बेरोजगारों को रोजगार देने जा रही है, या गोंवों के विकास के लिए एक प्रतिबद्ध कर्मचारी? बारह लाख देने के बाद वह बेरोजगार कैसे विकास का कार्य करेगा? इस पर जरा एक बार हम सबको विचार करना चाहिए और इस भर्ती प्रक्रिया की जड़ों को तलाशना चाहिए। जो सरकार अपने प्रशासनिक तंत्र में योग्य और प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों के निष्पक्ष चयन को प्राथमिकता देने के बजाय नकलची और जुगाड़ू लड़कों की नकारा फौज भर्ती करने पर उतारू हो उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है?

ऐसा कहा गया है कि मेहनत के फल मीठे होते हैं। लेकिन यह कैसा फल है? जिसमें हमें न तो मेहनत नजर आ रही है और ना ही ईमानदारी नाम की कोई चीज। यह सरकार तो बेरोजगार युवाओं के साथ खिलवाड़ करती नजर आ रही है। एक उच्च शिक्षा प्राप्त युवा मुख्यमंत्री के हाथों में चलती सरकार से क्या यही उम्मीद थी? उन्हें अपने प्रदेश के युवाओं के साथ इस तरह का भद्दा मजाक नहीं करना चाहिए। यह सस्ती लोकप्रियता का हथकंडा प्रदेश और इसके युवाओं को ले डूबेगा। तो क्या वह गद्दी बची रहेगी जिसे बनाये रखने के लिए यह आत्मघाती राह चुनी जा रही है।

क्या किसी न्यायालय की दृष्टि इस बड़ी धांधली की साजिश पर पड़ने का समय नहीं आ गया जो समय रहते इसको रोकने के लिए प्रभावी कदम उठा सके? नौकरशाही क्या इतनी कमजोर और डरपोक हो गयी है जो साफ-साफ दिख रही अंधेरगर्दी को आगे बढ़ाने में बिल्कुल संकोच नहीं कर रही है? एक एक साफ-सुथरी प्रतियोगी परीक्षा कराकर योग्य और मेहनती अभ्यर्थियों का चयन करने में हमारा तंत्र क्या बिल्कुल अक्षम हो चुका है? पिछले चार-पाँच सालों में टी.ई.टी., बी.टी.सी., टी.जी.टी., और शिक्षकों की नियुक्ति सम्बंधी तमाम प्रकरणों को देखने से तो यही महसूस हो रहा है।

(रचना)

Wednesday, October 16, 2013

गरीबों के अनाज पर डाका..

खाद्य सुरक्षा कानून पर महामहिम के दस्तखत की स्याही अभी सूखी भी नहीं होगी कि इसके माध्यम से मिलने वाले सस्ते अनाज की कालाबाजारी की खबरें न्यूज चैनेलों में सुर्खियाँ बटोरने लगीं हैं। आजतक न्यूज चैनल ने सरकार की सवा लाख करोड़ की सबसे बड़ी योजना के काले सच का खुलासा किया है। देश की राजधानी से ही शुरू हो गया खाद्य सुरक्षा के अनाज की कालाबाजारी का गोरखधंधा। गरीबों का पेट भरने की दलील देने वाली सरकार इस कालेधंधे की सच्चाई से अछूती तो नहीं होगी। इस घोटाले में नौकरशाह और राजनेता दोनों ही संलिप्त नजर आ रहे हैं।

लगता है कि सरकार को गरीबों की भूख की फिक्र कम, अपने चुनाव में होने वाले खर्चे की चिंता ज्यादा सता रही है। शायद इस योजना के तहत सरकार की एक अलग योजना पूरी करने की साजिश रही है, तभी तो सरकार ने चुनाव होने के शीघ्र पहले ही इस योजना को लागू किया ताकि इनके खजाने में कहीं कोई कमी आए बगैर चुनाव लड़ा जा सके। नहीं तो इतने सालों तक गरीबों के भूखे पेट की ओर से यह सरकार क्या आँख पर पट्टी बांधे बैठी रहती? सरकार के मंत्री से लेकर अधिकारी तक सभी इस योजना में हो रही कालाबाजारी में संलिप्त लगते हैं। गरीबों को दो रुपये में मिलने वाला गेहूं निजी आटा चक्कियों पर बारह रूपये मे बेचा जा रहा है। थाने से लेकर फूड इंस्पेक्टर का बंधा हुआ है कमीशन।

खाद्यसुरक्षा योजनाओं से लाभ लेने वाले पात्र लोगों के पास तो राशन कार्ड भी नहीं है; और ना ही इसके लिए जिम्मेदार अधिकारी किसी पात्र गरीब का राशन कार्ड समय से बना पा रहे हैं। मेरे घर में बर्तन माँजने वाली जो अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए प्रतिदिन लगभग दस घरों में काम करती है, बताती है- “मै सालों से दौड़ रही हूँ, मेरा न तो कोई कार्ड बना और ना ही कभी कम दाम में मुझे अनाज ही मिला।” इस योजना की सच्चाई यह भी है कि गरीबों के अनाज पर डाका डालने के लिए फर्जी राशन कार्ड भी बनाए जा रहे हैं। लगता है कि यह मूक-बधिर सरकार अपने स्वार्थ के आगे अब अंधी भी हो गयी है। लोक-लुभावन योजनाओं की आड़ में गरीबों के पेट पर लात मारती सरकार संवेदना विहीन एक काठ का पुतला नज़र आती है।

(रचना)

Thursday, October 10, 2013

राजनीति अब शरीफों के लिए नहीं रही...

 

राजनीति का मंच सार्वजनिक होता है... आखिर यह लोकतंत्र जो है. देश के हर नागरिक को राजनीति के क्षेत्र में भाग्य आजमाने का अधिकार है। सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर काबिल लोग आ सकें इसके लिए यह व्यवस्था की गयी होगी; लेकिन इस मंच पर जो आते हैं उनका बायोडेटा देखने पर हाल कुछ और नजर आता है। यहाँ आने के लिए जो काबिलियत चाहिए वह कुछ दूसरी तरह की है। पढ़ा-लिखा हो या नहीं इससे क्या मतलब है देश को..? चोर, लुटेरे, व्यभिचारी, सूदखोर, ब्लैकमेलर, हत्यारोपी, रंगदार, भांड़, नचनिया, गवनियां सब राजनीति के मजे चखना चाहते है... आखिर मालामाल जो है। इन्होंने तमाम गलत रास्तों से पहले पूँजी इकठ्ठा कर ली और फिर कूद पड़े।

पूछिए इनसे - राजनीति में आने के लिए कालाधन क्यों उगाते हो भाई? बोलेंगे- खाएंगे तभी तो खिलाएंगे.. इतनी सहूलियत और कहाँ मिलेगी इन्हें..? एक बार बस गद्दी हाथ लग जाय तो देखो कमाल इनका.. न तो कमर मटकाने की जरूरत पड़ेगी और न ही अपने फिटनेस के लिए किसी जिम में जाकर जी तोड़ मेहनत कर पसीने बहाने की.. इस देश की राजनीति में क्या जरूरत है किसी सोसल वर्कर की..? कहीं समाज जागरुक हो गया तो इनकी माला कौन जपेगा..?

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ऐसी स्थिति में पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए कोई गुंजाइश बचती है क्या? समाज के लिए कार्य करना अपना समय बर्बाद करने के बराबर है.. यूँ कहे तो राख में घी डालने के बराबर..। समाज इन्हें देता ही क्या है..? अमुक जी नाच-गाना कर के या दूसरे तरीकों से करोड़ों कमाकर रखे है- इसी दिन रात के लिए कि बैठाकर मुफ्त की रोटियाँ खिलाएंगे.. गाँव में वीडियो चलाकर तिवारी जी का नाच-गाना दिखाएंगे और उसके बाद कुछ खिला-पिलाकर सुबह वोट बटोर के ले जायेंगे.. फिर क्या! मंच पर कोई दूसरे बाबा का अवतार होगा..और फिर शुरू होगा ‘‘ओठवा में लगवले बाड़ी, कनवा में पहिने बाली चाल चलेली मतवाली, बगल वाली जान मारेली”। कितने रोजगार जैसे शिक्षक की भर्तियाँ इत्यादि सफेद पोशाक वाले सालों से सिकहर पर टांगे बैठे हैं कि कही कोई और बिल्ली झपट्टा न मार ले इनके वोट के खजाने को..।

..फिर क्या बगल वाली हो या अपना पड़ोसी, जान मारे या मरवाये.. हम तो भई! जैसे हैं वैसे रहेंगे.. देश मुंआ मुह पिटाये, आखिर यही तो होता रहा है आज तक यहाँ की राजनीति में.. ये कौन सी इस परम्परा से अलग हट कर कुछ नया करने को सोचने वाले हैं.. बड़का-बड़का राजनितिज्ञ तो जेल की हवा खा रहे हैं.. करमजला कानून ने भी एक लफड़ा लगा दिया है.. इनको आराम फरमाने का.. दूसरा कोई करे भी तो क्या..? ऐसा कोई माई का लाल पैसे वाला जन्मा ही नही कि चुनाव में अपना लगाकर जीत जाये.. क्योंकि यह भी जानते है आम जनता की हालत इतनी खस्ती है कि दो दिन भी भरपेट भोजन, दारू नाच-गाना में इनको मस्त कर दिए तो ३६३ दिन की चिंता तो इन्हें भूल जायेगी.. आखिर भूखमरी की शिकार जनता को दो-चार दिन खिला-खिला कर अघवाएंगे नही तो अपने फिर पाँच साल कैसे अघाएंगे..?

(रचना)

Tuesday, October 1, 2013

बंदर के हाथ में बंदूक..

 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हालत दिनों-दिन बिगड़ती नजर आ रही है। इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ प्रदेश सरकार की बचकानी और संकुचित सोच है। ऐसा भी नहीं है की अखिलेश सरकार को राजनीति का क ख ग नहीं पता है। इनकी तो पैदाइश ही राजनीति कोंख की है। मेरठ के खेड़ा गांव में जो भी बखेड़ा हो रहा है उससे आज की तारीख में सबकी जुबान पर सिर्फ अखिलेश की बेवकूफी से एक के बाद एक लिए हुए निर्णय है जो जनता को बिल्कुल रास नही आ रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा चौरासी कोसी परिक्रमा में शासन और प्रशासन ने सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए जितनी तेजी दिखायी, उतनी ही तत्परता से मुज्जफरनगर दंगे को नियंत्रित क्यों न कर सकी? जनता से वोटों की भीख माँगने वाली सरकार को क्या दंगे कराने और मुआवजे बांटने के लिए चुना जाता है?

राहत शिविर में रहने वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ छेड़खानी और दुष्कर्म के मामले में सरकार का 1090 नम्बर अब क्या काम करना बंद कर चुका है? मुज्जफरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों में पहले से ही अपने प्रियजनों को खो बैठने वाली महिलाओं के दु:ख क्या कम थे, जो उनके ऊपर लाठियां बरसाकर सरकार अपनी अराजक सोच का खुलेआम प्रदर्शन कर रही है? पुलिस भी सरकार के हरम में बैठी उसका नमक खाने की दुहाई देती नजर आ रही है। क्या इसी दिन के लिए जनता ने अपने राज्य की कमान एक युवा के हाथों सौपी थी? पुलिस का कहर जिस तरह खेड़ा गांव के महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर बरपा हो रहा है उससे यह स्पष्ट है कि नौकरशाह से लेकर लोकशाही तक सब अपने साज-श्रृगांर में लगी हुई है। लाशों की ढेर पर वोटों की राजनीति करती सरकार जनता की नहीं रह गयी है, बल्कि अपने बाप, दादा, चच्चा, ताऊ की हो कर रह गयी है।

खेड़ा की महिलाओं में जो आक्रोश दिख रहा है उससे यही पता चलता है कि पानी सिर से उपर उठ चुका है। यू.पी. की बागडोर अब महिलाओं के हाथ में ही होगी तभी वहाँ की परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी। वहाँ की महिलाओं का भरोसा इन राजनेताओं और लोकसेवकों पर से उठ गया है। जनता भी अपनी बेवकूफी पर पछताने के अलावा और कर भी क्या सकती है? बंदर के हाथ में बंदूक जो पकड़ा दिया है। भुगतना तो पड़ेगा ही। केन्द्र सरकार की बैसाखी इनके हाथ में है; नहीं तो इतनी बुरी स्थिति में यू पी में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाना चाहिए था।

(रचना)

 

Thursday, September 26, 2013

वर्धा में जो हमने देखा…

विगत 20-21 सितम्बर को हिन्दी ब्लॉगिंग व सोशल मीडिया पर एक राष्ट्रीय सेमीनार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में आयोजित हुआ। इस विचार गोष्ठी में एक से बढ़कर एक दिग्गज ब्लॉगर मौजूद थे। मुझे भी इनके साथ इस ब्लॉगरी पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उद्‍घाटन सत्र में सोशल मीडिया के महत्व और उसकी विशेषताओं पर हुई चर्चा से काफी गहमा-गहमी बनी रही। इसी दौरान इस विश्वविद्यालय के कुलपति जी श्री विभूति नारायण राय ने हिंदी ब्लॉग जगत को एक शानदार सौगात देने की घोषणा की- विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर शुरू होगा  “चिट्ठा समय” ब्लॉग संकलक जो हिंन्दी ब्लॉगों को जोड़ने के लिए एग्रीगेटर का कार्य करेगा।

उद्‍घाटन सत्र से लेकर समापन समारोह तक चर्चा के लिए जितने भी विषय दिए गये थे उन सभी विषयों पर चर्चा हो चुकी थी; बस एक विषय छूटा जा रहा था जो मनीषा पान्डेय जी के द्वारा विशेष उल्लेख के अनुरोध से पूरा किया गया- ‘स्त्री और उनके अधिकार’। मनीषा जी ने बहुत सी आँखे खोलने वाली बातें कीं। लड़कों की ही तरह लड़कियों को मिलनी चाहिए घूमने की आजादी और पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी आदि।

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लेकिन हमें लगता है नारीवाद अपने आप में एक विवाद का विषय हो गया है। स्त्रियों के अधिकारों की बात सुनकर बहुत अच्छा लगता है। मिल जाए तो उससे भी कहीं ज्यादा अच्छा लगेगा। लेकिन नारीवादियों का भी एक आदर्श होना चाहिए जिससे इसके उद्देश्यों की प्राप्ति में तेजी आ सके। स्वतंत्रता और खुलेपन की अंधी दौड़ में शामिल होने की आतुरता हमें ऐसी दिशा में तो नहीं ले जा रही जहाँ जाकर हमें खुद ही लज्जित होना पड़े। अपनी मूल संस्कृति और संस्कारों को केवल प्रगतिशीलता के नाम पर तिलांजलि दे देने से हमें क्या कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण हासिल होगा? इसका ठीक-ठीक  उत्तर मिलना अभी शेष है। एक नया मूल्य स्थापित करने की ललक में हमें अनेक पारंपरिक मूल्यों को नष्ट करने से पहले ठहरकर शांतचित्त हो कुछ सोच लेना चाहिए।

यदि हम सजग नहीं रहे तो इस देश की देवीस्वरूपा नारी और राष्ट्रभाषा हिन्दी की शायद एक ही प्रकार से दुर्गति होने वाली है। सेमिनार में एक छात्र तो हिंदी को बदलकर पूरी तरह हिंगलिश बनाने के लिए व्याकुल दिख रहा था। भला हो कि हमारे बीच से ही कुछ लोगों ने उसकी व्यग्रता कम करने की कोशिश की। देखते हैं कब गाड़ी पटरी पर आती है?

इन बड़े-बड़े ब्लॉगरों के बीच हम तो भिला (खो) से गये थे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा जहाँ पर मैं अपने परिवार के साथ जून-2010  में गयी थी, पूरे नौ महीने रहने के बाद उस जगह का रूखा वातावरण देखकर मेरा धैर्य जवाब दे गया था और हम पुन: यू.पी. वापस चले आये थे। लेकिन अब वहाँ जाकर इस ढाई साल में हुए अद्भुत परिवर्तन को देखकर हम दंग रह गये। बड़ा ही जीवंत माहौल था वहाँ का। चारों तरफ हरियाली और फूलों से सुसज्जित ‘नागार्जुन सराय’ नामक गेस्ट हाउस जिसका दो साल पहले लगभग कोई अस्तित्व नहीं था, हमारे लिए बिल्कुल नया था। इस विश्वविद्यालय की खुशनुमा शाम पूरे सुर-लय-ताल में बँधी वीणा की तरह बज रही थी। इसका सारा श्रेय कुलपति महोदय को जाता है। यह श्री विभूति नारायण राय की वीणा है। जब तक यह वीणा इस विश्वविद्यालय में रहेगी इसका स्वरूप और अनोखा होता जायेगा, यह मेरा मानना है।

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इन दो दिनों में सभी ब्लॉगर मित्रों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। हिंदी ब्लॉग के प्रथम हस्ताक्षर/ निर्माणकर्ता आलोक कुमारजी से मिलना भी मेरे लिए इस सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। कुलपति जी द्वारा दिये गये रात्रिकालीन प्रीतिभोज के पहले अरविन्द मिश्र जी की सुरीली आवाज में गाये गीत ने इस आकर्षक माहौल में चार चाँद लगा दिये।

(रचना)

Friday, September 13, 2013

तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें रोटी दूंगा..|

 

यह है भारतवर्ष के युवराज का नारा और हमारे देश की हकीकत। पूरे नौ साल तक राज करने के बाद यह सरकार आखिरकार आ ही गयी अपनी असलियत पर। पूरी बेशर्मी से यह बताती हुई कि देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आज भी रोटी का ही मोहताज है। वोट की राजनीति देखिये अभी क्या-क्या गुल खिलाती है। सत्ता में आने से पहले इस पार्टी ने कितने लम्बे चौड़े वादे अपने देश के युवा वर्ग से किये थे। देश का कोई युवा बेरोजगार नहीं रहेगा। हर गाँव में बिजली और पानी की व्यवस्था की जायेगी। सभी वर्ग के लिए उचित शिक्षा का प्राविधान होगा। गाँव-गाँव, नगर-नगर में खुशहाली ही खुशहाली होगी और होगा - एक नये भारत का निर्माण..। लेकिन फिर से बात रोटी पर ही आकर अटक गयी।

राहुल गाँधी की इस नारेबाजी (हम आधी रोटी नहीं पूरे तीन-चार रोटी खायेंगे और काँग्रेस को ही लायेंगे) पर मेरा मन अत्यंत दुखी है। क्या ऐसा नहीं लगता कि आज भी हम उसी ब्रिटिश शासन की मानसिकता के तले दबे हुए है? यह सरकार पूरे नौ साल तक किन विकास के कार्यों में लगी रही कि आज भी हमारे देश की जनता एक रोटी के लिए मोहताज हो गयी है? ऐसा तो नहीं कि इस जनता को जानबूझकर एक रोटी के लिए मोहताज बना दिया गया? ताकि फिर सत्ता में बने रहने के लिए गरीब वर्ग को रोटी देने का हवाला देकर वोट बटोरा जा सके। शर्म आनी चाहिए इस नारेबाजी पर। अब हम गुलाम नहीं है, आजाद देश के नागरिक हैं लेकिन अफसोस, अभी भूख से ही आजादी नहीं मिल पायी है। उसपर ऐंठन यह कि सरकार चलाना तो बस हम ही जानते हैं...!

“उठो, जागो और लक्ष्य मिलने से पहले मत रुको”- यह आह्वान स्वामी विवेकानंद ने भारतवर्ष में युवाशक्ति की आध्यात्मिक और सृजनात्मक शक्ति को जाग्रत करने किए दिया था। अब समय आ गया है कि इसे नये परिदृश्य में साकार किया जाय। आज के युवा को दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए, उसके पास असीम शक्ति है। हमारा नेता ऐसा होना चाहिए जिसके लिए राष्ट्रसेवा ही सर्वोपरि धर्म हो.. उनमें समर्पण, त्याग और बलिदान की भावना हो.. जो अपने लिए नहीं इस देश की जनता के लिए सपने देखता हो..जो धार्मिक और जातिगत संकीर्णाताओं से ऊपर उठकर राष्ट्र के नवनिर्माण की परिकल्पना की बात करता हो।

आज हमें एक राष्ट्रनायक (स्टेट्समैन) की तलाश करनी है न कि राजनेता (पॉलिटीशियन) की। आप पूछेंगे – इनमें अन्तर क्या है? मैं बोलूंगी- स्टेट्समैन वह है जो अपनी नीतियाँ देश की अगली पीढ़ी को ध्यान में रखकर बनाता है और राजनेता वह है जो अपनी नीतियाँ देश के अगले चुनाव को ध्यान में रखकर बनाता है।

क्या हमें कोई राष्ट्रनायक मिलेगा? ढूँढते रह जाओगे।

(रचना)

Thursday, September 5, 2013

हिन्दी पर शरमाते भारतवासी

सुमबुल एक छोटे से कस्बे से आयी थी। वह शहरी तौर-तरीकों से परिचित नही थी। उन शहरी बच्चों की अपेक्षा उसे अंग्रेजी कम आती थी। जब वह क्लास में कोई प्रश्न पूछती थी तो उसे डाँट कर बैठा दिया जाता था। उसकी शिक्षिका उसे कहती थी कि तुम इस कॉलेज में पढ़ने लायक नहीं हो। डॉ. एमसी सक्सेना कॉलेज ऑफ फार्मेंसी, लखनऊ में 03 सितंबर दिन मंगलवार को बी. फार्मा प्रथम वर्ष की बीस साल की छात्रा सुमबुल ने  तीसरी मंजिल से कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास किया। आत्महत्या की कोशिश किसी भी प्रकार से उचित नही ठहरायी जा सकती लेकिन ऐसी परिस्थितियां ही क्यों उत्पन्न होती हैं इस पर विचार किया जाना चाहिए।

रैगिंग जैसी प्रथा अभी जाने कितने मासूमों की जान के साथ खिलवाड़ करती रहेगी। यह प्रथा कानूनन अपराध की श्रेणी में है फिर भी रुकने का नाम नहीं ले रही है। आखिर रैगिंग लेने वाले सीनियर छात्र ही तो हैं जो अपने जूनियर्स के साथ इस तरह का कुकृत्य कर जाते हैं। उन्हें आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर कर देते हैं। शिक्षण संस्थाओं में एक पीरियड रैगिंग जैसी कु-प्रथा पर क्यों नहीं चलाया जाता..? लेकिन इस कुप्रथा में शिक्षक भी लिप्त हो जायें तो शिक्षण के वातावरण को कैसे मजबूत बनाएंगे? अगर शिक्षक ही इन कुरीतियों को बढावा देंगे तो छात्रों का क्या होगा?

अब तो शहरी तौर-तरीकों का सिंबल ही अंग्रेजी जुबान हो गयी है। अंग्रेजों की दी हुई विरासत कितना संभाल कर रखा गया है हमारे हिन्दुस्तान में। अंग्रेज तो चले गये पर अंग्रेजियत को हमारे गले मढ़ गये। हर गली-कूँचे में इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल गये हैं। जहां शिक्षक की पहली योग्यता यह होती है कि उसकी इंग्लिश-टंग है कि नही। अभिभावक भी तथा-कथित इंगलिश मीडियम स्कूल में पढ़ाकर बहुत खुश रहते है, भले ही बच्चे को विषय की समुचित जानकारी हो या न हो, गणित, विज्ञान या मानविकी के विषयों में सतही योग्यता रखते हों लेकिन यदि अंग्रेजी में गिट-पिट करना सीख गये तो अभिभावक खुशफहमी के शिकार हो जाते हैं। भारतीय सभ्यता व संस्कृति के मूल्यों का जैसा क्षरण इन स्तरहीन इंगलिश मीडियम स्कूलों के जरिये हुआ है वह चिंताजनक है।

(रचना)

Sunday, August 25, 2013

लैंगिक समानता के सिद्धान्त को व्यवहार में उतारो…

ज्ञानी लोग कहते हैं कि लड़का और लड़की दोनों एक बराबर है। कैसे भई? जरा हमें भी समझाइए! मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि इसे बराबरी का दर्जा कैसे दिया जाए?

घर में लड़का पैदा होते ही माँ-बाप का सीना इतना चौड़ा हो जाता है जैसे उन्होंने सारा जग जीत लिया हो। आगे चलकर भले ही वह लड़का किसी लायक न हो। ऐसे माँ-बाप को भी देखा है जो अपने लड़के की जवानी पर इतराते हैं। पड़ोसी के घर में अगर लड़की पैदा हो गयी तो परसाई जी के शब्दों में “१२-१३ साल की हुई नही कि घूर- घूर कर जवान कर देते हैं”।

लड़को कि परवरिश लड़कियों की तरह क्यों नहीं की जाती..? लड़को को क्यों नहीं सिखाया जाता कि वह खुले स्थान पर टॉयलट न करें..? पूरे वस्त्र में सबके सामने जाया करे। बॉडी में सिक्स पैक बनाने का प्रचलन क्यों चला..? सलमान खान की तरह बॉडी दिखाने का क्या मतलब होता है..? पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया कि वह अपने अंगों का प्रदर्शन करता फिरे..? इनको कही भी कपड़े बदलने की इजाजत क्यों दे दी जाती है..?घर में कार्य क्षेत्र का बँटवारा क्यों किया जाता है..? किसने यह फार्मूले बनाया कि घर का कार्य लड़कियों को और बाहर का कार्य लड़कों को करना चाहिये..? घर में मेहमान के आने पर चाय बनाने के लिए लड़के क्यों नहीं उठते..? और लड़कियां उन्हें स्टेशन छोड़ने क्यों नहीं जाती..? बिजली का बिल जमा करने, गैस सिलिन्डर लाने का काम, या बाहर जाकर आँटा पिसाने का कार्य आदि-आदि यह लड़कियों को क्यों नही सौंपा जाता..?

हर माता-पिता को चाहिए कि वह लड़के को भी वही पाठ पढ़ाए जो लड़की को पढ़ाता है। लड़के जवान होते ही अपनी पसंद के कपड़े पहनना शुरू कर देते हैं और प्राय: देखा गया है कि शर्ट की आगे की दो-तीन बटन खोल देते हैं। ऐसे में उनके माता-पिता को बताना चाहिए कि तुम्हारा सीना दिख रहा है इसे ढक कर चलो, सीना दिखना बहुत शर्म की बात होती है। उन्हें अपने पुरुषत्व का दिखावा करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा नही देना चाहिए।

कब-तक हम लड़कियों को सिखाते या डराते रहेंगे कि शाम होने के बाद घर से मत निकलो। कुछ लोग बलात्कार केस में लड़कियों को ही दोषी मानते हैं। इसमें बहुत सी महिलाएं भी बराबर की बयानबाजी करती हैं, उनका यह तर्क है कि अगर देर रात तक लड़कियाँ घर से बाहर रहेंगी या किसी पुरुष मित्र के साथ दिखती है तो लड़को के अंदर उत्तेजना पैदा होती है तो यह उन्हें भुगतना ही पड़ेगा।

प्रकृति ने सभी पशुओं के भीतर विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण और उत्तेजना की प्रवृत्ति स्थापित कर रखी है। लेकिन मनुष्य योनि में पैदा होने के बाद बुद्धि और विवेक की जो अतिरिक्त थाती प्रकृति ने हमें सौंपी है उसके कारण ही हम सभ्य कहलाते हैं और दूसरे पशुओं से अलग एक अनुशासित और सामाजिक मूल्यों से आबद्ध जीवन जीते हैं। यही मूल्य हमें पशुओं से अलग करते हैं और मानव बनाते हैं। जिनके भीतर पशुता की मात्रा अधिक है वे यौन अपराध करने  और समाज में दुर्व्यवस्था फैलाने को अग्रसर होते हैं। ऐसे पशुओं का समय से बंध्याकरण कर देने का कर्तव्य इस सभ्य समाज के प्रत्येक सदस्य का है।

मै पूछती हूँ - जिस दम्पति ने सिर्फ लड़कियाँ ही जनी हो तो क्या उनके घर के जरूरी कार्य हमेशा बाधित ही रहेंगे? अगर उनके घर अचानक रात मे कोई बीमार हो जाता है तो क्या उन्हें सुबह होने का इंतजार करना पड़ेगा ताकि वे इस जंगली समाज में सुरक्षित बचते हुए बाहर निकल सकें?

जो आचार्य यह उपदेश दे रहे हैं कि लड़कियों को उत्तेजक कपड़े नहीं पहनने चाहिए वे कृपया यह बतायें कि छ: महीने की लड़की के साथ जब बलात्कार होता है, तो वहाँ पर बलात्कारी को कौन सा उत्तेजक सीन नजर आता है? तेरह साल की विक्षिप्त लड़की के साथ जब बलात्कार होता है तो उसमें कैसा सेक्स का आमंत्रण दिखता है? इन नामर्दों की यौन कुंठा ऐसी बेबस लड़कियों पर उतरती है तो इसके लिए हमारे समाज का वह ढाँचा जिम्मेदार है जो ऐसे कुकर्मियों को साफ बच निकल जाने का मौका दे देता है। हम इसकी मरम्मत के लिए क्यों नहीं आगे आते?

Monday, August 19, 2013

ए जी, अब तुम बदल गये…!

याद है वो दिन जब  शादी तय हो जाने के बाद मंदिर ले जाने के बहाने तुम मुझे पहली बार मेरे घर मिलने आये थे। तुम्हें अपनी बिल्कुल सुध नही थी कि तुम कैसे चले आये थे। कोई मेक-अप नहीं। तुम्हें देखकर मुझे लग रहा था कि  काश थोड़ी कंघी तो बाल में घुमा लिए होते। लेकिन कैसे कहती? मुझे तो ऐसे भी तुम बहुत अच्छे लग रहे थे। तुम्हारी सादगी और तुम्हारे मुस्कान की चर्चा तो हमने पहले भी सुनी थी जिसे देखने के लिए मेरा मन महीनों से बेचैन हो रहा था। कितना आत्मविश्वास था तुम्हारे चेहरे पर! जिसको जैसी वेश-भूषा में देखते वैसे ही बात करना शुरु कर देते। तुम्हारी सादगी मुझे इतनी भा गई थी कि मुझे खुद दुनिया की बनावटी वस्तुएं बेकार लगने लगी।

जब तुम बारात लेकर मेरे दरवाजे पर आये तब  तुम्हारी सूरत देखने लायक थी। पता चला था कि सारे बाराती तो दरवाजे पर आ गये थे लेकिन तुम्हारी गाड़ी कहीं रास्ते में ही खराब हो गयी थी। रास्ते में किसी से लिफ़्ट लेकर मेरे गाँव तक पहुँचे थे। फिर दूसरी गाड़ी बिना किसी सजावट के तुम्हें लेकर मेरे दरवाजे पर आयी थी। तुम भी बिना किसी सजावट के हकासे-पियासे पहुँचे थे और पता नहीं क्यों दूल्हा-टोपी उतार कर तुमने अपनी गोद में रख लिया था। मैने एक बार सोचा कि काश मै तुम्हें बता दी होती कि बाल में मेंहदी लगवा लेना.. लेकिन क्या करती इतनी झिझक जो थी तुमसे..। खैर! अब तो जनम-जनम का साथ है तुम्हें मुझसे बाल मे मेंहदी तो लगवानी ही पड़ेगी। आखिर अब कहाँ जाओगे मुझसे भागकर...।

जबतक मै नहीं कहती तुम बाल में मेंहंदी तक नही लगवाते थे। कैसे मुझे प्यार से समझा दिया करते थे कि छोड़ो ये सारे श्रृंगार करना, हम पुरुष के लिए श्रृंगार नही बना। ये तो औरतों को शोभा देता है। अब तो मेरी उम्र की महिलाएं इन्हें अंकल जी भी कहना शुरु कर दी है। हर जगह हमें इन्हें समझाना पड़ता था कि देखो यह तुम्हारे पके बाल का नतीजा है कि दो बच्चों की माँ भी तुम्हें अंकलजी कहना शुरु कर दी है।

इस सप्ताहान्त जब तुम घर लौटे तो हमने सोच रखा था कि इस बार फिर तुम्हारे बाल में मेंहदी लगानी है। मै दुकान पर जाकर तुम्हारे लिए मेंहंदी भी लेकर आयी थी। लेकिन हमने देखा कि तुम तो बाहर से ही बाल कलर कराके आ गये हो।  तुम्हें क्या हो गया?  तुम्हारा जवाब सुनकर मुझे हँसी आ गयी- ‘‘यार सोच रहा था कि चालीस पार का हो गया। अब मुझे भी सुंदर दिखने के लिए कुछ करना चहिए..।”

हो न हो, अब तुम बदल गये हो।

(रचना)

Saturday, August 10, 2013

काश स्त्री रोबोट होती...!

मुझे ईश्वर से शिकायत है कि उसने स्त्री में संवेदना क्यों दी? अगर उसे
इस समाज की जरूरत के लिए स्त्री बनाना ही था तो उसके पास मजबूत देह,
निष्ठुर दिल और कुन्द दिमाग क्यों नही दिया; जिसे न तो तेजाब से जलने का

भय सताता और न ही बलात्कार जैसी घिनौनी हरकत से पीड़ा होती।

क्या आपने किसी न्यूज चैनल पर कभी सुना है कि अमुक पुरुष के ऊपर किसी ने
तेजाब डाल दिया; क्या किसी अखबार में ऐसी खबर पढ़ी है? नहीं ना? सोचिए
जरा! ऐसा सिर्फ महिलाओं के साथ ही क्यों होता है?

कल न्यूज चैनल पर एक पुरुष के द्वारा ऐसा ही कुकृत्य किये जाने का समाचार
दिखाया गया जिसमें उसकी पत्नी ने पाँच बेटियों को जन्म देने के बाद छठवीं
बार गर्भधारण करने पर भ्रूण का लिंग परीक्षण करवाने जैसा पतित कार्य करने
से मना करने पर उसके नाजुक अंगों पर उसके अपने पति के द्वारा तेजाब डाल
कर जला दिया गया। 

कल्पना कीजिए कि उसकी पाँच बेटियाँ क्या सोच रही होंगी
अपने भविष्य के बारे में? क्या ये बेटियाँ ऐसे पुरूष से लड़ने की ताकत
जुटा पायेंगी..? क्या उनके अंदर एसिड से जलने का भय ताउम्र नही
सतायेगा..? काश उस स्त्री का शरीर लोहे का बना होता जिससे उसे तेजाब की
जलन महसूस न होती।

अब तो बस मन में यही आता है कि स्त्रियों को रोबोट कि तरह होना चाहिए।
जिसके अंदर कोई संवेदना ही न हो। स्त्रियों के साथ जानवर जैसा व्यवहार
करने वाले पुरूष जब जो चाहे रोबोट जैसी महिला से बटन दबाकर कोई भी कार्य
करवा डालें। चाहे वह गर्भ में पल रहे भ्रूण का लिंग परीक्षण ही क्यों न
हो।
(रचना)

Thursday, August 8, 2013

जनता के मुँह पर ढक्कन

भोजपूरी में एक कहावत है “जबरा मारे रोवहूँ न दे”। राज्य सरकार की नीयत कुछ ऐसी ही लगती है। जनता के मुँह में जानवरों की तरह जबरदस्ती जाबी (muzzle) लगाने के फिराक में जुटी है। अभिव्यक्ति की आजादी की तो बात ही छोड़ दीजिये यह तो अब लोकजनों का दाना-पानी भी बंद कर सकती है। आखिरकार कबतक लोकतंत्र के नाम पर जनहित की ठेकेदार होने का स्वांग करती रहेगी? कँवल भारती जी ने ऐसा क्या गलत कह दिया जो उनके खिलाफ़ मुकदमा कायम हो गया...?

(रचना)

Sunday, August 4, 2013

घुमरी पर‍इया…?

आज याद आया बचपन का एक खेल जिसमें दो दोस्त एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर गोल-गोल खूब तेजी से चक्कर लगाते, जिसे हम लोग “घुमरी-परइया” कहते थे। गलती से भी किसी एक का हाथ छूट जाता तो बस दोनों की धड़ाम हो जाती। कितना आनन्दित करता था यह खेल!

ghumri-paraiyaलेकिन जरा सोचिये अगर जान-बूझ कर अपने मित्र के साथ कोई ऐसा मजाक करता है, यानी खेल-खेल में अगर एक खिलाड़ी द्वारा दूसरे का हाथ जान-बूझ कर छोड़ दिया जाय तो गिरने वाले का क्या हश्र होगा।

मैंने बचपन में यह खेल खूब खेला था। जब भी किसी को मजा चखाना होता या किसी से मौज लेनी होती तो बस यही तरीका अपनाया जाता था। कभी खुद भी इसका शिकार हुए तो अगले को दौड़ा लेते। बात मार-पीट तक भी पहुँच जाती।

आज बालकनी से खड़े-खड़े कुछ ऐसा ही नजारा मुझे नीचे सड़क पर दिखा। करीब सात-आठ साल की लड़की और ग्यारह-बारह साल का एक लड़का आपस में घुमरी-परइया खेल रहे थे। दोनों की आपसी सूझ-बूझ बहुत अच्छी लग रही थी। यह खेल खेलकर दोनों ही बहुत आह्लादित हो रहे थे, लेकिन उस लड़की को क्या पता कि आगे क्या होने वाला है। लड़के ने दो-चार बार बहुत सावधानी से उसे गोल-गोल घुमाया, जब वह लड़की पूरी तरह से आश्वस्त हो गयी कि इस खेल में कोई जोखिम नहीं है तो वह इसका पूरी  तरह आनन्द लेने लगी। तभी उस लड़के ने लड़की का हाथ अचानक छोड़ दिया। वह बुरी तरह से जमीन पर गिर पड़ी। लड़का हँसने लगा। उस लड़्की का चेहरा देखने लायक था। ना तो वह उठ पा रही थी और ना ही उस लड़के पर कोई नाराजगी व्यक्त कर पा रही थी। मैं लड़के की हँसी सुनकर खीझ गयी। लड़की की आँखें डबडबा आयी थीं। मैं अपने को बेबस महसूस कर रही थी।

इस खेल में धोखे का परिणाम देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। आज सोच रही हूँ कि इस तरह का निष्ठुर मजाक अपने साथी या किसी अन्य से भी नही करना चाहिये। लेकिन तब ऐसी बात मन में क्यों नहीं आती थी? बचपन की अल्हड़ता शायद यही है।

(रचना)

Thursday, July 25, 2013

लोक सेवकों की आपराधिक लापरवाही

राज्य सरकार को कहें या संबंन्धित विभागीय अधिकारियों को सभी गान्धीजी के बन्दर हो गये हैं। नाक, कान और आँख सब बंद कर के बैठे हुए है। इनके दिमाग की बत्ती तब जलती है जब कोई दुर्घटना घटित हो जाती है।

poleइन्दिरा नगर लखनऊ के सेक्टर-१६ में पार्वती पैलेस अपार्टमेन्ट के ठीक सामने एक बिजली का खम्भा जो लोहे का बना हुआ है, उसका निचला हिस्सा लगभग २ फिट तक जंग लगकर पूरी तरह से जर्जर हो चुका है; और कभी भी गिर सकता है। यह खम्भा इसके आगे पीछे लगे हुए खंभों और ऊपर तने हुए तारों के मकड़्जाल के सहारे टिका हुआ है। इसकी शिकायत बिजली विभाग को हमने करीब दो हफ्ते पहले टेलीफोन के माध्यम से किया था। एसडीओ साहब ने इसे फौरन ठीक कराने का आश्वासन भी दिया। एक-दो दिन इंतजार करने के बाद हमने फिर से फोन किया। उन्होंने फिर कहा, “बस आज हर हाल में ठीक हो जायेगा”, लेकिन वह ‘आज’ आज तक नहीं आया।

pole1फिलहाल अब तो एसडीओ साहब का फोन भी नही लगता, अगर गलती से लग भी गया तो वह भूलकर भी नहीं उठाते। थक-हार कर हमने एक शिकायती पत्र सोसाइटी के  सेक्रेट्री की ओर से लिखवाकर प्रबन्ध निदेशक मध्यान्चल विद्युत वितरण निगम को भेजवा दिया है।

अब तो जब भी बाहर निकलती हूँ तो मेरा ध्यान उस खम्भे पर ही टिक जाता है। जहाँ दो-तीन गाड़िया खड़ी रहती है और रोज सुबह स्कूली रिक्शावाला वही खड़ा करके बच्चों को बैठाता है। उस खंभे को ठीक करवाने की लागत कुछ हजार होनी चाहिये। कितना बड़ा कलेजा है इन लोक सेवकों का जो कार्य हजारों में हो सकता है उसके लिए ये लाखों खर्च करने की तैयारी करके बैठे हुए है।

pole2आये दिन अखबारों में खबर छपती है कि बिजली हादसे में अमुक की जान गयी। पोल में करंट उतरा। आदि-आदि। अब शायद यहाँ से यह खबर छपने वाली है कि बिजली का तार पोल तोड़कर नीचे गिरा। जाने कितने और इस हादसे के शिकार होंगे? देखना है उसके बाद प्रदेश सरकार जान-माल के हानि की कितनी कीमत लगाती है?

कल यानी २३ ता.के अख़बार में पढ़ा कि करंट लगने से दिल्ली में एक फिल्ममेकर ‘आनन्द भास्कर मोर्ले’ जिसकी उम्र महज ३३ साल थी, कि मॄत्यु हो गयी। मॄत्यु का कारण एक दुकानदार की लापरवाही जिसने अपने दुकान में लगे ए.सी. के कम्प्रेशर का नंगा तार ही बाहर छोड़ दिया था जिसके संपर्क में लोहे का गेट आ गया। गेट खोलने के लिए छूते ही बेचारे वहीं ढेर हो गये।

यह छोटी-छोटी असावधानियाँ कितनी बड़ी दुर्घटनाओं का कारण बन जाती है जिसका खामियाजा आम पब्लिक और कितने बेकसूर लोगों को अपनी जान गवाँ कर भरना पड़ता है।

क्या जनता के ये कथित सेवक नौकरशाह इस प्रकार की खतरनाक स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं हैं जहाँ राह चलता कोई भी व्यक्ति अचानक काल के गाल में समा सकता है? क्या वास्तव में दुर्घटना घट जाने के पहले ही ऐसे लापरवाह कृत्य के लिए उनके विरुद्ध आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए?

(रचना)

Saturday, July 20, 2013

हॉट कुक्ड फूड : पैरासाइट बनाने की नर्सरी

बिहार के छपरा जिले में बच्चों को दिये जाने वाले मिड डे मील खाने के कारण हुए हादसे से नसीहत लेते हुए राज्य सरकार कुछ नये तरीके पर हाथ आजमाने कि कोशिश करने में जुट गयी है। जिसे `हॉट कुक्ड फूड’ के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। जिसमें ब्रान्डेड सामग्री के इस्तेमाल का निर्देश दिया गया है। मंत्रीजी का आदेश है कि मध्याह्न भोजन को बच्चों में वितरित करने से पहले संबन्धित आंगनवाड़ी कार्यकर्त्री और रसोइयों को पहले चखना पड़ेगा। कितना उत्तम विचार है.. मन्त्रीजी से लेकर संबंधित विभागीय अधिकारी सभी विकास के रास्ते पर अग्रसर हो रहें है। ग्रामीण क्षेत्रों मे शैक्षिक गुणवत्ता में कितना सुधार है इसका तो उन्हें खूब अच्छी तरह से पता है। अब चले हैं भोजन की गुणवत्ता में सुधार करने..।

सोचने वाली बात है ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ २०० से अधिक बच्चों का भोजन एक साथ बनना है वहा सब्जियाँ भी उसी मात्रा में कटती है, अब एक हैंड पम्प के सहारे वह सब्जियां कितनी बार धुली जाती होंगी आप अन्दाजा लगा सकते है। यही नही यहाँ सब्जियाँ कटवाने से लेकर नल चलाने तक का कार्य भी स्कूली बच्चों से ही लिया जाता है। क्या मंत्रीजी या संबंधित अधिकारी इस स्कूल द्वारा दी जाने वाली शिक्षा और भोजन को अपने बच्चों के लिए इस्तेमाल कर सकते है?

ग्रामीण परिवेश में पले-बढे होने के नाते मै वहाँ के लोंगो कि मानसिकता से भली-भाँति परिचित हूँ। यहाँ का गरीब वर्ग जो अपनी रोजी-रोटी चलाने में असमर्थ है उनको सरकार ने अपने बच्चों के पेट पालने का  अच्छा मौका दे रखा है। इसे मौका कहें या सहारा.. पचहत्तर प्रतिशत ऐसे माँ-बाप हैं जो बच्चे पैदा करने के बाद उनका चलने का इंतजार करते है जिससे वह बच्चे को स्कूल का रास्ता दिखा सके। इससे इन्हें क्या हासिल होता है? गहराई से देखें तो सिर्फ़ एक वक्त की रोटी या  कहें तो एक बैसाखी। ग्रामीण क्षेत्र में देखे तो शैक्षिक गुणवत्ता का कोई पैमाना मंत्रीजी ने बनाया ही नहीं है।

गुरूजनों को देखा गया है इन रसोइयों से अपने लिये अलग से चाय-पकौड़िया बनवाकर खाते हुए। इनकी व्यवस्था अलग से होती है जिसके लिए साफ-सुथरे वर्तन और शायद वही ब्रान्डेड तेल और मसाले का इस्तेमाल होता है। मेरे कहने का मतलब है कि यह सारा विभाग जानता है कि ब्रान्डेड किसे पचेगा और किसे लोकल।

तरस आती है ऐसे माँ-बाप और ऐसे बच्चों पर जिनकी गरीबी का राज्य सरकार भी मजाक बना रही है। कटोरा लेकर एक पंक्ति में बैठते और भोजन का इंतजार करते बच्चों में ये कैसी आदत डाल रही है हमारी सरकार? मुफ़्त के भोजन वाली पढ़ाई समाप्त होने के बाद इन बच्चों की आँखों में स्वावलम्बी बनने की तमन्ना दूर-दूर तक नही दिखायी देती है। प्राय: यही देखा गया है कि हर वक्त इनकी लरियायी आँखें किसी को ढूँढती रहती हैं कोई आये और उन्हें कुछ दान ही सही दो पैसे दे जाये। शायद ऐसे ही बच्चों के लिए मनरेगा ने रास्ता साफ कर रखा है।

दूसरी तरफ उन पच्चीस प्रतिशत लोगों की बात भी करना चाहती हूँ जो मेहनत मजदूरी करके अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में न भेजकर, प्राइवेट स्कूलों में जहाँ २०० से लेकर ५०० रूपये फीस भी दे रहे हैं। इन दोनों संस्थाओं के बच्चों को देखकर उनकी शैक्षिक योग्यता का पता लगाया जा सकता है।

बिहार सरकार ने तो एक गरीब के एक बच्चे की कीमत दो लाख रूपये लगा डाली है। इनकी गरीबी का मजाक बना के रख दिया है।

(रचना)

Monday, July 8, 2013

लंपट के नाम एक संदेश

बहुत दिनो से मन में कुछ सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। सोच रही हूँ इसे निकाल ही दूं..। सत्याथमित्र पर पोस्ट की गयी कहानी ‘लंपट’ के मुख्य पात्र प्रोफेसर आदित्यन के दृष्टिकोण से तो भारतीय संस्कृत में विवाह परंपरा  सबसे बोरिंग सभ्यता हो जाएगी। क्यों, है कि नहीं? जैसा लेखक ने पश्चिमी सभ्यता में गर्लफ्रेंड के बारे में लंपट महाशय का ‘एलीट’ विचार प्रस्तुत किया है उसे यदि भारतीय सामाजिक पृष्ठभूमि  में गर्लफ्रेंड के स्थान पर पत्नी को रख कर देखा जाय तो क्या यही सच्चाई उभर कर सामने आती है? बात तो यही हुई न..?

लेकिन नहीं, लंपट महाशय! स्त्री- पुरुष के संबंध  मात्र एक शरीर तक सीमित नहीं है बल्कि इससे भी आगे एक दुनिया है जहाँ स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी एक दूसरे से सिर्फ शारीरिक ही नही, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, मानसिक व भावनात्मक रूप से भी जुडे होते हैं और इसी से परिवार और समाज की रचना होती है। हमारा देश  तो प्रेम, त्याग और समर्पण का एक जीता-जागता उदाहरण है। भारतीय सामाजिक परिवेश में इस परम्परा के जरिये ही स्त्री-पुरुष के रिश्तों की एक मजबूत नींव का निर्माण होता है। हम ये नही कह सकते कि हमारे देश में पूरी तरह ऐसे लोग नहीं हैं । यहाँ भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनके अंदर इस तरह कि कुंठाएं मौजूद है। बहुत से नराधम हमारे समाज में भी है जो औरत को सिर्फ भोग कि वस्तु समझते हैं और शायद यही विचार उन्हें तरह-तरह के यौन-अपराध करने को प्रेरित करते हैं।

तो लंपट महाशय! आपके विचार और आपकी सभ्यता आपको मुबारक हो...।

(रचना त्रिपाठी)