चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। वह देश के बारे में नहीं सोच सकता। आजादी के बाद हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा भले ही कर लें लेकिन हमारे नेता आज भी ऐसा सोचते हैं।
इस देश की प्रगति में सबसे बड़े बाधक के रूप में बैठे हुए सामंती सोच वाले उच्च पदाधिकारी और राजनेता हैं, जो अपने स्वार्थ के वशीभूत अपनी जिम्मेदारियों को भूल चुके हैं और सिर्फ अपनी गद्दी के बारे में ही सोचते हैं। इनका राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र यह बताता है कि “चाय बेचने वाले का बेटा चाय ही बेचेगा, मोची का बेटा मोची ही होगा, एक बड़े नेता का बेटा एक बड़ा नेता ही बनेगा।”
यह सोच नयी नहीं है। जिसके पास ताकत आ जाती है वह दंभ से भर ही जाता है। मै कक्षा आठ में पढ़ती थी तो मुझे याद है जब स्कूल के प्रिंसिपल साहब ने एक मास्टर साहब से बोला था कि ‘मास्टर का बेटा होकर प्रिंसिपल के बेटे की बराबरी करता है...!’ मास्साब का बेटा और प्रिंसिपल का बेटा दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। ये दोनों मुझसे दो साल सीनियर थे। किसी बात को लेकर उन दोनों में लड़ाई हो गई थी। यह बात प्रिंसिपल को नागवार लगी और उन्होंने अपनी नाराजगी मास्साहब से इन शब्दों में व्यक्त किया था। उस समय मास्साब हम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाने आये तो प्रिंसिपल साहब की इस सामंती सोच पर बहुत दुखी लग रहे थे। वाचाल होने की वजह से मै मास्साहब की मुँहलगी थी, इस वजह से मै उनसे पूछ पड़ी, ‘प्रिंसिपल सर आप से किस बात पर नाराज हुए है? मास्साब मुझसे बोले- “तुम देखना मास्टर का बेटा मास्टर ही बनेगा!” यानि कि हर क्षेत्र में प्रवीण
इस फार्मूले के हिसाब से तो सचिन के बेटे अर्जुन को सचिन जैसा बड़ा और धुरंधर बल्लेबाज होना चहिए। अगर गाँधी जी अपने जैसे चार गाँधी और पैदा किए होते तो इस देश का नजारा कुछ और होता। लेकिन ‘सौभाग्य से’ ऐसा हो ही नहीं सकता। व्यक्तिगत प्रतिभा और परिश्रम का मूल्य हमेशा बड़ा होता है। बाँस की जड़ से रेंड़ उगना आम बात है। फिर राजनीति में अंधे ये बयानबाज अपनी सहूलियत से ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करते हैं?
सीमा पर जवानों के सिर कलम कर दिए जाते है तो भी देश के मुखिया का मुंह नहीं खुलता। आतंकवादी हमले करने वालों की हदें नही समझायी जाती है, लेकिन जब सी.बी.आई. प्रधानमंत्री की जाँच में लगती है तो प्रधानमंत्री के द्वारा बेशर्मी से मौन व्रत तोड़ते हुए उसकी हदें बतायी जाने लगती है। इन नेताओं और नौकरशाहों की यह सोच आखिर क्या दर्शाती है? क्या इस तरह के लोग लोकतंत्र को चलाने के काबिल हैं?
भोजपुरी की एक कहावत याद आ गई, “आन के पाड़े दिन देलें अपने घमावन लेलें।” इसका अर्थ यही निकलता है कि जब सूर्य निकलता है तो पांडेजी खुद तो आराम से बैठे धूप का आनंद लेते है मगर दूसरो को नसीहत देते है कि जाकर अपना काम करो, मेहनत करो।
विकास की गति में भ्रष्टाचार, राजनीति और महंगाई का स्पीडब्रेकर देखकर आम पब्लिक का मन उद्विग्न हो रहा है, और ये बड़े-बड़े लोग इसकी नयी-नयी परिभाषाएं गढ़ने और व्याख्या करने में लगे हुए है। इनको लगता है कि देश पर शासन करने और इसे लूटने का एक्स्क्लूसिव राइट इन्हीं के पास है और इसलिए सबको प्रवचन देने का भी काम इन्हीं के लायक है। बाकी सभी मूर्ख और नालायक हैं। कैसा लोकतंत्र है यह?
मै एक घर और परिवार सम्हालने वाली सामान्य स्त्री हूँ; फिर भी इस परिवार के अलावाँ अपने समाज तथा देश के विकास के बारे में सोचती हूँ। मुझे भी लगता है कि मै अगर प्रधानमंत्री होती तो यह देश बेहतर उत्थान की राह पर होता। नरेश अग्रवाल जैसे दम्भी नेता क्या इस सोच को बन्द कर सकते हैं।
(रचना)
बहुत सटीक विश्लेषण.
ReplyDeleteनई पोस्ट : पुनर्जन्म की अवधारणा : कितनी सही
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-11-2013) "जीवन नहीं मरा करता है" चर्चामंच : चर्चा अंक - 1431” पर होगी.
ReplyDeleteसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
सामंती सोच वाले नही देश का बंटाधार कर रखा है !
ReplyDeleteनई पोस्ट मन्दिर या विकास ?
नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
ReplyDeleteये बड़बोलापन राजनीति के बेहाल-हाल की कहानी कहता है।
बेहतरीन लेख। ऐसे ही नियमित लिखती रहें।
देश आज भी गुलामी की मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पाया , जिसमे सिर्फ गोरे ही साहब हो सकते थे ..
ReplyDeleteसटीक आलेख
ReplyDeleteभैंस मुंह खोलेगी तो गाना नहीं गायेगी...ये उक्ति सटीक लगती है...
ReplyDeleteनरेश अगरवाल और क्या उम्मीद की जा सकती है ? सही उठाया मुद्दा
ReplyDeleteसही और सटीक मुद्दा लिया है अपने रचना । शुभकामनायें ।
ReplyDeleteऐसा लगता है कि सत्ता किसी एक दल की जागीर है । पता नहीं जनतंत्र कब आएगा ? सुन्दर रचना ।
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