Tuesday, November 26, 2013

समाज का अपराध

 

कुछ अपराध ऐसे होते है जिसका कूसूरवार सिर्फ उस घटना को अंजाम देने वाला ही नहीं बल्कि उसका पूरा परिवार और कभी-कभी तो हमारा समाज भी होता है जो परोक्ष रूप से उस अपराध को करने के लिए मजबूर करता है। कितनी विडम्बना है कि एक स्त्री जो नौ महीने अपने गर्भ में पालने के बाद बेटी को जन्म देती है; उसकी हर छोटी-बड़ी खुशियों का खयाल रखती है; उससे जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए डाँटती-समझाती है और जिसमें अपना अक्स देखती है उसी के साथ ऐसा निष्ठुर घात कर बैठती है जिसपर यकीन करना कठिन हो जाता है। किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखते ही बेटी से ऐसी कौन सी गलती हो गयी जो एक माँ के लिए भी अक्षम्य थी और जिसकी सजा मौत बन गयी? मेरा मन नहीं मान रहा कि इस तरह के अपराध में एक माँ का हाथ हो सकता है। लेकिन कानून ने फिलहाल उसे अपराधी ठहरा दिया है। ऐसे में कानून की नजर में अगर ऐसे अपराध की सजा मौत है तो भी कम है...। इसने तो माँ की छवि ही कलंकित कर दी। अब आगे से कोई माँ के रिश्ते को वह ऊँचा स्थान कैसे दे पाएगा जिसके आंचल में अपनी संतान के लिए सागर से भी गहरा प्यार और आसमान से भी ऊँचा वात्सल्य होता है।

social stigma

आरुषी की हत्या के मामले में कानून तो अपना कार्य कर गया; लेकिन एक माँ की ममता इतनी क्रूर कैसे हो गयी? इसके पीछे क्या सामाजिक दबाव एवं झूठी प्रतिष्ठा के लिए मन की बेचैनी है? एक माँ को अपने बच्चे से ज्यादा प्रिय समाज में अपनी इज्जत कैसे हो गयी? क्या परिवार और समाज की गरिमा बेटियों की इज्जत से जुड़ी होती है। इस माँ से मै पूछना चाहती हूँ - क्या आरुषी की जगह उसका बेटा होता और एक नौकरानी के साथ जिस्मानी संबंध बनाते हुए पकड़ा जाता तो उसकी भी सजा माँ की नजर में यही होती जो उसने अपनी बेटी को दी? अगर एक ही भूल बेटियां करती हैं तो बहुत बड़ी भूल बन जाती है और बेटे करें तो मामूली बात कह के रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश हो जाती है। शायद तब दाँव पर बेटा लगा होता है जो बेटी से अधिक कीमती है।

बेटी और सामाजिक इज्जत का आपस में क्या ऐसा संबंध है? अगर है तो मत जनो बेटी को... गर्भ में मार डालने का अपराध भी शायद इसी की एक कड़ी है। “समाज को क्या मुंह दिखाएंगे” इस चिन्ता के दबाव में अपना हाथ रक्तरंजित कर लेने से मुँह काला नहीं होता क्या? आज सभी लोग उन्हें थू-थू कर रहे हैं लेकिन इसी समाज का भय क्या उस दुष्कृत्य के लिए उत्प्रेरक नहीं रहा होगा? इस सारे घटनाक्रम में हमारे समाज का दोहरा मापदण्ड है जो इस तरह के कुकृत्य करने पर लोगों को मजबूर करते हैं। मुझे लगता है कि आरुषी हत्याकांण्ड में यह समाज भी उतना ही दोषी है जितना उसके माता-पिता।

(रचना)

Tuesday, November 19, 2013

गिफ्ट कहो या तिहवारी बात बराबर है…

तिहवारी देने का प्रचलन हमारी सदियों पुरानी परंम्परा से चला आ रहा है। घर में काम करने वाले नौकर-चाकर, धोबी-मोची, स्वीपर आदि छोटे कर्मचारियों एवं समाज में रहने वाले छोटे तबके के लोगों को होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर कुछ पैसे, अनाज, कपड़े जैसी बस्तुएं दी जाती है जिसे हम तिहवारी के नाम से जानते है। सगे-संबंधियों के यहाँ से आने वाले नाई-कहाँर को भी तीज-त्यौहार के समय तिहवारी देकर विदा करने का रिवाज बहुत पुराना है।

त्यौहारों के आगमन में हम महीनों पहले से इसकी तैयारी के लिए जुटे रहते है; जैसे- होली-दिवाली हो या दशहरा, किसी का जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह; इन सभी कार्यक्रमों में सबसे महत्वपूर्ण काम होता है गिफ्ट का लेन-देन। जितना समय घर की साफ-सफाई और साज-सज्जा पर नहीं लगता है उससे कहीं ज्यादा समय यह सोचने और करने में लग जाता है कि किसको क्या और कैसा गिफ्ट देना है । घर हो या दफ्तर, सचिवालय हो या मंत्रालय; गिफ्ट का आदान-प्रदान सब ओर होता रहता है। बस उसके तौर-तरीकों, उनके मूल्य व प्रकार को देखकर गिफ्ट पाने वाले व्यक्ति की सामाजिक हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है। खरीदारी के समय गिफ्ट के चुनाव के साथ-साथ उसकी पैकिंग में भी प्रोटोकॉल का ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है।

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मैं सोच रही थी कि तात्विक रूप से तिहवारी और गिफ्ट में कोई खास अंतर नहीं है। दोनो मामलों में देने वाले का उद्देश्य लेने वाले को खुश करना होता है। खास त्यौहारों के अवसर पर सेवक टाइप कर्मचारियों को उनके मालिक या गृहिणियों द्वारा जो बख्शीश दी जाती है वह तिहवारी है और जब ऐसे ही अवसरों पर छोटे कर्मचारी या अधिकारी अपने बॉस या वरिष्ठ अधिकारी को कुछ भेंट करते है तो उसे ‘गिफ़्ट’ कह देते हैं। मैंने एक ही व्यक्ति को अलग-अलग लोगों को तिहवारी बाँटते और गिफ़्ट लेते तथा गिफ़्ट देते देखा है। समाजिक पायदान पर वह जहाँ खड़ा है उसी के अनुसार यह आदान-प्रदान आकार लेता है। इसको समझने के लिए दी जाने वाली वस्तु या कैश की मात्रा पर एक नजर डाले तो पता चल जाता है कि क्या तिहवारी है और क्या गिफ्ट। लेने व देने वाले की हैसियत का पता भी यह सामग्री दे देती है।

गिफ्ट के मामले में लेने वाला इसकी डिमांड नहीं करता जबकि तिहवारी लेने वाले पीछे पड़कर ले लेते हैं। गिफ़्ट शौकिया दिया जाता है या भयवश इसमें विद्वानों में मतभेद है। किसी वांछित कार्य के हो जाने पर या अवांछित कार्य के रुक जाने पर जो खुशी मिलती है उसे प्रकट करने के लिए अपने संबंधित अधिकारी या मंत्री को गिफ़्ट दिया जाता है। लेकिन कभी कभी उस खुशी की प्रत्याशा में पहले ही गिफ़्ट टिकाना पड़ता है; वह भी आकर्षक पैकिंग व वजन के साथ। इसकी तुलना में तिहवारी देने में इतना टिटिम्मा पालने की जरूरत नही पड़ती। उसे झोले में लटकाकर दिया जाय, किसी प्लास्टिक में बांध कर दे दीजिए या वैसे ही खुले में थमा दीजिए पाने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता।

गिफ्ट देने वाला तो महान होता है लेकिन गिफ्ट पाने वाला उससे भी कहीं ज्यादा बड़ा महान व्यक्ति होता है। जिसका जितना बड़ा गिफ्ट, उसकी उतनी बड़ी इज्जत होती है। तिहवारी तो हर व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार दे सकता है; लेकिन गिफ्ट देने के लिए अपनी पॉकेट से पहले उस व्यक्ति की हैसियत देखनी पड़ती है जिसे गिफ्ट देना होता है।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, November 15, 2013

जुबान जो संभलती नही…

SLIP OF TONGUE

चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। वह देश के बारे में नहीं सोच सकता। आजादी के बाद हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा भले ही कर लें लेकिन हमारे नेता आज भी ऐसा सोचते हैं।

इस देश की प्रगति में सबसे बड़े बाधक के रूप में बैठे हुए सामंती सोच वाले उच्च पदाधिकारी और राजनेता हैं, जो अपने स्वार्थ के वशीभूत अपनी जिम्मेदारियों को भूल चुके हैं और सिर्फ अपनी गद्दी के बारे में ही सोचते हैं। इनका राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र यह बताता है कि “चाय बेचने वाले का बेटा चाय ही बेचेगा, मोची का बेटा मोची ही होगा, एक बड़े नेता का बेटा एक बड़ा नेता ही बनेगा।”

यह सोच नयी नहीं है। जिसके पास ताकत आ जाती है वह दंभ से भर ही जाता है। मै कक्षा आठ में पढ़ती थी तो मुझे याद है जब स्कूल के प्रिंसिपल साहब ने एक मास्टर साहब से बोला था कि ‘मास्टर का बेटा होकर प्रिंसिपल के बेटे की बराबरी करता है...!’ मास्साब का बेटा और प्रिंसिपल का बेटा दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। ये दोनों मुझसे दो साल सीनियर थे। किसी बात को लेकर उन दोनों में लड़ाई हो गई थी। यह बात प्रिंसिपल को नागवार लगी और उन्होंने अपनी नाराजगी मास्साहब से इन शब्दों में व्यक्त किया था। उस समय मास्साब हम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाने आये तो प्रिंसिपल साहब की इस सामंती सोच पर बहुत दुखी लग रहे थे। वाचाल होने की वजह से मै मास्साहब की मुँहलगी थी, इस वजह से मै उनसे पूछ पड़ी, ‘प्रिंसिपल सर आप से किस बात पर नाराज हुए है? मास्साब मुझसे बोले- “तुम देखना मास्टर का बेटा मास्टर ही बनेगा!” यानि कि हर क्षेत्र में प्रवीण

इस फार्मूले के हिसाब से तो सचिन के बेटे अर्जुन को सचिन जैसा बड़ा और धुरंधर बल्लेबाज होना चहिए। अगर गाँधी जी अपने जैसे चार गाँधी और पैदा किए होते तो इस देश का नजारा कुछ और होता। लेकिन ‘सौभाग्य से’ ऐसा हो ही नहीं सकता। व्यक्तिगत प्रतिभा और परिश्रम का मूल्य हमेशा बड़ा होता है। बाँस की जड़ से रेंड़ उगना आम बात है। फिर राजनीति में अंधे ये बयानबाज अपनी सहूलियत से ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों करते हैं?

सीमा पर जवानों के सिर कलम कर दिए जाते है तो भी देश के मुखिया का मुंह नहीं खुलता। आतंकवादी हमले करने वालों की हदें नही समझायी जाती है, लेकिन जब सी.बी.आई. प्रधानमंत्री की जाँच में लगती है तो प्रधानमंत्री के द्वारा बेशर्मी से मौन व्रत तोड़ते हुए उसकी हदें बतायी जाने लगती है। इन नेताओं और नौकरशाहों की यह सोच आखिर क्या दर्शाती है? क्या इस तरह के लोग लोकतंत्र को चलाने के काबिल हैं?

भोजपुरी की एक कहावत याद आ गई, “आन के पाड़े दिन देलें अपने घमावन लेलें।” इसका अर्थ यही निकलता है कि जब सूर्य निकलता है तो पांडेजी खुद तो आराम से बैठे धूप का आनंद लेते है मगर दूसरो को नसीहत देते है कि जाकर अपना काम करो, मेहनत करो।

विकास की गति में भ्रष्टाचार, राजनीति और महंगाई का स्पीडब्रेकर देखकर आम पब्लिक का मन उद्विग्न हो रहा है, और ये बड़े-बड़े लोग इसकी नयी-नयी परिभाषाएं गढ़ने और व्याख्या करने में लगे हुए है। इनको लगता है कि देश पर शासन करने और इसे लूटने का एक्स्क्लूसिव राइट इन्हीं के पास है और इसलिए सबको प्रवचन देने का भी काम इन्हीं के लायक है। बाकी सभी मूर्ख और नालायक हैं। कैसा लोकतंत्र है यह?

मै एक घर और परिवार सम्हालने वाली सामान्य स्त्री हूँ; फिर भी इस परिवार के अलावाँ अपने समाज तथा देश के विकास के बारे में सोचती हूँ। मुझे भी लगता है कि मै अगर प्रधानमंत्री होती तो यह देश बेहतर उत्थान की राह पर होता। नरेश अग्रवाल जैसे दम्भी नेता क्या इस सोच को बन्द कर सकते हैं।

(रचना)