Saturday, October 23, 2021

खौरा-खापट हम

पीछे पलट कर देखिए तो तीन से चार दशक बाद कितना कुछ बदल गया है। मुझे याद आती है घर की ऊँची ‘देहरी’ और नल के पास पानी के छींटे से बचाव के लिए बनी सीमेंट की ठिगनी दीवाल जिसे ‘दासा’ कहा जाता था। वे अब अतीत में गुम हो गए लगते हैं। उस ऊँची देहली की वजह से छुटपन में कितनी बार आवेग में दौड़ते भागते ठोकर लगा के मुँह के बल गिरना हो जाता था। अमूमन एक बार घायल होने के बाद आदमी संभल जाता है। लेकिन वो आदमी हो तब न! जब कोई बार-बार एक ही जगह एक ही गलती को दुहराती जाए तो ऐसे में घर के बड़ों को झुँझलाहट तो होगी ही। इसी झुँझलाहट में उनके मुँह से अपने लिए कितनी बार ‘ऊपरतक्का’ शब्द सुनने को मिला है। इस शब्द का अर्थ किसी ने बताया नहीं लेकिन हमने अपनी हरकतों से समझ लिया था। आप डिक्शनरी में ढूँढने की कोशिश न करें। वहाँ से कुछ हासिल नहीं होगा। इसी प्रकार ‘खौरा-खापट’ होने की विशेषता ऐसी थी जो हममें जन्मजात थी।


जब दौड़ते-भागते खुद को गिराना और संभालना सीखा उस दौर में रोकते-रोकाते भी मेरी ठोकरों से कितने काँच के बर्तन चकनाचूर हो गए। इसीलिए मैं पूरी तरह ‘ऊपरतक्का’ सिद्ध हो गई। इसी तरह जब कभी घी का जार, चीनी का डब्बा आदि हाथ से छूट कर काँच सहित फ़र्श पर बिखर जाए तब ‘खौरा-खापट’ बन जाती थी। 


इन सब हरकतों से उस वक्त प्रायः काँच के कप-ग्लास तो किक लगने से चकनाचूर हो जाया करते थे जिसे बिना वक्त गँवाए घर के लोग तत्काल झाड़ूँ के बहारन में उठा कर उसका अंतिम संस्कार कर के किसी भी खतरे की संभावना से निवृत्त हो लेते थे। कुछ और सोचने की गुंजाइश नहीं होती थी। क्योंकि पहले की रसोई के भीतर बासन का काम नहीं होता था। इसके लिए रसोई से अलग जगह बनी होती थी। अब न तो वैसा घर है, न घर के बीच में आँगन। ‘दासा’ व ‘ताखा’ का तो जैसे नाम ही मिट गया। अब इन बर्तनों को टूटने के लिए वैसा खुला मैदान मिलता ही नहीं है।


लेकिन इन विशेषणों (ऊपर-तक्का और खौरा-खापट) की वजह से उन दिनों की स्मृतियों में वापस खो जाना बड़ा सुखद लगता है। 


‘खौराखापट’ का ठीक-ठीक अर्थ क्या है? मुझे भी नहीं मालूम। बहुत जोड़ा घटाया, सन्धि विच्छेद भी करके देखा : खौरा + खापट =?


अब इस उम्र में इन शब्दों से जब भी मेरा सामना होता है तो अपने कारनामे पर मैं खुद को समय के आइने में देखती हूँ। फिर एक लम्बी साँस के साथ बड़ा संतोष महसूस होता है कि कुछ तो तूफ़ानी हमने भी अपने जीवन में किया है। वरना आज के समय के सीमित दायरे का पूरी तरह से व्यवस्थित घर होता तो शायद ‘ऊपरतक्का’ और ‘खौरा-खापट’ शब्द का ईजाद नहीं हो पाया होता ।


इन दोनों शब्दों से मेरा नाता इतना गहरा हो गया था कि इन्हें मैं अपने साथ ससुराल भी लेकर आयी। यदा-कदा अपने बच्चों पर इस्तेमाल भी करती हूँ। हालाँकि इन बच्चों ने कभी कप-ग्लास को फ़ुटबाल की तरह अपने पैरों से नहीं उड़ाया। कभी-कभार इनके हाथों से कप के कोरों में खनक भर लग गयी होगी। कप की हेंडिल टूट गयी होगी। जिससे उसको फेंकने के लिए भी बहुत सोचना पड़ता है। कप की धारी पर खनकने से चाय तो नहीं टपकती लेकिन उसकी सुंदरता बिगड़ जाती है। इस कारण उसे बड़ा मन मसोस के फेंकना पड़ता है। तब याद आता है उस दासे का जहाँ से हम जब कप को किक लगाते थे तो उसको बाहर फेकनें में ज़रा भी मोह-माया नहीं घेरती थी। बस एक झन्नाटेदार आवाज़ “खौरा-खापट कहीं की” सुनने के साथ लगे हाथों उसका क्रिया-करम करके छुट्टी पा लेते थे। ऐसे में जब हमारे बच्चे कप-ग्लास को विकलांग करके छोड़ देते हैं तब उनपर बहुत ग़ुस्सा आता है और तब खुद पर नाज़ होता है कि हम इनकी उम्र में कितने खौरा-खापट थे। इसी बहाने उन बीते दिनों को याद कर के बड़ा सुकून भी मिलता है। अब बच्चे पूछते हैं कि खौरा-खापट क्या होता है तो मन में हल्की मुस्कान के साथ बुदबुदा-कर रह जाती हूँ - जैसी तुम्हारी अल्हड़ मम्मी।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, October 4, 2021

गीत (बलम बन बदरा)

भरी-भरी नैना क़जरा बही जाए

बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए

मोरे पिया की बाँकी उमरिया

भई री सौतन बैरन नोकरिया

दूर विदेसवा जबरन ले जाए


बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए…


उड़ती जहज़िया सुनले अरज़िया

बिरह की मारी अपनी गरजिया

कासे कहूँ मैं तू ही समझाएँ 


बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए…

फोनवो  लागे दुस्मन तोरी देसवा

छः मास बीती  कोई संदेसवा 

अबकी जो आए संग मोहे ले जाए


बलम बन बदरा उड़ी-उड़ी आए…


(रचना)

Friday, October 1, 2021

दहिजरा कोरोना भाग-3 (कथा में क्षेपक)






कई सालों से जयनरायन बाबा की साध थी, भागवत कथा सुनने की। लेकिन पहले बेटियों की शादी, और फिर अपने टूटे कुल्हे के लम्बे इलाज में इतना टूट गए थे कि इसका बेवँत ही नहीं जुटा पा रहे थे। वैसे भी इनके पास पुरखों की थोड़ी सी जमीन के अलावा कोई दूसरा आर्थिक स्रोत नहीं था। ऐसे में जब उनके घरवालों ने उन्हें भागवत सुनवाने के लिए साइत दिखाकर दीन-बार तय कर दिया तो बाबा की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने इस धार्मिक अनुष्ठान में किस-किस को नहीं बुलाया। जो भाई-भतीजेनाती-पोते गाँव छोड़कर दूर-दूर शहरों में जा बसे थे उन्हें भी मोबाइल से नेवत डाले। पूरी पटिदारी तो बाबा के घर आयोजित इस बहुप्रतीक्षित भागवत से वैसे ही उत्साहित थी। लेकिन तभी कोरोना का क्षेपक कूद पड़ा।

 

इस क्षेपक को पुरोहित जी ने पट्टीदारों और परिवार वालों के साथ सिर जोड़कर परे धकेल दिया। यह मान लिया गया कि इस धर्म के कार्य से इस कोरोना का आतप भी मिट जाएगासभी स्वस्थनिरोग और दीर्घायु हो जाएंगे। इस कथा का इतना बड़ा महात्म्य है कि इससे पूरे जग का कल्याण होगा। इसी मनोकामना से बाबा के घर भागवत ठन गई। पूरा गांव श्रद्धा से भर उठा। गाँव के छोटे-बड़े से ले के जवान-बूढ़सब मरद-मेहरारू बाबा के घर हो रही भागवत और भजन-कीर्तन में डटे रहे। प्रत्येक दिन के कथा विश्राम के बाद वहाँ भक्तिरस में डूबे लोग जब अपने-अपने घर के लिए प्रस्थान करते तो उनकी छाती तन के इस कदर चौड़ी हो जाती मानो कोरोना को गाँव के सिवान से बाहर लखेद आये हों। उनकी बातों में कुछ उसी प्रकार का गर्व छलकता जैसे हमारे सैनिक चीनियों को सीमा-पार खदेड़ कर महसूस करते है। धर्म की जय होअधर्म का नाश होप्राणियों में सद्भावना होविश्व का कल्याण होहर हर महादेव- नित्य-प्रति इस जयकारे के साथ पूरा गांव अहो-भाग्य कह के धन्य-धन्य हो जाता। बाबा के घर यह अद्भुत आनंद दुर्लभ था। न भूतो न भविष्यति! 

 

जैसा कि होता हैहर जगह एकाध विघ्नसंतोषी होते ही हैं। यहाँ भी कुछ 'विधर्मीकुछ न कुछ उल्टा-पुल्टा बोल के सबके मुंह में जाबी (फेस-मास्क) लगाने का ज्ञान बांट रहे थे। वे जैसे ही किसी बूढ़-ठेल मनई को देखते तो कोरोना का राग छेड़कर उनकी आस्था डगमगाने की जुगत भिड़ाते। बोलते - "सरकार ने कोरोना के खतरे से लॉकडाउन कर दिया था। थोड़ी छूट भले ही मिल गई है लेकिन ई कातिल कोरोना जस का तस फैल रहा है। तो बताइएबाबा को यह भागवत नेवधने की क्या पड़ी थी?" लेकिन किसी ने कान नहीं धरा। वे अपनी 'कुचालमें नाकाम ही रहे। 

 

पूरे नौ दिन चली भागवत कथा में गाँव वालों ने दिखा दिया कि पूजा-पाठ और भगवत-भजन में कितनी शक्ति होती है। सब कुछ बड़े ढंग से निपट गया। समापन के दिन बड़े प्रेम से हवन-आरती और प्रसाद-वितरण हुआ। बाबा ने सभी रिश्तेदारों से लेकर पटिदारों और गाँव के दूसरे लोगों को भोजन की दावत भी दी थी। उस रात वहाँ खूब अहमक-दहमक भोज-भात हुआ। पूरा गाँव भगवान के साथ जयनरायन बाबा का नाम भी लेता रहा। इससे उन्हें परम सुख की प्राप्ति हुई।

 

लेकिन दहिजरा कोरोना का खेल तो अभी बाकी ही था!

 

होत बिहाने गाँव में हल्ला मचा कि भिक्खन के लइका डबलुआ का रिपोर्ट पॉजिटिव आया है। जिसने सुना वही सन्न रह गया। भगवत कथा में अनुष्ठान के संकल्प से लेकर समापन तक उसने अहम भूमिका निभाई थी। उसने पटिदारों की पंगत में बैठकर भोजन भी किया था और बड़े प्रेम से सबको प्रसाद का दोना भी थमाया था। 

 

पूरा गाँव सनपात गया था। सब लोग नौ दिन की चर्या का मानसिक वीडियो उल्टा घुमाकर यह देखने लगे कि डबलुआ कब-कब और कितना उनसे सटा था। उसके नाक सुड़कनेखंखारने और खांसने का वर्णन सबकी जुबान पर आ गया। "मैंने तो उसे टोका था लेकिन दुष्ट ने एक न सुनी।" ऐसा दावा प्रायः सभी करने लगे। जो लोग दूर शहर से नहीं आ सके थे उन्हें भी इस खबर ने दहला दिया। उनके भीतर अपने लिए तो जान बची लाखों पाए का भाव था लेकिन गाँव में फोन मिलाकर अपने परिजनों की कुशलता जाँचने लगे। 

 

गाँव की बुढ़िया काकी जिनके मुंह से नौ दिन भगवान के नाम के अलावा कुछ नहीं निकला था वो आज दुआर पर बैठकर डबलुआ की सात पुस्तों को तार रही थीं। "मुँहझंउसाअभगवालवणा के पूतकुलबोरनासबके नासि दिहलस।"

 

भिक्खन बाबा को भी गरियाने और सरापने वालों ने इतना सुनाया कि उनके कान का कीरा झर गया। पता चला कि उन्होंने खुद ही जब डबलुआ को लाठी लेकर खोजना शुरू किया तो सारे गाँव ने उनके साथ उसे खरहा की तरह उंखियाड़ी से लेकर झंखियाड़ी तक झार डाला। अच्छा हुआ वह किसी के हाथ नहीं आया।  

 

धीरे-धीरे गाँव के लोग भिक्खन के दुवार पर इकठ्ठा होने लगे। बारी-बारी से आने वाले सभी लोग उनसे सफाई माँगते। कब टेस्ट हुआक्यों टेस्ट हुआजब बीमारी थी तो कुरंटीन क्यों नहीं रक्खेकिस जनम का बदला लिए होगाँव भर से क्या दुसमनी थीलवंडे को कहाँ गाड़ दिए होअब गांव भर को कौन बचाएगाजयनरायन बाबा को जो पाप लगेगा इसका जिम्मेवार कौन होगाआदि-आदि। भिक्खन को तो काठ मार गया था।

 

तभी किसी ने चिल्लाकर बताया - डबलुआ कोठा पर लुकाइल बा। चुप्पे से झाँकत रहल हs। पता चला कि वह चुपके से घर की छत पर जाकर छिप गया था और उसने सीढ़ी का दरवाजा बाहर से बंद कर लिया था। सभी लोग उसे ललकारने लगे। वह दुबका रहा। तब कुछ बड़े-बुजुर्ग मनुहार करने लगे। अब डबलू ने डरते-डरते रेलिंग से ऊपर सिर निकाला और चिल्लाकर बोला - हमरा कोरोना नइखे। हम त पासपोर्ट बनवावे खातिर जाँच करौले रहनी। इयार लोग से मजाक में निगेटिव के पॉज़िटिव बता देहनी। उहे लोग उड़ा देहल हs

 

                                               (रचना त्रिपाठी)