Monday, January 26, 2015

अद्भुत ज्ञानी सन्त

हाल ही में हमारे देश के कुछ संतों को यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए हमें दस-दस बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्हों ने इस ज्ञान को अपने प्रवचन में मिलाकर भक्तों के हवाले कर दिया। यह सुनकर पहले तो मैं हतप्रभ रह गयी कि कैसे संभव होगा इस सदुपदेश का अनुपालन करना। अब तो बहुत देर हो गयी, लेकिन यह देखकर मन को समझा लिया कि ज्यादातर लोग हमारी तरह ही मजबूर होंगे। लेकिन यह धरती वीरों से खाली भी नहीं है।

एक परिवार जिसे मैं वर्षों से देखती-सुनती आ रही हूँ, लगता है उसने हमारे देश के वर्तमान संतो की बातों पर अमल करने की ठान ली है। उस घर के मुखिया को अपने परिवार का पेट भरने को दो वक्त की रोटी के लिए हाड़- तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। घर के उस एकमात्र कमाऊ सदस्य ने एक दिन एक्सिडेंट के दौरान अपना शारीरिक स्वास्थ्य भी गवां दिया। लेकिन इस महावीर ने सात बच्चों को पैदा करने के बाद डॉक्टर की रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में आठवें का भी नम्बर लगा लिया है। ऐसे में खेद है कि अब वो इन सन्तों की इच्छा के आंकड़े को पूरा करने में दो की संख्या से और पीछे रह गया है।

जो असाधारण मनुष्य अपनी आठ सन्तानें भेंट स्वरूप इस राष्ट्र को प्रदान कर चुका है अगर उसे इस बीच कुछ हो जाता है तो वह इस राष्ट्र की एकता और अखण्डता बनाये रखने के लिए दो रत्नों को और पैदा करने से चूक जाएगा। मेरी चिंता का विषय यही है। ऐसे में उन सन्तों की ही तरह इस देश की खातिर आपका भी कुछ फर्ज बनता है! उन सन्तों से आप यह निवेदन करें कि किसी भी हाल में उस इंसान को जिन्दा रखने के लिए अगर कोई जड़ी-बूटी हो तो उसे पिलाकर उसकी प्राण रक्षा  करें;  नहीं तो जो अभी पैदा नहीं हो सके उन दोनों रत्नों के अभाव में इस देश का क्या होगा। संतो के कहे अनुसार उनकी इस देश को बहुत जरुरत है।

जो इस देश की मिट्टी पर खड़े हो चुके हैं उन सातों औलादों की चिंता आप छोड़ ही दे। वे बड़े 'होनहार' हैं। कम उम्र में ही वे पड़ोसियों के घर में हाथ साफ करके अपनी व्यवस्था बखूबी कर लेते हैं। आंठवा भी गर्भ में पड़े-पड़े ही माँ की हाड़-मांस में बची-खुची आयरन-कैल्शियम और विटामिन्स को चूस कर जिन्दा बाहर आने के लिए इस चक्रव्यूह को पार  कर ही जाएगा। ...और उस औरत का क्या? गजब की ताकत बख्शी है ईश्वर ने उसको। आठवाँ बच्चा पेट में है और पहली बेटी ससुराल जाकर माँ बन चुकी है फिर भी उसके शरीर ने जवाब नहीं दिया है। अपाहिज हो चुके पति की दुर्दशा से भी कोई शिकन नहीं है चेहरे पर। गाँव भर के लोग दीदे फाड़े देखते है उस उर्वर 'शरीर' को। गजब की है जिजीविषा। कुछ न कुछ पा ही जाती है अपने और बच्चों के पेट के वास्ते।

तो हे सन्त जन, आप इन बच्चों की चिंता ना ही करें। जिस भगवान ने इनके शरीर में मुंह दिया है वही इनके मुंह में भोजन भी दे देगा। आखिर आप लोग भी तो इस देश का दिया तरमाल उड़ा ही रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा का प्रमाण आपका यह अद्‍भुत बयान दे ही रहा है। ये बच्चे भी ऐसा ही दिव्य ज्ञान अर्जित कर लेंगे। आप तो बस इन बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी में कहीं कोई व्यवधान ना खड़ा हो जाय उसका उपाय जरूर कर लें। आखिर 'पड़ोसी' के घर में हाथ साफ करने का इनका अनुभव भी तो हमारे देश के लिए बहुत कारगर साबित होना है। आपके मतानुसार यही आंकड़े ही तो देश की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाले हैं

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, January 14, 2015

पीके जैसी फिल्मों से सीखती पीढ़ी

आज सुबह-सुबह मेरी बचपन की सहेली का फोन आया। वह एक तरफ थोड़ी परेशान सी लग रही थी तो दूसरी तरफ अपनी बात बताते हुए हँसती भी जा रही थी। मैंने बोला- "अजीब हो यार, या तो पहले मुझे पूरी बात बताओ या पहले खूब हंस लो।" वह चुप हो गयी और अपने को संयत करके बताने लगी। उसकी बातों में शर्मिंदगी भी थी और झुंझलाहट भी; फिर भी बीच-बीच में हँसती जा रही थी। बच्चों ने हरकत ही ऐसी की थी कि उसपर न तो क्रोध किया जा सकता है, न उसे स्वीकार किया जा सकता है और न तो सराहा ही जा सकता है। बता रही थी कि उसका दस साल का बेटा अपने पिता से पीके फ़िल्म में “डांसिंग कार” के बारे में बात कर रहा था। बेटे ने कहा-

pk-parody

" वो डांसिग कार नहीं थी पापा।"

पापा ने पूछा- फिर क्या था..?

"उसमें सेक्स हो रहा था"

वो क्या होता है..?

"इसी से तो पापुलेशन बढ़ता है"

तुम्हें कैसे पता चला.?

"फ़िल्म से ही, आपने देखा नहीं उसमें स्ट्राबेरी फ्लेवर कामसूत्र  कंडोम का सीन था...!"

वो क्या होता है..?

"अरे मेरे बुद्धू पापा! वो पापुलेशन कंट्रोल ले लिए सेक्स के दौरान पहना जाता है"

पापा की थूक तो गले में सटक गई। बेटे का डिस्क्रिप्शन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसने फिर बताया-

" पापा मुझे तो लगा कार में बच्चा पैदा हो रहा हो रहा है"

वो कैसे पता चला..?

“आपने सुना नहीं उसमें इह.. इह..की आवाज आ रही थी। ”

अब उसे हम दस साल का बच्चा कहें या दस साल का जवान बेटा! हद होती है। हास्य और मनोरंजन के नाम पर ऐसे फूहड़ दृश्य परोसे जा रहे हैं जो हमारे सामान्य जन जीवन का हिस्सा भी नहीं हैं। हो सकता है फिल्म के कर्ता-धर्ता लोग ऐसे वातावरण में रहने के आदी हों लेकिन भारतीय समाज के आम आदमी के लिए तो इस फिल्म ने लगातार मर्यादा की सीमा पार की है। व्यावसायिक सिनेमा बनाने वालों की अधिक से अधिक पैसा कमाने की चाह और उपभोक्तावादी संस्कृति के जाल में उलझा हुआ जनमानस मिलकर जो काकटेल बना रहे हैं उससे मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे असहज दृश्य उत्पन्न होते ही रहेंगे। हम एक भयानक पैराडाइम-शिफ़्ट देख रहे हैं।

फिल्मों में आजकल जिस तरह के दृश्य दिखाये जा रहें हैं उसपर हमारे बच्चों का बालमन समय से पहले वयस्क हो रहा है। इन फिल्मों से करोड़ों की कमाई करने वाले डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टर ने फ़िल्म बनाते समय देश के नौनिहालों के बारे में रत्ती भर भी विचार नहीं किया होगा; और सेंसर बोर्ड ने तो अपनी आँख पर सिर्फ धर्म से जुड़ी समस्याओं का ही चश्मा चढ़ा रखा होगा; जिसने इन बेहूदे दृश्यों को नजरअंदाज कर फ़िल्म दिखाने की इजाजत दे डाली होगी। इन फिल्मी कलाकारों का क्या इन्हें तो सिर्फ अपने नाम, पैसा और शोहरत से मतलब है। हमारे बच्चों के भविष्य से तो जैसे कोई ताल्लुक़ ही न हो। सत्यमेव जयते के माध्यम से लोकप्रिय प्रवचन देने वाले आमिर खान से इसकी उम्मीद नहीं थी।

एक तरफ आमिर खान की फ़िल्म थ्री इडियट्स ने मासूम बच्चों के सामने नार्मल डिलेवरी की प्रक्रिया  का सीधा प्रसारण कर डाला तो दूसरी तरफ अब फ़िल्म पीके में बार-बार डांसिंग कार का दृश्य दिखाकर हमारे बच्चों को सेक्स के बारे में और जानने की उत्कंठा बढ़ा दी। ज़रा सोचिए, ऐसे दृश्यों से उनके दिमाग में कितने रहस्य अपनी छाप छोड़ गए होंगे...? अब ये बालमन आगे क्या करेगा.. उनका जिज्ञासु मन किस प्रकार शांत होगा..?

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, January 7, 2015

लोकल बनाम नेशनल देवी...

हमारे गाँव में किसी भी यज्ञ-प्रयोजन के सकुशल सम्पन्न हो जाने के बाद घर के सामने वाले बाग में स्थापित काली माँ के मंदिर में ‘कड़ाही चढ़ाने’ की परम्परा है। जहाँ पूजा-पाठ के बाद कच्ची मिट्टी के चूल्हे या मिट्टी के तेल से जलने वाले स्टोव पर गरमा-गर्म हलवा और पूड़ी - चाहे वह शुद्ध देशी घी का हो या कच्ची घानी सरसो के तेल में बना हो - उसे मंदिर परिसर में ताजा बनाकर ही देवी माँ का भोग लगाया जाता है।

यथा शक्ति तथा भक्ति की परिपाटी में देवी माँ को बस साफ-सुथरा “अपनी आँखों के सामने” बना प्रसाद ग्रहण करना पसन्द है। यहाँ घर से बनाकर लाने या बाजार से खरीदकर प्रसाद चढ़ाने की परंपरा नहीं है। उस मन्दिर के सामने कोई ऐसी दुकान नहीं है जिसपर रेडीमेड प्रसाद मिलता हो। गाँव-गाँव में स्थापित कोट माई, बरम बाबा, काली माई, डीह बाबा, इत्यादि नामों से प्रचलित देवी-देवताओं के असंख्य स्थानों पर यही होता है। नहा धोकर जाइए, अपनी श्रद्धा के अनुसार शीश नवाइए, कपूर-अगरबत्ती जलाइए या कड़ाही चढ़ाइए। कोई दक्षिणा नहीं देना पड़ता, न दानपात्र रखा होता है और न यहाँ किसी की पंडागीरी चलती है।

महालक्षमी मंदिर

महालक्षमी मंदिर

इस पूजा-विधि में प्रसाद बनाते वक्त साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह बर्तन की शुद्धता और सफाई हो या उस प्रसाद को बनाने वाले के लिए स्नान करके साफ धुले कपड़े पहनने की आनिवार्यता हो या फिर उस स्थान की लिपाई-पुताई करके स्वच्छ रखने की जहाँ चूल्हा जलाया जाता है। बिना स्नान किये और धुला-धुलाया वस्त्र पहने कड़ाही चढ़ाने पर निषेध है। ऐसा माना जाता है कि इस विधि में थोड़ी सी भी चूक देवी माँ को मंजूर नहीं है। वह शीघ्र ही कुपित हो जाती हैं और लापरवाही बरतने वाले के ऊपर ही सवार (प्रकट) हो जाती हैं। इस भय से लोग साफ-सुथरा प्रसाद बनाने में विशेष सावधानी बरतते हैं। बिहार की प्रसिद्ध छठ पूजा में तो शुद्धता की जबरदस्त संहिता का पालन होता है।

बच्चों को उस प्रसाद से थोड़ा दूर ही रखा जाता है कि कहीं वे उसे देवी माँ को अर्पित करने से पहले जूठा ना कर दें। जूठा मतलब देवी माँ को हलवा पूरी चढ़ाने (भोग लगाने) से पहले बच्चों द्वारा चख लिया जाना जूठा हुआ मान लिया जाता है। वैसे ही जैसे गाँव में सासू जी के भोजन करने से पहले अगर बहू ने खा लिया तो उस भोजन को सखरी यानी जूठा मान लिया जाता है। आज भी गाँव के देवी-देवता के वहां इसी विधि से प्रसाद बनाकर चढ़ाया जाता है। जिसे बहुत मन हुआ उसने प्रसाद के साथ एक-दो सिक्के चढ़ा दिए नहीं तो वे फूल-अक्षत, धार-कपूर आदि चढ़ा देने से ही प्रसन्न हो जाती हैं।

इसके विपरीत बड़े सिद्ध स्थलों पर जहाँ दूर-दूर से भक्तगण दर्शन के लिए आते हैं वहाँ इसी देवी माँ के दर्शन के लिए पंडा जी लोग तो रेडीमेड महंगे प्रसाद और कीमती चढ़ावे लेकर आने वाले भक्तों पर ही इनकी कृपा बरसने देते हैं। यानी वहां देवी माँ की उतनी नहीं चलती जितना कि उनके पहरू बने पण्डा महराज की चलती है। भले से वह प्रसाद बासी ही क्यों ना हो। व्यावसायिक स्तर पर वह कहाँ और कैसे बना इससे उनका कोई सरोकार नहीं होता। उसकी शुद्धता के बारे में भक्तगण भी शायद ही सोचते हों। मंदिरों के बाहर सजी प्रसाद की प्रायः सभी दुकानें भक्त गणों के जूते चप्पल रखवाने की सुविधा भी देती हैं, यानि देश भर के जूते चप्पल उस प्रसाद के बगल में ही रखे जाते हैं। मंदिर प्रबन्धन द्वारा जूता-चप्पल रखवाने की जो व्यवस्था की जाती है उसका प्रयोग करने के बजाय भक्तगण प्रसाद की दुकान में ही उसे रखना श्रेयस्कर समझते हैं।

मंदिर के भीतर भक्त महोदय पूर्ण स्नान करके आये है या नहीं यह कम महत्वपूर्ण है लेकिन उनके हाथ का चढ़ावा कितना दमदार है उसी से उनकी गरिमा का आकलन पंडा जी करते हैं। बड़े-बड़े मन्दिरों के आस-पास की दुकानों में मॉल की तरह सजा हुआ प्रसाद भी शायद ब्रांडेड हो जिसपर देवी माँ आँखमूंद कर विश्वास कर लेती हों। तभी तो भक्तगण को उनके कुपित हो जाने का कोई भय नहीं होता। मुझे तो यही माजरा समझ में आता है। नहीं तो फिर हमारे गाँव की देवी माँ शायद कम पढ़ी-लिखी पुराने खयालों की दकियानूस टाइप हों उन सासू माँ जैसी जिनका गुस्सा उनकी नाक पर ही होता है।

(रचना त्रिपाठी)