आज सुबह-सुबह मेरी बचपन की सहेली का फोन आया। वह एक तरफ थोड़ी परेशान सी लग रही थी तो दूसरी तरफ अपनी बात बताते हुए हँसती भी जा रही थी। मैंने बोला- "अजीब हो यार, या तो पहले मुझे पूरी बात बताओ या पहले खूब हंस लो।" वह चुप हो गयी और अपने को संयत करके बताने लगी। उसकी बातों में शर्मिंदगी भी थी और झुंझलाहट भी; फिर भी बीच-बीच में हँसती जा रही थी। बच्चों ने हरकत ही ऐसी की थी कि उसपर न तो क्रोध किया जा सकता है, न उसे स्वीकार किया जा सकता है और न तो सराहा ही जा सकता है। बता रही थी कि उसका दस साल का बेटा अपने पिता से पीके फ़िल्म में “डांसिंग कार” के बारे में बात कर रहा था। बेटे ने कहा-
" वो डांसिग कार नहीं थी पापा।"
पापा ने पूछा- फिर क्या था..?
"उसमें सेक्स हो रहा था"
वो क्या होता है..?
"इसी से तो पापुलेशन बढ़ता है"
तुम्हें कैसे पता चला.?
"फ़िल्म से ही, आपने देखा नहीं उसमें स्ट्राबेरी फ्लेवर कामसूत्र कंडोम का सीन था...!"
वो क्या होता है..?
"अरे मेरे बुद्धू पापा! वो पापुलेशन कंट्रोल ले लिए सेक्स के दौरान पहना जाता है"
पापा की थूक तो गले में सटक गई। बेटे का डिस्क्रिप्शन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसने फिर बताया-
" पापा मुझे तो लगा कार में बच्चा पैदा हो रहा हो रहा है"
वो कैसे पता चला..?
“आपने सुना नहीं उसमें इह.. इह..की आवाज आ रही थी। ”
अब उसे हम दस साल का बच्चा कहें या दस साल का जवान बेटा! हद होती है। हास्य और मनोरंजन के नाम पर ऐसे फूहड़ दृश्य परोसे जा रहे हैं जो हमारे सामान्य जन जीवन का हिस्सा भी नहीं हैं। हो सकता है फिल्म के कर्ता-धर्ता लोग ऐसे वातावरण में रहने के आदी हों लेकिन भारतीय समाज के आम आदमी के लिए तो इस फिल्म ने लगातार मर्यादा की सीमा पार की है। व्यावसायिक सिनेमा बनाने वालों की अधिक से अधिक पैसा कमाने की चाह और उपभोक्तावादी संस्कृति के जाल में उलझा हुआ जनमानस मिलकर जो काकटेल बना रहे हैं उससे मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे असहज दृश्य उत्पन्न होते ही रहेंगे। हम एक भयानक पैराडाइम-शिफ़्ट देख रहे हैं।
फिल्मों में आजकल जिस तरह के दृश्य दिखाये जा रहें हैं उसपर हमारे बच्चों का बालमन समय से पहले वयस्क हो रहा है। इन फिल्मों से करोड़ों की कमाई करने वाले डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टर ने फ़िल्म बनाते समय देश के नौनिहालों के बारे में रत्ती भर भी विचार नहीं किया होगा; और सेंसर बोर्ड ने तो अपनी आँख पर सिर्फ धर्म से जुड़ी समस्याओं का ही चश्मा चढ़ा रखा होगा; जिसने इन बेहूदे दृश्यों को नजरअंदाज कर फ़िल्म दिखाने की इजाजत दे डाली होगी। इन फिल्मी कलाकारों का क्या इन्हें तो सिर्फ अपने नाम, पैसा और शोहरत से मतलब है। हमारे बच्चों के भविष्य से तो जैसे कोई ताल्लुक़ ही न हो। सत्यमेव जयते के माध्यम से लोकप्रिय प्रवचन देने वाले आमिर खान से इसकी उम्मीद नहीं थी।
एक तरफ आमिर खान की फ़िल्म थ्री इडियट्स ने मासूम बच्चों के सामने नार्मल डिलेवरी की प्रक्रिया का सीधा प्रसारण कर डाला तो दूसरी तरफ अब फ़िल्म पीके में बार-बार डांसिंग कार का दृश्य दिखाकर हमारे बच्चों को सेक्स के बारे में और जानने की उत्कंठा बढ़ा दी। ज़रा सोचिए, ऐसे दृश्यों से उनके दिमाग में कितने रहस्य अपनी छाप छोड़ गए होंगे...? अब ये बालमन आगे क्या करेगा.. उनका जिज्ञासु मन किस प्रकार शांत होगा..?
(रचना त्रिपाठी)
Thanks for sharing your views on PL.
ReplyDeletePK*
ReplyDeleteइस टिपण्णी को प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक को पढ़कर प्रतिक्रिया देनी चाहए और फिल्मो के कथानक मर्यादाओ के अनुरूप रहे ऐसा दबाब भी बनाना चाहिए. बेबाक टिपण्णी के लिए बधाई. टिपण्णी बहुत लोगो की आंखे खोल सकती है यदि वे स्थित को समझाना चाहे.
ReplyDeleteबहुत कुछ अमर्यादित परोसा जा रहा है, कभी कभी तो असहनीय लगता है
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (16.01.2015) को "अजनबी देश" (चर्चा अंक-1860)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeletewhy parents show Bollywood movies to kids < 12 years of old ? They shouldn't
ReplyDeleteलगता है ये फिल्मवाले हमारी भारतीय संस्कृति का भट्टा बिठाकर ही दम लेंगे .....
ReplyDeleteगंभीर चिंतनशील प्रस्तुति...
सवाल और भी बहुत सारे उठते हैं। कार में सेक्स क्यों? इसके तमाम जबाब होंगे। हर जबाब में समाज की कोई न कोई सीवन उधड़ती दिखेगी।
ReplyDeleteअच्छा लिखा है।
चिंतनशील प्रस्तुति...
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