Monday, October 1, 2018

ईश्वर पुलिस को सद्बुद्धि दे

इस अर्थ-प्रधान युग में मनुष्य को अपनी गृहस्थी चलाने के लिए तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। व्यापारी दिन-रात काम करता है। किसान खेतों में पसीना बहाता है। मजदूर दिहाड़ी की तलाश में दर-दर भटकता है। विद्यार्थी भी रोजी-रोटी कमाने लायक बन जाय इसी लक्ष्य का पीछा करते हुए रात-रात भर जागकर पढ़ाई करता है। कुछ नराधम इसी रोटी के लिए छोटे-मोटे अपराध शुरू कर देते हैं और रुपयों की हबस का शिकार होकर अपराध की नयी-नयी राहें तलाशते रहते हैं। धनोपार्जन के लिए शुरू किया गया छोटा भ्रष्टाचार शीघ्र ही एक आदत में बदल जाता है जिसका बड़ा नुकसान वृहत्तर समाज को उठाना पड़ता है।

एक सामान्य नौकरीशुदा व्यक्ति अपना समय व श्रम और अपनी बौद्धिक व शारीरिक क्षमता अपने नियोक्ता की इच्छाओं के अधीन कर देता है ताकि महीने के अंत में उसे वेतन के रूप में कुछ रुपये मिल सके जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। उसके पास नौकरी से बचे हुए अत्यल्प समय और क्षीण ऊर्जा पर पत्नी व बच्चों से लेकर माता-पिता तक और इष्ट-मित्रों से लेकर तमाम रिश्तेदारों तक की आस लगी होती है। इसी समय में वह अपने लिए भी सुख तलाशता है। जीविका की जद्दोजहद में एक सामान्य नागरिक का सामाजिक जीवन छीजता जा रहा है। अपराधी और भ्रष्टाचारी मिलकर इस साधारण मनुष्य के जीवन को बेहद असुरक्षित और कठिन बनाते जा रहे है।

प्रदेश की राजधानी में नौकरी करने वाले विवेक को देर रात तक काम करना पड़ता था। ऐसी ही एक काली रात आयी जब रात में घर लौटने से पहले उसे अपनी एक सहकर्मी को सुरक्षित उसके घर तक छोड़ते हुए आना था। लेकिन वह घर नहीं आ सका। रास्ते में गश्त पर निकले एक सिरफिरे और उद्दंड सिपाही ने उसे रोका और पता नहीं क्यों उसके सिर में गोली मार दी। एक निहत्था कामकाजी अकारण मारा गया और एक साथ कई जिंदगियां बर्बाद हो गयीं।

प्रश्न उठता है कि पुलिस विभाग ने उस सिपाही को  कैसी ट्रेनिंग दी थी। आखिर शहर के एक समृद्ध इलाके की गश्त करने वाले उस रंगरूट से उच्चाधिकारियों ने क्या अपेक्षा की थी जिसे पूरा करने के लिए उसे एक निरीह नागरिक की हत्या करनी पड़ी? जहाँ असली अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं, रोज ब रोज हत्या, लूट, छिनैती व बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं, वहाँ पुलिस प्रशासन प्रभुवर्ग की सेवा में लगा हुआ उनकी और अपनी झोली भरने में व्यस्त है।

बड़ी भयावह स्थिति है। सुबह घर से निकलने वाला परिवार का कमाऊ सदस्य शाम तक सकुशल वापस आ जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। घर की बेटी बाहर निकलकर अपना काम करते हुए अपनी गरिमा बचाकर घर लौट आएगी इसकी कोई गारंटी नहीं। घर में, बैंक में या जेब में रखा पैसा अचानक लूट नहीं लिया जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं। देश के सभी नागरिकों के जान-माल की गारंटी देने वाला संविधान और इसी संविधान की शपथ लेकर शासन की बागडोर थामने वाले मंत्री और नौकरशाह इस गारंटी को नष्ट करने में लगे हुए है। न्यायालय भी लाचार हैं। ये अनेक गैर-जरूरी फैसले सुनाने में अपनी मेधा और समय खपा रहे हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति सुरक्षा और न्याय पाने के लिए कौन सा दरवाजा खटखटाने जाय?

मुझे तो लगता है कि सबकुछ भगवान भरोसे ही रह गया है। केवल ईश्वर ही है जो आर्त्त की प्रार्थना सुन सकता है। सभी अपनी श्रद्धा और विश्वास के अनुसार अपने-अपने भगवान, अल्लाह, वाहेगुरू, जीसस से प्रार्थना करेंगे कि वे हम अकिंचन प्राणियों के असुरक्षा बोध को कम करने के लिए तथा जीवन के प्रति सकारात्मक विश्वास बनाये रखने के लिए कोई चमत्कार करें। उन पुलिसकर्मियों को ऐसी सद्बुद्धि दें, उनके आचरण में ऐसा परिवर्तन कर दें कि उन्हें देखकर कोई शरीफ आदमी भयाक्रांत न हो, जान बचाकर भागने पर मजबूर न हो। उन्हें ऐसा कर्तव्यबोध करा दे कि कोई अपराधी उनसे दोस्ती गांठने और मेल-जोल बढ़ाकर अपराध की कमाई में हिस्सेदार बनाने की हिम्मत न करे।

ऐसी ही एक सामूहिक प्रार्थना का आयोजन हमारे मुहल्ले में किया गया है। सेक्टर-16 इंदिरानगर, लखनऊ के सांईंराम पार्क में शाम छः बजे सबलोग इकठ्ठा होकर ईश्वर से प्रार्थना करेंगे। सभी हाथों में मोमबत्तियां लेकर अपनी प्रार्थना के साथ मुंशीपुलिया पुलिस चौकी तक शांतिपूर्ण मार्च करेंगे और जलती हुई मोमबत्तियों को पुलिस चौकी के द्वार पर लगाएंगे ताकि ईश्वर की कृपा से उन पुलिसकर्मियों को कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हो सके। ताकि उनके भीतर की मानवता का उदय हो सके। ताकि राक्षसी प्रवृतियों का अस्त हो सके। ताकि भविष्य में फिर कोई विवेक अकारण बीच सड़क पर इनकी गोलियों से न मार दिया जाय।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, September 27, 2018

लचीला रे...

प्रोमोशन में आरक्षण संबंधित 2006 का फैसला बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ते हुए भारतीय संविधान की जय बोल दी। इससे हमें इस देश की न्याय व्यवस्था और अपनी सासू माँ की पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुपालन के लिए लागू अनुशासन कुछ एक जैसा प्रतीत होता है।

घर में पूजा-पाठ, तीज-त्यौहार और मांगलिक कार्यों के विधि-विधान को लेकर वो बहुत कठोर हैं। लेकिन यदि ऐसे कार्यक्रम में परिस्थिति वश किसी पद्धति को पूरा करने में कोई बाधा आ जाती है तो वे उसका दूसरा विकल्प जरूर खोज लेती हैं। इससे स्थापित नीति का उलंघन भी नहीं होता और उनका इकबाल भी कायम रहता है।

कर्मकांड कराने वाले पुरोहित तो इस लचीलेपन के फन में इतने माहिर होते हैं कि भारतीय संविधान भी शर्मा जाय। इष्ट देवता के लिए यजमान जो वस्त्र नहीं ला सके तो देवता को वस्त्र के रूप में रक्षा-सूत्र पहना देते हैं।

पूजन सामग्री भी गरीब यजमान के लिए कुछ तो अमीर के लिए कुछ और हो जाती है। भोले शंकर को खुश करने के लिए घृत, शहद, दही, शर्करा और दूध से अभिषेक करते हुए घण्टों मंत्रोच्चार किया जाता है तो गरीब का एक लोटा जल भी उसके भक्तिभाव को प्रकट कर देता है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 5, 2018

लोभ और भय के बीच बेवक्त ऊँघना

स्कूल की क्लास में तीसरी घंटी के बाद बड़े-बड़े तुर्रमखां पढ़ाकुओं की अकड़ भी ढीली पड़ जाती थी। गुरुजी चाहे जितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, और उनके वचनों से साक्षात् सरस्वती ही क्यों न प्रवाहित हो रही हों उस पीरियड में बहुत कस के उँघाई आती थी। दन्न-दन्न  प्रश्नों का हल दागते देख गुरुजी लोग प्रसन्न होकर अपने चहेते चेलों को अक्सर अपने ठीक सामने की बेंच पर बिठा लिए करते थे। इससे बैक बेंचर्स को मिलने वाली आड़ की सुविधा भी उन्हें नहीं मिल पाती थी।

उस पीरियड ने बड़े- बड़ों की पोल खोल कर रख दिया था। जबरदस्ती आँख फैलाये रहने के बावजूद नींद का झोंका सिर को धोबीपाट के कपडों की भांति उठा-उठा कर आगे-पीछे तो कभी अगल-बगल में बैठे सहपाठी के कंधे पर पटकता रहता। स्कूल के दौरान कई बार इस बेमुरौवत लफड़े में मैं भी फंस चुकी हूँ। लेकिन जो भी हो, यस सर, जी सर कहकर मैं अपनी पूरी जुगत लगा लेती थी उनको इस भ्रम में रखने के लिए कि 'गुरुजी, आप जो पढ़ा रहे हैं वो मेरे समझ में ख़ूब आ रहा है।'

ऐसा करना विद्यार्थी धर्म के विपरीत और नैतिकता के विरुद्ध होने से अपराधबोध को भी जन्म देता था। पर गुरुजी के विश्वास को बनाये रखने का लोभ और उसके साथ उनके बगल में रखी बेत की छड़ी जिसे गुरूजी दुखहरण कहा करते थे उसका भय इतना अधिक था कि हमारा ऐसा करना हमारी मजबूरी थी।

बचपन के उस अकिंचन अपराध के लिए क्षमायाचना सहित अपने सभी गुरुओं को शिक्षक-दिवस की ढेरों बधाई, हार्दिक शुभकामनाएं और सादर प्रणाम।

(रचना त्रिपाठी)

Sunday, July 29, 2018

खुद की सोचो

शांता, देखती हूँ, तुम दिनोदिन सूखती जा रही हो? ये बात सही है कि बच्चों का ख्याल तुम नहीं रखोगी तो कौन रखेगा! पर जरा सोचो, खाली पेट काम करते-करते बीमार पड़ गई तो क्या होगा? अभी जो तुम्हारे भीतर ऊर्जा संचित है वही तो दिन पर दिन खर्च हो रही है। लेकिन इसकी प्रतिपूर्ति कैसे होगी?

सुबह छः बजे घर से निकल लेती हो दोपहर के दो बजे तक सिर्फ चाय पी-पीकर अपना पेट लेसती रहती हो। ऐसे कबतक चलेगा?  ये रोज-रोज चाय के साथ की बिस्किट और ब्रेड घर लेकर चली जाती हो। कभी-कभार खुद भी तो खा लिया करो। तुम्हारी देह में जायेगा तो भी तुम्हारे बच्चों के काम आएगा...  तुम्हे कुछ देर और काम करने की शक्ति मिलेगी।

और उसका क्या? ... जबतक तुम्हारी हड्डी में दम है तभी तक तेरी राह ताकेगा... नहीं तो, ले आयेगा घर में दूसरी ब्याह कर।

(रचना त्रिपाठी)

Sunday, June 10, 2018

खुशफ़हम जिंदगी

उन्नीस साल बाद अपने ससुराल से जिस उपाधि की मुझे प्रतीक्षा थी आख़िरकार वह मिल गयी। यह जानकर कि 'मैं बिल्कुल अपनी सास जैसी हो गयी हूँ' एक ऐतिहासिक सफलता मेरे हाथ लगी है।
दिल बाग-बाग हो गया, खुशी के मारे आँखें छलक आईं। ये बात अलग है कि लोग मेरे रुआँसे चेहरे से मेरी भीतरी खुशी को आँक नहीं पाये और हैरान होकर मुझे चुप कराने लगे। सच कहूँ, तो उन्हें क्या पता! यह मेरी वर्षों की लगन और कड़ी मेहनत की कमाई है।

एक राज की बात और बता दूँ, शायद सासू-माँ सुनती तो उन्हें नागवार गुजरता इसलिए मेरे मिस्टर ने मेरे कानों में चुपके से बताया कि– "वैसे तो तुम अपनी सास से कई गुना आगे हो पर मैं इस बात का खुलासा नहीं कर सकता, अम्मा सुनेगी तो बुरा मान जाएगी।" बात सही भी है, अबतक उनसे आगे निकल जाने की बात घर में किसी ने भी सोचा न होगा। उनके जीते-जी फिर मैं भला कैसे इसे जाहिर कर सकती हूँ! इसलिए यह बात सिर्फ मेरे और इनके बीच छिपी हुई है।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, March 19, 2018

आत्ममुग्धो भव...!

कुछ लोग अपने काम और नाम की बातों को प्रस्तुत करने में इतने माहिर होते हैं कि उन्हें कभी भरोसा ही नहीं होता कि उनसे बेहतर कोई दूसरा भी यह काम कर सकता है। इस मामले में कुछ महान आत्माएं इतनी स्वावलंबी होती हैं कि दूसरों को करने के लिए कुछ भी नहीं छोड़ना चाहतीं। अपनी प्रशंसा के लिए दूसरों का मुँह ताकना उन्हें नहीं भाता। अपने काम को ठीक से करने का शऊर हो न हो, आत्मविश्वास भले ही डगमगाता रहे लेकिन सबके सामने अपने करतब का बखान करने के लिए उनमें आत्मनिर्भरता कूट-कूट कर भरी रहती है। सामने वाले का क्या भरोसा? क्या पता कोई चूक कर दे, कुछ गुणों पर जोर देने में कंजूसी कर दे। जब उन महान गुणों के प्रथम पारखी वे स्वयं हैं तो उनसे बेहतर उनका गुणगान कोई और कैसे कर सकता है? इसे आप स्वावलम्बन अथवा आत्मनिर्भरता की आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं। अब किसी भी आदर्श को हासिल करना कोई मजाक नहीं है। इसके लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। अपने लिए चुन-चुनकर नायाब शब्दों को संजोए रखना और मौके बे मौके झोंकते रहना पड़ता है। यह सबके वश की बात थोड़ी न है।
आत्ममुग्धता की इस पराकाष्ठा को हासिल करने में सफल होने वाले कुछ ही काबिल लोग हैं। जी तो करता है इनके बीच एक प्रतियोगिता करा दी जाय और इसके विजेता को राष्ट्रीय पुरस्कार भेंट किया जाय। अलबत्ता इस प्रतियोगिता से देश के कुछ सर्वोच्च नेताओं को दूर रखना पड़ेगा नहीं तो रिजल्ट पहले ही आउट हो जाएगा। अपने आपको तालियों की गड़गड़ाहट और विक्ट्री साइन का सबसे बड़ा हकदार बताने की कला में कम लोग ही निष्णात होते हैं। कहीं ये कलाकार विलुप्त न हो जाय इसलिए इनके संरक्षण और संवर्द्धन की कोशिश की जानी चाहिए। हम जैसे साधारण लोग जो इनके आगे मूक बने रहते हैं, इनके बिना क्या कर पायेंगे? कहीं इनके बिना हमारा जीवन सूनेपन का शिकार न हो जाय। इसलिए ऐसी दक्ष प्रजाति को बढ़ावा देते रहने की बड़ी जरूरत है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, February 21, 2018

जादुई मसाला

मां का दिया हुआ यह कजरौटा हर साल दीपावली में सेंके गये काजल से लोड होता है। अपना काम तो सालों-साल इससे ही चल जाता है। लेकिन बगल में खड़ी इस ढाई इंच की काले-जादू की डिबिया को देखिए। इसने अपनी काली लकीर से सजी कनखियों की लहर से जो कमाल दिखाया है उससे सारा देश ही ऊपर-नीचे हो गया है। कजरारे नैनों के तीर से सारा देश घायल है। दिल फेंक नौजवानों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक और संस्कारी लड़कों से लेकर मुल्ला-पंडित तक सभी अपनी-अपनी चोट सहला रहे हैं।

यह जादुई मसाला इस पात्र के जिस हिस्से में रखा है वह तो सिर्फ अंगुल भर का है, बाकी लंबा हिस्सा तो इस नटखट के लटके-झटके जैसा है। वह कल्लू इस पात्र की तलहटी में बैठा पड़ा है जिसको आकर्षक आवरण से छिपाकर बाजार में इसकी ऊंची कीमत लगा दी गयी है। ऊंची कीमत पर बिकने या दूसरों के आगे चमकने के लिए श्रृंगार तो कोई भी करता है। फिर काजल की डिबिया भी क्यों नहीं? उसपर यह किसी फेमस ब्रांड का दुशाला ओढ़ ले तो क्या पूछना– चार-चाँद ही लग जाते हैं। लेकिन इस बेचारी के करम फूटे कि मेरे हाथ लग गयी। मैं इसका समय रहते वैसा इस्तेमाल नहीं कर पायी, न ही किसी और को टिका पायी। अब यह प्रयोग के अभाव में या यूँ कहूँ कि बिना किसी की आँखों के साथ नैन-मटक्का किये ही, वैनिटी बॉक्स में पड़े-पड़े काल-कवलित हो गयी है। मतलब एक्सपायर डेट को प्राप्त हो गयी है।

एक गृहिणी-सुलभ जतन करने की आदत जो न करा दे। सोचा अब कूड़े में फेंके जाने से पहले सोशल-मीडिया पर इसे भी थोड़ा सम्मान मिल जाये तो क्या बुरा है? आखिर जिसने किसी की आँखों में बस कर  रातों-रात लाखों लोगों को उसका दीवाना बना दिया हो, बिना किसी औषधि के जाने कितनों के मोतियाबिंद छू-मंतर कर दिये हों और कितनों के सामने दिन में ही रात का मंजर खड़ा कर दिया हो उसे ऐसे कैसे फेंक दिया जाय। इसपर लाइक्स तो बनती हैं।

ऐसे में उस पुरानी कहावत को तोड़-मरोड़कर कहूँ तो _"काजल की डिबिया को ऐसे क्यूँ छोड़ा जाय, एक 'लाइक' काजल पर लागिहै ही लागिहै।"_

Tuesday, February 13, 2018

अवबोधन

बसन्त ऋतु में प्रीति को अपना नया-नवेला साजन मिला था। उसके चारों ओर एक खुशबू की बयार सी बह रही थी। लेकिन जल्दी ही उसको अपने छोटे भाई की शादी के लिए अपने प्रीतम का घर छोड़ मायके आना पड़ा था। उधर उसके प्रीतम को भी अपनी बाकी कि ट्रेनिंग पूरी करने अकादमी जाना पड़ा। अब कोई छुट्टी नहीं मिलने वाली थी।

प्रथम मिलन के बाद इतनी जल्दी अलग हो जाने पर वे पति-पत्नी से अधिक प्रेमी-युगल की तरह एक दूसरे को मिस कर रहे थे। एक के बाद एक 'हग-डे' और 'रोज़ डे' जैसे सुनहरे दिन हाथ मलते निकल गये। उनकी प्यास व्हाट्सएप और फेसबुक से मिटने वाली नहीं थी। प्रीति के गाँव से मोबाइल का टॉवर भी दूर था। प्रीतम का मन अपनी हिरोइन के बिना बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। उसकी बेचैनी तब और बढ़ गयी जब ट्रेनिंग के आखिरी दिन उसके सामने 'वेलेंटाइन डे' आकर खड़ा हो गया। दिन तो जैसे-तैसे बीता लेकिन शाम... ये तो जैसे मारे ही डाल रही थी। प्रीतम ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और सुर्ख लाल गुलाबों का बड़ा सा बुके लेकर पचास मील दूर ससुराल की ओर चल पड़ा। 

शादी में आये सभी मेहमान अभी वापस गये नहीं थे। मायके की इस चहल-पहल में भी प्रीति गुमसुम सी ही थी। घर के बच्चे दिनभर चहकने के बाद अब सोने की तैयारी कर रहे थे। घर की औरतें सबसे अंत में खाना खाने के बाद अब सोने से पहले की हँसी-ठिठोली में लग गयी थीं। प्रीति अपनी बुआ, मौसी, दीदी, भाभी, दादी, आदि कई पीढ़ियों की औरतों और चचेरे-फुफेरे-मौसेरे भाइयों व बहनों के बीच बैठकर भी वहाँ नहीं थी। वह अपने हाथों की मेंहदी निहारे जा रही थी। तभी घर के बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा। उसकी कर्कश ध्वनि से बच्चे कुनमुना कर उठे और करवट बदलकर सो गये। औरतों की सभा विसर्जित हो गयी, लेकिन इतनी रात को दरवाजा खोलने के लिए किसी पुरुष को आगे जाना था जो सभी प्रायः सो चुके थे। 

प्रीति के पापा बिस्तर से उठ बैठे। सोचने लगे - अब इतनी रात को कौन धमक पड़ा? मम्मी को चिंता हुई कि बेचारी बड़ी बहू तो अभी-अभी किचेन के काम से फुरसत पाकर सोने चली है। उसे फिर परेशान होना पड़ेगा। बड़े भाई की गहरी नींद में खलल पड़ा। लेकिन उठना तो उसे ही था। उसने आँखे मली, दूसरी ओर निढाल पड़ी पत्नी की ओर देखा और बिस्तर के नीचे फर्श पर पड़ी चप्पल को टटोलकर पैर में डालने लगा। उसकी उनींदी आँखों में न कोई कौतूहल था और न ही मन में कोई विचार। लेकिन प्रीति के नथुने फड़क उठे। असली गुलाब की महक उसे दरवाजे की ओर झाँकने को प्रेरित करने लगी। लेकिन वह आश्वस्त हो लेना चाहती थी। भैया इतनी देर क्यों कर रहे हैं...! वह उद्विग्न हो उठी। उससे रहा नहीं गया। वह बाहर जाने वाले गलियारे की ओर बढ़ी तबतक उसके भाई ने दरवाजा खोल दिया था। सामने उसका प्रीतम हाथों में गुलाबों से सजी डलिया लेकर खड़ा था। वह मुग्ध होकर उससे लिपट पड़ी। 

प्रीति का बड़ा भाई कुछ दूर अवाक् खड़ा अपनी बहन की ख़ुशी पर खुश हो रहा था। पापा भी तबतक अपना चश्मा पोंछकर आँखों पर लगाते हुए ड्योढ़ी पर आकर खड़े हो चुके थे। बेटी और जमाई के बीच फूलों की खुशबू बिखरने का यह मंजर देखकर यकबयक उनकी आँखों में चमक आ गयी। उनके लॉन में भी खूब रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे जिसे इस दिन भी किसी ने हाथ नहीं लगाया था। उन्हें सहसा किसी का ध्यान आया। उन्होंने लॉन में लगी गुलाब की झाड़ियों में से एक सुर्ख लाल गुलाब तोड़ा और अपने बड़े बेटे के हाथ में पकड़ाते हुए बोले- 'आज वेलेंटाइन डे है... इसे बहू को दे आओ, उसे भी अच्छा लगेगा... घर के कामों के आगे उसे अपनी सुध ही नहीं रहती।' 

(रचना त्रिपाठी)