Saturday, April 25, 2020

आ अब लौट चलें

लॉक डाउन में इस बात से मध्यमवर्ग भली-भाँति परिचित हो गया होगा कि जिंदगी, जिसको हमने बहुत कठिन बना रखा था वह कितनी आसान है। कम से कम सुविधाओं में जितना अच्छा हो सकता है वो सब हो रहा है। पहले की अपेक्षा कहीं से किसी के वजन में कोई घटोत्तरी नहीं आयी है। बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा ही गुजर रहा है।

लॉकडाउन से पूर्व महीने में घर-गृहस्थी पर जितने खर्चे हो रहे थे अब उसके आधे हो गए हैं। बच्चों ने कोरोना के भय से पिज्जा-बर्गर और दूसरे ऊल-जुलूल खाद्य पदार्थों से काफी दूरी बना ली है। अब सबको समझ में आ गया होगा कि अपनी रसोई में बने देसी पकवान में जितना खर्च नहीं होता है उससे कहीं ज्यादा खर्च भूसा जैसे-पिज्जा-बर्गर, पेस्ट्री, केक, कोल्ड ड्रिंक इत्यादि खाने-खिलाने पर होता है। मेरे बच्चों ने राय दी कि इस दौरान घर के खर्चे में जितना अंतर आया है उस बचत को सरकार के आपदा राहत कोष में जमा कर दिया जाय।

अब न तो मंदिर न जाने का कोई मलाल है और न ही मॉल नहीं खुलने से खान-पान, रहन-सहन में कोई कमी आयी है। भरा-पूरा घर-परिवार अपने-आप ही एक बहुत बड़ा मंदिर है। यह भी बोध हो गया कि सबका स्वास्थ्य, खान-पान, रहन-सहन और प्रेम-सौहार्द बना रहे तो यही सबसे बड़ी पूजा है। 

रसोई में चूल्हे की आंच से किस्म-किस्म के व्यंजन के स्वाद आपसी संबंधो में जो गर्माहट लाते हैं वही सबसे बड़ा तीर्थलाभ है। अफसोस कि आधुनिक पीढ़ी ने इस सहज सुलभ आनंद को पीछे धकेल कर भौतिक उपासना में अपना रात-दिन नष्ट कर दिया था। 

घर में जितने सदस्य नहीं होते हैं उससे ज्यादा कपड़े और जूतों की आलमारियां होती हैं। उनके भार से अलमारी फट कर कब बाहर आएगी कुछ कहा नहीं जा सकता। कोरोना के लॉक डाउन ने ऐसा मारा कि बाहर निकलने वालों का अब चोला ही बदल दिया। सब कुछ धरा का धरा रह गया है।

मनुष्य द्वारा अपनी सीमाओं का ऐसा अतिक्रमण हुआ कि शायद प्रकृति ने कुपित होकर हस्तक्षेप कर दिया। शायद इसी के कारण नौबत यह आ गई है कि बहुत से धंधे बन्द हो जाने वाले हैं। जैसे मास्क ने लिपस्टिक पर बहुत बड़ा कुठाराघात किया है। जिससे स्त्रियों का साज-श्रृंगार अब किसी पार्टी की रौनक का मोहताज हो गया है। अब तो केवल रोज सुबह स्नान-ध्यान के बाद "सजना है मुझे सजना के लिए" का गीत ही गा सकती हैं। वो भी इस बात का ख्याल रखते हुए कि जैसे सौदागर फ़िल्म में इस गीत का हश्र हुआ वैसा यहाँ न हो जाय। देख लें कि उस मुए गुड़ जैसी कोई चीज चूल्हे पर जल तो नहीं रही। क्या पता कहीं श्रृंगार रस असावधानी वश अचानक वीभत्स रस में न परिवर्तित हो जाय। 

इसलिए अब यह संदेश सुनने का समय आ गया है कि अबसे प्रकृति की ओर लौट जाने में ही सबकी भलाई है।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, April 20, 2020

लॉकडाउन में अच्छे हैं

लॉकडाउन से पूर्व सुबह-सुबह किचेन में घुसने पर पूरा सिंक जूठे बर्तन से भरा मिलता था। कामवाली के इंतजार में किसी तरह एक कप चाय बनाकर धीरे-धीरे अखबार की खबरों को उसकी चुस्कियों में घोंटते उसपर अपना मंथन तबतक चलता था जबतक कामवाली काम कर के घर से चली न जाय।

महीने भर से कामवाली की छुट्टी चल रही है। अपनी आदत कुछ ऐसी पड़ गई है- सुबह सो के उठो तो अभी आधी नींद में ही झाड़ू कब हाथ में आ जाता है पता नहीं लगता। कभी-कभी भ्रम होता है कि हमने झाड़ू को उठाया या झाड़ू ने हमें। एक-दूसरे की इज्जत रखते हुए सारे कमरे में झाड़ू लग जाता है। बुहारन के नाम पर चिटकी भर धूल निकलती है। उसे ठिकाने लगा देना होता है। 

महीने भर से किसी का बाहर से बहुत आना-जाना नहीं हो रहा तो एकाध-दिन झाड़ू न भी लगाओ तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है। ऐसा कई बार ख्याल आया भी कि आज झाड़ू रहने देती हूँ कि तभी सासू माँ की बात याद आ जाती है- कि घर में झाड़ू प्रतिदिन दिन उगने (सूर्योदय) से पूर्व लग जाना चाहिए। लक्ष्मीजी खुश रहती हैं। लब्बोलुआब ये कि सूर्योदय से पहले बहुरिया को बिस्तर छोड़ देना है!

वैसे सुबह उठने की आदत बहुत अच्छी होती है। बहुत सारा काम जल्दी निपट जाता है। किचेन में किसी भी वक्त अब सिंक में जूठा बर्तन नहीं रहता है। एक-एक कर के उसे तुरंत निकाल लिया जाता है। कुछ भी करने के बाद साबुन से हाथों की रगड़ाई में हाथ फँसा रहता है तो कभी-कभी चूल्हे की नॉब ऐंठने में देरी हो जाती है और देखते ही देखते दूध उबल कर पूरे स्लैब पर पसर जाता है। इससे काम और बढ़ जाता है। इधर सुबह, दोपहर, शाम  बर्तन साफ करते-करते हथेलियां इतनी रूखी हो गईं हैं जैसे- खरहरा। 

उपमा समझ में न आई हो तो बता दें कि अरहर के ठठ्ठर से बने लम्बे झाड़ू को हमारे यहाँ खरहरा कहते हैं। इससे हमारे गांव में दरवाजे पर बंधे गाय-गोरु का घोठ्ठा और खेत-खलिहान बुहारा जाता है। 

घर के बाकी सदस्यों का व्यवहार तो गज़ब के सुखद परिवर्तन के दर्शन करा रहा है। पहले प्रायः सभी गृहकार्य गृहिणी के हिस्से में रहते थे लेकिन अब झाड़ू, पोंछा,बर्तन, कपड़ा धुलाई, सब्जी काटना, आटा गूंथना, बिस्तर ठीक करना, कूड़ा फेंकना आदि सभी कार्यों का बंटवारा सहर्ष हो गया है। घर में बेहतर साफ सफाई के साथ हंसी-खुशी का महौल भी बेहतर हो गया है। यह सामाजिक दूरी के समय पारिवारिक सामीप्य का अद्भुत अनुभव है।

रात में जबतक बिस्तर पकड़ न लो शरीर से हाथों का सम्पर्क कोरोना के भय से लगभग टूटा रहता है। मतलब मेरी हथेलियां भी शरीर से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख्याल रखती हैं। हथेलियों की घिसाई के बाद इसपर सेनेटाइजर और बॉडी-लोशन का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है। घर छोटा है तो काम आसान लगता है। कुछ भी हो, इस लॉकडाउन में देसी पकवान और धूप-अगरबत्ती के मिश्रण से घर की खुशबू बड़ी अच्छी लगती है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, April 15, 2020

विनाशकाले विपरीत बुद्धि

कोरोना की महामारी में देश शाहीनबाग से उबरकर तब्लीगी मरकज़ में उलझा ही था कि अब बांद्रा स्टेशन पर जाकर फंस गया। यहाँ हजारों की संख्या में गुमराह मजदूर अपने घर जाने के जोश में भूल गए हैं कि जहाँ जाएंगे वहाँ जाकर उन्हें क्या हासिल होगा। साथ में अपने परिवार को भी कितनी बड़ी मुसीबत में डालने वाले हैं। जोश में होश गवां बैठे ये बेचारे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके खैरख्वाह उन्हें घर नहीं बल्कि सपरिवार उन्हें श्मशान भेजने की साजिश में लगे हैं। 

इन्हें नहीं मालूम कि इस लॉकडाउन के सहारे उनको तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी हैं। इसके लिए उन्हें इन मूर्खों की जमात से बेहतर शिकार नहीं मिलेगा। अगर वे वास्तव में इनके सच्चे खैरख्वाह होते तो इस आपात स्थिति में इन मजदूरों को घर पहुंचाने की बात कर के गुमराह नहीं करते। यह समझने की जरूरत है कि वे सिर्फ उनके साथ ही नहीं बल्कि सवा सौ करोड़ जनता के साथ भी बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर वे कहते कि जो जहाँ फंसा है वही रहे, उसके रहने खाने की व्यवस्था अगर सरकार नहीं कर पा रही है तो वे खुद करेंगे; तब उनकी दिलदारी समझ में आती। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। 

मजबूरी वश ही सही यहाँ इकठ्ठी भीड़ के लोग मजदूर हैं या किसी शातिर हाथ के खिलौने मात्र? ऐसा नहीं है तो, उनको घर पहुँचाने का ठेका लेने के बजाय वे सरकार से उनके रहने खाने की व्यवस्था की लड़ाई क्यों नहीं लड़ रहे? जो जहां है वहीं पर उनकी व्यवस्था कराने की बात क्यों नहीं की जा रही है? हे नियति के शिकार प्रवासियों, कम से कम अपनी नहीं तो अपने परिवार की चिंता करिये और अभी जो जहां है वहीं रहे, इसी में सबकी भलाई समझिए।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, April 6, 2020

पुकार में दम है।

मोदीजी, आप ने देख ही लिया कि देश की जनता आपकी पुकार पर कुछ भी करने को तैयार है। इसलिए आप सावधान हो जाइए। 
जनता तो ठहरी भोली-भाली! आप जितना करने को कहेंगे हमेशा उससे चार कदम आगे ही कर के धर देगी। बारह-तेरह दिन हो गए लॉक-डाउन हुए - इस दौरान घर बैठकर इसने जितना खाया है उतना कहीं खर्च नहीं हुआ है। सारी ऊर्जा इकठ्ठा होकर कसमसा रही है। कल आपने एक-एक दीपक, मोमबत्ती या टॉर्च जलाने को कहा था और लोगों ने पूरा आकाश ही रौशन कर दिया। गगनचुम्बी आतिशबाजी की चकाचौंध देर तक इनकी बढ़ी हुई ऊर्जा का प्रदर्शन करती रही। इससे पहले आपने कहा था कि घर के खिड़की, दरवाजे या बालकनी से ही ताली-थाली बजायी जाय। लेकिन उत्साही जनता ने घंटा-घड़ियाल, ढोल-मजीरा, तुरही-भोंपू और शंख-पिपिहरी बजाते हुए पूरा जुलूस ही निकाल दिया।

ऐसे में मेरा आपसे एक अनुरोध है। आपको अपनी प्रजा से कुछ भी करवाना हो तो उससे थोड़ा कम करके बताइए। तभी बात बनेगी। आप कहेंगे मेरे प्यारे देशवासियो! योग करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है, आज आप सावधान की मुद्रा में खड़े रहिये तो जनता शीर्षासन करने लगेगी। कहीं आपने उसे गलती से शीर्षासन करने को कह दिया तो वे पूरा आसमान अपने सिर पर उठा लेगी। आप अब जान ही लीजिए। इस समय जनता हनुमान जी की तरह संजीवनी की तलाश में पूरा पहाड़ उखाड़कर अपने सिर पर उठा लेने को तैयार बैठी है। बाकी आपको क्या बताना! समझदार तो गजब के हैं। अद्भुत टाइप।

सोचा इतना कह दें, वैसे तुम्हरी लीला तुमही जानों। 🙏
(रचना त्रिपाठी)