Wednesday, April 30, 2014

क्या होगा पॉलिटिक्स का..?

आज जाके हमें यह बात समझ में आ रही है कि सभी दल ‘वादे’ की बात क्यों करते हैं..? असल में वे सभी ‘वादे’ के मतलब को सिद्ध करने पर तुले हुए है- वादा तो टूट जाता है! उसके बाद पुन: शुरु होती है- क्या..? पॉलिटिक्स। इस देश में आज के दौर के नेताओं का यही मानना है कि अगर देश में पॉलिटिक्स को जिंदा रखना हैं तो सिर्फ ‘वादे’ करते रहो। अगर ये ऐसे ही झूठे वादे करते रहे तो इनकी गोटी चम रहेगी, और देश का बंटाधार।

प्यार में, फिल्म हो या राजनीति अगर वादा टूटेगा नहीं तो कहानी में ट्‍विस्ट कैसे आएगा..! कहीं ऐसा न हो कि मोदी के आने के बाद अगर देश विकास के रास्ते चल पड़ा तो क्या होगा पॉलिटिक्स का..? फिर तो इसकी लुटिया डूबी समझिए! देश का उत्थान तो तभी संभव है जब धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर और सम्प्रदाय के नाम पर सियासत छोड़ कर सिर्फ विकास के नाम पर की जाय। लेकिन अगर वास्तव में ऐसा ही हुआ तो क्या होगा बाकी दलों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का; उनकी उड़ान का जहां विदेशों से देश चलाने की कोचिंग ली जाती है। जहां से ये अपनी सफलता , ईमानदारी और प्रभावशाली होने के सर्टिफिकेट्स लाते हैं।

देश में मोदी की भूमिका कुछ इसी तरह की बनायी जा रही है जैसे वास्तव में अब विकास के लिए यज्ञ शुरु हो गया हो.. नमो-नमो की जाप के बाद बाकी सभी दल ‘स्वाहा’ होने जा रहे हों। ऐसे में क्या अन्य राजनैतिक दल इस यज्ञ को सफल होने देंगे..? हमें तो नहीं लगता।

सुना है भ्रष्टाचार ने भी देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रखा है। क्योंकि मोदीजी आ रहे हैं। अगर भ्रष्टाचार वाकई समाप्त हो गया फिर तो सियासी चालबाजों की चलुवई धरी की धरी रह जाएगी। अभी-अभी पैदा हुए सियासी दल, जो भ्रष्टाचार के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं उनके पराभव की तो उलटी गिनती शुरु हो गयी है। ऐसे में क्या आप लोगों को लगता है कि देश विकास के रास्ते पर चल पाएगा? अभी जाने कितने छुटभैये लोमड़ी की तरह नजर गड़ाए इस फिराक में लगे हैं कि विकास में लगातार गिरावट बनी रहे ताकि राजनीति में ये भी अपनी किस्मत चमका सकें। इसलिए आजकल सब अपना-अपना ‘लक’ पहन कर चल रहे हैं।

(रचना त्रिपाठी)

सोलहवें की बात ही कुछ और है …

अपना देश आजकल सोलहवीं लोकसभा चुन रहा है। चारो ओर जबरदस्त उत्साह, जोश, और उन्माद सा छाया हुआ है। कुछ वैसा ही माहौल जैसा सोलह की उम्र हमारे जीवन में लेकर आती है। ऐसा लगता है सोलहवीं लोकसभा के निर्माण में भारतीय लोकतंत्र की जवानी भी इस समय अपने उरोज पर है। वोटर्स में एक उन्माद, एक ऐसी उर्जा का प्रवाह देखने को मिल रहा है जैसे वे अपने यौवन की दहलीज पर खड़े हों। परिवर्तन तो लाजमी है! अब मानो लोकतंत्र कह रहा हो कि ‘छोटा बच्चा जान के हमको ना बहलाना रे..डुवी-डुवी डम-डम’। ऐसे में बस, इन्हें अपने प्रतिनीधि के चयन के लिए जोश में होश बनाए रखने की जरूरत है।

अब हमारे नेतागण यह जान ले कि इनकी घटिया नीति से लोकतंत्र को सिर्फ एक प्याला ‘पॉलिटिक्स’ पिलाकर और एक थाली राजनीति खिलाकर नशे में धकेलते हुए अपनी दाल गलाने की मंशा सफल नहीं होने वाली है। अब नादान नहीं रहा हमारा गणतंत्र। इसकी भी आँखे खुल गई हैं। इस लोकतंत्र को एक सच्चे ‘नायक’ की तलाश है जिसे वह पूरा करने की हर संभव कोशिश कर रहा है ताकि इसकी बागडोर ऐसे हाथों सौपी जा सके जो सही मायने में इस देश में लोकतंत्र स्थापित कर सकने का भरोसा दिलायें।

देश की आधी से अधिक जनता पानी, बिजली, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, अशिक्षा, गरीबी के संकट से जूझ रही है। ऐसे में अगर हमारे जनप्रतिनिधि ‘लकुसी’ से पानी पिलायें तो यह उनकी भूल होगी। उन्हें भ्रांति फैलाने की कोशिश कत्तई नहीं करनी चाहिए। इस समय लोकतंत्र में जो क्रान्ति की लहर चल रही है अब वह अपने उफान पर है। जिससे लोकशाही में बहुत बड़ा उठा-पटक होने वाला है।

अब भलाई इसी में है कि लोकतंत्र पर्व के इस सोलहवें चरण में हमारे जनप्रतिनीधि भी कंधे से कंधा मिलाकर चलें, और इसके उज्ज्वल चेहरे में चार-चांद लगाने की कोशिश करें। तब तो इनकी बची-खुची प्रतिष्ठा भी बनीं रहेगी और ये मैदान में मुंह दिखाने लायक रहेंगे; नहीं तो यही समय है जब वे अपना झोला-डंडा उठा लें और चलते बनें। क्योंकि अब नया नारा है- लोकतंत्र की जवानी जिन्दाबाद..!

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, April 23, 2014

सत्ता का स्वयंवर

मेरे घर के सामने वाले पार्क की चार दीवारी जिसपर बर्षो से ‘काई’ जमीं पड़ी थी, एक दिन मैने उसकी रंगाई-पुताई के बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि पिछले पांच साल पहले भी इसकी पुताई हुई थी। आज दीवार फिर से चमचमा उठी है। उसके अंदर गिने-चुने पेड़-पौधे जिसकी कटाई-छ्टाई हुए बर्षों बीत गए थे। वह भी आज अपनी हजामत बनवाकर चकाचक हो गये हैं। पार्क से सटे सड़क जिसकी छ: महीने पहले ही मरम्मत हुई थी, पर  कूड़े का अंबार लगा रहता था। जिसपर आते-जाते यात्री मूत्र-विसर्जन भी किया करते थे। इधर  से गुजरते समय सहसा मेरी उंगलियां नाक पकड़ लिया करती थी। उफ! कितनी घुटन होती थी कल-तक यहां। आज वह भी नदारद है। सोच रही थी अचानक आज ऐसा क्या हो गया जिससे हमारे मोहल्ले की रौनक ही बदल गई।

अपने चारों तरफ नजर दौड़ाया तो पता चला कि सिर्फ यही नहीं, हमारे पीछे  वाले पार्क का हुलिया भी बदल गया है। शहर की सभी टूटी-फूटी सड़के एवं पार्को की मरम्मत हो रहीं है।  मुझे ये बात कुछ हजम नहीं हो रही थी। अचानक याद आया कि ‘सत्ता देवी’ का ‘स्वयंवर’ जो रचने वाला है..! कितनी चंचला है ये! हर पांच साल पर तलाक ले लेती हैं और पुनर्विवाह के लिए तैयार हो जाती हैं। उन्हीं की रश्म की तैयारियां शुरु हो गई हैं। हमें तो अभी से ढोल-नगाड़े और शहनाई की धुन भी सुनायी पड़ने लगी हैं। लगता है मेरे अपने ही कान बजने लगे हैं..! अभी तो स्वयंवर में कुछ दिन और बाकी है। बहुत उत्सुकता है मुझे, यह जानने के लिए कि सत्ता देवी किसके गले में ‘जयमाला’ डालेंगी..? आखिर कौन है वह भाग्यशाली जिसको पांच साल के लिए फिर से वरण करने जा रहीं है..?

पंडितों की भी बहार आयी है। बड़े-बड़े दिग्गजों के घर में  ज्योतिषाचार्य आजकल  ‘कंचन’ चर रहे हैं जो इस स्वयंवर के प्रत्याशी हैं। ये दिग्गज अपनी-अपनी कुण्डली दिखा रहे हैं सत्ता रानी के चाह में। बिना मुहूरत दिखाए और पूजा-पाठ किए कोई काम ही नहीं करते। हर विधा वे उन्हें पाना चाहते हैं।  हाल कुछ ऐसा ही है- एक अनार सौ बीमार!

गांव में महिलाएं भी इस उत्सव पर साज-श्रृंगार करके समूह में गीत  गाते हुए सत्ता देवी के ‘दुल्हे’ के चुनाव में अपना-अपना मत देने जाती हैं। वे इस अवसर पर एक खास किस्म का गीत भी गाती है- ‘चल सखी वोट देवे..फुलवा/पंजा निशानी।’ निर्भर करता है कि महिलाएं किस पार्टी की ‘दुल्हे’ के पक्ष में हैं, पंजा अथवा फूल या कोई अन्य पार्टी। देखना यह है कि इनके विवाह की हल्दी किसको लगती है.. और यह किसके गले ‘हार’ पहनाती हैं..?

(रचना त्रिपाठी)

Monday, April 21, 2014

अज्ञानता का कहर

मेरी एक क्लोज फ्रेंड का सुबह-सुबह फोन आया- “हेलो, मैने  बहुत जरूरी काम के लिए तुम्हें फोन किया है।”

“कहो! क्या बात है?’’

‘‘मेरे एक बड़े ही घनिष्ट अपनी लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं। तुम्हारी नजर में कोई अच्छे घर-खानदान का लड़का हो तो मुझे बताना। बहुत परेशान हैं बेचारे!’’

मैने पूछा- “कैसा लड़का चाहिए, सरकारी नौकरी या प्राइबेट.. लड़की क्या करती है और उसका क्वालिफिकेशन क्या है..? यह पता चल जाय तो उसके अनुरूप लड़का ढ़ूढ़ने में आसानी होगी।’’

उसने कहा- ‘‘बहुत बुरा हुआ उसके साथ; वह तलाक-शुदा है। शादी के सिर्फ चार महीने बाद ही उसका तलाक हो गया।’’

‘‘अरे! ऐसा क्यों हुआ?’’

हिचकते हुए उसने कहा-‘‘उसका पति उसके ऊपर थूक दिया करता था।’’

‘‘लड़के की पसंद से यह शादी नहीं हुई थी क्या?’’

‘‘लड़का-लड़की दोनों को यह रिश्ता मंजूर था।’’

“तब ऐसा क्यों करता था..?”

फिर उसने मुझे पूरी बात बतायी- ससुराल जाने के बाद वह पहले महीने में ही गर्भवती हो गई। वहाँ उसका पीरियड नहीं हुआ। उसके पति को ऐसा संदेह हो गया कि शायद होने वाले बच्चे का पिता वह नहीं कोई और है। वह अपनी पत्नी से घृणा करने लगा। इतनी कि वह बात-बात पर उसके ऊपर थूक दिया करता था। पहले तो निर्दोष लड़की ने उसे समझाने की कोशिश की लेकिन जब मामाला बर्दाश्त के बाहर हो गया तो उसने तलाक लेने का निर्णय ले लिया। उसके बाद उसने अपना एबॉर्शन भी करा लिया। तबसे लेकर आजतक वह मायके में ही है।”

“क्या करती है..?”

“गवरन्मेंट टीचर है!” मैने कहा-“अच्छा!  इसीलिए वह अपने जीवन का इतना बड़ा फैसला स्वयं ले सकी! नहीं तो, जाने कितनी जिल्लत सहनी पड़ती उसको अपनी ससुराल में। शायद इसलिए कहते है कि लड़कियों का स्वावलम्बी होना बहुत जरूरी है! ऐसी जाने कितनी लड़कियां ससुराल में आज भी उपेक्षा की शिकार होती होंगी, जिसमें उनका कोई कसूर नहीं हैं। आज के जमाने में भी लड़को के अंदर कितनी अज्ञानता है.. क्या लड़कियों को ससुराल भेजने से पहले नान-प्रिगनेंसी का मेडिकल सर्टीफिकेट भी देना पड़ेगा..? हद हो गई!”

अज्ञानता का कहरयह अपनेआप में कोई इकलौता केस नहीं है। इसके पहले भी कई लड़कियों के साथ ऐसा हो चुका है। इस तरह के केस में तो कई लड़कियों को जहर देकर मार दिया गया है, तो कहीं लोक-लाज के भय से गर्भपात कराया जा चुका है। कुछ स्त्रियां तो आज भी अपनी आँखों में  अपमान का दर्द लिए जी रहीं हैं। वह खुद भी यह नहीं जानती कि आखिर, इसमें उनका गुनाह क्या है..?

हमारे समाज के कुछ हिस्सो में आज भी यह एक बहुत बड़ा दोष है जिसका दुष्परिणाम लड़कियों को भुगतना पड़ रहा है। इस तरह की घटना सिर्फ कम पढ़े- लिखे वर्गों में ही नहीं है बल्कि अच्छे पढ़े-लिखे लोगों में भी इस तरह की अज्ञानता देखने को मिल रही हैं।

(रचना त्रिपाठी)   

Sunday, April 13, 2014

पीढ़ी- भेद समझना होगा…!

गाँव के बड़कवा शुक्ला जी की सोच हमेशा उनके अपने ही इर्द- गिर्द घूमती रहती। अपने बनाए हुए सिद्धान्तों को किसी भी सिद्धान्त से ऊपर मानते। वह अपने जीवन में बहुत ही अनुशासित रहे। एक स्कूल में बच्चों को हिन्दी पढ़ाते थे। बचपन से लेकर एक बड़े संयुक्त परिवार का मुखिया होने तक उनका जीवन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा। उन्हें शायद कोई अभिभावक नहीं मिला था और उन्हें बहुतों का अभिभावक बनना पड़ा था। इसलिए राह चलते मार्गदर्शन देते रहने की आदत पड़ गयी थी। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते उनमें एक संकोचहीन बेबाकीपन आ गया था। जो बात उन्हें पसंद नहीं आती उसका विरोध तो नहीं कर पाते लेकिन उसपर टीका-टिप्पणी किए बिना भी नहीं रह पाते। उन्हें समाज के सभी लोगों से मिलना-जुलना और भाँति-भाँति की बातें करना पसन्द था। रिटायरमेंट के बाद शुक्ला जी जहां भी जाते अपनी जान-पहचान के लोगों से जरूर मिलना चाहते।

शुक्ला जी के गाँव में उनके एक पड़ोसी थे ज्ञानप्रकाश। उनकी बेटी वृन्दा की शादी बनारस में हुई थी। जब भी शुक्ला जी बनारस अपने रिश्तेदारों के यहां जाने को होते तो वह भतीजे ज्ञानप्रकाश से पूछना नहीं भूलते थे कि ‘अपनी बेटी के पास कोई संदेश भेजना हो तो बता दो मैं बनारस जा रहा हूँ; बहुत दिन हो गया उसे देखे; इसी बहाने उससे मिल भी लूंगा और उसका हाल-चाल भी ले लूंगा।’ लेकिन ज्ञानप्रकाश इधर-उधर की बातों में शुक्ला जी को उलझा कर अपनी बेटी का पता देने से कन्नी काट लेता।

generation gap1ज्ञानप्रकाश शुक्ला जी का बहुत सम्मान करता था। आस-पास के गांव के लोग भी शुक्लाजी के परिवार की बहू-बेटियों के संस्कार से बहुत प्रभावित रहते। जबसे ज्ञानप्रकाश की बेटी की शादी हुई तबसे शुक्ला जी दसियों बार बनारस आये-गये होंगे। हर बार वे ज्ञानप्रकाश के पास जाते और वृन्दा का पता मांगते लेकिन हर बार उन्हें निराश होना पड़ता। धीरे-धीरे उन्हें इस बात का अंदाजा लग गया कि ज्ञानप्रकाश जानबूझकर वृन्दा का पता नहीं देता है।

एक दिन शुक्लाजी ने ज्ञानप्रकाश से पूछ ही लिया- ‘बहुत दिनों से मैं तुमसे वृन्दा का पता मांग रहा हूँ लेकिन तुम किसी न किसी बहाने उसका पता देने से इनकार कर देते हो। आखिर क्या बात है?’ ज्ञानप्रकाश ने कहा- ‘चच्चा, बुरा न मानें तो एक बात कहूं..मेरा दामाद बहुत शौकीन है..वृन्दा अपने ससुराल में बहू नहीं, बेटी की तरह रहती है .. कभी सलवार-सूट पहनती है तो कभी जिंस-टॉप.. उसके घर वाले भी उसकी पसंद का बहुत ख्याल रखते हैं..उसके ऊपर किसी भी तरह की पाबंदी नहीं है। आपको उसका यह रूप देखकर शायद अच्छा न लगे.. और आप टीका-टिप्पणी करना शुरु कर दें, इसलिए मैं आपको उसके घर का पता नहीं देता।’ शुक्लाजी टका सा मुंह लेकर वहां से चले आये.. उन्होंने इस बात की चर्चा अपने घर वालों से भी की। लेकिन उनकी बातों से ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगा कि उनको भी अब अपनी सोच बदलने की जरूरत है..

शुक्ला जी का एक भरा-पूरा परिवार है उनके नाती-पोते भी अब शादी करने योग्य हो गये हैं। उनकी यह सोच जो बहुत ही पुरानी रूढ़िवादी परम्पराओं की जंजीरों से जकड़ी हुई है। जहां अभी भी स्त्रियों को घूँघट में रहना और इशारों में ही बात करना उचित माना जाता है वहां इस जेनरेशन गैप के साथ शुक्ला जी का कैसे निर्वाह होगा? क्या ऐसे बुजुर्ग अपनी आने वाली पीढ़ी की उपेक्षा के शिकार नहीं होंगे? घर का बुजुर्ग होने के कारण किसी ने उन्हें टोका नहीं, पड़ोसी ज्ञानप्रकाश भी इनसे कन्नी काटता रहा; लेकिन जब पीछे ही पड़ गये तो सच्चाई का सामना हो गया। यह नौबत तो उनके घर में भी आ सकती है। शुक्ला जी को अपने इस व्यवहार पर चिंतित होना चाहिए न कि गौरवान्वित। समय के साथ उनको अपनी सोच में परिवर्तन लाने की जरूरत है।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, April 5, 2014

चुनाव खतम, वोट हजम

आया है मुझे फिर याद वो बचपन के दिनों का जादुई बाइस्कोप; जो बच्चों को लुभाने के लिए एक बंद बक्से में कुछ भारतीय संस्कृति की धरोहर और परम्पराओं से जुड़ी अच्छी तस्वीरों को इकठ्ठा कर बहुत खूबसूरत और सुसज्जित ढंग से माला की तरह पिरोये हुए रहता था। बाइस्कोप वाला आता था और रंगीन बक्से को अपनी पीठ से उतार कर गाँव के बीचो-बीच एक स्टैंड पर लगाकर भोंपू बजाना शुरु कर देता था। जिससे गाँव के सभी बच्चे उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो जाते।

बाइस्कोप वाला बक्से के भीतर झांकने के लिए बने झरोखों का ढक्कन खोल देता था और हम सभी अपनी आँखों को उन झरोखों से सटाकर बैठ जाया करते थे। उस बंद बक्से के अंदर तस्वीरों की एक लड़ी चलती जिनके नजारों को हम बच्चे कौतूहल से देखते और अपने कानों से बाइस्कोपवाले की रोचक आवाज में उनका वर्णन सुनते- ‘दिल्ली का कुतुबमिनार देखो.. और बम्बई का मीनाबाजार देखो..ये आगरे का ताजमहल... घर बैठे सारा संसार देखो।’ घुटनों के बल बैठकर उस जादुई बक्से में घूमती पूरी दुनिया की सैर बस कुछ ही मिनटों में करके हम बहुत खुश होते थे। इसी खुशी में अपने-अपने घरों से रूपये/ अनाज इत्यादि लाकर उस जादूगर को दे जाते थे जो उन्हें कुछ पल के लिए सुनहरे सपने दिखा जाया करता था। उसके बाद वह बोलता- बच्चों, तमाशा खतम पैसा हजम अब अपने अपने घर जाओ।

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जब चुनाव नजदीक आता है तो देश में कुछ इसी तरह के दृश्य नजर आने लगते हैं। एक बार फिर चुनावी सरगर्मी बढ़ गई है और सभी राजनैतिक दल अपना-अपना घोषणा पत्र बाइस्कोप के रूप में तैयार कर लिए हैं। जगह-जगह रैलियां होने लगीं हैं। सियासी दलों में जनता को लुभाने की होड़ मची हुई है। वोट पाने की लोलुपता में राजनैतिक मूल्यों का स्तर गिरने लगा है। कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इनके आँख का पानी मर चुका है। लोग भी जानते है कि कौआ चला हंस की चाल फिर भी उमड़े जा रहे हैं। विकल्प भी क्या है? सोचते होंगे कि एक बार इन्हें सुनने और देखने में क्या जाता है..।

आम आदमी बच्चों की तरह सभी दलों का चुनावी बाइस्कोप देखने के लिए कौतूहल से भरा हुआ है। नयी उमर के नये मतदाता तो और भी उत्साहित हैं। चुनावी अभियान तो रोचक होता ही है; जिसमें किस्म-किस्म के नारे लगाकर; डायलॉग बोलकर; और गाना-गाकर विकास और जनहित का मॉडल प्रस्तुत किया जाता हैं। जनता जानती है कि सियासी बाइस्कोप की खुमारी सिर्फ चुनाव होने तक है, आगे वही ढाक के तीन पात रहेंगे। चुनाव खत्म होने पर सियासी चालबाज यही कहने वाले हैं कि चुनाव खतम और वोट हजम। फिर मिलेंगे अगले पांच साल बाद। तबतक के लिए सायोनारा।

(रचना त्रिपाठी)

Friday, April 4, 2014

अक्स

आज अचानक ऐसा लगने लगा जैसे मेरी बेटी मुझसे कुछ कह रही है-   माँ तू मुझमें

ऐ माँ तू मुझमे
खुद को देख ले..

मेरी बेवकूफियों  पर             
तू फिर से
नादाँ हो ले

मेरी बढ़ती उम्र के साथ
तू फिर से
जवाँ हो ले

मेरी आँखों में सजा के

तू अपने सपने

साकार कर ले

ऐ माँ...

(रचना त्रिपाठी)