Wednesday, June 29, 2016

बेटियों का अपराध

किसी घर की छत पर टंगे महिलाओं के अंत:वस्त्र देखकर कुछ असामाजिक तत्व छत फाँदकर उस घर की बहू-बेटियों की इज़्ज़त लूटने की कोशिश कर डालते हैं, या सड़क पर बिना दुपट्टे के निकलने वाली लड़की को देखकर उनके भीतर का शैतान जाग जाता है और मौका देखकर उसे दबोचने का दुस्साहस कर डालते हैं, रात को किसी महिला ने अगर अकेले बाहर निकलने की गलती कर दी तो उसके ऊपर हाथ साफ करने का लोभसंवरण ये लंपट नहीं कर पाते है। इसके बाद यदि ये अपराधी पकड़े जाते हैं तो ख़ुद को बेक़सूर साबित करने ले लिए सारा दोष उन लड़कियों व महिलाओं के सिर मढ़ देते हैं। इनका समर्थन कुछ व्यवहारवादी बुध्दिजीवी भी इस प्रकार करते हैं कि क्यों वे अपने अंत:वस्त्र बिना किसी लज्जा के खुले में सूखने के लिए डालकर, या अपने अंगों से दुपट्टा हटाकर, या रात के समय अकेले बाहर निकलकर पुरुष कामाग्नि को आमंत्रण देती हैं। 

 लड़कियाँ अपनी रोज़मर्रा के कार्यों में इस बात से कदाचित् अनभिज्ञ रहती हैं कि कौन सा कार्य उनके अपने लिये ही घातक साबित हो जाय और उनका ज़ख़्म ही इस समाज की नज़र में जुर्म बन जाए और तब, वहाँ की सामाजिक व्यवस्था उन्हें दोषी क़रार देने में कुछ ज़्यादा ही सक्रिय हो जाती है। 

रुबी राय का जुर्म भी कुछ इसी प्रकार का लगता है। उसने कुछ भी ऐसा नहीं किया जो उसके आसपास के दूसरे लड़के-लड़कियाँ न करना चाहती हों। बस मात्रा का फर्क हो सकता है और उपलब्ध सुविधा का, लेकिन आज उसे जेल जाना पड़ा है। वहाँ की पूरी शिक्षा प्रणाली ख़ुद को बेक़सूर साबित करने में अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती और वहाँ के क़ानून के रखवाले अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए खूब सक्रिय हो गये हैं। अब रुबी को गिरफ़्तार कर एक नयी मिसाल पेश की जा रही है। असली अपराधी अपने कृत्य को अपना नैसर्गिक धर्म क़रार देते हुए सीना ताने बड़े शान से इस समाज के विशेष वर्ग का हिस्सा बने आज भी बेख़ौफ़ घूम रहे हैं। 

बोर्ड परीक्षा में नक़ल एक सामाजिक बीमारी है जिसमें विद्यार्थी सबसे छोटा अपराधी है जो एक अबोध अल्पवयस्क किशोर है। असली अपराधी तो उसके अभिभावक हैं; और परीक्षा संचालित करने वाले शिक्षक, केंद्र व्यवस्थापक तथा शैक्षिक व प्रशासनिक अधिकारी हैं जो इस नक़ल उद्योग से काली कमाई करने में लिप्त हैं। क्या कानून का हाथ इन अपराधियों की गर्दन तक पहुंचेगा? 

(रचना त्रिपाठी)