Thursday, September 27, 2018

लचीला रे...

प्रोमोशन में आरक्षण संबंधित 2006 का फैसला बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ते हुए भारतीय संविधान की जय बोल दी। इससे हमें इस देश की न्याय व्यवस्था और अपनी सासू माँ की पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुपालन के लिए लागू अनुशासन कुछ एक जैसा प्रतीत होता है।

घर में पूजा-पाठ, तीज-त्यौहार और मांगलिक कार्यों के विधि-विधान को लेकर वो बहुत कठोर हैं। लेकिन यदि ऐसे कार्यक्रम में परिस्थिति वश किसी पद्धति को पूरा करने में कोई बाधा आ जाती है तो वे उसका दूसरा विकल्प जरूर खोज लेती हैं। इससे स्थापित नीति का उलंघन भी नहीं होता और उनका इकबाल भी कायम रहता है।

कर्मकांड कराने वाले पुरोहित तो इस लचीलेपन के फन में इतने माहिर होते हैं कि भारतीय संविधान भी शर्मा जाय। इष्ट देवता के लिए यजमान जो वस्त्र नहीं ला सके तो देवता को वस्त्र के रूप में रक्षा-सूत्र पहना देते हैं।

पूजन सामग्री भी गरीब यजमान के लिए कुछ तो अमीर के लिए कुछ और हो जाती है। भोले शंकर को खुश करने के लिए घृत, शहद, दही, शर्करा और दूध से अभिषेक करते हुए घण्टों मंत्रोच्चार किया जाता है तो गरीब का एक लोटा जल भी उसके भक्तिभाव को प्रकट कर देता है।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 5, 2018

लोभ और भय के बीच बेवक्त ऊँघना

स्कूल की क्लास में तीसरी घंटी के बाद बड़े-बड़े तुर्रमखां पढ़ाकुओं की अकड़ भी ढीली पड़ जाती थी। गुरुजी चाहे जितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, और उनके वचनों से साक्षात् सरस्वती ही क्यों न प्रवाहित हो रही हों उस पीरियड में बहुत कस के उँघाई आती थी। दन्न-दन्न  प्रश्नों का हल दागते देख गुरुजी लोग प्रसन्न होकर अपने चहेते चेलों को अक्सर अपने ठीक सामने की बेंच पर बिठा लिए करते थे। इससे बैक बेंचर्स को मिलने वाली आड़ की सुविधा भी उन्हें नहीं मिल पाती थी।

उस पीरियड ने बड़े- बड़ों की पोल खोल कर रख दिया था। जबरदस्ती आँख फैलाये रहने के बावजूद नींद का झोंका सिर को धोबीपाट के कपडों की भांति उठा-उठा कर आगे-पीछे तो कभी अगल-बगल में बैठे सहपाठी के कंधे पर पटकता रहता। स्कूल के दौरान कई बार इस बेमुरौवत लफड़े में मैं भी फंस चुकी हूँ। लेकिन जो भी हो, यस सर, जी सर कहकर मैं अपनी पूरी जुगत लगा लेती थी उनको इस भ्रम में रखने के लिए कि 'गुरुजी, आप जो पढ़ा रहे हैं वो मेरे समझ में ख़ूब आ रहा है।'

ऐसा करना विद्यार्थी धर्म के विपरीत और नैतिकता के विरुद्ध होने से अपराधबोध को भी जन्म देता था। पर गुरुजी के विश्वास को बनाये रखने का लोभ और उसके साथ उनके बगल में रखी बेत की छड़ी जिसे गुरूजी दुखहरण कहा करते थे उसका भय इतना अधिक था कि हमारा ऐसा करना हमारी मजबूरी थी।

बचपन के उस अकिंचन अपराध के लिए क्षमायाचना सहित अपने सभी गुरुओं को शिक्षक-दिवस की ढेरों बधाई, हार्दिक शुभकामनाएं और सादर प्रणाम।

(रचना त्रिपाठी)