Thursday, February 26, 2015

अपनी जमीन की बात ही कुछ और है...!

भूमि अधिग्रहण के लिए सरकार को और शक्तिसंपन्न बनाने के लिए एक विधेयक संसद में आ गया है। इसके विरोध में आंदोलन भी शुरू हो गया है। यह ठीक है कि विकास के लिए उद्योग लगाने जरूरी हैं जो मजदूरों और कामगारों को रोजगार देंगे। लेकिन मुझे डर है कि जब किसानों के पास अपनी जमीन नहीं रहेगी तो ये प्राइवेट फैक्ट्रियां उन्हें घर बिठाकर पगार नहीं देगी। अगर रोजगार देगी तो उनकी छुट्टियों पर वेतन भी काटेंगी। उनके बीमार पड़ जाने पर उन्हें घर बिठाकर मुफ्त की चिकित्सा मुहैया नहीं करायेगी। इस तरह अगर किसानों की अपने जमीन पर अगर उनका अपना अधिकार नहीं रहा तो वे उद्यमियों के गुलाम बन कर रह जायेंगे। मेरा यह डर काल्पनिक नहीं है, बल्कि अपनी आँखों से देखा हुआ कड़वा यथार्थ है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले का मुख्य शहर है पडरौना। इस शहर में वर्षो पुरानी एक चीनी मिल हुआ करती थी जो पन्द्रह-बीस साल से बंद पड़ी है। इस फैक्ट्री के बन्द होने से छोटे किसानों और मजदूरों से लेकर बड़े-बड़े जमींदारों की आर्थिक स्थिति डगमगा गयी है। वहाँ के किसानों की जमीन पर आज भी गन्ने की पैदावार होती है और उस गन्ने की कीमत भी मिलती है। वे दूर के शहर तक ढुलाई का दोगुना खर्च उठाकर दूसरी चीनी मिल पर अपना गन्ना ले जाते हैं और देर-सवेर उसकी कीमत पा ही जाते है। वे अपने घर बाल- बच्चों के पास रहते हुए मेहनत की रोटियां जरूर खाते हैं पर वे रोज रात को चैन की नींद सोते हैं। उन्हें थोड़ी परेशानी जरूर उठानी पड़ती है मगर वे इस बात से निश्चिन्त है कि उनकी जमीन उनके पास है जिसपर उनका अपना अधिकार है।

लेकिन जरा उन मजदूरों से पूछिये जिनके पास अपनी जमीनें नही हैं; जो उसी  फैक्ट्री में काम करते थे; जिनके परिवार का पेट उस फैक्ट्री में ही मेहनत-मजदूरी करने की बदौलत भरता था, वे आज किस दशा में होंगे...? जबतक फैक्ट्री चली उसमें काम करने वाले मजदूर बहुत मजे में रहे पर फैक्ट्री बन्द होने के कुछ दिनों बाद ही उनके घर में खाने के लाले पड़ने लगे। बहुतों की तो खटिया खड़ी हो गई। आज भी उनमें से कुछ फैक्ट्री को दुबारा चलवाने के लिये नेताओं का घेराव करते हैं, चक्का जाम करवाते हैं और भूख हड़ताल करते हैं। उस समय से अबतक फैक्ट्री चलवा देने के दावे के साथ कई सरकारें आयीं और चली गयीं; पर उस बन्द पड़ी चीनी मिल के अलग-अलग हिस्सों में जंग लगती गयी और कारखाना बन्द का बन्द ही पड़ा रहा। जो मजदूर इसकी देख-रेख और मरम्मत में लगे रहते थे आज वही इसके कल-पुर्जों को चोरी-चोरी कबाड़ में बेचना शुरू कर दिये हैं ताकि वे अपने परिवार के पेट की आग एक वक्त को ही सही, बुझा सके। पर वे कबतक ऐसा कर सकेंगे..?

इस जिले से एक से बढ़कर एक दिग्गज नेताओं का ताल्लुक भी रहा। जिसमें से एक जाना-माना नाम आर पी एन सिंह का भी है जो यहीं से सांसद रहे हैं और पिछली यूपीए सरकार में गृह, भूतल-परिवहन और पेट्रोलियम विभाग में राज्य-मंत्री भी रह चुके हैं। वे सोनिया और राहुल गांधी के बेहद करीबी माने जाते रहे हैं। पडरौना चीनी मिल की चारदिवारी से लगे हुए इनके राजमहल से ही इनकी राजनीति दिन-दूनी, रात-चौगुनी चमकती रही है। उधर गन्ना-किसान और मिल-मजदूर आंदोलित होते रहे हैं- कभी अपने खेतो में खड़े गन्ने को आग लगा कर तो कभी शहर चक्का जाम कर। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। बेचारे मजदूर जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी वे दूसरे शहर की ओर पलायन कर गये। कुछ ने अपनी बीबी-बच्चों को बेसहारा छोड़कर सन्यास धारण कर लिया तो कुछ ने बेरोजगारी से आहत होकर आत्महत्या कर ली। काश, आज उनके पास भी जमीन होती तो शायद वे ऐसा करने पर मजबूर नहीं होते।

(रचना त्रिपाठी) 

 

Friday, February 13, 2015

वैलेन्टाइन का रसिया

बचपन की दहलीज पार करके जब मैं किशोरावस्था में कॉलेज पहुँची तो पहली बार वैलेंटाइन-डे का नाम कान में पड़ा। वह भी किसी ऐसी चीज के रूप में जिसपर बड़े-बूढ़ों का पहरा लगा रहता है। बड़ा रहस्यमय टाइप लगा यह। मुझे इस वैलेन्टाइन-डे का मतलब समझने में ही सालों लग गये। जबतक इस डे को मैं पूरी तरह समझ पाती मेरी शादी हो चुकी थी। अब तो मन मसोसने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन मैंने अपना रास्ता निकाल लिया है।

सबका 'वैलेन्टाइन डे' मनाने का अपना-अपना तरीका होता है। मेरा भी यह दिन मनाने का अपना एक अलग तरीका है। शादी होने से लेकर आजतक कोई भी 'डे' हो हम अपने घर में ही अपने पति और परिवार के साथ मनाते हैं। इस दिन हम दाल भरी पूड़ी, सब्जी, खीर और साथ में ‘रसियाव’ बनाते हैं। कुछ लोग रासियाव को बखीर भी कहते हैं। इस व्यंजन का नाम तो सुनने में ही 'रसिया' की तरह बहुत मीठा लगता है। यह चावल में गुड़ डालकर पकाया जाता है । मीठी सुगन्ध वाले चावल में जब गुड़ भी मिल जाय तो यह और कितना मीठा हो जाएगा। हमें कोई भी 'डे' मनाना हो तो यह डिश जरूर बनाते हैं। घर में जिस दिन यह व्यंजन खाने को मिल जाय तो समझ लीजिये कि उस दिन हम जरूर कोई न कोई 'डे' मना रहें होते हैं जैसे- वैलेन्टाइन-डे, हग-डे, किस-डे, बर्थ-डे हो। रसियाव तब भी बनता है जब कोई निजी उत्सव जैसे शादी की सालगिरह हो, या कोई पारंपरिक त्यौहार हो जैसे- दीपावली, दशहरा, होली आदि।

वैलेन्टाइन डे पर एक मौज़ू गाना है सुनायी देता है जिसे आपने भी सुना होगा- "चेहरा क्या देखते हो दिल में उतर कर देखो ना" मुझे लगता है कि इस प्रेम-दिवस पर सभी प्रेमी जन इसी लक्ष्य का पीछा करते हैं कि कैसे अपने प्रिय के दिल में पक्की जगह बना ली जाय। प्रेम होने से पहले ही शादी हो जाने और जीवन साथी मिल जाने के बाद मुझे तो यह समझ में ही नहीं आया कि दिल में उतरने का काम भी बड़ा चुनौतीपूर्ण है। रास्ता भला कहाँ से ढ़ूढतें...। एक साथ रहते-रहते दिन, महीने, फिर साल गुजरते गये। हर एक 'डे' आता गया और इनके दिल में उतरने का रास्ता इनकी बातों से और दूसरे लक्षणों से प्रकट होता गया। हमारे यहाँ दिल में उतरने का एकमात्र और सटीक रास्ता है जो पारंपरिक भी है और ठोस आजमाया हुआ भी है। दिल तक पहुँचने का यह रास्ता न आँखों से होकर जाता है और न दिमाग से गुजरता है। यह रास्ता गुजरता है इनके पेट से होते हुये। अगर पेट की पूजा बढ़िया हो गयी तो दिल बाग-बाग हो जाता है और वहाँ अपना रिजर्वेशन पक्का।

अब ये वेलेंटाइन 'डे'! जिसमें फरवरी का महीना हो, रंग-बिरंगे फूलों के मौसम के साथ फूल गोभी और मटर का सीजन हो तो वेलेंटाइन 'डे' का क्या पूछना..यह तो कुछ ख़ास ही हो जाता है। हम दोनों इस दिन 'फूलगोभी' और 'मटर' जरूर खरीदते हैं। फरवरी का महीना आते तक तो मटर की कीमत भी कम हो जाती है। इस समय हम एक-दो किलो मटर नहीं खरीदते हैं। बल्कि पूरे तीस-चालीस किलो मटर  इकठ्ठा खरीदकर इसके दाने छुड़ा लेते हैं और फ्रीजर में रख लेते हैं। इसके बाद पूरे साल जितना भी अलाना-फलाना-‘डे’ पड़ता है, हमारी थाली का जायका हरी-मटर के साथ और भी बढ़ जाता है।

हाँ मटर छुड़ाने का बोरिंग काम भी मुझे नहीं करना पड़ता इसलिए यह आनंद दोगुना हो जाता है। मेरे पति को मेरा आलू-प्याज काटना और घंटों मटर छुड़ाना बिल्कुल नहीं देखा जाता। उनका मुझसे साफ-साफ कहना है कि- “मेरे होते हुये तुम प्याज काटो और मटर छीलो यह हो ही नहीं सकता, मैं हूँ ना...!" बस इस प्रकार मेरा तो 'वेलेंटाइन डे' ऐसे ही बहुत ख़ुशी-ख़ुशी घर के आनंद में पूरा हो जाता है।

(रचना त्रिपाठी)