Friday, February 11, 2022

नन्हकी

दो दिन हो चुके थे उस बियाबान में रेल की पटरी पर बैठकर इंतजार करते। घुटनों में सिर डाले बैठी वह इस आस में थी कि घण्टे भर में कोई न कोई गाड़ी आएगी और उसे इस बेरहम दुनिया से बहुत दूर लेकर चली जाएगी। लेकिन बिधना ने उसके लिलार पर मांगी हुई मौत भी नहीं लिखी थी। घर पर न जाने क्या हाल होगा? विजेंदर भी न जाने कहाँ गया। उसकी भी क्या गलती। वह तो पंजाब से चला आया था उसे ले जाने। उसकी नरक समान जिंदगी से छुटकारा दिलाने। उस रात की याद आते ही एक टीस ने उसे बेध दिया।...


कुछ भी तो नहीं मिला उसे। होश सम्हालने से पहले बाप का साया उठ गया। दो-दो बड़े भाइयों के बाद जब बेमन उसका जन्म हुआ तो किसी ने थाली नहीं बजायी। उसके बाद ही नौकी बीमारी फैली और अचानक घर के मुखिया चल बसे थे। गरीब विधवा माँ ने बेमन से पाला। थोड़ी बड़ी हुई तो दोनो भाई बाहर कमाने चले गए। गाँव में घर के भीतर-बाहर का काम करते-करते वह कब सयानी हो गयी पता ही नहीं चला। एक विजेंदर ही था जो उसके मन को थोड़ा खुश कर देता। लेकिन यह छोटी सी खुशी भी घर में माँ से लेकर गाँव भरके लड़कों, मर्दों और औरतों को अखरती रहती। उसपर सब के सब पहरा करते। एक झलक देखभर लेने के लिए उसे कितना जतन करना पड़ता। लेकिन विज्जू ने उसके ऊपर जाने क्या मंतर फेर दिया था कि वह सारी लाग-डांट के बाद भी उसके पास खिंची चली जाती थी।


जाने कैसे अम्मा ने उसे विजेंदर के साथ तब देख लिया जब गाँव के मर्द रात में फगुआ गाने के लिए जुटे थे और वह चाय देने के बहाने वहाँ जाकर उसे मिली थी। ढोलक और झाल के कानफोड़ू संगीत पर झूमते फगुहारों के बीच से अंधेरे में सरककर विजेंदर ने उसे बाहों में भर लिया था। वह दुर्लभ सुख उसकी नसों में झुरझुरी बनकर दौड़ने लगा था तभी अम्मा जैसे आसमान से प्रकट हो गयी। उसका झोंटा पकड़कर खींचते हुए घर के भीतर ले आयी। फिर रात भर मार खाती रही नन्हकी। बेंत का झाड़ू शायद उतना चोट नहीं दे पाया जितना अम्मा की जहर उगलती जबान ने बेध दिया था।


सबेरे ही अम्मा ने अपने बेटों को मोबाइल मिलाकर घंटे भर बात की और विस्तार से बताया कि कैसे नन्हकी को पाँख जम गया है जो कतरना जरूरी हैं। जल्द से जल्द बियाह करके बिदा नहीं किया गया तो कुल-खानदान को डुबा देगी। 


बिरजू और नगीना ने अगली गाड़ी पकड़ी और गाँव आ गए। फिर एक रात नन्हकी के लिए बज्जर (बज्र) बन कर आयी। भाइयों ने प्रताड़ना की हदें पार कर दीं। बिरजू ने तो गुस्से में उसका गला ही दबा दिया होता लेकिन माँ दीवार बनकर खड़ी हो गयी। लोक-लाज और खानदान की इज्जत का हवाला दिया और समझा दिया कि जल्दी से विवाह कर देना ही इस समस्या का उचित समाधान है।


बिरजू और नगीना ने भाग-दौड़कर एक लड़का पसंद कर लिया और आनन-फानन में बरच्छा (रोका) चढ़ा आए। पंडीजी ने होली के बाद की साइत देखकर विवाह की तिथि बता दी। तैयारियां होने लगीं।


यहसब सुनकर विजेंदर बेचैन हो उठा और नन्हकी के घर के आसपास मंडराने लगा। एक दिन नगीना ने उसे ताड़ लिया और पकड़ कर घर में बैठा लिया। विजेंदर ने भाग जाने की कोई राह न देखकर नन्हकी से अपने प्यार की बात कबूल कर ली और फिर दोनो भाइयों ने उसका मुँह दबाकर बुरी तरह धुन दिया। पोर-पोर में दर्द की टीस और दोनों भाइयों से अपमान का घूँट पीकर वह आँसू दबाते हुए बाहर निकला और अगले ही दिन गाँव से लापता हो गया। 


होली बीतने के बाद विवाह की तैयारियां जोर पकड़ने लगीं। पहुनी-पसारी जुटने लगे। भाइयों ने विजेंदर की पिटाई के बाद गाँव छोड़ देने से यह मान लिया कि अब बहन की विदाई में कोई अड़चन नहीं आएगी। वे शहर से विवाह और गवना (विदाई) का सामान लेने और रिश्तेदारों को बुलाने के लिए अक्सर बाहर आ-जा रहे थे। लेकिन नन्हकी तो अपने विज्जू का सनेसा अगोर रही थी। 


एक दिन विज्जू का संघतिया (जिगरी) मोहना मौका देखकर घर के पिछवाड़े नन्हकी से मिला और मोबाइल थमाकर चला गया। फोन पर विजेंदर की हेल्लो सुनते ही नन्हकी डहक उठी। कलेजे से उठती हूक दबा नहीं पायी। हिचकियों के बीच बस इतना सुन पायी कि वह अमृतसर से बहुत जल्दी आएगा और उसे ले जाएगा। तभी घर के भीतर से उसे किसी ने पुकारा तो झट उसने मोबाइल छिपा लिया और भागकर भीतर आ गयी। इसके बाद नन्हकी ने तैयारियां शुरू कर दीं- एक सुंदर सपना सच करने की जो उसे इस नरक से निकालने वाली थी।


बारात आने में कुछ ही दिन बचे थे तभी विजेंदर गाँव में अचानक प्रकट हुआ और पहले से तय प्रोग्राम से नन्हकी को बुला ले गया। साँझ के धुँधलके में जब घर की औरतें दीया-बाती करके संझा-पराती गाने बैठी थी तभी नन्हकी ने अपनी गठरी उठायी और घर के पिछवाड़े से निकल गयी। मोहन ने अपने टेम्पू से इसे रेलवे स्टेशन के बाहर छोड़ दिया और बताया कि विजेंदर वेटिंग हाल में ही मिल जाएगा। वह दौड़कर भीतर गयी तो विजेंदर लोहे की बेंच पर सिर थामे बैठा मिला। 


एकबारगी इसका दिल जोर से धड़क उठा जब अपने विज्जू की आंखों में वैसा उत्साह नहीं दिखा जिसकी उम्मीद इसने की थी। इसने उसे झिंझोड़कर उठाया और लिपट गयी। थोड़ी देर बाद विजेंदर ने उसे देह से अलग किया और हाल में लगे टीवी की ओर इशारा किया। स्क्रीन पर कोरोना के प्रकोप से देशव्यापी लॉक-डाउन लागू हो जाने की खबर चल रही थी। 


पूरी खबर देखकर नन्हकी धम्म से जमीन पर बैठ गयी। उसका सुंदर सपना भी इस लॉकडाउन की चपेट में आ गया। उसे जैसे काठ मार गया। विजेंदर ने भी नीचे बैठकर उसका हाथ थाम लिया। उसकी आँखों से लोर बहती रही। अंततः आंसुओं ने भी साथ छोड़ दिया और चेहरे को सूखा छोड़कर रात के सन्नाटे में चुक गए। स्टेशन बन्द कर रहे कर्मचारियों ने उन दोनो को बाहर कर दिया। विजेंदर ने समझ लिया कि अब दोनो का साथ रहना मुश्किल होगा। उसने कहा कि दिल कड़ा करके अपने-अपने घर लौट जाना पड़ेगा। हालत सुधरने पर फिर कोशिश करने का वादा करते हुए वह तेज कदमों से निकल गया। 


नन्हकी फिर क्या करती? ये रेल की पटरियां ही उसे इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकती थीं। लेकिन हाय रे किस्मत!


इधर बिरजू और नगीना जब लॉकडाउन के कारण विवाह में संभावित बाधा से चिंतित हुए घर आए तो नन्हकी की माँ बेसुध पड़ी थी। उसे काटो तो खून नहीं। नन्हकी के गायब होने की बात उनकी फूआ ने बताई जो विवाह की रस्में सम्हालने के लिए  पहले से आ चुकी थीं। कलेजे पर पत्थर रखकर दोनो भाइयों ने पैदल ही पूरा जवार छान मारा। कुआँ, ताल, पोखरा कुछ भी नहीं छोड़ा। विजेंदर के टोले में खुद तो नहीं गए लेकिन गोपनीय तरीके से पता लगवाया कि कलमुँही उधर ही तो नहीं छिपी है।


एक-एक पल पहाड़ सा बीत रहा था। शादी के घर में मरघट की शांति छा गयी थी। तीन-चार दिन बीत गए और घर वाले पागल की तरह नन्हकी को खोज रहे थे। पुलिस को खबर नहीं की। लॉक डाउन में उधर जाने की हिम्मत भी नहीं हुई। 


आज मटकोड़ की रात थी। लेकिन घर में मातम पसरा था। सभी अस्त-व्यस्त पड़े हुए रतजगा कर रहे थे। तभी रात के अंधेरे में दबे पाँव लस्त-पस्त नन्हकी ने घर के पिछवाड़े से प्रवेश किया। उसपर सबसे पहली नजर फूआ की ही पड़ी। उन्होंने दौड़कर उसे अँकवार में भर लिया। दोनो पुक्का फाड़कर रोने लगीं। आवाज सुनकर सबलोग आंगन में जुट गए। नगीना ने दौड़कर बाहर का दरवाजा बंद कर दिया। फूआ की गोद में दुबकी नन्हकी को जब सुरक्षा घेरा का भरोसा हुआ तो फफक पड़ी। तभी उसकी माँ का एक झन्नाटेदार चाटा उसकी गाल पर पड़ा। उसकी घिघ्घी बँध गयी। माँ गुस्से से तमतमाई गरज उठी- "रे मुँहझौसी, ते ओहरे मरि-खप काहें न गइले... सबके मुँहें में करिखा पोति के लौटि काहें अइले?"


नन्हकी के चेहरे पर एक भयानक खौफ दिख रहा था। वो अपनी अम्मा को ये समझाने की कोशिश करने लगी कि वह लौटकर कतई नहीं आना चाहती थी। रो-रोकर कह रही थी, "हमार करम फूटल रहे अम्मा कि टरेनवो नाहीं आइल... ये जियले से निम्मन कि हम ओहरे कट-मर गइल होइती... लौट के इहाँ कब्बो नाहीं अइती।" 


इतनी रात को नन्हकी के रोने-कलपने की आवाज घर के बाहर न जाए इसलिए उसकी फुआ बियाह के सगुन का गीत कढ़ा के ख़ूब जोर-जोर से टेर के गाने लगीं। 


नन्हकी के घर से सगुन का गीत और बीच-बीच में रोने की सुबकियां सुनकर उसके दरवाजे पर एक-एक करके गाँव की औरतें इकट्ठी हो गईं। इस बात की भनक लगते ही नन्हकी की अम्मा उसको चुप कराने लगी। बाहर खड़े लोगों को सुनाते हुए जान-बूझकर ऊंची-ऊंची आवाज में बोलने लगी- "जब से एकर बिआह तैं भईल बा रो-रो के बेहाल भइल बा... देहि सूखि के लकड़ी हो गइल, बाकिर ढंग से कुछू खात-पियत नइखे... देखत तनी तs बिदाई से पहिले आपन तबियत बिगाड़ ली।" 


यह सुनाते हुए नन्हकी की अम्मा घर से बाहर निकली। अपने आँसूं पोछते हुए वहाँ खड़ी औरतों को यह बताने की कोशिश करने लगी कि नन्हकी ससुरा जाने के नाम से घबड़ा रही है। बहुत दिनों से खाना-पीना तज दी है। एक्के ठो बहिन है। बिरजू और नगीना बहुते मानते हैं उसे। दोनों कबसे उसे समझा रहे हैं कि जब हमको भेंट करने के लिए  बुलाएगी तो हम उहाँ आ जाएंगे। एतना लामे भी तो नहीं है इसका ससुरा कि आने-जाने में समय लगे। लेकिन वो कुच्छहु  सुनने को तइयार नहीं है।


वहाँ जमा हुई अधिकांश औरतों ने सब जानते हुए भी अपना मुंह दबा लिया। गाँव की इज्जत इसी में है कि किसी तरह से वो जल्दी अपने ससुराल जाय और ई बला टले! तभी उनके बीच से भन्न से एक आवाज आयी "जबरा मारे रोवहूँ न दे"। फिर उनमें से एक ने गाभी मारते हुए कहा कि "नन्हकी के अम्मा, उसको बता दो कि लॉकडाउन में पूरा देश बंद हो गवा है... अभी एतना रोने की कवनो जरूरत नहीं है... इसके बियाह का दिन भी अऊर आगे टर जाएगा... अइसन सरकार का आदेश है। कह दो तबतक इहवाँ रह के कुछ दिन और खेले-खाए।"


(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, February 9, 2022

ये चुनाव और वह दर्द

जब-जब चुनाव आता है बड़की दीदिया बिफर पड़ती है। उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर होता है। जाने वो कौन सी टीस थी जो उसके भीतर से उमड़ पड़ती है! जब-जब पार्टी वाले गाँव में अपने प्रचार के लिए आते हैं लगता है जैसे उसे किसी बिच्छी ने डंक मार दिया हो। वो भुनभुनाना शुरू कर देती हैं- वे दोगले हमें कहीं मिल जाए तो मैं भी उनका वैसे ही कान उमेठ दूँ जैसे उस दिन मेरे चाचा-ताऊ ने घर के दरवाज़े पर मेरा उमेठा था। बहुत पूछने पर बताने लगी- मेरे लड़कपन के वो चंद खूबसूरत पल कुछ ही मिनटों बाद किस प्रकार कभी न भूल सकने वाले दर्द में तब्दील हो गये जिसे मैं अपने जीवन में आजतक ढो रही हूँ। और वे हैं कि हर पाँच साल बाद एक नए चुनाव चिन्ह के साथ खड़े हो जाते हैं।

 

आज की तारीख़ में माइक देखते ही मुझे उनकी मोटी-मोटी घूरती आँखेकड़कती आवाजें याद आने लगती हैं। मेरे कान वैसे ही गरम होने लगते हैं जैसे उस दिन मेरे हाथों में इन्हीं नेताओं ने अपनी माइक पकड़ा दी थी और कहा था कि- बिटियातुम इस माइक में अपने गाँव वालों से मेरे लिए वोट माँगकर भारी मतों से विजयी बनाने की अपील करो। 

 

मैं ठहरी नादानमुझे नहीं मालूम था कि वे लोग हमारे विरोधी पार्टी के हैं। पहली बार मेरे हाथ माइक लगा था। उत्साह वश मैंने गाँव के बीच खड़े होकरगला फाड़-फाड़ के अपने गाँव के लोगों से विरोधी पार्टी को वोट देने की अपील कर दिया। फिर क्या था! मेरी आवाज़ मेरे घर के आँगन तक पहुँच गई। उस भरी सभा से बड़े प्यार से मुझे घर बुलवाया गया। इतने प्यार से बुलावा आया था कि डर तो मैं तभी गई थी कि हो न होआज घर में मुझे विशेष पूजा मिलनी है। लेकिन अपनी ग़लतियों का एहसास इस बार भी नहीं हो रहा था। क्योंकि बचपन में गाँव में घूमते-खेलते वक्त जब भी इतने प्यार से मेरी माता का बुलावा आता थामन एक अनहोनी से भर उठता था क्योंकि, ऐसा तभी होता था जब मैं अनजाने में कोई भूल कर बैठती थी। उस वक्त हमारे लिए यही बहुत बड़ी बात थी कि अनजान लोगों के सामने हम कूटे नहीं जाते थे । 

 

हिसाब अभी बाक़ी था। घर पर पहुँचते ही दरवाज़े पर चाचा खड़े मिले। अपना हाथ मेरे गाल के सामने ऐसे बढ़ाए कि मानो अब बहुत जल्द मुझे दिन में तारे नज़र आने वाले हैं। लेकिन एक चपेट लगाने की धमकी देते हुए उन्होंने दूसरे हाथ से मेरा कान पकड़कर उमेठ दिया। और भविष्य में कभी भी उनका प्रचार न करने की हिदायत देते हुए मुझे घर के बाक़ी बड़ों के सामने सौंप दिया।

 

तब क्या था! जिसने भी सुनाबारी-बारी से लगभग सबने मेरा कान उमेठा और आगे ऐसी गलती न करूँइसकी क़सम खिलाई। दुःख तब और बढ़ गया जब मैंने देखा कि मुझसे छोटे मेरे भाई-बहन मेरी इस दशा पर कनखियों से ताक-ताक कर अपना मुँह दबाकर मुझ पर हँस रहे थे।

 

अब फिर वही चुनाव आ गया। प्रत्येक पार्टी का चुनाव प्रचार चरम पर है। माइक भी वही है और नेताजी भी वही दिख रहे हैंपर उनका चुनाव चिन्ह बदल गया है। अब वो हमारे ख़ेमे में आ चुके हैं। जी तो करता है कि मैं नेताजी का और इनके आकाओं का वैसे ही कान उमेठ दूँ जैसे बचपन में घरवालों ने मेरा उमेठा था।

 

ऐसे कैसे भुला दूँ कि किस प्रकार इन लोगों ने मेरे भोले से मन को कितना आघात पहुँचाया था। कैसे भूल जाऊं कि मुझे इसलिए सजा दी गयी थी कि इन्होनें मेरे भोलेपन और विश्वास का लाभ उठाया था और अब हमारे साथ आ जुड़े हैं, हमारी पार्टी के हो गये हैं। हमें तो उस दर्द से अपनी पार्टी के प्रति कर्तव्य-निष्ठ होने का पाठ सिखा दिया गया था। पर पार्टी है कि हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। शायद ये पार्टियाँ भावनाओं से बहुत ऊपर होती हैं , और किसी के दर्द से भी।”


(रचना त्रिपाठी)